maharana pratap ka rajseema काँटों का ताज
maharana pratap ka rajseema
काँटों का ताज फल
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महाराणा बनने पर प्रताप को स्वर्णमुकुट क्या, यह कहें कि काँटों का ताज ही मिला तो अधिक उपयुक्त होगा। उन्हें विरासत में जो मेवाड़ मिला, वह अत्यंत विपन्न स्थिति में था। चित्तौड़ और मांडलगढ़ तो राजपूतों के हाथ से निकल ही चुके थे, चित्तौड़ और अजमेर के बीच का सारा मैदानी इलाका भी मुगलों के कब्जे में था । इसके अलावा जहाजपुर का पहाड़ी इलाका भी मुगलों ने जीत लिया था। राणा उदयसिंह उनकी विशाल शक्ति के सामने विवश से हो गए थे। अकबर की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा सारा मेवाड़ अपने अधीन करने की थी, जिसका खतरा हर समय मेवाड़ के सिर पर मँडरा रहा था ।
महाराणा साँगा के समय जिस मेवाड़ की सीमा आगरा तक थी और जो हर तरह से समृद्ध था, वह अब सिकुड़कर बहुत छोटा हो गया था । उसकी सीमा अब कुंभलगढ़ के सलूंबर तक और गोरवाड़ से देबादी तक थी। मैदानी भाग पर शत्रु का अधिकार होने से बड़ी संख्या में नागरिकों ने भागकर पर्वतीय प्रदेश में शरण ली थी, जहाँ उन्हें नए सिरे से आजीविका के साधन खोजने थे। राणा उदयसिंह के सारे राज्यकाल में मेवाड़ ने भारी उथल-पुथल और निरंतर सैनिक संघर्ष देखे थे। इससे राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था और अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी । प्रताप के सामने मेवाड़ की सुरक्षा का प्रबंध करने के अतिरिक्त टूटे-फूटे राज्य को जोड़ने, सँभालने और प्रजा की दयनीय दशा को यथासंभव सुधारने की चुनौतियाँ थीं । maharana pratap ka rajseema
दरअसल राजपूतों की शक्ति को सबसे बड़ा आघात तो खानवा की लड़ाई में राणा साँगा की बाबर से हार के कारण ही लगा था। साँगा ने अपने शौर्य और व्यवहार-कुशलता के बल पर राजपूत रियासतों का जो शक्तिशाली संगठन बनाया था, खानवा की पराजय ने उसे बिखेरकर रख दिया था। हुमायूँ और फिर शेरशाह सूरी के काल में राजपूतों ने सँभलने की कुछ कोशिश जरूर की, पर अकबर के सिंहासन पर बैठने के बाद स्थिति और भी विकट हो गई। मुगलों की विशाल सेना और साम्राज्य से भी ज्यादा खतरनाक थी अकबर की भेद-नीति । राजपूतों के हौसले पस्त हो चुके थे। ऐसे में अकबर ने बड़ी होशियारी से कई राजपूत घरानों को प्रलोभन देकर अपने साथ मिला लिया। इनमें से कुछ तो मानो ऐसे निमंत्रण की प्रतीक्षा में ही थे। इनमें सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण था आमेर घराना, जिसके राजा भगवानदास ने न केवल अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, बल्कि अपनी बहन जोधाबाई का विवाह भी उससे कर दिया। इसके साथ ही भगवानदास ने अपने पुत्र मानसिंह को अकबर की सेवा में भेज दिया। वह अभिमानी, किंतु वीर योद्धा था । मुगलों की अपरिचित शक्ति का संबल पाकर उसका उत्साह और भी बढ़ गया और वह मुगलों का परचम लहराता हुआ विजय यात्रा पर निकल पड़ा। आमेर की देखा-देखी और भी कई राजपूत घरानों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी बहनों या बेटियों की शादी मुगल सामंतों से कर दी। मानसिंह ने इन राजपूत सरदारों को अपने साथ मिलाकर एक सशक्त संगठन बना लिया । व्यवहार कुशल अकबर मानसिंह की हर सैनिक सफलता पर उसे पुरस्कार में जागीरें और उपाधियाँ देता था। देखते ही देखते कुँवर मानसिंह राजा मानसिंह बन गया। maharana pratap ka rajseema
