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कवि वृंद के दोहे

कवि वृंद के दोहे

Kavi Vrind Ke Dohe
कवि वृंद के दोहे

दो शब्द

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हिन्दी-साहित्य में लोक-व्यवहार विषयक वृन्द कवि की सूक्तियां बड़ी लोकप्रिय हैं, और उनका अपना एक विशेष स्थान है। प्राचीन नीति-सूक्तियों के तथा अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर सुबोध दोहों की जो रचना कवि ने की, वह वस्तुतः निराली है। ये दोहे शैली और भाषा दोनों ही दृष्टियों से सरल और सरस हैं और सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं। अनेक दृष्टान्तों और कहावतों को गूंथ दिया है कवि ने दोहों की माला में। शाह अजीमुश्शान के प्रस्ताव पर ये दोहे वृन्द कवि ने रचे थे, जो निम्न दोहों से , प्रकट है : कवि वृंद के दोहे

किये वृन्द प्रस्ताव के, दोहा सुगम बनाय।
उक्ति अर्थ दृष्टान्त करि दृढ़ करि दिये बताय।।
भाव सरस समझत सबै, भले लगें यह भाय।
जैसे अवसर की कही, बानी सुनत सुहाय।।

अलंकारों का प्रयोग कम किया गया है। यमक और श्लेष से युक्त जो कतिपय दोहे ‘वृन्द-सतसई’ में हैं, वे भी कठिन हैं, उनका अर्थ सुगमता से लग जाता है।
वृन्द के दोहे लोक-व्यवहार चलाने के लिए मार्ग-दर्शन का काम देते हैं। नीति का सरल मार्ग लोकप्रिय दृष्टान्तों को सामने रखकर पाठक को ये सहज ही सुझा देते हैं।
कवि का नाम वृन्दावन था। उपनाम कविता में यह ‘वृन्द’ लिखते थे। मूल निवासी बीकानेर के थे। संवत् 1730 में वृन्द दिल्ली आकर बादशाह के औरंगजेब के शाहजादे मुअज्जम तथा पौत्र अजीमुश्शान के अध्यापक पद पर नियुक्त हो गये। कई बरस बाद किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने इनको किशनगढ़ बुला लिया और वहीं पर यह बस गये।
संवत् 1751 में वृन्द ने ढाका में जाकर ‘वृन्द-सतसई’ की रचना की। उसे ‘दृष्टान्त-सतसई’ भी कहते हैं, परन्तु यह ‘वृन्द-सतसई के नाम से ही प्रसिद्ध है।
वृन्द कवि की चार अन्य रचनाएं भी मिलती हैं-‘भावपंचाशिका, ‘शृंगार-शिक्षा’, ‘वचनिका’ और ‘सत्यस्वरूप’; किन्तु वृन्द-सतसई ही उक्त रचनाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध है।Kavi Vrind Ke Dohe
पुस्तक-सदन, वाराणसी से प्रकाशित वृन्द-सतसई से लगभग दो सौ दोहे प्रस्तुत पुस्तक में संकलित किये गए हैं। हमारे मित्र स्व. पंडित श्रीकृष्ण शुक्ल ने ‘सतसई’ पर जो टीका लिखी, उसका उपयोग कई स्थानों पर हमने किया है। -वियोगी हरि Kavi Vrind Ke Dohe

वृन्द कवि के सुबोध दोहे

नीकी पै फीकी लगे, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत जुद्ध में, नहिं सिंगार सुहात ।।1।।

बात अच्छी होने पर भी अगर बिना मौके के कही जाय तो वह फीकी मालूम देती है। युद्ध हो रहा हो और उस समय शृंगार रस की बात की जाय, तो वह अच्छी नहीं लगती।

फीकी पै नीकी लगै, कहिए समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि।।2।।

फीकी बात भी अवसर का विचार करके अगर कही जाती है तो वह अच्छी लगती है। विवाह के अवसर पर गाली-भरे गीत भी सबके मन को सुहावने लगते हैं।

रागी अवगुन ना गिनै, यहै जगत की चाल।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालगन लाल।।3।।

दुनिया की रीति यही है कि प्रेमीजन बुराइयों पर ध्यान नहीं देते। ‘काले’ को अर्थात् कृष्ण को ग्वाल लोग ‘लाल’ कहकर पुकारते हैं।प्रेमी को सब जगह, रंग चाहे जैसा हो, लाल यानी प्यारा ही दिखाई देता है। Kavi Vrind Ke Dohe

जाही ते कछु पाइये, करिये ताकी आस ।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझत पिआस।।4।।

जिससे कुछ प्राप्त हो, उसी की आशा करनी चाहिए। उस तालाब पर जाने से प्यास कैसे बुझेगी, जिसमें पानी न भरा हुआ हो?

कहा होय उद्यम किसे, जो प्रभु ही प्रतिकूल।
जैसे उपजे खेत को, करत सलभ निरमूल।।5।।

यदि ईश्वर ही प्रतिकूल हो जाय तो परिश्रम करना किस अर्थ का? देखो न, खेत की उपज को टिड्डियां खाकर निर्मूल कर देती हैं। Kavi Vrind Ke Dohe

अपनी पहुंच बिचारिक, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर।।6।।

विचारपूर्वक वह काम करना चाहिए, जितनी अपनी गति हो। जितनी लम्बी सौड़ (रजाई) हो, पैर उतने ही फैलाये जायं । Kavi Vrind Ke Dohe

कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर।।7।।

बलवानों से शत्रुता करके निर्बल आदमियों का निभाव कैसे हो सकता है। समुद्र में रहनेवाला मगर के साथ बैर कर ले तो उसका . निभाव कठिन ही है।

कीजे समझ, न कीजिए, बिन बिचारि व्यवहार।
आय रहत जानत नहीं, सिर को पायन भार।।8।।

व्यवहार सदा समझकर ही करना अच्छा है, बिना समझे नहीं। सिर का बोझ पैर पर पड़ता है लेकिन पैर उसे जानता नही। Kavi Vrind Ke Dohe

विद्या धन उद्यम बिना, कहो जु पावै कौन।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यों पंखा की पौन।।9।।

बिना उद्यम या बिना पुरुषार्थ के विद्या और धन, कहो, किसे प्राप्त हुआ है ? पंखे को बिना डुलाये हवा का सुख मिलनेवाला नहीं।

प्रान तृषातुर के रहै, थोरेहूं जलपान।
पीछे जलभर सहस घट, डारे मिलत न प्रान।।10।।

पीने के लिए थोड़ा-सा भी पानी मिल जाय, तो प्यास के मारे निकलते हुए प्राण बच सकते हैं। बाद में पानी से भरे हजारों घड़े भी मिल जायं तो छूटे हुए प्राण फिर लौटने के नहीं।

बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ।।11।।

अगर कोई बात मालूम हो कि वह बन रही है, तो इस बात का ध्यान रहे कि वह बिगड़ने न पाय। पीठ उसी तरफ करनी चाहिए जिस रुख से हवा आती हो।

रहे समीप बड़ेन के, होत बड़ो हित-मेल।
सबही जानत बढ़त है, बृच्छ बराबर बेल।।12।।

बड़ों के समीप रहने से लाभ भी बड़ा होता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि वृक्ष के साथ रहने से लता भी उसके बराबर ही बढ़ जाती है। Kavi Vrind Ke Dohe

बुरे लगत सिखके बचन, हिये बिचारो आप।
करुई भेषज किन पिये, मिटै न तन को ताप।।13।।

सीख की बातें सुनने में बुरी तो मालूम देती हैं, पर मन में विचार करो कि शरीर का ताप अर्थात् ज्वर कड़वी दवा से ही दूर होता है।

बिधि रूठै तूठै कवन, को करि सके सहाय।
बन-दव-भय जलगत नलिन, तह हिम देत जराय।।14।।

अपना भाग्य ही रूठ जाय तो और कौन सन्तुष्ट कर सकता है, कौन उसका सहायक हो सकता है ? दावानल के भय से कमल पानी के अन्दर चला गया, पर वहां भी पाला उसे जला देता है।

बिधि के बिरचे सुजनहूं, दुरजन सम वै जात।
दीपहि राखै पवन तें, अंचल बहै बुतात।।15।।

ईश्वर के सिरजे हुए सज्जन भी दुर्जन के सामने हो जाते हैं। अंचल हवा से जिस दीये को बचाता है, उसी को वह बुझा देता है खुद हिलकर। Kavi Vrind Ke Dohe

अति परचै तै होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चन्दन देत जरास।।16।।

