Markandeya Rishi Ki Kahani || Bhaktmal Ki Kathaen
Markandeya Rishi Ki Kahani
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मार्कण्डेय ऋषि की कथा
घोर तपस्या तथा इन्द्र द्वारा तपस्या भंग का असफल प्रयास
भगवान ने तप का आदर्श स्थापित करने के लिये ही नर-नारायणस्वरूप धारण किया है । वे सर्वेश्वर तपस्वी ऋषियोंके रक्षक एवं आराध्य हैं। मृकण्डु ऋषिके पुत्र मार्कण्डेयजी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत लेकर हिमालयकी गोदमें पुष्पभद्रा नदीके किनारे उन्हीं ऋषिरूपधारी भगवान् नरनारायणकी आराधना कर रहे थे। उनका चित्त सब ओरसे हटकर भगवानमें ही लगा रहता था। मार्कण्डेय मुनिको जब इस प्रकार भगवानकी आराधना करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, तब इन्द्रको उनके तपसे भय होने लगा। देवराजने वसन्त, कामदेव तथा पुञ्जिकस्थली अप्सराको मुनिकी साधनामें विघ्न करनेके लिये वहाँ भेजा। वसन्तके प्रभावसे सभी वृक्ष पुष्पित हो गये, कोकिला कूजने लगी, शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चलने लगा। अलक्ष्य रहकर वहाँ गन्धर्व गाने लगे और अप्सरा पुञ्जिकस्थली मुनिके सम्मुख गेंद खेलती हुई अपने सौंदर्यका प्रदर्शन करने लगी। इसी समय कामदेवने अपने फूलोंके धनुषपर सम्मोहन बाण चढ़ाकर उसे मुनिपर छोड़ा। परंतु कामदेव तथा अप्सराके सब प्रयत्न व्यर्थ हो गये। मार्कण्डेयजीका चित्त भगवान् नरनारायणमें लगा हुआ था, अतः भगवानकी कृपासे उनके हृदयमें कोई विकार नहीं उठा। मुनिकी ऐसी दृढ़ अवस्था देखकर काम आदि डरकर भाग गये। मार्कण्डेयजीमें कामको जीत लेनेका गर्व भी नहीं आया। वे उसे भगवानकी कृपा समझकर और भी भावनिमग्न हो गये।भगवान के चरणोंमें मार्कण्डेयजीका चित्त तो पहलेसे लगा था। अब भगवान की अपनेपर इतनी बड़ी कृपाका अनुभव करके वे व्याकुल हो गये। भगवान के दर्शनके लिये उनका हृदय आतुर हो उठा। भक्तवत्सल भगवान उनकी व्याकुलतासे द्रवित होकर उनके सामने प्रकट हो गये। भगवान नारायण सुन्दर जलभरे मेघके समान श्याम वर्णके और नर गौर वर्णके थे। दोनोंके ही कमलके समान नेत्र करुणासे पूर्ण थे। इस ऋषिवेशमें भगवान ने जटाएँ बढ़ा रखी थीं और शरीरपर मृगचर्म धारण कर रखा था। भगवान् के मङ्गलमय भव्य स्वरूपको देखकर मार्कण्डेयजी हाथ जोड़कर भूमिपर गिर पड़े। भगवान्ने उन्हें स्नेहपूर्वक उठाया। मार्कण्डेयजीने किसी प्रकार कुछ देरमें अपनेको स्थिर किया। उन्होंने भगवान्की भलीभाँति पूजा की। भगवान्ने उनसे वरदान माँगनेको कहा। मार्कण्डेयजीने स्तुति करते हुए भगवान्से कहा-‘प्रभो! आपके श्रीचरणोंका दर्शन हो जाय, इतना ही प्राणीका परम पुरुषार्थ है। आपको पा लेनेपर फिर तो कुछ पाना शेष रह ही नहीं जाता; किंतु आपने वरदान माँगनेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ। Markandeya Rishi Ki Kahani
मार्कण्डेय जी का माया (प्रलय) दर्शन markandeya rishi ki kahani
भगवान् तो एवमस्तु’ कहकर अपने आश्रम बदरीवनको चले गये और मार्कण्डेयजी भगवान की आराधना, ध्यान, पूजनमें लग गये। सहसा एक दिन ऋषिने देखा कि दिशाओंको काले-काले मेघोंने ढक दिया है। बड़ी भयंकर गर्जना तथा बिजलीकी कड़कके साथ मूसलके समान मोटी-मोटी धाराओंसे पानी बरसने लगा। इतने में चारों ओरसे उमड़ते हुए समुद्र बढ़ आये और समस्त पृथ्वी प्रलयके जलमें डूब गयी। मुनि उस महासागरमें विक्षिप्तकी भाँति तैरने लगे। भूमि, वृक्ष, पर्वत आदि सब डूब गये थे। सूर्य, चन्द्र तथा तारोंका भी कहीं पता नहीं था। सब ओर घोर अन्धकार था। भीषण प्रलयसमुद्रकी