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Raja Shankh Ki Katha || Agastya Rishi Or Raja Shankh

Raja Shankh Ki Katha

राजा शङ्ख की कथा Raja Shankh

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हयवंशके नीतिज्ञ, प्रजावत्सल धर्मात्मा राजा शङ्ख सदा अपने मनको भगवान्में लगाये रहते थे। वे राजा श्रुताभिधानके पुत्र थे। धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेके साथ नियमितरूपसे वे भगवान्का पूजन एवं ध्यान करते थे। बिना किसी प्रकारकी कामनाके केवल भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये वे बराबर पुण्य, दान, व्रत तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ किया करते थे। उन्होंने यश तथा स्वर्ग पानेकी इच्छाको सर्वथा त्यागकर केवल भगवान्को सन्तुष्ट करनेके लिये स्थान-स्थानपर कुएँ, बावली, धर्मशाला आदि बनवायी थीं। विद्वान् ब्राह्मणोंसे वे भगवान्के मङ्गलमय चरित सुना करते थे। भगवान्के लिये पर्वोपर धूमधामसे महोत्सव करते थे। भगवन्नामका कीर्तन, भगवान्का स्मरण-यही उनके परम प्रिय कार्य थे। इस प्रकार उनका चित्त सब ओरसे भगवान्में ही लगा रहता था। भगवान्में लगा चित्त अपने-आप निर्मल हो जाता है और उसमें अपने-आप ही वैराग्यका उदय होता है। Raja Shankh Ki Katha राजा शङ्खके मनमें वैराग्यके साथ भगवान्को पानेकी उत्कण्ठा जाग गयी। अब वे बराबर सोचते रहते-‘मुझे भगवान्के कब दर्शन होंगे? वे दयामय मुझे कब अपनायेंगे, मैं तो इतना अधम हूँ कि उनके श्रीचरणोंके सम्मुख जानेका अधिकारी कभी हो ही नहीं सकता; किंतु वे मेरे हृदयधन तो कृपाके समुद्र ही हैं। वे मुझसे क्षुद्रपर भी क्या कभी कृपा करेंगे? मैं क्या करूँ, कैसे से उन सौन्दर्यसिन्धुकी एक झाँकी पाऊँ?’ राजाकी व्याकुलताका कहीं पार नहीं था। उनके प्राण छटपटाने लगे। सहसा बड़ी ही मधुर ध्वनि राजाने सुनी-‘राजन् ! तुम शोक छोड़ दो। तुम तो मुझे बहुत ही प्यारे हो। तुमने मेरे लिये बहुत कष्ट सहा है, बहुत तप किया है, मैं तुमपर संतुष्ट हूँ; किंतु अभी तुम्हें मेरे दर्शन होनेमें एक सहस्र वर्षकी देर है। तुम्हारी ही भाँति महर्षि अगस्त्य भी मेरे दर्शनके लिये व्याकुल हो रहे हैं। ब्रह्माजीके आदेशसे वे वेंकटेश पर्वतपर तप कर रहे हैं। अब तुम भी वहीं जाकर मुझमें मन लगाकर मेरा भजन करो। वहीं तुम्हें मेरे दर्शन होंगे।’ Raja Shankh Ki Katha