बहुत अधिक परिचय से अरुचि और अनादर होता है। मलयागिरि की भीलनी चन्दन को (चूल्हे में) झोंक-झोंककर जला देती है।

फेर न ह्वै है कपट सों, जो कीजै व्यापार।
जैसे हांडी काठ की, चढ़े न दूजी बार।।17।।

छल-कपट से किया गया व्यापार ज्यादा नहीं चल सकता। काठ की हांडी आग पर दूसरी बार नहीं चढ़ाई जा सकती।

नैना देत बताय सब, हित को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली-बुरी कहि देत।।18।।

आंखें बतला देती हैं कि मन में क्या तो भलाई है और क्या बुराई है। निर्मल दर्पण अच्छा या बुरा सब कुछ प्रकट कर देता है Kavi Vrind Ke Dohe

करिये सुख कौ होत दुख यह कहु कौन सयान।
वा सोने कौ जारिये, जासों टूटैं कान।।19।।

यह कौन-सा सयानापन है कि कोई काम किया तो जाय सुख पाने के लिए, पर हो उससे दुःख ? ऐसे सोने को आग लगा दो, जिससे कान फट जाता हो।

भले बुरे सब एक से, जौलों बोलत नाहिं।
जान परतु हैं काक पिक, ऋतु बसन्त के माहिं।।20।।

भला कौन है और बुरा कौन, ऊपर-ऊपर से सब एक-से ही लगते हैं। कौए और कोयल की पहचान तो बसन्त ऋतु आने पर ही होती है।

मूरख को पोथी दई, बांचन को गुन-गाथ।
जैसे निरमल आरसी, दई अन्ध के हाथ।।21।।

गुणों की गाथा बखानने के लिए किसी मूर्ख के हाथ में पुस्तक देने से वही दशा होती है, जैसे अन्धे के हाथ में निर्मल दर्पण देना।

न करि नाम रंग देखि सम, गुन बिन समझे बात।
गात धात गौ-दूध ते, सेहुड़ के ते घात।।22।।

किसी गुण को मत परखो एक ही प्रकार का नाम और एक ही प्रकार का रंग देखकर। गाय का दूध और थूहर का दूध दोनों सफेद दीखते हैं, पर गाय का दूध जहां शरीर के बल को बढ़ाता है, वहां थूहर का दूध घाव कर देता है। Kavi Vrind Ke Dohe

हितहू को कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध ।।23।।

मूर्ख से उसके हित की बात भी नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि उससे वह बिगड़ता ही है। नकटे आदमी को दर्पण दिखाया जाये, तो उसे क्रोध आ जाता है।

बिन गुन कुल जाने बिना, मान न करि मनुहारि।
ठगत फिरत सब जगत को, भेष भक्त को धारि।।24।।

बगैर यह जाने हुए क्या तो उस व्यक्ति में गुण हैं और क्या उसका कुल है, उसकी चापलूसी नहीं करनी चाहिए। कितने ही ठग दुनिया को ठगा करते हैं भगवान् के भक्तों का भेष बना-बनाकर।

मधुर बचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।
तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध-उफान।।25।।

मीठा वचन बड़े-बड़ों की ऐंठ को मिटा देता है। जैसे, जरा-सा ठंडा जल दूध के उफान को शान्त कर देता है।

कछु बसाय नहिं सबल सों, करै निबल पर जोर।
चलै न अचल उखारि तरु, डारत पवन झकोर ।।26।।

यह देखो बलवान के आगे तो कुछ बस नहीं चलता, और निर्बल के साथ ये जोर आजमा रहे हैं ! पहाड़ को हवा जरा भी हिला नहीं सकती, पर पेड़ को जड़ से उखाड़ देती है।

सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।27।।

बलवान के सभी साथी हैं, निर्बल का कोई साथी या सहायक नहीं। जो पवन आग को जगा देता है, वही बेचारे दीये को बुझा देता है।

अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय।।28।।

बहुत जिद न करो, इससे कोई बात बनने की नहीं। कम्बल ज्यों-ज्यों भीगता जाता है, वजन उसका त्यों-त्यों भारी होता जाता है।

दुष्ट न छाड़े दुष्टता, कैसेहूं सुख देत।
धोयेहू सौ बेर के, काजर होय न सेत।।29।।

दुष्ट आदमी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता, उसे चाहे कितना ही सुख दिया जाय। काजल सौ बार धोने पर भी सफेद होने का नहीं।

लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूं कहुं ओस के, मिटत काहु की प्यास।।30।।

लालच उतनी ही करनी अच्छी है, जितने से आशा पूरी हो जाय । ओस की बूंदों को चाटने से, क्या किसी की प्यास बुझ सकती है ?

अभिलाषी इक बात के, तिनमें होय विरोध।
काज राज के राजसुत, लरत मिरत करि क्रोध ।।31।।

एक ही चीज को चाहनेवालों में आपस में विरोध या झगड़ा पैदा हो जाता है। राज्य पाने के लिए जैसे राजकुमार लोग क्रोध में पागल होकर लड़ते-भिड़ते रहते हैं।

जो जाको चाहै भलो, सो ताही की पीर।
नीर बुझावत आग को, सोखै ताहि समीर ।।32।।

जो जिसका भला करता है, उसे उसकी पीड़ा भी होती है। आग को पानी बुझा देता है, और हवा उसे सुखा देती है, क्योंकि हवा आग की मित्र है।

जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहं पाइये, सोनों और सुगन्ध ।।33।।

परमेश्वर ने जैसा गुण दिया है, वैसा ही स्वरूप कहां मिल सकता है ?ये दोनों बातें, सोना और उसमें सुगन्ध, कहां मिल सकती हैं ? जैसा गुण ईश्वर ने दिया है ठीक वैसा ही रूप कहां कैसे मिलेगा। सोना और सुगन्ध यह दोनों बातें एक साथ कहां देखने में आयेंगी।

आडम्बर तजि कीजिए, गुन-संग्रह चित चाय ।
छीररहित गउ ना बिकै, आनिय घंट बंधाय ।।34।।

आडम्बर छोड़कर, मन लगाकर, अच्छे-अच्छे गुणों का संग्रह करना चाहिए। ऐसी गाय बिकने की नहीं, जो दूध न देती हो, भले ही उसके गले में घंटा बंधा हो।

जो चाहो सोई करो, मेरो कछु न कहाव ।
जन्त्री के कर जन्त्र है, भावै सोइ बजाव।।35।।

मुझे कुछ नहीं कहना, जो ईश्वर चाहता है, वही होता है। वीणा तो बजानेवाले के हाथ में है, उससे वह चाहे जैसा राग बजाये।

अपनी-अपनी ठौर पर, सोभा लहत विसेष ।
चरन महावर है भलो, नैनन अंजन-रेख।।36।।

किसी भी वस्तु की विशेष शोभा तो उसके अपने स्थान पर ही है। महावर पैरों में सुन्दर दिखता है, और अंजन की रेख आंखों में ।

प्रेम-निबाहन कठिन है, समूझि कीजियो कोय ।
भांग भखन है सुगम, पै, लहर कठिन ही होय।।37।।

बहुत समझकर प्रीति जोड़नी चाहिए, क्योंकि उसका अन्त तक निभाना बड़ा कठिन होता है। भांग का खा लेना तो आसान है, पर नशा बड़ा कठिन होता है।

नहिं इलाज देख्यौ सुन्यौ, जासों मिटत सुभाव।
मधु-पुट कोटिक देत तऊ, विष न तजत विशभाव।।38।।

स्वभाव बदलने का इलाज न तो देखा गया है, न सुना गया है। विष अपना विषपना छोड़ नहीं सकता, भले ही मधु के करोड़ों पुटों में उसे रक्खा जाय।

देव-सेव फल देत है, जाकौ जैसो भाय।
जैसो मुख करि आरसी, देखौ सोइ दिखाय ।।39।।

देवता की सेवा-पूजा से साधक को वैसा फल मिलता है, जैसाकि उसका मनोभाव होता है। शीशे में जैसा मुख बनाकर हम देखेंगे, वैसा ही वह दिखाई देगा।

अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर।
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ।।40।।

सभी लोग अपनी-अपनी गरज या जरूरत से बोलते या खुशामद करते हैं। पहाड़ पर रहनेवाला मोर भी बादल गरजने के बगैर बोलता नहीं।

प्रेम बंधन एक फाँस है kavi vrind ke dohe

जैसे बन्धन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और।
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकरै भौंर।।41।।

प्रेम के बन्धन की तरह दूसरा कोई बन्धन नहीं। भौंरे को देखो, काठ को वह छेद देता है, पर कमल को छेदकर उसके अन्दर से बाहर नहीं निकल सकता।

