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Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

सुरक्षा की तैयारियाँ

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वा ‘स्तव में मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा करने की चुनौती उदयसिह के राज्यकाल में ही खड़ी हो गई थी। चित्तौड़गढ़ के हाथ से निकल जाने के बाद उदयसिंह मेवाड़ की रक्षा के प्रति विशेष रूप से चिंतित रहते थे। उन्होंने सेना में नई भरती की, मेवाड़ के अधिक-सेअधिक मित्र बनाने का प्रयास किया और अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित स्थान पर उदयपुर बसाना आरंभ किया। किशोरावस्था तक आते-आते प्रताप इन सारी गतिविधियों में दिलचस्पी लेने लगे थे। अतः वे इस समस्या और संभावित समाधान से भी पूर्णत: परिचित थे।

प्रताप की नजरों के सामने धीरे-धीरे मेवाड़ का सारा मैदानी भाग मुगलों के अधिकार में चला गया था। उस पर या सिसौदिया वंश के सम्मान के प्रतीक चित्तौड़गढ़ पर दोबारा अधिकार करने की कल्पना करना भी व्यर्थ सिद्ध होता । तात्कालिक आवश्यकता थी तो मुगलों की विशाल शक्ति से बचे-खुचे मेवाड़ की रक्षा करने और उसे स्वतंत्र रखने की। Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

सिक्के का दूसरा पहलू भी था। जहाँ विशाल मुगल साम्राज्य की तुलना में मेवाड़ एक छोटा सा राज्य था, प्रकृति ने उसे अपने स्वाभिमान की रक्षा के साधन भी दिए थे। उसके दुर्गम पर्वतीय प्रदेश, सँकरी घाटियाँ, दूर-दूर तक फैले जंगली प्रदेश और वर्षाकाल में उसकी उफनती नदियाँ बाहरी आक्रमण से मेवाड़ की रक्षा करती थीं। आक्रमणकारियों की तुलना में बहुत छोटी सेना भी इन दर्रों और घाटियों में मोरचे जमाकर अपनी रक्षा कर सकती थी । यहाँ के निवासी इंच इंच भर भूमि से परिचित थे, जबकि किसी भी आक्रमणकारी के लिए यह बिलकुल अनजाना प्रदेश था। इसके अलावा इसकी रक्षा करनेवाले जाँबाज राजपूत थे, जो वीरता में अपना सानी न रखते थे।

अकबर इस बात से भली-भाँति परिचित था । चित्तौड़गढ़ की चढ़ाई में उसका सामना उदयसिंह की वहाँ छोड़ी एक छोटी सेना से ही हुआ था, लेकिन वे मुट्ठी भर राजपूत जिस वीरता से लड़े थे, उसे वह अभी भूला नहीं था । मेवाड़ के दुर्गम पर्वतीय प्रदेश में राजपूतों से युद्ध कितना कठिन और महँगा पड़ेगा – इसका अनुमान भी उसे था । युद्ध के लिए मंत्रणा हो रही थी तो उस बैठक में प्रताप का रूठा हुआ और अकबर की शरण में गया भाई शक्तिसिंह भी था । अकबर ने उससे पूछा कि अगर मेवाड़ के पर्वतीय प्रदेश में राणा को युद्ध में हराना हो तो कितनी सेना की आवश्यकता होगी। इस पर शक्तिसिंह ने उत्तर दिया कि पूरे क्षेत्र की घेराबंदी के लिए ही कम-से-कम दो लाख की फौज चाहिए । इसके अलावा हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मुगल सेना की मुख्य ताकत हाथी और तोपखाना वहाँ किसी काम न आएँगे। सैनिक अगर किसी गलत रास्ते में भटक गए तो वनवासी भीलों के विष-बुझे बाणों से एक भी न बचेगा। Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

मंत्रणा सभा में उपस्थित अधिकांश सभासदों ने शक्तिसिंह की बात को अतिशयोक्ति माना। कुछ ने खुलेआम कहा कि जहाँपनाह, यह बड़ा डरावा दिखाकर अपने भाई महाराणा प्रताप को मुगलों के कोप से बचाना चाहता है। आखिर है तो उसका भाई ही न ! कुछ ने उसका मजाक भी उड़ाया ।

अकबर उसकी बात सुनकर गंभीर हो गया। उसे उसमें ठोस वास्तविकता दिखाई दी। खुले मैदान में मेवाड़ की छोटी सी सेना विशाल मुगल सेना और उसके तोपखाने के सामने ठहर नहीं सकती थी, लेकिन बीहड़ पर्वतीय प्रदेश में उसे हराना लोहे के चने चबाना ही था । उसने शक्तिसिंह की बात की कद्र की और भावी युद्ध की योजना को लेकर गहरी सोच में डूब गया। Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan
 
