Shivbhakt Mahakal Ki Katha Bhaktmal Ki Kathaen
Shivbhakt Mahakal Ki Katha
शिवभक्त महाकाल
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प्राचीनकालमें वाराणसी नगरीमें माण्टि नामके एक महायशस्वी ब्राह्मण रहते थे। वे शिवजीके बड़े भक्त थे और सदा शिवमन्त्रका जप किया करते थे। प्रारब्धवश उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उन्होंने पुत्रकी कामनासे दीर्घकालतक शिवमन्त्र-जपका अनुष्ठान किया। एक दिन भगवान् शङ्कर उनकी तपश्चर्यासे प्रसन्न हो उनके सामने प्रकट हुए और बोले-‘वत्स माण्टि! मैं तुम्हारी आराधनासे प्रसन्न हूँ। तुम्हारा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा और तुम्हें मेरे ही समान प्रभावशाली एवं शक्तिसम्पन्न मेधावी पुत्ररत्न प्राप्त होगा, जो तुम्हारे समग्र वंशका उद्धार करेगा।’ यों कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये और माण्टि भगवान् शङ्करके योगिदुर्लभ, नयनाभिराम रूपका दर्शन करके और उनसे मनचाहा वरदान पाकर अत्यन्त हर्षित हुए। shivbhakt mahakal ki katha
माण्टिकी पत्नीका नाम चटिका था। वह महान् पतिव्रता एवं तपस्याकी मानो मूर्ति ही थी। समय पाकर तपोमूर्ति ब्राह्मणपत्नी गर्भवती हुई। क्रमशः गर्भ बढ़ने लगा और उसके साथ-साथ उस सतीका तेज और भी विकसित हो उठा; किंतु पूरे चार वर्ष व्यतीत हो गये, सन्तान गर्भसे बाहर नहीं आयी। इस घटनाको देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। माण्टिने सोचा कि अवश्य ही यह कोई अलौकिक बालक है, जो गर्भसे बाहर नहीं आना चाहता। अतः वे अपनी पत्नीके पास जाकर गर्भस्थ शिशुको सम्बोधन करके कहने लगे-‘वत्स! सामान्य पुत्र भी अपने माता-पिताके आनन्दको बढ़ानेवाले होते हैं; फिर तुम तो अत्यन्त पवित्र चरित्रवाली माताके उदरमें आये हो और भगवान् शङ्करके अनुग्रहसे हमारी दीर्घकालकी तपस्याके फलरूपमें प्राप्त हुए हो। ऐसी दशामें क्या तुम्हारे लिये यह उचित है कि तुम माताको इस प्रकार कष्ट दे रहे हो और हमारी भी चिन्ताके कारण बन रहे हो? हे पुत्र! यह मनुष्यजन्म ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका साधक है। शास्त्रोंमें इसे देवताओंके लिये भी दुर्लभ बताया गया है। फिर क्यों नहीं तुम शीघ्र ही बाहर आकर हम सब लोगोंको आनन्दित करते?’