मेवाड़ के आसपास की बाँसवाड़ा, डूंगरपुर जैसी छोटी रियासतों ने भी देखा-देखी यही किया। कभी राणा उदयसिंह के दरबार में हाजिरी देनेवाले राजा दौड़कर अकबर की शरण में चले गए, जिससे मेवाड़ के गिर्द मुगलों का शिकंजा और कस गया। स्वयं राणा का अपना भाई जगमाल भी, जो उनके राज्याभिषेक के बाद ईर्ष्या की आग में जल रहा था, अजमेर के मुगल सूबेदार की शरण में चला गया । षड्यंत्र के बावजूद प्रताप का उसके प्रति बहुत स्नेहपूर्ण व्यवहार था। सूबेदार जानता था कि शहंशाह अकबर राजपूतों को अपनी तरफ मिलाने के लिए सदा इच्छुक रहते हैं। उसने पूरे उत्साह के साथ जगमाल का स्वागत किया और अतिथि सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अवसर मिलने पर जगमाल की इच्छानुसार सूबेदार ने उसे अकबर के दरबार में पेश किया। बादशाह ने खिलअत और जहाजपुर की जागीर देकर उसका सम्मान किया और मुगल साम्राज्य की छत्रछाया में पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन दिया। जगमाल यह उम्मीद लेकर अकबर की शरण में आया था कि देर-सबेर मेवाड़ पर मुगलों का शासन हो ही जाएगा। आखिर मेवाड़ इतनी बड़ी शक्ति के सामने अपने सीमित साधनों के साथ कब तक टिकेगा? उस दिन उसे अपने अपमान का बदला तो मिल ही जाएगा, अकबर प्रताप के स्थान पर उसे मेवाड़ का राजा भी बना देगा । maharana pratap ka rajseema
एक बार पहले जगमाल ने छल-कपट के जरिए मेवाड़ का राणा बनने का सपना देखा था, जो पल भर में चकनाचूर हो गया था। अब उसका यह दूसरा सपना भी उसके मरने तक सपना ही रहा। महत्त्वाकांक्षी पर अयोग्य जगमाल अकबर की कूटनीतिक चालों का शिकार होकर एक लड़ाई में कट मरा हुआ यह कि अकबर की नीति राजपूतों को आपस में लड़ाने की थी। इसके तहत उसने 1583 ई. में जगमाल को मुगल दरबार के प्रति वफादारी से खुश होकर सिरोही राज्य का आधा हिस्सा पुरस्कार में दे दिया। सिरोही पर उन दिनों स्वयं जगमाल के ससुर राव मानसिंह का शासन था ।
जगमाल की राज्य-लिप्सा ने पहले अपने बड़े भाई प्रताप सिंह का न्यायपूर्ण अधिकार छीनने की कोशिश की थी, तो इस बार अपने पितातुल्य ससुर का आधा राज्य मुगलों की सहायता से हड़पने को बेचैन हो गया। शहंशाह से पुरस्कार में मिला राज्य का आधा भाग पाने के लिए उसने सिरोही पर हमला कर दिया। आक्रमण का सामना करने के लिए राव मानसिंह का पुत्र सुरत्राण सेना लेकर आगे बढ़ा। सुरत्राण अपने राज्य की रक्षा के लिए बड़ी वीरता से लड़ा और युद्ध में जगमाल उसके हाथों मारा गया।