इधर राणा प्रताप ने सुरक्षा तैयारियाँ तेज कर दी थीं। उन्होंने गोगूंदा से अपना शस्त्रागार और राजकोष कुंभलगढ़ और आवलगढ़ में भेज दिया था। उन्हें आशंका थी कि मुगल सेना गोगूंदा पर आक्रमण कर सकती है। कुंभलगढ़ आज भी बहुत दुर्गम प्रतीत होता है। अतः उस समय किसी आक्रमणकारी सेना का सँकरे रास्तों से होकर वहाँ पहुँचना असंभव ही था । इसके अलावा पर्वतों से घिरे इस दुर्ग के चारों ओर किसी बड़ी सेना का जमा होना संभव न था । आवलगढ़ अपेक्षाकृत छोटा दुर्ग था, लेकिन कुंभलगढ़ से भी अधिक दुर्गम होने के कारण सुरक्षित था । राणा ने इन दोनों गढ़ों में पर्याप्त खाद्यान्न – भंडार भी जमा कर लिया था। पानी की इस प्रदेश में कमी न थी । इसके अतिरिक्त एक और लाभ यह था कि शत्रु के बहुत अधिक दबाव की स्थिति में यहाँ से निकलकर बीहड़ पर्वतीय प्रदेश के किसी और सुरक्षित स्थान पर चले जाना सहज था । मेवाड़ के लुहार भाले, तलवारें, धनुष-बाण बनाने में दक्ष थे । वे रात-दिन हथियारों की पूर्ति के लिए लगे थे और अस्त्र-शस्त्र बनाकर पर्वतों की कंदराओं में जमा कर रहे थे ।

शत्रुओं के अनाचारों से त्रस्त जो नागरिक शरण लेने के लिए पर्वतीय प्रदेश में चले गए थे, उनके पुनर्वास में राणा प्रताप ने यथासंभव सहायता की और पहाड़ों के बीच हरे-भरे मैदानों में उनके रहने के लिए कच्चे घर युद्ध स्तर पर बनवाए। इनमें से जो युवा देश की रक्षा के लिए अपनी सेवाएँ देने को तत्पर थे, उन्हें सेना में भरती कर लिया गया। उन्हें हथियारों से लैस किया गया और शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया गया । वीरता-धीरता से मेवाड़ की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करना तो उनके रक्त में शामिल था।

राणा प्रताप की सारी तैयारी भावी युद्ध के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों परिणामों को ध्यान में रखकर की गई थी। कुछ इतिहासकारों की यह टिप्पणी कि वे वीरता के अति उत्साह में रहते थे – उपयुक्त प्रतीत नहीं होती । प्रताप ने जिस तरह आसन्न युद्ध की तैयारी की, वह ठोस वास्तविकता पर आधारित थी। उन्होंने पर्वतीय मार्ग में एक-एक नाके पर सुरक्षा किस तरह की जाएगी, इसकी पूरी और व्यापक योजना अपने सेनानियों के साथ बनाई । कुंभलगढ़ या आवलगढ़ पर भी संकट मँडराने पर राजकोष और राजपरिवार को किस तरह से वहाँ से निकालना है और कहाँ स्थानांतरित करना है – इस पर विस्तृत योजना पहले से बना ली गई थी। उसकी पुष्टि बाद की घटनाओं से भी होती है, जब हम देखते हैं कि प्रताप कैसे अपने परिवार और खजाने को शत्रु के घातप्रतिघात से बचाकर सुरक्षित रख पाए । Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

सेना के पुनर्गठन, दुर्गों की सुरक्षा, पर्वतीय मार्गों की नाकेबंदी की व्यवस्था, शत्रु सेना की आपूर्ति में यथासंभव बाधा पहुँचाने की व्यवस्था, पर्वतीय प्रदेश एवं दुर्गों में अन्न के भंडार, पशुओं के चारे और जल की व्यवस्था करने के बाद राणा प्रताप ने मैदानी क्षेत्र की ओर ध्यान दिया, जहाँ से मुगलों की सेना को आना था। उन्होंने आदेश जारी कर दिया कि सारे मैदानी क्षेत्र में कोई खेती नहीं की जाएगी। पूरे प्रदेश को अंजरबंजर की तरह उजाड़ दिया जाए । शत्रु को किसी भी तरह की खाद्यान्न की स्थानीय सहायता नहीं मिलनी चाहिए। इस आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले को देश का शत्रु माना जाएगा और प्राणदंड मिलेगा। देशभक्त किसानों ने अपने महाराणा की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। अपवादस्वरूप जिस इक्के-दुक्के ने किसी किस्म की फसल उगाने की कोशिश की, उसका सिर काट दिया गया । Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

