Mahrishi Dadhichi Ki Katha Bhaktmal Dvara Rachit Kathaen
Mahrishi Dadhichi Ki Katha
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महर्षि दधीचि
देवराज इन्द्रने प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘जो कोई अश्विनीकुमारोंको ब्रह्मविद्याका उपदेश करेगा, उसका मस्तक मैं वज्रसे काट डालूँगा।’ वैद्य होनेके कारण अश्विनीकुमारोंको देवराज हीन मानते थे। अश्विनीकुमारोंने महर्षि दधीचिसे ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेकी प्रार्थना की। एक जिज्ञासु अधिकारी प्रार्थना करे तो उसे किसी भय या लोभवश उपदेश न देना धर्म नहीं है। महर्षिने उपदेश देना स्वीकार कर लिया। अश्विनीकुमारोंने ऋषिका मस्तक काटकर औषधद्वारा सुरक्षित करके अलग रख दिया और उनके सिरपर घोड़ेका मस्तक लगा दिया। इसी घोड़ेके मस्तकसे उन्होंने किया। इन्द्रने वज्रसे जब ऋषिका वह मस्तक काट दिया, mahrishi dadhichi ki katha
तब अश्विनीकुमारोंने उनका पहला सिर उनके धड़से लगाकर उन्हें जीवित कर दिया। इस प्रकार ब्रह्मपुत्र अथर्वा ऋषिके पुत्र ये दधीचिजी घोड़ेका सिर लगनेसे अश्वशिरा भी कहे जाते हैं।
जब त्वष्टाके अग्नि-कुण्डसे उत्पन्न होकर वृत्रासुरने इन्द्रके स्वर्गपर अधिकार कर लिया और देवताओंने अपने जिन अस्त्रोंसे उसपर आघात किया, उन अस्त्र-शस्त्रोंको भी वह असुर निगल गया, तब निरस्त्र देवता बहुत डरे। कोई और उपाय न देखकर देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये। ब्रह्माजीने भगवान्की स्तुति की। भगवान्ने प्रकट होकर दर्शन दिया और बताया-‘महर्षि दधीचिकी हड्डियाँ उग्र तपस्याके प्रभावसे दृढ़ तथा तेजस्विनी हो गयी हैं। उन हड्डियोंसे वज्र बने, तभी इन्द्र उस वज्रसे वृत्रको मार सकते हैं। महर्षि दधीचि मेरे आश्रित हैं, अतः उन्हें बलपूर्वक कोई मार नहीं सकता! तुमलोग उनसे जाकर याचना करो। माँगनेपर वे तुम्हें अपना शरीर दे देंगे।’ देवता साभ्रमती तथा चन्द्रभागाके सङ्गमपर दधीचिऋषिके आश्रममें गये। mahrishi dadhichi ki katha
उन्होंने नाना प्रकारसे स्तुति करके ऋषिको सन्तुष्ट किया और उनसे उनकी हड्डियाँ माँगीं। महर्षिने कहा कि उनकी इच्छा तीर्थयात्रा करनेकी थी। इन्द्रने नैमिषारण्यमें सब तीर्थों का आवाहन किया। वहाँ स्नान करके दधीचिजी आसन लगाकर बैठ गये। जिस इन्द्रने उनका सिर काटना चाहा था, उन्हींके लिये ऋषिने अपनी हड्डियाँ देनेमें भी सङ्कोच नहीं किया! शरीरसे उन्हें तनिक भी आसक्ति नहीं थी। एक-न-एक दिन तो शरीर छूटेगा ही। यह नश्वर देह किसीके भी उपयोगमें आ जाय, इससे बड़ा और कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता। महर्षिने अपना चित्त भगवान्में लगा दिया। मन तथा प्राणोंको हृदयमें लीन करके वे शरीरसे ऊपर उठ गये। जङ्गली गायोंने अपनी खुरदरी जीभोंसे महर्षिके शरीरको चाट-चाटकर चमड़ा, मांसादि अलग कर दिया। इन्द्रने ऋषिकी हड्डी ले ली। उसी हड्डीसे विश्वकर्माने वज्र बनाया और उस वज्रसे इन्द्रने वृत्रको मारा। इस प्रकार एक तपस्वीके अनुपम त्यागसे इन्द्रकी, देवलोककी वृत्रसे रक्षा हुई। mahrishi dadhichi ki katha
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