राजा शङ्ख तो इस वाणीको सुनते ही मारे हर्षके नाचने लगे। उनका हृदय शीतल हो गया। ‘भला, मुझ अधमको भगवान्के दर्शन होंगे तो।’ उन्हें तो एक हजार वर्ष एक क्षणसे भी छोटे लगे। थोड़े समयके साधनसे उकता जानेवाले लोगोंमें भगवान्का प्रेम नहीं होता। जिसके हृदयमें प्रेम है, उसे तो यह पता लग जाना कि ‘कभी उसे प्रेमास्पद प्रभु मिलेंगे-बहुत बड़ा वरदान है।’ जो भगवान् कल्प-कल्पकी साधनासे ऋषियोंको भी कदाचित् ही मिलते हैं, वे हजार वर्षमें मिलेंगे-यह तो बहुत ही सुगम बात हो गयी। वे हजार वर्षों को कुछ गिनते ही नहीं। राजाने उसी समय अपने बड़े पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कराया और वे वेङ्कटेशपर्वतकी ओर चल पड़े। भगवान्का दर्शन तो हजार वर्षों में होगा ही, फिर अब तप तथा भजन क्यों किया जाय-यह बात भक्तके मनमें नहीं आती। उसे तो दर्शन हो जानेपर भी भजनको छोड़ देना स्वीकार नहीं होता। राजाने तो अपनेपर भगवान्की कृपाका अनुभव कर लिया था, इससे उनकी भजनमें रुचि अत्यन्त बढ़ गयी थी। शिवजीने कहा है- Raja Shankh Ki Katha
‘उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥’
पर्वतपर पहुँचकर स्वामितीर्थमें स्वामिपुष्करिणीके पास उन्होंने अपनी पर्णकुटी बना ली और चित्तको भगवान्में लगाकर कठोर तप करने लगे। महर्षि अगस्त्य उसी पर्वतकी परिक्रमा कर रहे थे। देवताओं एवं ऋषियोंको पता लग गया कि अगस्त्यजीको दर्शन देनेके लिये भगवान् यहाँ प्रकट होनेवाले हैं। अतः वे लोग भी भगवान्के दर्शनकी इच्छासे वहाँ एकत्र हो गये। जब तप एवं पूजन करते हुए लगभग एक हजार वर्ष बीत गये और अगस्त्यजीको श्रीनारायणके दर्शन नहीं हुए, तब उन्हें बड़ी व्याकुलता हुई। वे बहुत ही दु:खी हो गये। भगवान्की अप्राप्तिका यह दुःख जब बढ़ जाता है, तब भगवान् तुरंत दर्शन देते हैं। उसी समय ब्रह्माजीके भेजे बृहस्पतिजी, शुक्राचार्य आदि महर्षि-गणोंने आकर उनसे कहा-‘भगवान् ब्रह्माने हमें कहा है कि हम आपको लेकर स्वामिपुष्करिणीके तटपर शङ्ख राजाके पास जायँ। वहीं भगवान् श्रीहरिके दर्शन होंगे।’ Raja Shankh Ki Katha

