maharana pratap ka rajtilak
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अत्यंत विलासिता में लीन रहनेवाले राणा उदयसिंह का शरीर दिन प्रतिदिन जीर्ण हो रहा था। 1570 ई. में जब वे कुंभलमेर आए, तब भी उनका स्वास्थ्य ठीक न था। मेवाड़ की सुरक्षा के प्रति सदा चिंतित रहनेवाले उदयसिंह ने वहाँ नए सैनिकों की भरती की। वहाँ से वे गोगूंदा आए। राज्याभिषेक से लेकर अब तक का उनका सारा जीवन संघर्ष में ही बीता था। मेवाड़ राज्य को स्थिर रखने के लिए वे निरंतर प्रयत्नशील रहे, पर परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि वह लगातार सिकुड़ रहा था। राणा उदयसिंह और मेवाड़ को सबसे बड़ा आघात चित्तौड़ दुर्ग छिन जाने से लगा था, पर उन्होंने अपने जीवनकाल में चित्तौड़ को पुनः जीतने के लिए न कोई प्रयास किया और न योजना बनाई। वास्तविकता के धरातल पर जीनेवाले उदयसिंह अच्छी तरह समझते थे कि विशाल मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना उसकी तुलना में पासंग भर मेवाड़ के लिए आत्महत्या ही होगा। यह पराजय उनको आजीवन सताती रही। maharana pratap ka rajtilak
उदयसिंह खून का घूँट पीकर रह गए। इस भयंकर आघात का प्रभाव भी उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा था। लगभग पाँच महीने उनके गोगूंदा में ही व्यतीत हुए, जहाँ उनका स्वास्थ्य अचानक और बिगड़ गया। उन दिनों उनकी सबसे प्रिय रानी धीरजबाई भटियाणी उनकी सेवा में रहती थी। पति की सेवा करने के बजाय अंतिम समय में खुशामद करके अपने पुत्र जगमाल को युवराज बनाना उसका मुख्य उद्देश्य था। कहते हैं कि भटियाणी रानी के रूप-यौवन पर अत्यंत आसक्त उदयसिंह ने वंश-परंपरा की अवहेलना करते हुए अंतिम समय में जगमाल को युवराज घोषित कर दिया, जबकि उनका ज्येष्ठ पुत्र प्रताप इसका अधिकारी था। maharana pratap ka rajtilak
इस विषय में एक मत यह भी है कि वास्तव में उदयसिंह ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की थी। राजमहलों में तरह-तरह के षड्यंत्र चलते ही रहते हैं। रानी भटियाणी और उसके चहेतों ने एक षड्यंत्र के तहत जगमाल को उदयसिंह का उत्तराधिकारी बना दिया। अपने अंतिम दिनों में जब राणा उदयसिंह लगभग अचेत से रहते थे और सारा राजकार्य सामंतों की देख-रेख में चल रहा था, रानी भटियाणी ने राज-काज के कुछ कागजों के साथ उत्तराधिकार के पत्र पर भी धोखे से महाराणा की मुहर लगवा ली और उनके स्वर्गवास के बाद घोषित कर दिया कि जगमाल को उदयसिंह अपना उत्तराधिकारी बना गए हैं। इसके लिए जगमाल ने और रानी भटियाणी ने मेवाड़ के कुछ सामंतों को भी अपने पक्ष में कर लिया था। maharana pratap ka rajtilak
यह बात अधिक तर्कसंगत लगती है कि उदयसिंह भले ही भटियाणी पर आसक्त रहे हों, किसी जर्जर शरीरवाले रोगग्रस्त व्यक्ति के विरोध में यह कहना कि उसने इतना बड़ा निर्णय सुंदरता पर मुग्ध होकर ले लिया, उचित प्रतीत नहीं होता। उदयसिंह आजीवन मेवाड़ की सुरक्षा के प्रति अत्यंत चिंतित व सचेत रहे। वे भली-भाँति जानते थे कि उनके बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र प्रताप ही इस योग्य है कि राज्य की रक्षा कर सके। ऐसे में उसे युवराज पद से हटाना युक्तिसंगत नहीं लगता। यदि उदयसिंह ने ऐसा कोई निर्णय अपने होशो-हवास में लिया होता तो वे इसकी चर्चा अपने मुख्य सामंतों से अवश्य करते। मेवाड़ की परंपरा के अनुसार, बिना उनके परामर्श और सहमति के वे ऐसा कर ही नहीं सकते थे। अतः छल-कपटवाली बात ही सत्य प्रतीत होती है। maharana pratap ka rajtilak