गर्भ बोला-‘हे तात! जो कुछ आपने कहा, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं यह भी जानता हूँ कि इस भूमण्डलमें मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है; परंतु मैं कालमार्गसे अत्यन्त भयभीत हूँ। वेदोंमें काल और अर्चि नामके दो मार्गोंका वर्णन आता है। कालमार्गसे जीव कर्मोंके चक्करमें पड़ जाता है और अर्चिमार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। कालमार्गसे चलनेवाले जीव चाहे पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें ही क्यों न चले जायँ, वहाँ भी उन्हें सुखकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष निरन्तर इस चेष्टामें लगे रहते हैं कि जिससे उन्हें इस घोररूप गम्भीर कालमार्गमें न भटकना पड़े। अतः यदि आप कोई ऐसा उपाय कर सकें, जिससे मेरा मन नाना प्रकारके सांसारिक दोषोंसे लिप्त न हो, तो मैं इस मनुष्यलोकमें जन्म ले सकता हूँ।’
गर्भस्थ शिशुकी इस शर्तको सुनकर माण्टि और भी भयभीत हो गये। उन्होंने सोचा कि भगवान् शङ्करको छोड़कर कौन इस शर्तको पूरा कर सकता है! जिन्होंने कृपा करके मेरे मनोरथको पूर्ण किया है, वे ही इस शर्तको भी पूरा करेंगे। यों सोचकर वे मन-ही-मन भगवान् शङ्करकी शरणमें गये और उनसे प्रार्थना की। माण्टिकी प्रार्थना भगवान् आशुतोषने सुन ली। उन्होंने अपने धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्यादिको मूर्तरूपमें बुलाकर कहा कि ‘देखो, माण्टिपुत्रको विपरीत ज्ञान हो गया है, अतः तुमलोग जाकर उसे समझाओ और ठीक रास्तेपर लाओ।’ भगवान् महेश्वरकी आज्ञा पा, वे विभूतियाँ साकार विग्रह धारणकर गर्भस्थ शिशुके गयीं और उसे सम्बोधित कर कहने लगीं-‘महामति माण्टिपुत्र! तुम किसी प्रकारका भय न करो। भगवान् शङ्करकी कृपासे हम धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य कभी तुम्हारे मनका परित्याग नहीं करेंगे। अतः तुम निर्भय होकर गर्भसे बाहर निकल आओ।’ यों कहकर वे चारों दिव्य मूर्तियाँ चुप हो गयीं। उनके चुप हो जानेपर अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य भी विकराल मूर्तियाँ धारणकर भगवान् शङ्करकी आज्ञासे वहाँ उपस्थित हुए तथा माण्टिपुत्रसे कहने लगे कि ‘तुम यदि हमारे भयसे बाहर न आते होओ, तो इस भयका त्याग कर दो। भगवान् शङ्करकी आज्ञासे हम तुम्हारे भीतर कदापि प्रवेश नहीं कर सकेंगे।’ shivbhakt mahakal ki katha
इस प्रकार धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य तथा उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्यकी आश्वासनवाणीको सुनते ही बालक माण्टिपुत्र अविलम्ब गर्भसे बाहर निकल आया और काँपते-काँपते रुदन करने लगा। उस समय भगवान् शङ्करकी विभूतिगण अपने स्वामी शङ्करजीके पास चले गये।