नवल नेह आनंद-उमंग, दुरै न मुख चख ओर।
तैसो जान्यौ जात है, ज्यों सुगन्ध कौ चोर ।।42।।

नये प्रेम और आंनद की उमंग कोई कितनी ही छिपाये, छिप नहीं सकती। मुख और आंखों से प्रकट हो जाता है अन्दर का भाव । इत्र चुरानेवाला इत्र की सुगंध को छिपा नहीं सकता।

सुख बीते दुःख होत है, दुःख बीते सुख होत ।
दिवस गये ज्यौँ निसि उदित, निसिगत दिवस-उदोत।।43।।

सुख बीत गया तो दुःख होता है, और दुःख कट गया तो सुख आ जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे दिन ढल जाने पर रात आ जाती है और रात के बीत जाने पर दिन हो जाता है।

प्रकृति मिले मन मिलत है, अनमिलते न मिलाय।
दूध दही ते जमत है, कांजी तें फटि जाय।।44।।

स्वभाव मिल गया तो मन भी मिल गया, स्वभाव न मिले, तो मन मिलने का नहीं। यदि दही दूध में पड़ जाय, तो वह जम जाता है, किन्तु कांजी पड जाय, तो वह फट जाता है।

दोष-भरी न उचारिये, जदपि जथारथ बात।
कहे अन्ध को आंधरो, मान बुरो सतराल ।।45।।

ऐसा बोल नहीं बोलना चाहिए, चाहे वह उचित भी हो, पर जिसमें दोष भरा हुआ हो। अन्धे को अन्धा कहने से वह बुरा मानता है, और गुस्सा भी करता है।

स्वारथ के सबहीं सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं।
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ि जाहिं।।46।।

जहां तक स्वार्थ सधता है, सभी सगे-संबंधी बन जाते हैं; बिना स्वार्थ के सगा भी अपना नहीं होता है। रसदार वृक्ष का ही सेवन पक्षी करते हैं, रस न रहने पर उड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।

सज्जन अंगीकृत कियो, ताको तेहिं निबाहि।
राखि कलंकी कुटिल ससि, तउ सिव तजत न ताहि।।47।।

सज्जन जिसे अपना लेता है, उसे वह सदा निभाता है। चन्द्रमा को शिवजी कभी त्यागते नहीं, यद्यपि वह कलंकित है।

घटति बढ़ति सम्पति सुमति, गति अरहट की जोय ।
रीती घटिका भरति है, भरी सु रीती होय ।।48।।

सम्पदा कभी घट जाती है, और कभी बढ़ जाती है। वह रहट की घरिया जैसी है। घरिया पानी से एक बार भर जाती है और फिर खाली हो जाती है।

ब्रह्म बनाये बन रहे, ते फिर और बनैं न।
कान कहत नहिं बैन ज्यों, जीम सुनत नहिं बैन।।49।।

भगवान् ने जिसे जैसा जो कुछ बना दिया, फिर वह दूसरा कुछ बन नहीं सकता। जीभ की तरह कान बोल नहीं सकते, और जीभ कानों की तरह सुनने से रही।

एक बिरानो ही भलो, जिहि सुख होत सरीर ।
जैसे बन की औषधी, हरत रोग की पीर ।।50।।

शरीर को जिससे सुख मिलता हो, वही अच्छा है, भले ही वह विराना या गैर हो। जंगल की बूटी रोग की पीड़ा दूर कर देती है, जिसके साथ हमारा कोई नाता नहीं।

उत्तम जन की होड़ करि, नीच न होत रसाल।
कौवा कैसे चल सके. राजहंस की चाल ।।51।।

श्रेष्ठ जनों के साथ होड़ करके नीच आदमी उत्तम नहीं हो सकता। राजहंस की चाल कौवा नहीं चल सकता है। kavi vrind ke dohe

कोउ कहै हित की कहै, वै ताही सों हेत।
सबै उड़ावत काग को, पै बिरहिनि बलि देत।।52।।

अपने हित की बात कहनेवाला चाहे कोई भी हो, उसके साथ प्रेम हो जाता है। लोग वैसे कौवे को उड़ा देते हैं, पर वियोगिनी उसे बल अर्थात् भोजन बुला-बुलाकर देती है। कहा जाता है कि कौवा किसी विरहिणी के सामने जब बोलता है, तो वह मानती है कि कौवा उसका संदेश परदेश में पति को पहुंचा देगा, इसीलिए वह उसे खिलाती है।

उत्तम जन के संग में, सहजै ही सुख मास।
जैसे नृप लावे अतर, लेत समा-जन बास।।53।।

स्वभावतया सुख मिल जाता है उत्तम जनों के साथ रहने से। राजा अपने वस्त्रों में इत्र लगाता है, तो सारा दरबार उसकी सुगंध लेता है। kavi vrind ke dohe

जिहिं प्रसंग दूषन लगे, तजियो ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत, दूध कलारी हाथ।।54।।

जिसके साथ बैठने से दोष लगता हो, उसका साथ छोड़ देना चाहिए। कलारी के हाथ का दूध भी दुनिया मदिरा मान लेती है।

खल जन सों कहिये नहीं, गूढ़ कबहुं करि मेल।
यों फैले जग माहिं ज्यों, जल पर बुन्दकि तेल।।55।।

किसी दुष्ट से कभी अपनी गूढ़ बात नहीं कहनी चाहिए, भले ही वह मित्रता दिखाये। पानी पर तेल की बूंद गिर पड़े, तो वह सारे में फैल जाती है।

मूढ़ तहां ही मानिये, जहां न पण्डित होय।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछ कोय ।।56।।

मूर्ख का वहीं आदर होता है, जहां कोई पंडित न हो। सूरज के उदय होने पर दीपक को कोई नहीं पूछता। kavi vrind ke dohe

मूरख गुन समुझें नहीं, तो न गुनी में चूक।
कहा भयो दिन को बिभौ, देखै जो न उलूक।।57।।

यदि कोई मूर्ख गुण को नहीं समझता, तो उसमें गुणी का क्या दोष ? उल्लू को यदि दिन में दिखाई नहीं देता, तो इससे दिन की कीमत नहीं घट जाती।

बिन स्वारथ कैसे सहै, कोऊ करुवे बैन।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन।।58।।

बिन स्वार्थ के कोई दूसरे के कड़वे वचन कैसे सहेगा। गाय यदि दूध देनेवाली हो, तो उसकी लात खाकर भी उसे हम प्यार करते हैं, पुचकारते हैं।

होय बुराई तें बुरो, यह कीनो निरधार ।
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ।।59।।

यह बात पक्की है कि बुरा काम करने से उसका बुरा फल मिलता है। दूसरों के लिए यदि कोई गड्ढा खोदता है, तो उसके लिए पहले से ही कुआं तैयार है।

दुष्ट न छोड़े दुष्टाता, पोखै राखै ओट ।
सर्पहि केतो हित करौ, चपै चलावै चोट।।60।।

किसी दुष्ट को चाहे कितना ही पालो और पोसो, वह अपनी दुष्टता छोड़नेवाला नहीं। साप का कितना ही हित किया जाय, दब जाने पर वह काटेगा ही।

जाको जहं स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात।
चोर न प्यारी चांदनी, जैसे कारी रात।।61।।

जहां जिसका स्वार्थ सधता है, उसके लिए वही अच्छा है । जैसे चोर को चांदनी रात अच्छी नहीं लगती, उसे तो अंधेरी रात ही सुहाती है।

धन संच्यौ किहि काम कौ, खाउ खरच हरि प्रीति।
बंध्यौ गंधीलो कूप जल, कढ़े बढ़े यहि रीति ।।62।।

संचित किये हुए धन का उपयोग खाने में, खर्चने में और भगवद्भक्ति और परोपकार करने में न किया गया, तो उसका अर्थ क्या ? कुएं का पानी बन्द रहने से गंदा हो जाता है; पर यदि वह निकलता रहे तो बढ़ता रहता है।

कछु सहाय न चलि सकै, होनहार के पास।
भीष्म युधिष्ठिर से जहां, भो कुरु-बंस बिनास ।।63।।

होनहार पर कुछ भी उपाय काम नहीं देता। भीष्म पितामह और युधिष्ठिर जैसे धर्मात्माओं के रहते हुए भी कुरुवंश का विनाश हो गया।

कष्ट परेहूं साधुजन, नैकु त होत मलान।
ज्यों-ज्यों कंचन ताइये, त्यों-त्यों निर्मल जान।।64।।