गर्जना ही सुनायी पड़ती थी। उस समुद्र में बड़ी-बड़ी भयंकर तरङ्ग कभी मुनिको यहाँसे वहाँ फेंक देती थीं, कभी कोई जलजन्तु उन्हें काटने लगता था और कभी वे जलमें डूबने लगते थे। जटाएँ खुल गयी थीं, बुद्धि विक्षिप्त हो गयी थी, शरीर शिथिल होता जाता था। अन्तमें बहुत व्याकुल होकर उन्होंने भगवान का स्मरण किया। भगवान का स्मरण करते ही मार्कण्डेयजीने देखा कि सामने ही एक बहुत बड़ा वटका वृक्ष उस प्रलयसमुद्रमें खड़ा है। पूरे वृक्षपर कोमल पत्ते भरे हुए हैं। आश्चर्यसे मुनि और समीप आ गये। उन्होंने देखा कि वटवृक्षकी ईशान कोणकी शाखापर पत्तोंके सट जानेसे बड़ा-सा सुन्दर दोना बन गया है। उस दोनेमें एक अद्भुत बालक लेटा हुआ है। वह नव-जलधर सुन्दर श्याम है। उसके कर एवं चरण लाल-लाल अत्यन्त सुकुमार हैं। उसके त्रिभुवनसुन्दर मुखपर मन्द-मन्द हास्य है। उसके बड़ेबड़े नेत्र प्रसन्नतासे खिले हुए हैं। श्वास लेनेसे उसका सुन्दर त्रिवलीभूषित पल्लवके समान उदर तनिक-तनिक ऊपर-नीचे हो रहा है। उस शिशुके शरीरका तेज इस घोर अन्धकारको दूर कर रहा है। शिशु अपने हाथोंकी सुन्दर अँगुलियोंसे दाहिने चरणको पकड़कर उसके अँगूठेको मुखमें लिये चूस रहा है। मुनिको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने प्रणाम किया Markandeya Rishi Ki Kahani
मार्कण्डेय जी की प्रभु झाँकी का वर्णन
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं शिरसा नमामि॥
उनकी सब थकावट उस बालकको देखते ही दूर हो गयी। वे उसको गोदमें लेनेके लिये लालायित हो उठे और उसके पास जा पहुँचे। पास पहुँचते ही उस शिशुके श्वाससे खिंचे हुए मुनि विवश होकर उसकी नासिकाके छिद्रसे उसीके उदरमें चले गये। मार्कण्डेयजीने शिशुके उदरमें पहुँचकर जो कुछ देखा उसका वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ उन्होंने अनन्त ब्रह्माण्ड देखे। वहाँकी विचित्र सृष्टि देखी। सूर्य, चन्द्र, तारागण प्रभृति सब उन्हें दिखायी पड़े। उनको वहाँ समुद्र, नदी, सरोवर, वृक्ष, पर्वत आदिसहित पृथ्वी भी सभी प्राणियोंसे पूर्ण दिखायी पड़ी। Markandeya Rishi Ki Kahani
पृथ्वीपर घूमते हुए वे शिशुके उदरमें ही हिमालय पर्वतपर पहुँचे। वहाँ पुष्पभद्रा नदी और उसके तटपर अपना आश्रम भी उन्होंने देखा। यह सब देखनेमें उन्हें अनेक युग बीत गये। वे विस्मयसे चकित हो गये। उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। इसी समय उस शिशुके श्वास लेनेसे श्वासके साथ वे फिर बाहर उसी प्रलयसमुद्रमें गिर पड़े। उन्हें वही गर्जन करता समुद्र, वही वट-वृक्ष और उसपर वही अद्भुत सौन्दर्यघन शिशु दिखलायी पड़ा। अब मुनिने उस बालकसे ही इस सब दृश्यका रहस्य पूछना चाहा। जैसे ही वे कुछ पूछनेको हुए, सहसा सब अदृश्य हो गया। मुनिने देखा कि वे तो अपने आश्रमके पास पुष्पभद्रा नदीके तटपर सन्ध्या करने वैसे ही बैठे हैं। वह शिशु, वह वटवृक्ष, वह प्रलयसमुद्र आदि कुछ भी वहाँ नहीं है। भगवान्की कृपा समझकर मुनिको बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान ने कृपा करके अपनी मायाका स्वरूप दिखलाया कि किस प्रकार उन सर्वेश्वरके भीतर ही समस्त ब्रह्माण्ड हैं, उन्हींसे सृष्टिका विस्तार होता है और फिर सृष्टि उनमें ही लय हो जाती है। इस कृपाका अनुभव करके मुनि मार्कण्डेय ध्यानस्थ हो गये। उनका चित्त दयामय भगवानमें निश्चल हो गया। Markandeya Rishi Ki Kahani
भगवान शिव पार्वती जी का दर्शन एवं वार्तालाप