बालक कालभीति शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति क्रमशः बढ़ने लगा। पिताने क्रमशः उसके उपनयनादि संस्कार किये और उसे पाशुपतव्रतमें परिनिष्ठितकर शिव-पञ्चाक्षरमन्त्र (नमः शिवाय)-की दीक्षा दी। कालभीति अपने पिताके समान ही पञ्चाक्षरमन्त्रके परायण हो गये। उन्होंने तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे विविध रुद्रक्षेत्रोंमें भ्रमण किया और घूमते-घूमते स्तम्भतीर्थ नामक क्षेत्रमें पहुँचे, जहाँका प्रभाव उन्होंने लोगोंसे पहले ही सुन रखा था। वहाँ वे घोर तपस्या करते हुए एकाग्र मनसे रुद्रमन्त्रका जप करने लगे। उन्होंने यह नियम ले लिया कि ‘सौ वर्षतक भोजनकी तो कौन कहे, जलकी एक बूंद भी ग्रहण नहीं करूँगा।’ ज्यों ही सौ वर्ष समाप्त होनेको आये कि एक अज्ञात पुरुष जलसे भरा हुआ एक घड़ा लेकर कालभीतिके पास आया और प्रणाम करके उस तपस्वी ब्राह्मणसे कहने लगा—’हे महामति कालभीति ! आज तुम्हारा अनुष्ठान भगवान् शङ्करकी कृपासे पूर्ण हो गया है। तुम्हें भूख-प्यास सहते पूरे सौ वर्ष हो गये हैं। मैं बड़े प्रेमसे अत्यन्त पवित्र होकर यह जल तुम्हारे लिये ले आया हूँ। तुम कृपा करके इसे स्वीकार करो और मेरे श्रमको सफल करो।’
कालभीतिको वास्तवमें प्यास बहुत सता रही थी। अञ्जलिभर पानीके लिये उनके प्राण छटपटा रहे थे। परंतु सहसा एक अपरिचित व्यक्तिके द्वारा लाया हुआ जल ग्रहण करना उन्होंने उचित नहीं समझा। वे शङ्कापूर्ण नेत्रोंसे उस आगन्तुक पुरुषकी ओर देखते हुए बोले- आप कौन हैं? आपकी जाति क्या है और आपका आचार कैसा है, कृपाकर बताइये। आपकी जाति और आचारको जान लेनेके बाद ही मैं आपके लाये हुए जलको ग्रहण कर सकता हूँ।’ इसपर वह अपरिचित व्यक्ति बोला-‘तपोधन! मेरे माता-पिता इस लोकमें हैं या नहीं, इसका भी मुझे पता नहीं है। उनके विषयमें मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं सदा इसी ढंगसे रहता हूँ। आचार अथवा धर्म से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है अतः आचार की बात में क्या कह सकता हूं?सच पूछिये तो मैं किसी आचार विचार का पालन भी नहीं करता कालभीति बोले यदि ऐसी बात है तब तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। मैं आपके दिये हुए जलको ग्रहण नहीं कर सकता। इस सम्बन्धमें मेरे गुरुदेवने जो श्रुतिसम्मत उपदेश मुझे दिया है, उसे मैं आपको सुनाता हूँ। जिसके कुलका हाल अथवा रक्तशुद्धिका पता न हो, साधु व्यक्ति उसके दिये हुए अन्न-जलको ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार जो व्यक्ति भगवान्के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञान नहीं रखता और न उनकी भक्ति करता है, उसके हाथका अन्न-जल भी ग्रहण करने योग्य नहीं होता। भगवान्को अर्पण किये बिना जो व्यक्ति भोजन करता है, उसे बड़ा पाप लगता है। गङ्गाजलसे भरे हुए घड़ेमें एक बूंद मदिराके मिल जानेसे जैसे वह अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार भगवान्की भक्ति न करनेवालेका अन्न चाहे कितनी ही पवित्रतासे बनाया गया हो, अपवित्र ही होता है। परंतु यदि कोई मनुष्य शिवभक्त भी हो, परंतु उसकी जाति और आचार भ्रष्ट हों तो उसका अन्न भी नहीं खाया जाता। अन्न-जलके सम्बन्धमें शास्त्रोंमें दोनों बातोंका विचार रखा गया है। अन्न या जल-जो कुछ भी ग्रहण किया जाय, वह भगवान्को अर्पित हो और जिसके द्वारा वह अन्न अथवा जल लाया गया है, वह जाति तथा आचारकी दृष्टिसे पवित्र हो।’
