Shivbhakt Vaishvanar Ki Katha Bhaktmal Ki Kathaen Dvara Rachit
hShivbhakt Vaishvanar Ki Katha
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शिवभक्त वैश्वानर
प्राचीन कालमें पुण्यसलिला नर्मदाके पावन तटपर नर्मपुर नामक एक अति रमणीय छोटा-सा गाँव था। उसमें विश्वानर नामक एक पुण्यात्मा ब्रह्मचारी रहत थे। उनके मुखपर ब्रह्मतेज था, इन्द्रियाँ वशमें थीं, हृदय पवित्र था और वे प्रायः स्वाध्यायमें लगे रहते थे। वे भगवान् शङ्करके अनन्य भक्त थे। जब उन्होंने ब्रह्मचर्याश्रममें वेद-वेदाङ्गोंका अध्ययन पूरा कर लिया, तब उनकी व्यवहारक्षेत्रमें उतरनेकी इच्छा हुई। विश्वानरने मनमें विचार किया कि ‘गृहस्थाश्रम ही अन्य तीन आश्रमोंका आधार है। देवता, पितर, मनुष्य और पशु-पक्षी भी गृहस्थोंका ही आश्रय लेते हैं। स्नान, हवन और दान गृहस्थके लिये आवश्यक धर्म हैं। इस आश्रममें जपके लिये भी कोई बाधा नहीं है। shivbhakt vaishvanar ki katha चित्त स्वभावसे ही चञ्चल है। गृहस्थका चित्त एक स्त्रीमें बँधा रहता है। चरित्रकी रक्षाके लिये धर्मपत्नी उसका कवच है। यदि मैं विवाह नहीं करूँ, हठसे, लोकलाजसे अथवा स्वार्थवश ब्रह्मचारीके ही वेशमें रहूँ और मेरे मनमें बुरी वासनाएँ आयें-आती रहें तो मेरा वह ब्रह्मचर्य किस कामका? यदि गृहस्थ परस्त्रीपर कुदृष्टि न डाले, अपनी स्त्रीसे ही सन्तुष्ट रहे और ऋतुकालमें सहवास करे तो वह गृहस्थ होनेपर भी ब्रह्मचारी ही हैजो राग-द्वेषसे रहित होकर सदाचारपूर्वक गृहस्थजीवन व्यतीत करता है, वह वानप्रस्थसे भी श्रेष्ठ है। क्षणिक वैराग्यके आवेशमें आकर कोई घर छोड़ दे और घरकी बातोंका ही चिन्तन करता रहे तो उसे त्यागका कोई फल नहीं मिलता। जो गृहस्थ किसीसे किसी वस्तुकी याचना नहीं करता, भगवान् जिस परिस्थितिमें रखें, उसीमें प्रसन्न रहता है, वह उन संन्यासियोंसे बहुत ही उत्तम है, जो भोजनके अतिरिक्त किसी भी वस्तुकी भिक्षा माँगते हैं। अतएव मुझे गृहस्थाश्रमको ही स्वीकार करना चाहिये।’shivbhakt vaishvanar ki katha
तदनन्तर शुभ मुहूर्तमें उन्होंने अपने अनुरूप कुलीन कन्यासे विवाह किया और गृहस्थधर्मके अनुसार सदाचारका पालन एवं भगवान्का स्मरण-चिन्तन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उनकी पत्नीका नाम शुचिष्मती था। वे अपने पतिको ही भगवान्का स्वरूप मानकर उनकी सेवा करती थीं। पञ्च-महायज्ञ-देवता, पितर और अतिथियोंकी पूजा-सेवा प्रतिदिन होती। विश्वानरके पूजा-पाठ एवं अर्थोपार्जनका समय निश्चित था। उनका प्रत्येक काम धर्मकी प्रेरणासे युक्त ही होता था। उनकी धर्मपत्नी उनके प्रत्येक कार्यमें निःसङ्कोच सहायता करती थीं। वे दो शरीर, एक प्राण थे। उनका जीवन सुखमय था। भगवान्का प्रेम दोनोंके हृदयसे छलकता रहता था। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। सन्तान न होनेसे शुचिष्मतीका मन दुःखी रहता था। उसने एक दिन पतिसे कहा। shivbhakt vaishvanar ki katha उनके मनमें आयी, इसके लिये भगवान् शङ्करकी आराधना करनी चाहिये और इसके बाद अपनी पत्नीको आश्वासन देकर उन्होंने इस कार्यके लिये काशीकी यात्रा की। काशी भगवान् शङ्करका नित्य निवासस्थान है। काशीमें पहुँचते ही विश्वानरके त्रिविध ताप शान्त हो गये, सैकड़ों जन्मोंके संस्कार धुल गये। उन्होंने गङ्गास्नान करके भगवान् शङ्करकी विविध लिङ्ग-मूर्तियोंका दर्शन और पूजन किया। यज्ञ करके सहस्र-सहस्र ब्राह्मणसंन्यासियोंको भोजन कराया। अन्तमें उन्होंने यह निश्चय किया कि भगवान् वीरेश्वरकी आराधना करनी चाहिये। अबतक बहुत-से स्त्री-पुरुषोंने वीरेश्वरकी आराधना करके अपनी-अपनी अभिलाषा पूर्ण की है। मैं इन्हींकी आराधना करूँगा, इन्हींकी सेवा-अर्चासे इन्हें पुत्ररूपमें प्राप्त करूँगा।’ ऐसा दृढ़ निश्चय करके विश्वानर भगवान्की उपासनामें लग गये। shivbhakt vaishvanar ki katha
उन्होंने तेरह महीनेतक भगवान्की पूजा की। कभी एक समय खा लेते; कभी बिना माँगे जो कुछ मिल जाता, वही खाकर रह जाते; कभी दूध पी लेते; कभी फल खा लेते; कभी कुछ नहीं खाते। एक महीनेतक एक मुट्ठी तिल प्रतिदिन खाकर रह गये। किसी महीनेमें पानी ही पीकर रह गये तो किसी महीने में वह भी नहीं। इस प्रकार घोर तपस्या करते हुए उन्होंने बारह महीने व्यतीत किये। तेरहवें महीने एक दिन प्रात:काल ही गङ्गास्नान करके भगवान्की पूजा करनेके । उन्होंने जब मूर्तिकी ओर देखा, तब बीचो-बीच लिङ्गमें एक बालक दिखायी पड़ा। आठ वर्षकी अवस्था मालूम पड़ती थी। सब अङ्गोंमें भस्म लगा हुआ था। बड़ी-बड़ी आँखें थीं, लाल-लाल अधर थे, सिरपर पीली जटा और मुखपर हँसी थी। बालकोचित वेश था, शरीरपर वस्त्र नहीं था। लीलापूर्ण हँसीसे चित्तको मोह रहा था। यह बालक बालक नहीं, साक्षात् भगवान् शङ्कर थे। विश्वानर अपने इष्टदेवको पहचानकर उनके चरणोंपर गिर पड़े और आँखोंके जलसे उनका अभिषेक किया। रोमाञ्चित शरीर एवं गद्गद कण्ठसे अञ्जलि बाँधकर उन्होंने स्तुति की और उनके चरणोंपर गिर पड़े। भगवान् शङ्करने कहा-‘तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो।’ विश्वानरने कहा-‘प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं; आपके लिये अज्ञात क्या है? एक तो मैंने इच्छा करके ही अपराध किया; दूसरे, अब आप याचना करनेको कह रहे हैं! याचना तो दीनताकी मूर्ति है। आप जान-बूझकर मुझे इसके लिये क्यों प्रेरित कर रहे हैं ?’ भगवान् शङ्करने कहा–’तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होगी। शुचिष्मतीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये तुमने जो तपस्या की है, वह सर्वथा उचित है। मैं एक रूपसे तुम्हारा पुत्र बनूँगा। मेरा नाम गृहपति, अग्नि अथवा वैश्वानर होगा।’ इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और विश्वानर बड़े आनन्दके साथ भगवान्का स्मरण करते हुए अपने घर लौट आये। shivbhakt vaishvanar ki katha