इधर संधि- प्रस्तावों की असफलता के बाद सम्राट् अकबर भी युद्ध – योजना पर विचार कर रहा था। उसे यह बात बहुत अखर रही थी कि छोटा सा मेवाड़ विशाल मुगल साम्राज्य को मुँह चिढ़ाते हुए स्वाधीन खड़ा है। उस पर किसी तरह के दबाव का कोई असर नहीं पड़ा है, लेकिन मेवाड़ को पिद्दी सा और चंद घंटों में रौंदा जा सकनेवाला राज्य समझने की भूल अकबर ने न की थी । चित्तौड़गढ़ की लड़ाई का उसे व्यक्तिगत अनुभव था । उसने वहाँ मुट्ठी भर राजपूतों को अपने दुर्ग की रक्षा करते हुए प्राण- न्योछावर करते देखा था । मेवाड़ मुँह का निवाला न था, इसीलिए वह पूरी योजना के साथ उस पर आक्रमण करना चाहता था, ताकि एक ही बड़े वार में इस समस्या को सदा के लिए मिटा दें। जो काम संधि-वार्त्ता से नहीं हुआ, वह तलवार के जोर पर तो हो ही सकता था।

मेवाड़ की स्वाधीनता अकबर की विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा में बहुत बड़ी बाधा तो थी ही, उसके स्वाधीन रहने से एक और बड़ी समस्या थी— आर्थिक समस्या | विदशों से जो भी माल समुद्री मार्ग से आता था, वह सूरत के बंदरगाह पर उतारा जाता था । वहाँ से गुजरात व राजपूताना के रास्ते ही वह उत्तर भारत में आता था । इसीलिए अकबर ने उस रास्ते को निष्कंटक बनाने के लिए गुजरात और मेवाड़ पर अधिकार करना आवश्यक समझा। उन दिनों आमदनी का एक जरिया लूट भी होता था। बड़े राव-रावलों के छापामार दस्ते मौका मिलने पर आसपास के इलाकों में अचानक हमला करके लूटमार करते थे और किसी बड़ी सेना के रक्षा के लिए आने से पहले अपने क्षेत्र में लौट आते थे। इसके अलावा राजस्थान के भील और दूसरे हथियाबंद दस्ते सूरत से माल लेकर आनेवाले व्यापारिक कारवाँ लूट लेते थे । इन्हें वहाँ की शासकों की मौन स्वीकृति रहती थी। परंपरा इतनी प्रचलित थी कि इसे किसी तरह का गलत काम या अपराध नहीं माना जाता था । नैतिकता को सर्वोच्च वरीयता देनेवाले महाराणा प्रताप के राज्य में भी इस प्रकार की गतिविधियाँ जारी थीं। उनके अपने सैनिक दस्ते भी बहुधा इनमें शामिल रहते थे । मेवाड़ पर अपना आधिपत्य जमाए बिना अकबर इस मार्ग को पूरी तरह निरापद नहीं बना सकता था। Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

अकबर ने जोधपुर के राव चंद्रसेन के विरुद्ध जो सैनिक अभियान चलाया था, उसका एक कारण यह भी था । राव चंद्रसेन के सैनिक भी गुजरात से आनेवाले व्यापारिक कारवाँ लूटने में सिद्धहस्त थे, जिससे अकबर परेशान रहता था । निरंतर प्रयास करने और उनके राज्य के बहुत बड़े भूभाग को अपने अधिकार में कर लेने के बावजूद अकबर उन्हें पराधीन करने में सफल नहीं हो सका था । वह चाहता था कि चंद्रसेन उसके खेमे में आ जाएँ। उनका और राणा प्रताप का गठजोड़ टूटे। दूसरों से सफलता तो नहीं मिली, पर राणा प्रताप से सीधी टक्कर होने से पहले वह चंद्रसेन की शक्ति को क्षीण करने में अवश्य सफल रहा।