सत्पुरुष कष्ट में भी दुःखी नहीं होते हैं। सोना त्यों-त्यों निर्मल होता है, ज्यों-ज्यों उसे तपाया जाय । kavi vrind ke dohe

अति ही सरल न हूजियो, देखो ज्यों बनराय।
सीधे-सीधे छेदिये, बांकौ तरु बच जाय ।।65।।

बहुत अधिक सीधा नहीं होना चाहिए। जंगल को ही देखो, सीधे-सीधे वृक्ष काट दिये जाते हैं और टेढे बच जाते हैं।

मिथ्या-भाषी सांच हू, कहै न मानै कोइ।
भांड पुकारै पीर बस मिस समुझत सब कोइ।।66।।

झूठा आदमी सच भी बोले, तो उसे कोई नहीं मानता। भांड मारे दर्द के चिल्लाता है, तो भी लोग उसकी चिल्लाहट बनावटी ही समझते हैं।

सुजन कुसंगति संग तै, सज्जनता न तजन्त।
ज्यों भुजंग-गन संग तउ, चन्दन विष न धरन्त।।67।।

सज्जन यदि कुसंग में पड़ जाय, तब भी वह अपनी सज्जनता नहीं छोड़ता। चन्दन के वृक्ष पर सांप अपने विष का प्रभाव नहीं डालता उससे लिपट जाने पर भी ।

कन-कन जोरै मन जुरै, कादै निबरै सोय।
बूंद-बूंद ज्यों घट मरै, टपकत बीते तोय ।।68।।

वह एक-एक कण जोड़ने से मन इकट्ठा हो जाता है और खर्च करने से एक कण भी नहीं रह पाता। घड़ा एक-एक बूंद करके भर जाता है, और बूंद-बूंद टपकने से खाली हो जाता है।

दोषहिं को उमहै गहै, गुन न गहै खल-लोक।
पियै रुधिर, पय ना पियै, लगी पयोधर जोंक।।69।।

बुराई को ही बड़े उत्साह से दुष्ट लोग ग्रहण करते हैं, गुण को नहीं ग्रहण करते। गाय के थन में लगी हुई जोक जैसे रक्त ही पीती है, दूध नहीं।

सांच झूठ निर्नय करै, नीति-निपुन जो होय ।
राजहंस बिन को करै, छीर नीर को दोय ।।70।।

नीति-निपुण मनुष्य निर्णय कर लेता है कि क्या तो सच है और क्या झूठ । और पानी को अलग-अलग एक राजहंस ही कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। दूध

हरत दैवहू निबल अरु, दुर्बल ही के प्रान।
बाघ सिंह को छाडिकै, देत छाग बलिदान ।।71।।

निर्बल और असहाय के प्राण दैव भी हर लेता है।लोग बकरे की बलि चढ़ाते हैं, बाघ और सिंह को छोडकर ।

कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर।।72।।

काम तो धीरे-धीरे ही बनता है, अधीर क्यों हुआ जाय ? वृक्षों में फल समय आने पर ही लगते हैं, चाहे उन्हें कितना ही सींचा जाय।

उद्यम कबहुं न छोड़िये, पर आसा के मोद।
गागर कैसे फोरिये, उनयो देखि पयोद।।73।।

दूसरे की आशा पर उद्योग करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए। पानी-भरा घड़ा फोड़ नहीं दिया जाता, बादलों की उमड़ी हुई घटा को देखकर।

सेयो छोटो ही भलो, जासों गरज सिराय।
कीजै कहा पयोधि को, जाते प्यास न जाय ।।74।।

ऐसे छोटे-से ही आदमी की सेवा करना कहीं अच्छी है, जिससे अपना मतलब बनता हो। समुद्र को लेकर क्या किया जाय, जिससे प्यास न बुझे ।

क्यों कीजे ऐसो जतन, जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआं, कैसे निकरै तोय।।75।।

वह यत्न किस काम का, जिससे काम पूरा न हो। पहाड़ पर कुआं खोदने से पानी कैसे निकलेगा ?

सांची संपति और की, और भोगवै आय।
कन-संग्रह चैंटीन को, ज्यों तीतर चुगि जाय ।।76।।

किसी की जोड़ी हुई संपत्ति को दूसरा आकर भोगे यह वैसी ही बात है कि चींटियां तो एक-एक कण का संग्रह करें और तीतर आकर चुग जाय।

जदपि आपनो होय तऊ, दुख में करत न सीर।
ज्यौं दुखती अंगुरी निकट, दुसरी ताहि न पीर ।।77।।

अपना होते हुए भी दूसरा आकर दुःख दूर नहीं करता। दुखती हुई अंगुली की पीड़ा दूसरी अंगुली नहीं जानती।

कबहुं कुसंग न कीजिये, किये प्रकृति की हानि।
गूंगे को समझाइयो, गूंगे की गति आनि।।78।।

बुरी संगति कभी नहीं करनी चाहिए, इससे स्वभाव बिगड़ जाता है । किसी गूंगे को अपनी बात समझाने के लिए स्वयं गूंगा बनना पड़ता है।

कहा करै कोऊ जतन, प्रकृति न बदले कोय ।
सानै सदा सनेह में, जीभ न चिकनी होय।।79।।

कितना ही यत्न किया जाय, पर स्वभाव बदलने का नहीं। जीभ को हमेशा स्नेह अर्थात् चिकनी वस्तुओं में लपेटकर रखा जाय वह चिकनी होनेवाली नहीं।

हितहू भलो न नीच को, नाहिंन भलो अहेत।
चाट अपावन तन करे, काट स्वान दुख देत।।80।।

नीच आदमी का न तो हित करना अच्छा, और न अहित करना। कुत्ता शरीर को प्यार से चाटकर अपवित्र कर देता है, और काट लेने पर दुःख देता है।

गाडर अगर सिंह की ख़ाल पहन लें

भेष बनाये सूर कौ, कायर सूर न सोय ।
खाल उढ़ाये सिंह की, स्यार सिंह नहिं होय।।81।।

शूरवीर का वेश बनाकर कोई कायर शूर नहीं हो जाता। सिंह की खाल उढ़ा देने से जैसे सियार सचमुच सिंह नहीं हो जाता।

उत्तम पर-कारज करे, अपनो काम बिसार।
पूरे अन्न जहान कौ, ता पति भिक्षाधार ।।82।।

उत्तम पुरुष अपना काम छोड़कर भी दूसरे का काम करते हैं। अन्नपूर्णा समस्त संसार को अन्नदान करती है, पर उनके पति शिवजी को भिक्षा का ही भरोसा है !

बड़ें न लोपें लाज-कुल, लोपै नीच अधीर।
उदधि रहै मरजाद में, बहे उलट नद-नीर।।83।।

बड़े लोग अपनी कुल की मर्यादा में रहते हैं। नीच आदमी ही अधीर होकर मर्यादा तोड़ बैठते हैं। समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, जबकि वर्षा का पानी उलटा बहने लगता है ।

चतुर सभा में कूर नर, सोभा पावत नाहिं।
जैसे बक सोहत नहीं, हंस मंडली मांहिं ।।84।।

मूर्ख मनुष्य की शोभा चतुर लोगों की सभा में नहीं होती है। बगुला क्या कभी हंसों की मण्डली में शोभित होता है ?

काम परेई जानिए, जो नर जैसो होय।
बिन ताये खोटो खरो, गहनो लखै न कोय।।85।।

काम पड़ने पर ही जानना चाहिए कि कौन आदमी किस प्रकार का अथवा किस स्वभाव का है। गहना आग में तपाने पर ही जाना जाता है कि वह खरा है या खोटा।

भले वचन मुख नीच के, नाहिंन होत प्रकास।
हींग लहसुन में न मिले, घन कस्तूरी बास।।86।।

नीच आदमी के मुख से अच्छी बात कभी नहीं निकलती। कपूर और कस्तूरी की सुगन्ध के आगे जैसें हींग और लहसुन की गंध।

होत सुसंगति सहज सुख, दुख कुसंग के थान।
गन्धी और लुहार की, देखौ बैठि दुकान।।87।।

अच्छी संगति में जहां स्वाभाविक सुख मिलता है, वहां बुरी संगति में में दुःख मिलता है। अत्तार और लोहार की दुकान पर जरा बैठकर देखो।

हीन अकेलो ही भलो, मिले भले नहिं दोय।
जैसे पावक पवन मिलि, बिफरै हाथ न होय।।88।।

नीच आदमी अकेला ही अच्छा होता है; दो नीचों का मिल जाना अच्छा नहीं। पावक और पवन दोनों मिलकर अगर बढ़ जायं, तो फिर काबू में आने के नहीं।