इसी समय उधरसे नन्दीपर बैठे पार्वतीजीके साथ भगवान् शङ्कर निकले। मार्कण्डेयजीको ध्यानमें एकाग्र देख भगवती उमाने शङ्करजीसे कहा-‘नाथ! ये मुनि कितने तपस्वी हैं। ये कैसे ध्यानस्थ हैं। आप इनपर कृपा कीजिये, क्योंकि तपस्वियोंकी तपस्याका फल देनेमें आप समर्थ हैं। भगवान शंकर ने कहा–पार्वती!ये मार्कण्डेय जी भगवान के अनन्य भक्त हैं। ऐसे भगवान के भक्त कामनाहीन | होते हैं। उन्हें भगवान की प्रसन्नताके अतिरिक्त और कोई । इच्छा नहीं होती; किंतु ऐसे भगवद्भक्तका दर्शन तथा उनसे । वार्तालापका अवसर बड़े भाग्यसे मिलता है, अतः मैं इनसे । अवश्य बातचीत करूँगा। इतना कहकर भगवान् शङ्कर मुनिके समीप गये, किन्तु ध्यानस्थ मुनिको कुछ पता न लगा। वे तो भगवान्के ध्यानमें शरीर और संसारको भूल गये थे। शङ्करजीने योगबलसे उनके हृदयमें प्रवेश किया। हृदयमें त्रिनयन, कर्पूरगौर शङ्करजीका अकस्मात् दर्शन होनेसे मुनिका ध्यान भंग हो गया। नेत्र खोलनेपर भगवान् शङ्करको आया देख वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पार्वतीजीके साथ शिवजीका पूजन किया। भक्तवत्सल भगवान् शङ्करने उनसे वरदान माँगनेको कहा। मुनिने प्रार्थना की-‘दयामय! आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वरदान दें कि भगवान में मेरी अविचल भक्ति हो। आपमें मेरी स्थिर श्रद्धा रहे। भगवद्भक्तोंके प्रति मेरे मनमें अनुराग रहे। शङ्करजीने ‘एवमस्तु’ कहकर मुनिको कल्पान्ततक अमर रहने और पुराणाचार्य होनेका वरदान दिया। मार्कण्डेयपुराणके उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं। Markandeya Rishi Ki Kahani
मार्कण्डेय जी अल्पायु से दीर्घायु कैसे हुए
मार्कण्डेयजीपर श्रीभगवान् शङ्करकी कृपा पहलेसे ही थी। पद्मपुराण उत्तरखण्डमें आया है कि इनके पिता मुनि मृकण्डुने अपनी पत्नीके साथ घोर तपस्या करके भगवान् शिवजीको प्रसन्न किया था और उन्हींके वरदानसे मार्कण्डेयको पुत्ररूपमें पाया था। भगवान् शङ्करने उसे सोलह वर्षकी ही आयु उस समय दी थी। अतः मार्कण्डेयकी आयुका सोलहवाँ वर्ष आरम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे भर गया। पिताजीको उदास देखकर जब मार्कण्डेयने उदासीका कारण पूछा, तब मृकण्डुने कहा-‘बेटा! भगवान् शङ्करने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है; उसकी समाप्तिका समय समीप आ पहुँचा है, इसीसे मुझे शोक हो रहा है।’ इसपर मार्कण्डेयने कहा-‘पिताजी ! आप शोक न करें। मैं भगवान् शङ्करको प्रसन्न करके ऐसा यत्न करूँगा कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं।’ तदनन्तर मातापिताकी आज्ञा लेकर मार्कण्डेयजी दक्षिण-समुद्रके तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक शिवलिङ्गकी स्थापना करके आराधना करने लगे। समयपर ‘काल’ आ पहुँचा। मार्कण्डेयजीने कालसे कहा-‘मैं शिवजीका मृत्युञ्जय स्तोत्रसे स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ; तबतक तुम ठहर जाओ।’ कालने कहा-‘ऐसा नहीं हो सकता।’ तब मार्कण्डेयजीने भगवान् शङ्करके बलपर कालको फटकारा। कालने क्रोधमें भरकर ज्यों ही मार्कण्डेयको हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्गसे प्रकट हो गये। हुंकार भरकर मेघके समान गर्जना करते हुए उन्होंने कालकी छातीमें लात मारी। मृत्यु-देवता उनके चरण-प्रहारसे पीड़ित होकर दूर जा पड़े। भयानक आकृतिवाले कालको दूर पड़े देख मार्कण्डेयजीने पुनः इसी स्तोत्रसे भगवान् शङ्करजीका स्तवन किया :– इस प्रकार शंकर जी की कृपा से मार्कंडेय जी ने मृत्यु पर विजय लाभ प्राप्त किया था। Markandeya Rishi Ki Kahani
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