कालभीतिके इन वचनोंको सुनकर वह मनुष्य हँसने लगा और बोला-‘अरे तपस्वी! तुम तप एवं विद्यासे सम्पन्न होनेपर भी मुझे नितान्त मूर्ख प्रतीत होते हो। तुम्हारी इस बातको सुनकर मुझे हँसी आती है। अरे नादान! क्या तुम नहीं जानते कि भगवान् शिव सभी भूतोंके अंदर समानरूपसे निवास करते हैं? ऐसी दशामें किसीको पवित्र और किसीको अपवित्र कहना कदापि उचित नहीं है। अपवित्र कहकर किसीकी निन्दा करना प्रकारान्तरसे उसके अंदर रहनेवाले भगवान् शङ्करकी ही निन्दा करना है। जो मनुष्य अपने अथवा दूसरेके अंदर भगवान्की सत्ताके सम्बन्धमें सन्देह करता है, मृत्यु उस भेदज्ञानी मनुष्यके लिये विशेष रूपसे भयदायक होती है। फिर जरा विचारो तो सही कि जल में अपवित्रता आ ही कैसे सकती है। जिस पात्र में इसे मैं ले आया हूं। वह मिट्टी का बना हुआ है मिट्टी भी ऐसी वैसी नहीं किंतु अवे की आग में भली-भांति तपाई हुई और फिर वह जल के द्वारा शुद्ध हो चुकी है। मृत्तिका, जल और अग्नि-इनमेंसे कौन-सी वस्तु अपवित्र है? यदि कहो कि हमारे संसर्गसे यह जल अपवित्र हो गया है, तो यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि तुम और हम दोनों ही इस मिट्टीसे ही तो बने हैं और मिट्टीपर ही सदा रहते हैं। मेरे संसर्गसे यदि जल अशुचि हो सकता है तो जिस जमीनपर मैं खड़ा हूँ, वह जमीन भी मेरे संसर्गसे अपवित्र हो जानी चाहिये। तब तो तुम्हें भूमिको छोड़कर आकाशमें विचरण करना होगा। इन सब बातोंपर विचार करनेसे तुम्हारी उक्ति मुझे नितान्त मूर्खतापूर्ण प्रतीत होती है।’
कालभीतिने कहा-‘अवश्य ही भगवान् शङ्करका सभी भूतोंमें निवास है। परंतु इस बातको लेकर जो सब भूतोंकी व्यवहारमें समानता करता है, वह अन्नादिका परित्याग करके मृत्तिका अथवा भस्मसे उदरपूर्ति क्यों नहीं करता? क्योंकि उसके मतानुसार अन्नमें जो भगवान् हैं, वे ही तो मृत्तिका और भस्ममें भी हैं। परंतु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं। परमार्थ-दृष्टिसे सब कुछ शिवरूप होनेपर भी व्यवहारमें भेद आवश्यक है। इसीलिये शास्त्रमें नाना प्रकारकी शुद्धिके विधान पाये जाते हैं और उनके फल भी अलग-अलग निर्दिष्ट हुए हैं। शास्त्रकी आज्ञाके विरुद्ध आचरण करना कदापि उचित नहीं है। जो शास्त्र भगवान् शिवकी सत्ता सर्वत्र बतलाते हैं, वे ही व्यवहारमें भेदका भी विधान करते हैं। शास्त्रकी एक बात तो मानी जाय और दूसरी न मानी जाय, यह कहाँतक उचित है। दोनों ही बातें अपनी-अपनी दृष्टिसे ठीक हैं और दोनोंकी परस्पर सङ्गति भी है।’
‘श्रुति कहती है कि बाहर-भीतरकी पवित्रता रखो। इसी बातको इतिहास-पुराण इन शब्दोंमें कहते हैं-यदि परलोकमें सुखी रहना चाहते हो और कष्टोंसे बचना चाहते हो, तो शौचाचारका पालन करो। पृथ्वीपर रहनेवाले व्यक्तियोंके लिये शौचाचारका पालन अवश्यकर्तव्य है shivbhakt mahakal ki katha