समयपर शुचिष्मती गर्भवती हुईं। विश्वानरने शास्त्रके अनुसार सभी संस्कार किये। जिस दिन पुत्रजन्म हुआ, उस दिन सब दिशाएँ आनन्दसे परिपूर्ण हो गयीं। नवजात शिशुका जातकर्म-संस्कार और श्रुतिके अनुसार नामकरण किया गया। शिशुका नाम गृहपति रखा गया। पाँचवें वर्ष यज्ञोपवीत-संस्कारके साथ ही कुमारका वेदाध्ययन प्रारम्भ हुआ। कुल तीन वर्षके समयमें समस्त शास्त्रोंका साङ्गोपाङ्ग अध्ययन करके-जब कि दूसरोंके लिये इतने अल्पकालमें उनका परायण भी असम्भव है-वैश्वानर अपने पिताके पास लौट आये और उन्होंने अपने विनय, सेवा, सहिष्णुता आदिसे न केवल अपने माता-पिताको, बल्कि सभी लोगोंको चकित कर दिया। बालकोंका एकमात्र कर्तव्य है-माता-पिताकी सेवा, उनकी आज्ञाका पालन और सबके साथ विनयका व्यवहार। वैश्वानर इसके आचार्य थे, आदर्श थे। विद्याके साथ विनय भी चाहिये, यही मणि-काञ्चनसंयोग है। shivbhakt vaishvanar ki katha
एक दिन घूमते-घामते देवर्षि नारद नर्मपुरमें विश्वानरके घर आये। शुचिष्मती और विश्वानरने प्रेम और आनन्दसे भरकर उनका आतिथ्य-सत्कार किया। वैश्वानर गृहपतिने आकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। देवर्षि नारदने आशीर्वाद देकर विश्वानरसे बालककी प्रशंसा करते हुए कहा–’तुम्हारा दाम्पत्य-जीवन धन्य है! यह तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हें ऐसा आज्ञाकारी पुत्र प्राप्त हुआ है। पुत्रके लिये तो इससे बढ़कर और कोई कर्तव्य ही नहीं है। उसके लिये माता-पिता ही गुरु और देवता हैं, उनकी सेवा ही सदाचार है। उनके चरणोंका जल ही तीर्थ है। पुत्रके लिये संसारमें पिता ही परमात्मा है, पितासे भी बढ़कर माता है; क्योंकि दस महीनेतक पेटमें रखना और बचपनमें पालन-पोषण करना माताका ही काम है। गङ्गाके पवित्र जलसे अभिषेक करनेपर भी वैसी पवित्रता नहीं प्राप्त होती, जैसी माताके चरणामृतके स्पर्शसे प्राप्त होती है! संन्यास लेनेपर पुत्र पिताके लिये वन्दनीय हो जाता है, परंतु माता संन्यासी पुत्रके लिये भी वन्दनीया ही रहती है। तुम दोनों धन्य हो, क्योंकि तुम्हें ऐसा पुत्ररत्न प्राप्त हुआ है।’ देवर्षि नारद जब यह कह रहे थे, माता-पिताके हृदयमें कितना हर्ष हुआ होगा-इसका अनुमान कौन कर सकता है। shivbhakt vaishvanar ki katha