क्यों करिये प्रापति अलप, जामें सम अति होय ।
कौन जु गिरिवर खोदि कै, चूहा काढ़े जोय।।89।।

जिस काम के करने में श्रम अधिक हो और लाभ थोड़ा, उसे क्यों किया जाय? पहाड़ खोदकर चूहा निकालने की बेवकूफी क्यों की जाय ? ( कहावत भी है कि ‘खोदा पहाड़ और निकला चूहा।)

बिपत परे सुख पाइये, जा ढिग करिये भौन।
नैन सहाई बधिर के, अन्ध सहाई सौन।।90।।

विपत्ति में पड़ोसी से ही सुख मिलता है। आंख से बहरे को और कान से अन्धे को मदद मिलती है।

जहां चतुर नाहिंन तहाँ, मूढ़न को व्यवहार।
वर-पीपर बिन हो रहे, ज्यों अरंड अधिकार ।।91।।

मूर्यों का उपयोग वहीं होता है, जहां बुद्धिमान लोग नहीं होते हैं। अरंड के पेड़ की कीमत वहीं होती है, जहां बरगद और पीपल के पेड़ नहीं होते हैं।

होय पहुंच जाकी जिती, तेतौ करत प्रकास।
रवि ज्यों कैसे करि सकै, दीपक तम को नास ।।92।।

जितनी जिसकी पहुंच होती है, वहीं तक वह काम देता है। भला सूरज की तरह दीया कभी अंधेरे को दूर कर सकता है ?

जथाजोग की ठौर बिन, नर छबि पावे नाहिं।
जैसे रत्न कथीर में, कांच कनक के माहिं ।।93।।

कोई भी बिना यथोचित स्थान पाये शोभा नहीं पाता। गुदड़ी में जैसे रत्न और सोने के गहनों के बीच जैसे कांच शोभा नहीं देता।

कहा भयो जो धन भयो, आदर गुन ते होइ।
कोटि दोय धारी धनुष, गुन बिन गहत न कोइ ।।94।।

आदर गुण से ही होता है, बिना गुण के धन बेकार है। दो कोटि यानी सिर का धनुष बिना डोर ( गुण ) के बेकार है। (इस दोहे में ‘कोटि’ के दो अर्थ हैं-सिरा और करोड़। इसी प्रकार ‘गुन’ शब्द के दो अर्थ हैं, अर्थात् गुण और धनुष की डोर, जिसे प्रत्यंचा कहते हैं।)

होय न कारज मो बिना, यह जु कहै सु अयान।
जहां न कुक्कुट सब्द तह, होत न तहां विहान ।।95।।

कोई यदि यह कहे कि बिना मेरे काम पूरा होने का नहीं, तो यह मूर्खता है। मुर्गा यदि कहीं बांग न दे, तो क्या वहां सवेरा नहीं होगा ?

गुनवारो संपति लहै, बिन गुन लहै न कोय ।
काढ़े नीर पताल ते, जो गुनजुत घट होय ।।96।।

संपत्ति गुणी को ही मिलती है, बिना गुण के नहीं। यदि घड़े में रस्सी (गुण) लगी हुई हो, तो पाताल से भी पानी निकाला जा सकता है।

पंडित पंडित सों मिलै, संसो मिटत न बेर ।
मिले दीप दुइ दुहुन कौ, होत अँधेर निबेर ।।97।।

यदि कोई विद्वान् किसी विद्वान् से मिलता है, तो दोनों के संदेह का निवारण हो जाता है। दो दीये आपस में मिल जायं, तो एक-दूसरे के निचले भाग का अन्धकार दूर कर देते हैं।

फल बिचारि कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यों बारू पेरिए, नाहीं निकसै तेल।।98।।

क्या फल मिलेगा, यह विचार करके ही काम करना चाहिए, व्यर्थ का काम बिना विचार के नहीं करना चाहिए। बालू को पेरने से तेल थोड़े ही निकलता है।

गुरुहू सिखवै ज्ञान गुन, सिष्य सुबुधि जो होय ।
लिखै न खुरदरि भीत पर, चित्र चितेरौ कोय।।99।।

शिष्य समझदार हो तभी गुरु उसे ज्ञान की शिक्षा देता है। खुरदरी दीवार पर जैसे कोई चित्रकार चित्र अंकित नहीं करता।

पीछे कारज कीजिये, पहिले पहुंच पसार ।
कैसे पावत उच्च फल, वावन बांह पसार ।।100।।

अपनी योग्यता को अच्छी तरह समझकर काम शुरू करना चाहिए। बौना आदमी ऊंचे स्थान पर लगे हुए फल को हाथ बढ़ाकर कैसे पा सकता है।

दुष्ट निकट बसिये नहीं, बसि न कीजिये बात।
कदली बेर प्रसंग तें, छिदै कंटकन पात।।101।।

दुष्ट के पास न रहो, और रहना ही पड़ जाय, तो उससे कोई बात न करो। केले का पेड़ बेर के पेड़ के साथ रहने से अपने अंग ही छिदवाता है।

अरि छोटो गनिये नहीं, जाते होय बिगार।
तृन-समूह को छिनक में, जारत तनिक अंगार ।।102।।

शत्रु को छोटा नहीं गिनना चाहिए, जिससे कि अपना विनाश हो सकता है।जरा-सा अंगार घास के ढेर को एक क्षण में भस्म कर देता है।

ताको अरि का करि सके, जाकौ जतन उपाय।
जरै न ताती रेत सों, जाके पनहीं पाय।।103।।

समय पर ठीक-ठीक उपाय कर लिया जाय तो शत्रु क्या बिगाड़ सकता है? जिसके पैर में जूते हैं, उसके पैर गर्म रेत में जल नहीं सकते ।
नर कारज की सिद्धि लौ, करै अनेक प्रकार।
छूटे रोग रोग सरीर तैं, को ढूंढै उपचार।।104।।
जब तक काम सफल नहीं हो जाता, तब तक मनुष्य उसकी सफलता के लिए अनेक प्रकार के उपाय करता है शरीर का रोग दूर हो गया, फिर कौन उपचार की तलाश करता है ?

सूरबीर की सम्पदा, कायर पै नहिं जाय।
निहचै जानौ सिंह-बलि, स्यार न कबहूं खाय।।105।।

शूरवीर की सम्पदा कायर मनुष्य को प्राप्त नहीं होती। यह निश्चय है कि सिंह की बलि अर्थात् भक्ष्य को स्यार कभी नहीं खाता।

पंडित जन को सम-मरम, जानत जे मतिधीर।
कबहूं बांझ न जानई, तन प्रसूत की पीर ।।106।।

बुद्धिमान ही बुद्धिमान के परिश्रम का मर्म जानता है। बांझ स्त्री क्या जाने कि प्रसव की पीड़ा कैसी होती है।

कारज ताही को सरै, करै जु समै निहारि।
कबहुं न हारे खेल में, खेलें दांव बिचारि।।107।।

कार्य उसीका सफल होता है, जो समय को देखकर उसे करता है अपना दांव विचारकर जो खेलता है, वह कभी नहीं हारता।

नृप-प्रताप तें देस में, रहै दुष्ट नहिं कोय।
प्रगटै तेज दिनेस कौ, तहां तिमिर नहिं होय।।108।।

राजा के प्रताप और तेज से प्रजा में दुष्ट कोई रहता नहीं। सूरज का तेज प्रकट होते ही अन्धकार कहां रह पाता है ?