परंपरा के अधीन ही सही, राणा प्रताप का राज्याभिषेक पिता उदयसिंह की मृत्यु के शोकसंतप्त वातावरण की छाया में और धूर्त जगमाल को हटाकर सिंहासनासीन होने की अस्त-व्यस्तता में हुआ था। अत: यह तय किया गया कि कुंभलगढ़ में उनका राजतिलक दोबारा पूरे राजकीय वैभव के साथ किया जाए। लिहाजा पूरी तैयारियों के साथ महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक उल्लासपूर्ण वातावरण में हुआ और परंपरानुसार उसके बाद शिकार खेलने का आयोजन भी किया गया। इसे ‘अहेरिया उत्सव’ कहा जाता था। maharana pratap ka rajseema
आखेट के लिए उनके दो भाई समरसिंह और शक्तिसिंह भी प्रताप के साथ थे। उनके कुल पुरोहित भी इन तीनों के पीछे-पीछे चल रहे थे। आखेट का उत्साह अपने चरम पर था। प्रताप और शक्तिसिंह दोनों ही एक बनैले सूअर का पीछा कर रहे थे। दोनों के भाले लगभग एक ही समय में सूअर को लगे और वह चारों खाने चित हो गया। अब दोनों भाइयों में विवाद हो गया कि शिकार किसका है। बात बहुत बड़ी नहीं थी, लेकिन बड़ी बात यह थी कि प्रताप के महाराणा बनने और उनका मान-सम्मान देखकर शक्तिसिंह ईर्ष्या से जल-भुन गया था। वह अपने क्रोध पर काबू न रख सका और उसके अंदर का विष आक्रोश भरे शब्दों में प्रकट होने लगा। प्रताप भी आपा खो बैठे तो दोनों ने तलवारें खींच लीं, तब तक कुल पुरोहितजी भी पास आ गए थे। उन्होंने बीच-बचाव करने का भरसक प्रयास किया, पर दोनों भाइयों ने उनकी एक न सुनी। कोई विकल्प न देख वृद्ध पुरोहित ने उन दोनों के बीच आकर एक विशाल छुरा अपने सीने में घोपकर प्राण दे दिए। यह देखकर दोनों भाई शर्म से पानी-पानी हो गए। उधर संध्याकाल भी निकट था। राणा प्रताप ने राजपुरोहित के अंतिम संस्कार का समुचित प्रबंध किया और उनके परिवार को भरण-पोषण के लिए पर्याप्त धन मिला। इसके साथ ही उन्होंने ब्राह्मण की हत्या के लिए उत्तरदायी करार देकर शक्तिसिंह को देश-निकाले का दंड भी दे दिया। maharana pratap ka rajseema
कुछ इतिहासकारों ने टिप्पणी की है कि कुल पुरोहित की आत्महत्या के लिए प्रताप भी उतने ही जिम्मेदार थे, जितना शक्तिसिंह, फिर उसे इस प्रकार दंड देने का क्या औचित्य था? लेकिन जैसा कि हम पहले संकेत कर चुके हैं, यह एक घटना मात्र थी, जिसके इतना विस्फोटक रूप लेने के पीछे राणा के प्रति शक्तिसिंह की ईर्ष्या थी। महाराणा प्रताप अपने पिता उदयसिंह की तरह ही अपने परिवार में और आसपास होनेवाली सभी गतिविधियों की जानकारी रखते थे। उन्हें शक्तिसिंह के मन में पनप रही घोर ईर्ष्या और असंतोष का पता था। यह अवसर मिलने पर उन्होंने सोचा कि इससे पहले कि शक्तिसिंह ईर्ष्यावश कोई बड़ा षड्यंत्र रचे, उसे अपने से दूर कर देने में ही भलाई है ।
शक्तिसिंह कहाँ जाता? उसे भी वही मार्ग दिखाई दिया, जहाँ उसका दूसरा भाई जगमाल गया था। उसने दिल्ली की राह पकड़ी। अकबर तो महाराणा प्रताप से रूठे हर राजपूत का स्वागत करने को तैयार बैठा था। फिर यह तो उनका भाई था। न जाने कितनी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ और गुप्त जानकारियाँ इसके पास होंगी। उसने शक्तिसिंह का आदर-सत्कार किया और अपने यहाँ शरण दे दी। maharana pratap ka rajseema