देवर्षि नारदने वैश्वानरको अपने पास बुलाते हुए कहा-‘बेटा! आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ, मैं तनिक तुम्हारे शरीरके लक्षणोंको तो देखू।’ माता-पिताकी आज्ञासे वैश्वानर देवर्षि नारदको प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे उनकी गोदमें बैठ गये। देवर्षि नारदने शरीरका एक-एक लक्षण देखा; तालू, जीभ और दाँत भी देखे। इसके पश्चात् गौरी-शङ्कर और गणेशको नमस्कार करके कुङ्कुमसे रँगे हुए सूतसे उत्तर मुँह खड़े हुए बालकको पैरसे लेकर सिरतक नाप लिया। उसके बाद कहा-‘हे विश्वानर! एक सौ आठ अङ्गुल जिसके शरीरका परिमाण होता है, वह लोकपाल होता है! तुम्हारा बालक वैसा ही है। इसके शरीरमें उत्तम पुरुषके बत्तीसों लक्षण मिलते हैं। इसके पाँच अङ्ग दीर्घ हैं-दोनों नेत्र, ठोड़ी, जानु और नासिका। पाँच अङ्ग सूक्ष्म हैं-त्वचा, केश, दाँत, उँगलियाँ और उँगलियोंकी गाँठें। इसके तीन अङ्ग ह्रस्व हैं-ग्रीवा, जङ्घा और मूत्रेन्द्रिय। स्वर, अन्त:करण और नाभि-ये तीन गम्भीर हैं। इसके छ: स्थान ऊँचे हैं-वक्षःस्थल, उदर, मुख, ललाट, कंधे और हाथ। इसके सात स्थान लाल हैं-दोनों हाथ, दोनों आँखोंके कोने, तालु, जिह्वा, ओष्ठ, अधर और नख। तीन स्थान विस्तीर्ण हैं-ललाट, कटि और वक्षःस्थल। इन लक्षणोंसे यह सिद्ध होता है कि यह बालक महापुरुष है।’ shivbhakt vaishvanar ki katha
देवर्षि नारदने इनके अतिरिक्त माता-पिताको और बहुत-से लक्षण दिखाये, जिनसे इस बालककी असाधारणता सिद्ध होती थी। माता-पिता सुनते-सुनते अघाते न थे। वे चाहते थे देवर्षि और कुछ कहें। देवर्षिने भी अपनी ओरसे कोई बात उठा न रखी। देवर्षिने अन्तमें कहा-‘इस बालकमें सब गुण हैं, सब लक्षण हैं; यह निष्कलङ्क चन्द्रमा है; फिर भी ब्रह्मा इसे छोड़ेंगे नहीं। विधाताके विपरीत होनेपर सारे गुण दोष बन जाते हैं। अभी इसका नवाँ वर्ष चल रहा है, बारहवें वर्ष विद्युत्के द्वारा इसकी मृत्यु हो सकती है।’ इतना कहकर देवर्षि नारद आकाशमार्गसे चले गये। माता-पिताके हृदयपर तो मानो अभी वज्रपात हो गया। वैश्वानरने देखा, मेरे मा-बाप बहुत दुःखी हो रहे हैं। उन्होंने मुसकराकर कहा-मा! तुमलोग इतने डर क्यों गये? तुम्हारे चरण-कमलोंकी धूलि जब मैं अपने सिरपर रखे रहूँगा shivbhakt vaishvanar ki katha
तब काल भी मेरा स्पर्श नहीं कर सकता-वज्रमें तो रखा ही क्या है। मेरे अनन्य स्नेही पूजनीयो! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ तो ऐसा काम कर दिखाऊँगा कि वज्र और मृत्यु दोनों मुझसे भयभीत रहेंगे। मैं भगवान् मृत्युञ्जयकी आराधना करूँगा। वे कालके भी काल हैं, उनकी कृपासे कुछ भी असम्भव नहीं है।’ वैश्वानरकी वाणी क्या थी, अमृतकी वर्षा थी। माता-पिताका हृदय शीतल हो गया। उनके सुखकी सीमा न रही। वे बोले-‘भगवान् शङ्कर बड़े दयालु हैं। उन्होंने एक नहीं, अनेकोंकी रक्षा की है। प्रलयकी धधकती हुई आग वह हलाहल विष-जिसकी ज्वालासे त्रिलोकी भस्म हो जाती-करुणापरवश होकर भगवान् शङ्कर पी गये! उनसे बढ़कर दयालु और कौन हो सकता है। जाओ, तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। उनका आराधन ही जीवनकी पूर्णता है।’ वैश्वानरने पिता-माताके चरणोंमें प्रणाम किया, उन्हें आश्वासन दिया और प्रदक्षिणा करके काशीकी यात्रा की। shivbhakt vaishvanar ki katha