सब देखें पै आपनौ, दोश न देखै कोइ।
करै उजेरौ दीप पै तरे अंधेरो होइ।।109।।

सभी दूसरे के दोष देखते हैं, पर अपना दोष कोई नहीं देखता। दीपक सारे घर में उजाला करता है, पर उसके नीचे अंधेरा ही रहता है।

उत्तम जन सों मिलत ही, अवगुन हूं गुन होय ।
धन संग खारो उदधि मिलि, बरसै मीठौ तोय ।। 110।।

उत्तम मनुष्य से मिलते ही अवगुण भी गुण हो जाता है। खारा समुद्र मेघ से मिलकर मीठा पानी बरसाता है।
अपनी-अपनी ठौर पर, सबकौ लागै दाव।
जल में गाड़ी नाव पर, थल गाड़ी पर नाव।।111।।
अपनी-अपनी जगह सभी का दांव लग जाता है। पानी में गाड़ी नाव पर रहती है और धरती पर नाव गाड़ी पर । kavi vrind ke dohe

कोऊ दूर न करि सके, विधि के उलटे अंक।
उदधि पिता तउ चंद्रको, धोय न सक्यो कलंक।।112।।

विधाता के लिखे उलटे अंकों को कोई मिटा नहीं सकता। कहते हैं कि चन्द्रमा का पिता समुद्र है, पर वह उसकी कालिख को धो नहीं सका।

सहज संतोष है साध को, खल दुख-दैन प्रवीन।
मछुआ मारत जल बसत, कहा बिगारत मीन।।113।।

सत्पुरुषों को स्वभावतः सन्तोष होता है, जब कि दुष्टजन दूसरों को दुःख देने में बड़े कुशल होते हैं। जल में रहनेवाली गरीब मछली किसी को क्या हानि पहुंचाती है, तो भी मछुआ उसे पकड़कर मार डालता है।

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तैं, सिल पर होत निसान।।114।।

अभ्यास करते-करते मूर्ख भी बुद्धिमान हो जाता है। (कुएं के पाट के) पत्थर पर रस्सी के बार-बार खिंचने से निशान पड़ जाते हैं।

सोई अपनो आपने, रहै निरन्तर साथ।
होत परायो आपनो, गये पराये हाथ।।114।।

अपना वही है, जो हमेशा अपना साथ दे। हथियार भी पराया अर्थात् शत्रु हो जाता है, जब वह दूसरे के हाथ में चला जाता है।

बड़े बचन पलटै नहीं, कहि निर्वाहै धीर।
कियो विभीषन लंकपति, पाय विजय रघुवीर ।।116।।

बड़े आदमी दिये हुए वचन को पलटते नहीं, जो कह दिया उसे अन्त तक निभाते हैं। युद्ध में जीते तो श्रीराम, पर लंकापति विभीषण को बना दिया।

का रस में का रोस में, अरि सों जनि पतियाय।
जैसे सीतल तप्त जल, डारत आगि बुझाय।।117।।

शत्रु पर किसी भी हालत में विश्वास नहीं करना चाहिए, चाहे वह प्रेम दिखाता हो, चाहे क्रोध करता हो। पानी आग को बुझा देता है, चाहे वह ठंडा हो, चाहे गर्म ।

कुल सपूत जान्यौ परै, लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।।118।।

शरीर में शुभ लक्षण देखकर पहले ही दीख जाता है कि अमुक बालक कुल का सपूत है। कहावत भी है कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

बुद्धि बिना विद्या कहौ, कहा सिखावै कोइ।
प्रथम गाम ही नाहिं सो, सीव कहां ते होइ।।119।।

विद्या उसे कौन पढ़ा सकता है, जिसमें बुद्धि ही नहीं ? जब गांव ही नहीं, तो उसकी सीमा कहां से हो सकती है ? kavi vrind ke dohe

भजत निरन्तर सन्त-जन, हरिपद चित्त लगाय।
जैसे नट दृढ़ दृष्टि करि, धरत बरत पर पाय ।।120।।

संत जन सदैव भगवान् के चरणों में अपना चित्त लगाये रहते हैं। जैसे नट अपनी दृष्टि को जमाकर रस्सी पर पैर रखकर चलते हैं।

सबै दबावै निबल को, सबल पुरातन पाठ।
डार जारि बहाय दै, अनिल-अनल-जल काठ।।121।।

यह सनातन सिद्धान्त है कि बलवान पुरुष सदा निर्बल को दबाये रखते हैं। लकड़ी को हवा गिरा देती है, आग जला देती है और पानी उसे बहा ले जाता है।

कहिबो कछु करिबो कछु, है जग की विधि दोउ।
देखन के अरु खान के, और दुरद-रद होय ।।122।।

दुनिया में अक्सर दुरंगी चाल देखने में आती है। हाथी के दांत एक तो केवल देखने के होते हैं, और दूसरे खाने के।

जो धनवन्त सु देय कछु, देय कहा धनहीन।
कहा निचोरै नगन जन, न्हान सरोवर कीन।।123।।

धनवान ही तो देता है, बेचारा धनहीन क्या देगा ? नंगा आदमी तालाब में नहाकर निचोड़ेगा क्या, जबकि उसके पास कोई वस्त्र ही नहीं ?

संपत बीते बिलसिबौ, सुख को चाहै कोइ।
रूख उखारे फूल-फल, कहधौं कैसे होइ।।124।।

धन-दौलत खत्म हो जाने पर यदि कोई सुख भोगने की इच्छा करता है तो वह वैसा ही है, जैसे वृक्ष को उखाड़कर कोई उससे फूल और फल लेना चाहे।

पीछे कारज कीजिये, पहले जतन बिचारि।
बड़े कहत हैं बांधिये, पानी पहिले बार ।।125।।

काम करने से पहले विचारपूर्वक उसकी योजना बना लेनी चाहिए। बड़ों का कहना है कि पानी भरने से पहले उसका बांध बनालो।

हिये दुष्ट के बदन तें, मधुर न निकसै बात।
जैसे करुई बेलि के, को मीठे फल खात।।126।।

नीच हृदयवाले मनुष्य के मुंह से मधुर वचन नहीं निकलता। मीठा फल कौन खा सकता है, कड़वी बेल से तोड़कर ?

ताही को करिये जतन, रहिये जिहिं आधार।
को काटै ता डार को, बैठे जाही डार।।127।।

जिसके आश्रय में हम रहें, उसकी सदा रक्षा करनी चाहिए। कौन ऐसा मूर्ख होगा कि जिस डाल पर वह बैठा है, उसी डाल को काट दे।

आप अकारज आपनो, करत कुबुध के साथ।
पाय कुल्हाड़ी आपने, मारत मूरख हाथ।।128।।

मूर्ख के साथ रहकर मनुष्य अपनी ही हानि कर डालता है। मूर्ख आदमी अपने हाथ से अपने पैर में कुल्हाड़ी मार बैठता है।

दोऊ चाहें मिलन कौं, तौ मिलाप निरधार।
कबहूं नाहिन बाजहिं, एक हाथ सों तार ।।129।।

सच्चा मिलन तो तभी होता है, जब दोनों मिलना चाहते हों। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजा करती।

नीचहु उत्तम संग मिलि, उत्तम ही वै जाय।
गंग-संग जल निंद्यहू, गंगोदक के भाव।।130।।

उत्तम वृत्ति के साथ मिलकर नीच भी उत्तम बन जाता है। गंगा के साथ मिलकर गंदा पानी भी गंगाजल ही कहा जाता है

भले भली ही कहत हैं, पैं न कहत हैं दोस।
सूरदास कह अन्ध कौ, उपजावत हैं तोस।।131।।

भले आदमी अच्छी ही बात कहते हैं, वे दूसरे की निन्दा नहीं करते अन्धे आदमी को ‘सूरदास’ कहकर वे प्रसन्न करते हैं।

करै न कबहूं साहसी, दीन हीन को काज।
भूखा सहै पै घास को, नाहिं भखै मृगराज।।132।।

साहसी पुरुष हीनता नहीं दिखाता और न कोई हीन काम करता है। सिंह भले ही भूखा रह जाय, पर वह घास नहीं खायगा।

सूर-बीर के बंस में, सूर-बीर सुत होय।
ज्यों सिंहिनि के गर्भ में, हिरन न उपजै कोय।।133।।

शूरवीर के कूल में शूरवीर ही पुत्र होता है। सिंहिनी के गर्भ से कभी हिरण पैदा नहीं होता। kavi vrind ke dohe

गुन सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत।
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत।।134।।

अच्छे गुणों और प्रेम से युक्त को ही सुन्दर कहा जाता है। दीपक का प्रकाश बत्ती और तेल के साथ ही होता है। [‘गुण’ अर्थात् दीये की बत्ती और ‘स्नेह’ अर्थात् तेल।]

अपनी प्रभुता को सबै, बोलत झूठ बनाय।
बेस्या बरस घटावही, जोगी बरस बढ़ाय।।135।।

अपनी प्रभुता या बड़प्पन दिखाने के लिए लोग बना-बनाकर झूठ बोलते हैं। वेश्या जहां अपनी आयु के वर्ष कम बताती है, वहां योगी अपनी आयु के वर्ष बढ़ा देता है।

ऊंचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात।
घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूं तें ढरि जात।।136।।

छोटा आदमी ऊंचा पद पाकर तुरंत नीचे गिर जाता है। मेह से पानी पहाड़ पर गिरता है और वहां से भी ढलकर बह जाता है।

हीन जानि न विरोधिये, वह तौ तन दुखदाय।
रजहू ठोकर मारिये, चढ़े सीस पर आय।।137।।

दीन समझकर किसी का विरोध नहीं करना चाहिए। वह भी दुःख देते सकता है। ठोकर मारने से धूल भी सिर पर चढ़ जाती है।