ऐसी दशामें यदि आप श्रुतियोंकी अवहेलना करके ‘सब कुछ शिवमय है’ यह कहकर व्यवहारके भेदको मिटाना चाहते हैं तो फिर बताइये, क्या श्रुति-पुराणादि शास्त्र व्यर्थ नहीं हो जायँगे? आप जो यह कहते हैं कि भगवान् शिव सभी भूतोंमें स्थित हैं, यह ठीक है। भगवान् शिव सर्वत्र हैं, यह बात अक्षरशः सत्य है। फिर भी व्यक्तिभेदसे उनकी सत्तामें भी भेद कहा जा सकता है। इसके लिये मैं आपको एक दृष्टान्त देता हूँ। यद्यपि सभी सोनेके गहने सुवर्ण नामकी एक ही धातुसे बने हुए होते हैं, तब भी सबका सोना एक ही दामका अथवा एक ही रंगका नहीं होता। उनमेंसे एकका सोना एकदम शुद्ध-टकसाली होता है, दूसरेका उसकी अपेक्षा कुछ नीचे दर्जेका होता है और तीसरेका और भी निकृष्ट होता है। परंतु यह तो मानना ही पड़ेगा कि सभी सुवर्णके गहनोंमें सोना मौजूद है। साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा कि सभी गहनोंका सोना एकसा नहीं है। इसी प्रकार भगवान् शिव भी सब भूतोंमें हैं अवश्य; परंतु एकके अंदर उनका प्रकाश अत्यन्त शुद्ध है, दूसरेके अंदर वह उतना शुद्ध नहीं है और तीसरेके अंदर वह और भी मलिन है। इस प्रकार समस्त पदार्थों में व्यवहारकी दृष्टिसे समता नहीं की जा सकती। जिस प्रकार निकृष्ट श्रेणीका सोना दाहादिके द्वारा शोधित होकर क्रमशः उत्कर्षको प्राप्त होता है, उसी प्रकार मलिन अन्तःकरण तथा मलिन देहवाले जीव शौचादिके द्वारा शुद्ध होकर ही शुद्ध शिवत्वके अधिकारी होते हैं। सामान्य शौचादिके द्वारा सहसा शुद्ध शिवत्वका लाभ सम्भव नहीं है, इसीलिये शास्त्रोंमें देह-शोधनकी आवश्यकता बतायी गयी है। देह शोधित होनेपर ही देही स्वर्गादि उच्च लोकोंको प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार जो बुद्धिमान् पुरुष देहशोधनकी इच्छा रखते हैं, वे चाहे जिस व्यक्तिसे अन्न-जल नहीं ग्रहण करते। इसके विपरीत जो लोग शौचाचारका विचार न करके चाहे जिसका अन्न-जल ग्रहण कर लेते हैं, वे पवित्र आचरणवाले होनेपर भी कुछ ही समयमें तमोगुणसे आच्छन्न होकर जडीभूत हो जाते हैं। इसलिये मैं आपका यह जल ग्रहण नहीं कर सकता। इसके लिये आप मुझे क्षमा करें।’ shivbhakt mahakal ki katha
तपस्वीके इस शास्त्रानुमोदित एवं युक्तियुक्त भाषणको सुनकर वह अज्ञात मनुष्य चुप हो गया। उसने पैरके अँगूठेसे बात-की-बातमें एक बड़ा-सा गड्ढा खोद डाला और उसमें उस मटकेके जलको उँड़ेल दिया। वह बड़ा गड्ढा उस थोड़ेसे जलसे लबालब भर गया, फिर भी थोड़ा जल उस मटकेमें बच रहा। उस बचे हुए जलसे उसने निकटवर्ती एक सरोवरको भर दिया। इस अद्भुत व्यापारको देखकर कालभीति तनिक भी विस्मित नहीं हुए। उन्होंने सोचा, भूतादिकी उपासना करनेवाले बहुधा इस प्रकारकी आश्चर्यजनक घटनाएँ कर दिखाया करते हैं; परंतु इस प्रकारके आश्चर्योंसे श्रुतिमार्गमें कोई विरोध नहीं आ सकता। भक्त कालभीतिके दृढ़ निश्चयको देखकर वह अपरिचित व्यक्ति सहसा जोरसे हँसता हुआ अन्तर्धान हो गया। कालभीति भी यह देखकर आश्चर्यमें डूब गये और उस व्यक्तिके सम्बन्धमें नाना प्रकारके ऊहापोह करने लगे। इस प्रकार जब वे विचारमें डूबे हुए थे कि उनकी दृष्टि सहसा