वैश्वानरका हृदय काशीके दर्शनमात्रसे खिल उठा। मणिकर्णिकाघाटपर स्नान करके विश्वेश्वरका दर्शन किया-इतना सुन्दर, इतना मनोहर दर्शन ! मानो परमानन्द ही उस लिङ्गके रूपमें प्रकट हो गया हो। वैश्वानरने सोचा-‘मैं धन्य हूँ, त्रिलोकीके सारसर्वस्व शङ्करका दर्शन करके। मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मैं अपने प्रभुके दर्शनसे सनाथ हुआ। देवर्षि नारदने मुझपर बड़ी कृपा की, जिससे जीवनका यह परम लाभ मुझे प्राप्त हुआ। मैं अब कृतकृत्य हूँ।’ वैश्वानरके हृदयमें आनन्दमय भावोंकी बाढ़ आ गयी। भगवान्की भक्तिका रहस्य भगवान् ही जानते हैं। अल्पज्ञ जीव अनन्त प्रेमार्णवके एक सीकरकी भी तो कल्पना नहीं कर सकता। इसीसे करुणापरवश भगवान भक्तके वेशमें आते हैं। भक्त कभी भगवान्से विभक्त नहीं होते। चाहे भगवान् भक्तके हृदयमें प्रकट होकर प्रेमकी लीला करें, चाहे भक्तके रूपमें-दोनोंमें एक ही बात है। आज साक्षात् शङ्कर भी जीवोंके कल्याणके लिये भक्तोंका साज सज रहे हैं! यह उनके लिये तो एक लीला है; परंतु जीवोंके लिये भक्ति-भावनाका, आराधनाका एक सुन्दर आदर्श है। इस मार्गपर चलकर भला, कौन नहीं अपना कल्याण-साधन कर सकता। shivbhakt vaishvanar ki katha
वैश्वानरने शुभ मुहूर्तमें शिवलिङ्गकी स्थापना की। पूजाके बड़े कठोर नियम स्वीकार किये। प्रतिदिन गङ्गाजीसे एक सौ आठ घड़े जल लाकर चढ़ाना, एक हजार आठ नीले कमलोंकी माला चढ़ाना, छ: महीनेतक सप्ताहमें एक बार कन्द-मूल खाकर रह जाना, छः महीनेतक सूखे पत्ते खाना, छः महीनेतक जल और छ: महीनेतक केवल हवाके आधारपर रहना। जप, पूजा, पाठ, निरन्तर भगवान् शङ्करका चिन्तन। सरल हृदय भक्ति-भावनाओंसे परिपूर्ण। कभी भगवान्की कर्पूरधवल, भस्मभूषित, सर्पपरिवेष्टित दिव्यमूर्तिका ध्यान, तो कभी करुणापूर्ण हृदयसे गद्गद प्रार्थना। दो वर्ष बीत गये पलक मारते-मारते। सुखके दिन, सौभाग्यके दिन यों ही बीत जाया करते हैं। shivbhakt vaishvanar ki katha
एक दिन जब वैश्वानरका बारहवाँ वर्ष चल रहा था, मानो नारदकी बात सत्य करनेके लिये हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्र आये। उन्होंने कहा-‘वैश्वानर! मैं तुम्हारी नियम-निष्ठासे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे हृदयमें जो अभिलाषा हो, मुझसे कहो; मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।’ वैश्वानरने बड़े ही कोमल स्वरमें कहा-‘देवेन्द्र! मैं आपको जानता हूँ, आप सब कुछ कर सकते हैं; परंतु मेरे स्वामी तो एकमात्र भगवान् शङ्कर हैं, मैं उनके अतिरिक्त और किसीसे वर नहीं ले सकता।’ इन्द्रने कहा-‘बालक! तू मूर्खता क्यों कर रहा है? मुझसे भिन्न – शङ्करका कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ही देवाधिदेव हूँ। जो तुझे चाहिये, मुझसे माँग ले।’ वैश्वानरने कहा-‘इन्द्र! आपका चरित्र किससे छिपा है। shivbhakt vaishvanar ki katha