कहूं कहूं गुन तें अधिक, उपजत दोष सरीर।
मधुरी बानी बोलिकै, परत पींजरा कीर।।138।।

भी कहीं-कहीं पर दुःख देते हैं तोता मीठे बोल बोलने के कारण पींजड़े में बन्द कर लिया जाता है। अधिक गुण।

आए आदर ना करै, पीछे लेत मनाय।
घर आए पूजै न अहि, बांबी पूजन जाय।।139।।

घर में आने पर तो अतिथि का आदर नहीं किया और बाद में उसे मनाते फिरते हैं ! घर में निकले सांप को तो पूजते नहीं, उसकी बाँबी को जाकर पूजते हैं।

बिना दिये न मिले कछू, यह समझौ सब कोय।
देत सिसिर में पात तरु, सुरभि सुपल्लव होय ।।140।।

बगैर दिये कुछ भी नहीं मिलता इस बात को सब कोई अच्छी तरह समझ लें। शिशिर ऋतु में पतझड़ के बाद वृक्ष में नये सुन्दर सुगन्धित पत्ते फूट आते हैं।
अपने-अपने समय पर, सबको आदर होय।
भोजन प्यारो भूख में, तिस में प्यारो तोय।।141।।
अपने-अपने अवसर पर सभी का आदर होता है। भूख में भोजन प्रिय लगता है और प्यास में जल । kavi vrind ke dohe

वृद्धि न ह वैहै पाप तें, वृद्धि धरम तें धार ।
सुन्यो न देख्यौ सिंह के, मृग को सो परिवार ।।142।।

मनुष्य की बढ़ती पाप से नहीं होती, वह तो धर्म से ही होती है। हिरण के परिवार के समान सिंह का बड़ा परिवार न सुना गया है, न देखा गया है। .

भले बुरे को जानिबौ, जान बचन के बंध।
कहै अंध कौं ‘सूर इक, कहै अंध को अंध।।143।।

वाणी से ही भला पहचाना जाता है, और वाणी से ही बुरा । अन्धे को कोई जहां ‘सूरदास’ कहता है, तहां कोई उसे अन्धा ही कहता है।

ऊपर दरसै सुमिल-सी, अंतर अनमिल आंक।
कपटी जन की प्रीती है, खीरा की सी फांक।।144।।

ऊपरी व्यवहार तो मेल-मिलाप का दिखता है, पर अन्तर मिलता – नहीं। कपटी आदमी का प्रेम खीरे की फांक की तरह होता है ।
खल निज दोष न देखई, पर के दोषहि लागि।
लखै न पग-तर, सब लखें, परबत बरती आगि।।145।।
दुष्ट मनुष्य अपना दोष नहीं देखता, वह दूसरों के ही दोष देखने में लगा रहता है। पहाड़ पर जलती हुई आग को तो सभी देखते हैं, परन्तु पैरों तले की आग को कोई नहीं देखता।

दोष लगावत गुनिन को, जाकौ हृदय मलीन।
धरमी को दंभी कहैं, छमियन को बलहीन ।।146।।

मलिन हृदयवाले गुणवानों को दोष लगाते हैं। धर्मात्मा को वह ‘दम्भी’ कहते हैं और क्षमावान को ‘बलहीन’। kavi vrind ke dohe

भागहीन को दैवहू, देत सु लेत बनै न।
दीठ परै जहं वस्तु तह, चले मूंदके नैन।।147।।

भाग्यहीन को भगवान् देता भी है, पर उसका लेना उससे बनता नहीं। किसी वस्तु को यदि देखता भी है, तो आंखें मूंदकर वह चला जाता है।

खाय न खरचै सूम धन, चोर सबै ले जाय।
पीछे ज्यों मधुमच्छिका, हाथ मलै पछिताय।।148।।

कंजूस आदमी न तो खुद खाता है, और न अपने धन को खर्चता है, न चोर सारा उठाकर ले जाते हैं। मधुमक्खी का लगाया छत्ता लोग तोड़ लेते हैं, उसके हाथ में केवल पछितावा रहता है।

दान दीन को दीजिए, मिटै दरिद की पीर।
औषधि वाको दीजिए, जाके रोग भारीर ।।149।।

दान गरीब को देना चाहिए, जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो जाय । जिसके शरीर में कोई रोग हो, औषधि उसीको देनी चाहिए।

जौ घर आवत शत्रुहू, सजन देत सुख चाहि।
ज्यों काटै तरु-मूल कोऊ, छांह करत रह ताहि ।।150।।

सज्जन घर आये हुए शत्रु को भी सुख देता है। जड़ से काटनेवाले व्यक्ति को भी वृक्ष अपनी छाया देता है। kavi vrind ke dohe

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय ।
पर्यो अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ।।151।।

नीच आदमी के पास से भी अच्छी विद्या ले लेनी चाहिए। गन्दी जगह पड़े हुए सोने को भी कोई नहीं छोड़ता। kavi vrind ke dohe

बिन उद्यम मसलत किये, कारज सिद्ध न ठाय।
रोग न जावत औषधी, जानें खाय तो जाय।।152।।

बिना कोई उद्यम किये सिर्फ विचार करने से ही काम सिद्ध नहीं होता। औषधि को केवल जान लेने से रोग दूर नहीं होता। रोग तो उसका सेवन करने से दूर होता है।

दुष्ट न छाडै दुष्टता, बड़ी ठौरहूं पाय। ।
जैसे तजत न स्यामता, विष शिव कंठ बसाय ।।153।।

दुष्ट लोग ऊंचा स्थान पाकर भी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते। शिवजी के कंठ में रहने पर भी विष अपनी नीलिमा नहीं छोड़ता।

धन अरु गेंद जु खेल कौ, दोऊ एक सुभाय ।
कर में आवत छिनक में, छिन में कर तें जाय ।।154।।

एक ही स्वभाव के हैं ये धन और गैंद दोनों। एक क्षण में ये हाथ में आते हैं और दूसरे ही क्षण हाथ से निकल जाते हैं।

दया दुष्ट के चित्त में, कबहूं उपजै नाहिं।
हिंसा छोड़ी सिंह, यह क्यों आवै मन माहिं।।155।।

दुष्ट के मन में दया कभी पैदा नहीं होती। सिंह के मन में यह बात क्यों आने लगी कि उसने हिंसा छोड़ दी है।

बड़े-बड़े को बिपति तें, निहचै लेत उबारि।
ज्यों हाथी को कीच सों हाथी लेत निकारि।।156।।

बड़ों को बड़े लोग ही संकट से बचाते हैं। दलदल में फंसे हाथी को हाथी ही निकालता है। kavi vrind ke dohe

प्रभु को चिन्ता सबन की, आपु न करिये ताहिं।
जनम अगारू मरत है, दूध मातृ-थन माहि।।157।।

प्रभु को सभी की चिन्ता रहती है, अपनी चिन्ता स्वयं नहीं करनी चाहिए। माता के स्तन में, बालक के जन्म से पहले ही, प्रभु दूध भर देता है।

नृपति-चोर-जल-अनल ते, धनि को भय उपजाय ।
जल-थल-नभ में मांस कों, झख-केहरि-लग जाय ।।158।।

राजा, चोर, जल और अग्नि से धनवान को सदा ही डर रहता है। मतलब यह है कि जैसे मछली पानी के जीवों को, सिंह पृथ्वी के प्राणियों को और पक्षी आकाश के जीवों को खा जाते हैं।

दुष्ट रहे जा ठौर पर, ताको करे बिगार।
आगि जहां ही राखिये, जारि करें तिहिं छार।।159।।

दुष्ट आदमी जहां भी रहता है, वहां बिगाड़ ही करता है। आग को जहां भी रखा जाये, वहां की वस्तु को जलाकर राख कर डालती है।

जोरावरहूं को कियो, बिधि बस करन इलाज।
दीप तमहिं, अंकुस गजहिं, जलनिधि तरनि जहाज।।160।।

बड़े-बड़े बलवानों को भी वश में करने का उपाय ईश्वर ने कर दिया है। जैसे अन्धकार को दीया, हाथी को अंकुश और समुद्र को जहाज अपने काबू में कर लेता है।

मोह प्रबल संसार में, सबको उपजै आय ।
पालैं-पोसै खग बचन, देहै कहा कमाय ।।161।।

संसार में मोह-ममता बड़ी प्रबल होती है। मोह सभी के अन्दर पैदा हो जाता है। पक्षी अपने बच्चों का पालन-पोषण करता है, पर वे बच्चे उसे क्या कमाकर देंगे।

छमा-खड़ग लीने रहै, खल को कहा बसाय ।
अगिन परि तृन-रहित थल, आपुहिं ते बुझि जाय।।162।।

जिसके हाथ में क्षमारूपी तलवार है, उसका कोई दुष्ट क्या बिगाड़ सकता है। बिना तृण की भूमि पर गिरी हुई आग अपने आप बुझ जाती है।
जानि-बूझि अजूगत करें, तासों कहा बसाय ।
जागतही ही सोवत रहे, तिहिं को सके जगाय।।163।।
जान-मानकर जो मनुष्य विपरीत काम करता है, उस पर किसका वश है। जागता हुआ भी जो सोता रहे, उसे कौन जगा सकता है? समझदार होते हुए भी जो नासमझी का काम करता है, उसे कौन , समझाने जाये ?