उस बिल्ववृक्षके मूलकी ओर गयी। वहाँ उन्होंने देखा कि एक विशाल शिवलिङ्ग अकस्मात् प्रादुर्भूत हो गया है। उसके तेजसे दसों दिशाएँ उद्भासित हो उठी हैं। आकाशमें गन्धर्वगण सुमधुर गान कर रहे हैं और अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। देवराज इन्द्र उसके ऊपर पारिजातके पुष्पोंकी वर्षा कर रहे हैं तथा अन्यान्य देवता एवं मुनिगण भी जयजयकार करते हुए नाना प्रकारसे भगवान् शङ्करकी स्तुति कर रहे हैं। इस प्रकार वहाँ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। कालभीतिने भी अत्यन्त आनन्दित होकर उस स्वयम्भू लिङ्गको प्रणाम किया और स्तुति करते हुए कहा’
जो पापराशिके काल हैं, संसाररूपी कर्दमके काल हैं, तथा कालके भी काल हैं, उन कलाधर, कालकण्ठ महाकालकी मैं शरण आया हूँ। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। हे शिव! आपसे ही उत्पन्न हुआ है और आप स्वयं अनादि हैं। जहाँ-जहाँ जिस-जिस योनिमें मैं जन्म लेता हूँ, वहाँ-वहाँ आप मेरे ऊपर करुणाकी निरन्तर वर्षा करते हैं। हे ईश्वर! जो संसारसे विरक्त होकर आपके षडक्षर मन्त्रका जप करते हैं, आप उन समस्त मुनिगणोंपर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। हे प्रभो! मैं उसी ‘ॐ नमः शिवाय’ इस षडक्षर यह संसार मन्त्रका निरन्तर जप करता हूँ।’ shivbhakt mahakal ki katha
भक्त श्रेष्ठ कालभीतिकी स्तुतिको सुनकर भगवान् शङ्कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे उसी लिङ्गमेंसे अपने स्वरूपमें प्रकट हो गये और दिव्य प्रकाशसे त्रिलोकीको प्रकाशित करते हुए उस ब्राह्मणसे बोले-‘द्विज श्रेष्ठ ! तुमने इस महीतीर्थमें कठोर तपस्याके द्वारा जो मेरी आराधना की है, इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। अब मेरी कृपासे काल भी तुम्हारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा। मैंने ही मनुष्य-शरीर धारण करके तुम्हारे विश्वासकी परीक्षा ली थी और मुझे हर्ष है कि उस परीक्षामें तुम पूर्णतया सफल हुए। तुम्हारे-जैसे दृढविश्वासी पुरुष जिस धर्मका आचरण करते हैं, वही धर्म वास्तवमें श्रेष्ठ है। मैं तुम्हारे लिये जो जल ले आया था, वह समस्त तीर्थों का जल है और अत्यन्त पवित्र है। मैंने उसके द्वारा ही उस गड्ढे एवं सरोवरको भरा है। अब तुम मुझसे अपना अभिलषित वर माँगो। तुम्हारी आराधनासे मैं इतना अधिक प्रसन्न हुआ हूँ कि तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय न होगा।’shivbhakt mahakal ki katha
कालभीतिने कहा-‘प्रभो! आपने मेरे प्रति जो प्रसन्नता प्रकट की है, उससे मैं वास्तवमें धन्य हो गया हूँ। वास्तवमें धर्म वही है, जिससे भगवान्की प्रसन्नता सम्पादित होती है। जिस धर्मसे आप भगवान्की सन्तुष्टि नहीं होती, वह धर्म धर्म ही नहीं है। अब आप यदि मुझपर प्रसन्न हुए हैं, तो मेरी आपके चरणोंमें यही प्रार्थना है कि आप अबसे सदा इस लिङ्गमें विराजमान रहें, जिससे कि इस लिङ्गके प्रति जो कुछ भी पूजाअर्चा की जाय, वह अक्षय फल देनेवाली हो जाय। भगवान् शङ्करने कालभीतिकी इस निष्काम प्रार्थनाको स्वीकार करते हुए कहा-‘वत्स! तुमने मेरी आराधनाके द्वारा कालमार्गपर विजय प्राप्त की है, इसलिये तुम भी महाकाल नामसे विख्यात होकर नंदीकी भाँति मेरे अनुचररूपमें चिरकालतक मेरे लोकमें सुखपूर्वक निवास करोगे। कुछ ही दिनों बाद इस स्थानपर करन्धम नामके राजर्षि तुमसे मिलने आयेंगे, उन्हें धर्मका उपदेश देकर तुम मेरे लोकमें चले आना।’ भगवान् शिव यह कहकर उस लिङ्गके अंदर लीन हो गये। इसके बाद महाकाल भी आनन्दपूर्वक उस स्थानमें रहकर तपस्या करने लगे।
कुछ दिनों बाद राजा करन्धम महाकालतीर्थका माहात्म्य और महाकालके चरित्रकी कथा सुनकर धर्मके सम्बन्धमें विशेष तत्त्व जाननेकी इच्छासे वहाँ आये। महाकाल लिङ्गका दर्शन करके करन्धम राजाके आनन्दकी सीमा न रही। उन्होंने उस समय अपने जीवनको सफल समझा। इसके बाद महामहोपचारसे उन्होंने महाकाल लिङ्गकी पूजा की और फिर भक्तवर महाकालके पास पहुँचकर प्रणाम किया। राजाको आते देखकर महाकालको भगवान् शङ्करका वचन. स्मरण हो आया और उन्होंने हास्ययुक्त वदनसे राजाके सामने आकर उनका स्वागत किया और अर्घ्य-पाद्यादि उपचारोंके द्वारा उनका सत्कार किया। राजा करन्धमने शान्तमूर्ति भक्तवर महाकालसे कुशल-प्रश्नके अनन्तर अनेकों धर्मविषयक प्रश्न किये और महाकालने उन सबका शास्त्रानुमोदित उत्तर देकर राजाका समाधान किया। उनके उपदेशका सार यही था कि घरमें ही रहकर इस लोकमें धर्म, अर्थ, काम तथा मृत्युके बाद मोक्ष प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय माहेश्वरधर्मका पालन अर्थात् सब प्रकारसे भगवान् शङ्करके शरण होकर उनकी भक्ति करते हुए उन्हींकी प्रीतिके लिये वर्णाश्रमोचित कर्तव्यका पालन करना है। –
इस प्रकार महाकाल विविध धर्मोंका उपदेश कर ही रहे थे कि सहसा आकाशमें बड़ा भारी शब्द होने लगा। महाकालने उस ओर ताका तो वे क्या देखते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, उनके अनुचर तथा भगवतीके सहित स्वयं भगवान् शङ्कर आ रहे हैं। उनके साथ इन्द्रादि देवता, वसिष्ठादि मुनीश्वर तथा तुम्बुरु प्रभृति गन्धर्व हैं। महामति महाकालने भक्तिनिर्भर चित्तसे उठकर सबकी अभ्यर्थना की और अनेक प्रकारसे पूजा की। ब्रह्मादि देवताओंने महाकालको उत्तम रत्नसिंहासनपर बिठाकर उस महीसागरसङ्गम क्षेत्रमें उनका अभिषेक किया। देवी भगवतीने महाकालको वात्सल्य-भावसे आलिङ्गनकर गोदमें बिठाया और पुत्रवत् प्यार करती हुई बोलीं- ‘शिवव्रतपरायण वत्स! यह ब्रह्माण्ड जबतक रहेगा, तबतक तुम शिवभक्तिके प्रभावसे शिवलोकमें निवास करोगे।’
उस समय ब्रह्मा, विष्णु प्रभृति देवगण साधु-साधु कहकर महाकालकी प्रशंसा और स्तुति करने लगे, चारणलोग उनका गुणगान करने लगे और गन्धर्वगण मनोहर गानके द्वारा उन्हें प्रसन्न करने लगे। करोड़ों शिवजीके गण उनकी स्तुति करते हुए उन्हें घेरकर चारों ओर खड़े हो गये। इस प्रकार अपूर्व समारोहके साथ भक्त श्रेष्ठ महाकाल अपने आराध्यदेवके साथ सशरीर शिवलोकको चले गये।
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