मैं तो शङ्करके अतिरिक्त और किसीसे वर नहीं माँग सकता।’ इन्द्रका चेहरा लाल हो गया। उन्होंने अपने हाथमें स्थित भयङ्कर वज्रसे वैश्वानरको डराया। वज्रकी भीषण आकृति देखकर, जिसमेंसे विद्युत्की लपटें निकल रही थीं, वैश्वानर मानो मूर्छित हो गये। ठीक इसी समय भगवान् गौरीशङ्करने प्रकट होकर अपने कर-कमलोंके अमृतमय संस्पर्शसे वैश्वानरको उज्जीवित करते हुए कहा–’बेटा! तुम्हारा कल्याण हो ! उठो, उठो; देखो तो सही तुम्हारे सामने कौन खड़ा है।’ उस सुधा-मधुर वाणीको सुनकर वैश्वानरने अपनी आँखें खोलीं और देखा कि कोटिकोटि सूर्यके समान प्रकाशमान भगवान् शङ्कर सामने खड़े हैं। ललाटपर लोचन, कण्ठमें कालिमा, बायीं ओर जगज्जननी पार्वती। जटामें स्थित चन्द्रमाकी किरणें आनन्दकी वर्षा कर रही थीं। कर्पूरोज्ज्वल शरीरपर गजचर्मका आच्छादन और साँपोंके आभूषण! आनन्दके उद्रेकसे वैश्वानरका गला भर आया, शरीर पुलकायमान हो गया, बोलनेकी इच्छा होनेपर भी जबान बंद हो गयी। वैश्वानर चित्रलिखेकी भाँति स्थिर हो गया। अपनेआपको भी भूल गया। न नमस्कार, न स्तोत्र और न तो प्रार्थना। एक ओर गौरी-शङ्कर और दूसरी ओर वैश्वानर! वैश्वानर चकित था, भगवान् शङ्कर मुसकरा रहे थे। shivbhakt vaishvanar ki katha
भगवान् शङ्करने मौन भङ्ग किया। वे बोले-‘बाल वैश्वानर! क्या तुम इन्द्रका वज्र देखकर भयभीत हो गये ? डरो मत, मैंने ही इन्द्रका रूप धारण करके तुम्हें परखना चाहा था। जो मेरे प्रेमी भक्त हैं, वे तो मेरे स्वरूप ही हैं; और तुम, तुम तो मेरे स्वरूप हो ही। इन्द्र, वज्र अथवा यमराज मेरे भक्तका बाल भी बांका नहीं कर सकते। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मैं पूर्ण कर सकता हूँ। तुम्हें मैंने अग्निका पद दिया। तुम समस्त देवताओंके मुख बनोगे। सब देवता तुम्हारे द्वारा ही अपना-अपना भाग ग्रहण कर सकेंगे। समस्त प्राणियोंके शरीरमें तुम्हारा निवास होगा। पूर्व दिशाके अधिपति इन्द्र हैं और दक्षिण दिशाके यमराज। तुम दोनोंके बीचमें दिक्पाल-रूपसे निवास करो। तुम आजसे आग्नेय कोणके अधिपति हुए। अपने पिता, माता और बन्धुजनोंके साथ विमानपर चढ़कर तुम अग्निलोकमें जाओ और अपने पदके अनुसार कार्य करो।’ भगवान् शङ्करके इतना कहते ही वैश्वानरके माता-पिता, बन्धु-बान्धव सब वहाँ उपस्थित हो गये। सबके साथ भगवान् शङ्करके चरणोंमें नमस्कार करके वैश्वानर अग्नि अपने लोकको चले गये और भगवान् शङ्कर उसी लिङ्गमें समा गये, जिसकी पूजा वैश्वानर किया करते थे। भगवान् शङ्करने स्वयं उस लिङ्गकी बड़ी महिमा गायी है। shivbhakt vaishvanar ki katha
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