राव चंद्रसेन से होनेवाली सैनिक झड़पों ने भी अकबर को सिखा दिया था कि छोटे से दिखनेवाले मेवाड़ से लोहा लेना आसान नहीं होगा। इसलिए उसने पूरी तैयारी के साथ और सुनियोजित ढंग से मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी। इस योजना की सारी रूपरेखा बनाने एवं तत्संबंधी मंत्रणा में पूरी व्यक्तिगत रुचि ली थी ।

कुछ मुसलिम इतिहासकारों ने इसका एक धार्मिक कारण भी गिनाया है। उत्तर भारत से जो मुसलमान हज यात्रा पर जाते थे, वे भी सूरत से ही जहाज में बैठते थे। अतः उनका रास्ता भी राजस्थान और गुजरात से होकर जाता था । इन इतिहासकारों के अनुसार, अकबर उनके लिए भी इस रास्ते को सुरक्षित करना चाहता था। दरअसल इस बात में कोई दम नहीं है। अजमेर और मेवाड़ के लूटनेवाले दस्तों की हज यात्रियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसके अतिरिक्त मेवाड़ या अजमेर के शासकों ने ही नहीं, वहाँ के निवासियों ने भी सदा से धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है। दूसरे के धर्म का आदर करना और सभी धर्मों के अनुयायियों के साथ मिल-जुलकर रहना वहाँ की संस्कृति का एक अंग था । कभी उन्होंने धार्मिक कारणों से किसी को हानि पहुँचाने का विचार तक नहीं किया । जहाँ तक प्रताप का सवाल है, मुसलमान का महाराणा उतना ही आदर करते थे, जितना अपने हिंदू प्रजाजन का । वे एक लोकप्रिय शासक थे और सबको समान दृष्टि से देखते थे । इसीलिए महाराणा की सेना में भी बहुत से मुसलमान सैनिक थे । हाकिम खाँ सूर उनके प्रमुख सेनानियों में एक था, जो हल्दीघाटी के युद्ध में ऐसी वीरता से लड़ा कि एक बार तो शत्रु सेना के पाँव ही उखाड़ दिए । Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

सवाल उठता है कि आखिर मेवाड़ को अपने अधिकार में लेने के लिए व्यग्र अकबर ने सैनिक काररवाई करने में इतना समय क्यों लगाया? संधि-वार्त्ताओं के संभावित परिणामों का अनुमान उसे था, पर मेवाड़ उसके विजय-अभियानों की योजना में नहीं था । इससे पहले वह गुजरात और मालवा पर पूरी तरह अपना आधिपत्य जमाना चाहता था। इसके अलावा समय-समय पर होनेवाले छोटे-मोटे विद्रोहों को भी वह पूरी तरह कुचलना चाहता था। उसे यह भी अनुमान न था कि मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष आरंभ करने पर उसकी सेना कितने समय तक वहाँ उलझी रहेगी । दूरदर्शी यथार्थवादी अकबर ने आनन-फानन में मेवाड़ को पददलित करने का दिवा स्वप्न कभी नहीं देखा था ।

यही कारण था कि वह संधि-वार्त्ताओं के बहाने उस काररवाई को टालता रहा। इधर महाराणा प्रताप ने भी टालने की नीति अपना रखी थी। उन्हें मुगलों की विशाल सेना का सामना करने के लिए काफी तैयारी करनी थी। इसके लिए जितना अधिक समय मिले, उतना ही अच्छा था । मानसिंह के भोजन के समय उद्दंडता दिखाने पर अमरसिंह तो विनम्र बना रहा, लेकिन राजपूत सरदार ने जो खरी-खरी सुनाई, उससे भी राणा बहुत प्रसन्न थे । वे नहीं चाहते थे कि शत्रु पर मेवाड़ की असली मंशा प्रकट हो । सिसौदिया वंश की अतिथिपरायणता के अलावा महाराणा प्रताप और युवराज अमरसिंह की अकबर के सभी दूतों के प्रति विनम्रता के व्यवहार के पीछे यही नीति थी । बहरहाल अब सारी स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी और दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ जोरों पर थीं । मेवाड़ के वीरों के सिर पर युद्धोन्माद हावी हो रहा था। वे चित्तौड़ की पराजय का मुगलों से बदला लेने को उतावले हो रहे थे। पिता राणा प्रताप के निर्देशन में रणनीति एवं कूटनीति दोनों का प्रशिक्षण पाए अमरसिंह व अन्य वरिष्ठ सामंत उनके उत्साह पर नियंत्रण रखने और उन्हें अनुशासित रखने का प्रयास कर रहे थे। Maharana Pratap Ki Suraksha Taiyariyan

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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