28 फरवरी, 1572 को उदयसिंह के सीने में दर्द हुआ और उसी दिन उन्होंने प्राण त्याग दिए। पिता की मृत्यु से शोकाकुल प्रताप इतना भी भूल गए कि मेवाड़ राजवंश की परंपरा के अनुसार युवराज महाराणा के दाह-संस्कार में नहीं जाता। वह महल की ड्योढ़ी से ही उसे अंतिम विदाई देता है और उसी दिन उसका राज्याभिषेक किया जाता है। यह परंपरा महाराणा का पद एक दिन भी रिक्त न रखने के विचार से बनी थी और अब तक इसका पालन होता आया था, पर प्रताप को सिंहासन पर बैठने की उतावली न थी। ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते वे पिता को मुखाग्नि देना अपना कर्तव्य समझते थे, जबकि परंपरानुसार यह काम उनके अनुज का था। राजमहल में जो षड्यंत्र हुआ था, उससे वे अनभिज्ञ थे। उन्हें कदाचित् इसकी आशंका भी नहीं थी। maharana pratap ka rajtilak
उधर उदयसिंह का अंतिम संस्कार करने के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जा रही थी और इधर जगमाल के राज्याभिषेक की तैयारियाँ हो रही थीं। मेवाड़ की परंपरा के अनुसार राज्य का शासक महाराणा होता था और व्यवस्था के प्रमुख चूड़ा। उत्तराधिकारी कौन होगाउसका निर्णय भी चूड़ा कृष्णदास की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता था। और चूड़ा कृष्णदास एवं महाराज उदयसिंह के बीच इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई। यदि महाराणा उदयसिंह जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाते तो चूड़ा कृष्णदास से अवश्य चर्चा हुई होती। अतः इस मामले में रनिवास में अवश्य ही कोई षड्यंत्र रचा गया था। स्पष्ट था कि उदयसिंह ने किसी परंपरा का उल्लंघन नहीं किया था, उनसे तो छलकपट से उत्तराधिकार के कागज पर मुहर लगवा ली गई थी। maharana pratap ka rajtilak
एक मत यह है कि प्रताप को इसका पता चल गया था, पर उन्होंने ऐसा मानकर कि पिता ने रानी भटियाणी के प्रेम में आसक्त होकर जगमाल को युवराज बना दिया है, चुप रहे। उनके श्मशान में आने का कारण भी यही था। मेवाड़ की ऐसी डाँवाँडोल अवस्था में वे घर में क्लेश और झगड़ा नहीं फैलाना चाहते थे।
महाराज कुँवर प्रताप का श्मशान में आना और जगमाल का अनुपस्थित होना स्वभावतः घोर शंका का कारण था। शंका ही तो थी, क्योंकि षड्यंत्र की जानकारी किसी को न थी। जगमाल को वहाँ न देखकर ग्वालियर के राजा मानसिंह ने उसके छोटे भाई से प्रश्न किया, “कुँवर जगमाल क्यों नहीं आए?” maharana pratap ka rajtilak
“क्या आप नहीं जानते कि स्वर्गीय महाराणा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया है?” जगमाल के अनुज ने कहा तो वहाँ खड़े सभी सामंत सकते में आ गए। सब प्रकार से योग्य मेवाड़ की रक्षा में सक्षम और राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी के स्थान पर इस अयोग्य जगमाल को उत्तराधिकार ? मेवाड़ का भविष्य क्या ऐसे हाथों में दिया जाएगा? मानसिंह सोनगरा प्रताप के मामा थे। उनकी त्यौरियाँ चढ़ गईं, ‘चूड़ा कृष्णदासजी, इस अन्याय को क्या आपका भी समर्थन प्राप्त हैं ?” maharana pratap ka rajtilak
