Shaunak Rishi Ki Katha Bhaktmal Ki Pauranik Kathaen Dvara Rachit
Shaunak Rishi Ki Katha
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महर्षि शौनक
ये नैमिषारण्यके अठासी हजार ऊर्ध्वरेता ब्रह्मवादी ऋषियोंमें प्रधान ऋषि थे। भृगुवंशमें उत्पन्न होनेसे भार्गव और शुनकके पुत्र होनेके कारण इनका नाम शौनक पड़ा। समस्त पुराणोंको और महाभारतको इन्होंने ही सूतजीके मुखसे सुना था। पुराणोंको श्रवण करनेवाला ऐसा कौन- -सा मनुष्य होगा, जो इनके नामको न जानता हो। समस्त पुराणोंमें ‘शौनक उवाच’ पहले ही आता है। हमें पुराणोंमें व्रतोंका माहात्म्य तथा तीर्थों की महिमा जो कुछ भी सुनायी पड़ती है, सब शौनकजीकी ही कृपाका फल है। ये हजारों वर्षोंका श्रवणसत्र करते थे। एक जगह कहा है shaunak rishi ki katha
कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम्।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः॥
‘कलियुगको आया देखकर हम सब ऋषि इस वैष्णवक्षेत्रमें भगवान् की कथाओंका आनन्द लेते हुए दीर्घकालका सत्र कर रहे हैं।’ इनका समस्त समय भगवत् कथा-श्रवणमें ही व्यतीत होता था। ऋषियोंमें जैसा विशुद्ध और संयमयुक्त लीलाकथारसिक चरित्र महर्षि शौनकका मिलता है, वैसा अन्य किसी ऋषिका शायद ही हो। ये नियमसे हवन आदि नित्यकर्म करके कथा श्रवण के लिये बैठ जाते थे और फिर भगवान् की कथाओंमें ही पूरा समय लगाते थे। इस प्रकार शौनकजी हमें पुराण कैसे सुनने चाहिये, इसकी शिक्षा देते हैं। भगवच्चरित्र सुनकर कैसे अनुमोदन करना चाहिये, कथामें किस प्रकार एकाग्रता रखनी चाहिये और समयका कैसे सदुपयोग करना चाहिये-इन समस्त बातोंकी शिक्षा हमें शौनकजीके चरित्रसे मिलती है। भगवान् के भजनमें कितनी और कैसी निष्ठा इनकी थी, यह इनके निम्नलिखित वचनोंसे प्रकट है shaunak rishi ki katha
आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च च यन्नसौ।
तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्तया॥
तरवः किं न जीवन्ति भस्त्राः किं न श्वसन्त्युत।
न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामपशवोऽपरे॥
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः।
न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः॥
(श्रीमद्भा २।३। १७-१९)
‘जिनका समय भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंके गान अथवा श्रवणमें व्यतीत हो रहा है, उनके अतिरिक्त सभीकी आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान् सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तसे उनकी आयु छीनते जा रहे हैं। जीनेके लिये तो वृक्ष भी जीते हैं-लुहारकी धौंकनी क्या श्वास नहीं लेती ? गाँवके पालतू जानवर क्या मनुष्योंकी ही तरह खाते-पीते या मल-मूत्र-त्याग नहीं करते-तब उनमें और मनुष्योंमें अन्तर ही क्या है। जिसने भगवान् श्रीकृष्णकी लीला-कथा कभी नहीं सुनी-वह नर-पशु कुत्ते, ग्राम-सूकर, ऊँट और गधेसे भी गया-बीता है।’ shaunak rishi ki katha
बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य।
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः॥
भारः परं पट्टकिरीटजुष्ट मप्युत्तमाकं न नमेन्मुकुन्दम्।
शावौ करौ नो कुरुतः सपर्या हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा॥ बर्हायिते ते नयने नराणां लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये।
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजी क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यो ।
जीवञ्छवो भागवतातिरेणुं न जातु मोऽभिलभेत यस्तु।
श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम्॥
(श्रीमद्भा० २।३। २०-२३)
‘सूतजी! मनुष्यके जो कान भगवान् श्रीकृष्णकी कथा कभी नहीं सुनते, वे (साँपके) बिलके समान हैं। जो जीभ भगवान्की लीलाओंका गायन नहीं करती, वह मेढककी जीभके समान टर्र-टर्र करनेवाली है, उसका तो न रहना ही अच्छा है। जो सिर कभी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें झुकता नहीं-वह रेशमी वस्त्रसे सुसज्जित और मुकुटसे युक्त होनेपर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान् की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोनेके कंगनसे भूषित होनेपर भी मुर्देके हाथ हैं; जो आँखें भगवान् की याद दिलानेवाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदिका दर्शन नहीं करतीं, वे मोरोंकी पाँखोंमें बने हुए आँखोंके चिह्नके समान निरर्थक हैं। मनुष्योंके वे पैर चलनेकी शक्ति रखनेवाले होनेपर भी न चलनेवाले पेड़ोंके समान ही हैं,-जो भगवान् की लीलास्थलियोंकी यात्रा नहीं करते। जिस मनुष्यने भगवत्प्रेमी संतोंके चरणोंकी धूलि कभी सिरपर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा ही है। और जिस मनुष्यने भगवान् के चरणोंमें चढ़ी तुलसीकी गंध नहीं ली, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है।’ shaunak rishi ki katha
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