वे महर्षिगण तथा देववृन्द, जिनकी सब लोग आराधना करते हैं, स्वयं अगस्त्यजीको साथ लेकर राजा शङ्खकी कुटियापर पहुँचे। राजाने उन सबकी पूजा की। देवगुरु बृहस्पतिजीने ब्रह्माजीका सन्देश सुनाया। उसे सुनकर राजा भगवान्के प्रेममें मग्न होकर भगवान्के गुण एवं नामोंका कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे। सभी लोग श्रीगोविन्दके कीर्तनमें सम्मिलित होकर तन्मय हो गये। तीन दिन स्तुति, प्रार्थना तथा कीर्तनकी यह धारा । अखण्ड चलती रही। तीसरे दिन रात्रिमें जब सब लोग विश्राम करने लगे, तब रात्रिके पिछले प्रहरमें उन्होंने स्वप्न देखा। स्वप्नमें उन्होंने शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज भगवान्के दर्शन किये। प्रात:काल सबको निश्चय हो गया कि आज भगवान्के दर्शन होंगे। पुष्करिणीमें स्नान करके सब मिलकर भगवान्की नाना प्रकारसे स्तुति करने लगे। ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करते हुए उनके हृदय अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये भगवान्के दर्शन करनेके लिये। इसी समय उनके सामने एक अद्भुत तेज प्रकट हुआ। कोटिकोटि सूर्य भी उतने प्रकाशमान नहीं हो सकते। इतनेपर भी उस तेजमें न तो ताप था और न नेत्र ही उससे चौंधियाते थे। वह बडा ही स्निग्ध, शीतल प्रकाश था। उस तेजको देखते ही सब भगवान् नारायणका ध्यान करने लगे। उन्होंने तत्काल उन श्रीहरिके दर्शन किये। भगवान्का वह स्वरूप मन तथा वाणीसे परे है। उनके सहस्रों मस्तक, सहस्रों नेत्र, सहस्रों नासिका, कर्ण तथा मुख हैं। उनके बाहु एवं चरणोंकी भी कोई गणना नहीं। भगवान्का दिव्य शरीर तपाये हुए सोनेके समान है। उनकी आकृति मनोहर होनेपर भी अत्यन्त भयंकर है। उनकी दाढ़ें कराल हैं, उनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही हैं। उन अनादि, अनन्त, अचिन्त्य, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्के इस स्वरूपको देखकर डरते हुए भी सब हर्षके साथ । जय-जयकार करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। वहीं भगवान्के सभी शङ्ख, चक्र आदि आयुध मूर्तिमान् हो गये। सबने भगवान्की पूजा की। भगवान् ब्रह्मा, शङ्करजी, सनकादि ऋषि, सभी सिद्ध, योगी, भगवत्पार्षद वहाँ भगवान्के दर्शन करनेके लिये एकत्र हो गये। सब भगवान्के इस भयंकर रूपसे डर रहे थे। सब सौन्दर्यघन श्रीहरिको परम सुन्दर चतुर्भुजरूपमें ही देखना चाहते थे। भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभुने सबकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये अपने उस विराट्पको अन्तर्हित कर लिया और दूसरे ही क्षण वे एक सुन्दर रत्नखचित विमानपर चतुर्भुज पीताम्बरधारी, परम सुन्दर स्वरूपमें प्रकट हो गये। सबने भगवान्की फिर बड़ी भक्तिसे स्तुति की, उनका पूजन किया। भगवान्के इस मधुरिमामय स्वरूपका दर्शन करके सबके हृदय आनन्दमग्न हो रहे थे। भगवान् ने अगस्त्यजीसे कहा-‘तुमने मेरे लिये बड़ा तप किया है। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे वरदान माँग लो।’ Raja Shankh Ki Katha
महर्षि अगस्त्यने भगवान् से उनके चरणोंमें भक्तिका वरदान माँगा और देवताओंकी प्रेरणासे यह प्रार्थना की कि भगवान् वेंकटेशपर्वतपर निवास करें और वहाँ जो दर्शन करने आयें, उनकी कामना पूर्ण हो। महर्षिपर कृपा करके उस पर्वतपर भगवान् श्रीविग्रहरूपमें अब भी विद्यमान हैं। वेंकटेशपर्वत उसी समयसे तीर्थ हो गया। भगवान्ने राजा शङ्खसे भी वरदान माँगनेको कहा। किसी भी सच्चे भक्तको भगवान्की भक्तिको छोड़कर और कुछ कभी अभीष्ट नहीं होता। राजाने भी वरदानमें भक्ति ही माँगी।
महर्षि अगस्त्य भगवान्की भक्तिके प्रतापसे सप्तर्षियोंमें स्थान पाकर कल्पान्ततक अमर हो गये। उनके तेजसे रावणजैसे त्रिभुवनविजयी भी डरते थे। महर्षिने अपना आश्रम विन्ध्याचलसे दक्षिण बनाया था। वहाँ दण्डकारण्यमें राक्षसोंका उत्पात होनेपर महर्षिके आश्रममें वे उपद्रव करनेका साहस नहीं करते थे। जब विन्ध्याचलने बढ़कर सूर्यका मार्ग रोकना चाहा, तब महर्षिने ही उसे भूमिमें प्रणत पड़े रहनेका आदेश दिया और तबसे वह वैसे ही पड़ा है। भगवान्के परम भक्त श्री अगस्त्यजीको बार-बार नमस्कार ! Raja Shankh Ki Katha

 

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