“समर्थन तो दूर की बात है, मुझे इसकी भनक तक नहीं है। शायद यह महाराणा उदयसिंह के रनिवास की कोई साजिश है।”
सुबह उदयसिंह के निधन का शोक था तो शाम को नए महाराणा के राज्याभिषेक का आयोजन। मेवाड़ की यही परंपरा थी। जगमाल थ अपने भाइयों और कुछ समर्थकों की सहायता से राजसिंहासन पर बैठा था। सामने परंपरा के अनुसार उसके भाई बैठे थे। राजतिलक प्रमुख सामंतों, विशेष रूप से चूड़ाजी की उपस्थिति में होता था। उसके बाद सभी प्रमुख सामंत महाराणा को अपनी-अपनी भेंट देकर उनके प्रति सम्मान व वफादारी का प्रदर्शन करते थे। इसकी शुरुआत भी चूड़ा कृष्णदास को ही करनी थी। अतः उनकी प्रतीक्षा हो रही थी।
चूड़ा कृष्णदास मानसिंह सोनगरा और अन्य प्रमुख सामंतों के साथ सारी स्थिति पर विचार-विमर्श करने के बाद क्या करना है – इसका मन बनाकर दरबार की तरफ चल दिए। किसी भी अप्रिय स्थिति से निबटने की उन्होंने सारी व्यवस्था कर ली थी। maharana pratap ka rajtilak
सालूंबर राव कृष्णदास ने अन्य सामंतों के साथ दरबार कक्ष में प्रवेश किया। प्रताप उनके साथ थे, किंतु वे संकोचवश ड्योढ़ी पर ही रुक गए । देवगढ़ के रावत साँगा और कृष्णदास सिंहासन पर बैठे जगमाल की तरफ बढ़े तो सामंतों से भरे सभागार में सन्नाटा छा गया। क्या चूड़ा कृष्णदास और साँगाजी जगमाल को भेंट देकर उसे महाराणा स्वीकार करनेवाले हैं? सबके चेहरों पर यही सवाल था, पर अगले ही क्षण जो हुआ उसने उनके सवाल का जवाब दे दिया। maharana pratap ka rajtilak
एक तरफ से राव कृष्णदास ने और दूसरी तरफ से रावत साँगा ने जगमाल का हाथ पकड़ा।
“कुँवरजी, आप इस सिंहासन पर कैसे बैठे हैं, आपका स्थान तो इसके सामने है।” उसे उठाते हुए कृष्णदास बोले। maharana pratap ka rajtilak
“किंतु मेरे पिता महाराणा उदयसिंह ने तो”।” बात जगमाल के गले में अटक गई। उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। उसके पास अपनी शक्ति के नाम पर तो धोखे से मुहर लगवाया आदेश-पत्र मात्र था। वह जानता था कि विरोध करने पर उसके और उसके थोड़े से समर्थकों के लिए परिणाम भयानक हो सकता है। वह चुपचाप अपने आसन से उठकर खड़ा हो गया।
“आइए, प्रतापजी!” कृष्णदास ने सिंहासन की ओर संकेत करते हुए द्वार पर ठिठके प्रताप को पुकारा। maharana pratap ka rajtilak
प्रताप आकर सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने स्नेह से कहा, “बैठो जगमाल।”
उसके साथ ही उन्होंने अपने सामनेवाले आसन की ओर संकेत किया, जो उसके लिए उपयुक्त और सम्मानप्रद स्थान था।
उत्तर में जगमाल चुपचाप दरबार से बाहर चला गया। उसने कल्पना भी न की थी कि महाराणा बनने का उसका सपना इतनी आसानी से चकनाचूर हो जाएगा। maharana pratap ka rajtilak
जगमाल ने आशा की थी कि उसके साथ ही उसके भाई और दूसरे समर्थक भी प्रताप के राजतिलक का बहिष्कार करते हुए बाहर आ जाएँगे, पर किसी में इतना साहस न था कि कोई खुलेआम विरोध करता। बाहर आनेवालों में अकेला जगमाल ही था। प्रताप का विधिवत राजतिलक हुआ। चूड़ा कृष्णदास ने बड़े सम्मान के साथ नए महाराणा का अभिवादन किया और अपनी ओर से भेंट दी। इसके बाद अन्य सामंतों ने परंपरानुसार अपनी भेंट दी और महाराणा को झुककर प्रणाम किया। ‘भगवान् एकलिंग की जय ।”
‘महाराणा प्रताप की जय।” 44 दरबार जयघोष से गूंज उठा। मेवाड़ को उसका नया अधिपति मिल गया था – योग्य, गुणशील, पराक्रमी । maharana pratap ka rajtilak