एकै थल बिश्राम को, ताको तजि कहं जाय।
ज्यों पंछी सु जहाज को, उड़ि-उड़ि तहां बसाय।।164।।

विश्राम लेने का यदि एक ही स्थान हो, तो उसे छोड़कर कोई कहां जाये। जहाज पर बैठा पक्षी उड़-उड़कर फिर जहाज पर ही आ बैठता है।

बिद्या बिन न बिराजहीं, जदपि सुरूप कुलीन।
ज्यों सोभा पावैं नहीं, टेसू बास-बिहीन।।165।।

रूप सुन्दर हो और कुल भी अच्छा हो, किन्तु विद्या न हो तो वह मनुष्य शोभा नहीं देता। जैसे बिना सुगन्ध का टेसू वन में शोभा नहीं देता।

छोटे नर के पेट में, रहे न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में, कैसे सेर समात।।166।।

छोटे आदमी के पेट में बड़ी बात ठहर नहीं पाती। आध सेर के बर्तन में सेर भर पानी भला कैसे समायेगा?

एकहिं भले सुपुत्र तें, सब कुल भलो कहात।
सरस सुबासित बिरछ तें, ज्यों बन सकल बसात ।।167।।

एक सुपुत्र से सारा कुल अच्छा कहा जाता है। सरस सुगन्धित वृक्ष के कारण सारा वन महकने लगता है। kavi vrind ke dohe

कबहूं प्रीति न जौरिये, जोरि तोरिये ताहिं।
ज्यों तोरे जोरे बहुरि, गाँठ परति गुन माहिं।।168।।

किसी के साथ कभी प्रेम का नाता न जोड़ो, और यदि जोड़ लो तो उसे तोड़ो मत। रस्सी के एक बार टूट जाने पर फिर उसे जोड़ा जाये, तो गांठ पड़ जाती है।

जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास।
धन-बूंदे कह करि सके, सिर पर छतना जास।।169।।

जिसे अपनी बुद्धि का बल होता है, उसे शत्रु त्रास नहीं सकते। जिसके सिर पर छाता है, उसे मेह की बूंदों से क्या डर ।

मनभावन के मिलन के, सुख को नाहिंन छोर।
बोलि उठै नचि-नचि उठें, मोर सुनत घन-घोर ।।170।।

अपना प्रियतम जब आ मिलता है, तब आनन्द का पार नहीं रहता। मेघ का गरजना मोर सुनता है, तो कूक उठता है और नाचने लगता , है।

ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय।।171।।

छोटे आदमी के अन्तर में पूरा प्रेम भरा नहीं जा सकता। समुद्र किसी घड़े में कैसे समा सकता है ? kavi vrind ke dohe

करी उदर दुइ भरन भय, हर अरधंगी दार।
जो न होय, तो क्यौ रहै, अबलौं तनय कुमार ।।172।।

शिवजी ने दो पेटों को भरने के डर से पत्नी को अर्धागिनी बना लिया। यदि ऐसा न किया जाता तो उनके पुत्र स्वामी कार्तिकेय क्या क्वारें ही रह जाते !

दुरभर उदर न दीन को, होत न तन संताप।
तौ जन-जन कौ को सहत, तरजन गरजन ताप।।173।।

गरीबों को अगर पेट भरना कठिन न होता, तो उन्हें दुःख न उठाना पड़ता और हर एक की घुड़की, फटकार और क्रोध बरदाश्त न करना पड़ता।

बचन-रजन कापुरुष के, कहे न छिन ठहराय।
ज्यौं कर-पद-मुख कछप के, निकसि-निकसि दुरि जाय ।। 174।।

कापुरुष के पास एक बातें बनाने ही का गुण होता है जो एक क्षण भी नहीं ठहरता। जैसे कछुए के के हाथ, पैर और मुंह बार-बार बाहर निकलते हैं, और फिर भीतर छिप जाते हैं।

आगम पंथ है प्रेम को, जहं ठकुराई नाहिं।
गोपिन के पीछे फिरे, त्रिभुवन-पति बन माहिं।।175।।

प्रेम का पथ बड़ा कठिन है। उस पर किसी का शासन नहीं चलता। त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण प्रेम के वश होकर गोपियों के पीछे वन में घूमते-फिरते रहे।

बिगरनवारी वस्तु कौं, कहौ सुधारै कौन।
डारै पय औटाय के, मिसरी भोरे नौन।।176।।

जो चीज खराब हो जानेवाली है उसे कौन सुधार सकता है ? औटाये हुए दूध में मिश्री के धोखे में यदि नमक डाल दिया जाय, तो वह खराब हो गया, उसे कौन ज्यों-का-त्यों बना सकता है?

कुल कुपुत्र किहि काम कौ, जिहिं सुख-सोमा नाहिं।
ज्यों बकरी के कंठ-थन दूध न जल तिहिं माहिं।।177।।

कुल में पैदा हुआ कुपूत किस काम का, न तो उससे सुख मिलता है और न उसकी कोई शोभा ही है। बकरी के गले के थनों में न दूध होता है, और न पानी ही।

सुनिये सबही की कही, करिये स्वहित-विचार ।
सर्बलोक राजी रहै, सो कीजै उपचार ।।178।।

बात तो सबकी सुन ली जाये, पर काम अपना हित विचारकर करना चाहिए। काम ऐसा करे, जिससे सब लोग खुश रहें।

जग परतीति बढ़ाइये, रहिये सांचे होय ।
झूठे नर की सांचहूं, साखि न मानै कोय।।179।।

दुनिया में अपना विश्वास बढ़ाना चाहिए और सच्चा व्यवहार करना चाहिए। कोई झूठे मनुष्य की सच्ची गवाही भी नहीं मानता।

रूखे-सूखे उदर कौं, भरै होतु सन्तुष्ट ।
पै मन लाख करोर के, पाये, तुष्ट न दुष्ट ।।180।।

रूखा-सूखा भरने पर भी इस पेट को सन्तोष हो जाता है। पर इस दुष्ट मन को तो देखो, लाखों-करोड़ों पाने पर भी इसे सन्तोष नहीं होता।

अपरापति के दिनन में, खरच होत अबिबार।
घर आवत है पाहुनो, बनिज न लाम लगार ।। 181।।

जिन दिनों कोई प्राप्ति नहीं है उन दिनों बिना बिचारे खर्च होता रहता है। जब किसी भी तरह का लाभ व्यापार में नहीं होता उन दिनों अतिथि भी खूब आते हैं।

जन्मत ही पावै नहीं, भली-बुरी कोउ बात।
बूझत-बूझत पाइये, ज्यों-ज्यों समझत जात।।182।।

जन्म से ही भली या बुरी की समझ नहीं होती है। समझते-समझते और देखते-देखते मनुष्य सभी समझने लगता है।

प्यारी अनप्यारी लगै, समै पाय सब बात।
धूप सुहावै सीत में, सों ग्रीषम न सुहाय ।।183।।

यथा समय सभी बातें अच्छी या बुरी लगती हैं धूप जाड़े के दिनों में सुहाती है पर गर्मी के दिनों में वह धूप नहीं सुहाती है। kavi vrind ke dohe

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचे त्यों-त्यों बढ़, बिन खरचे घटि जात।।184।।

सरस्वती का खजाना बड़ा अपूर्व है। उसमें से ज्यों-ज्यों खर्च किया जाता है, त्यों-त्यों वह बढ़ता ही जाता है और खर्च न किया तो वह घट जाता है।

जुआ खेले होत है, सुख-संपति को नास ।
राज-काज नल तैं छुट्यौ, पांडव किय बनवास ।।185।।

जुआ खेलने से सुख और सम्पत्ति इन दोनों का नाश होता है। जुआ खेलने से राजा नल का राज्य चला गया और जुए के कारण ही से पांडवों को बनवास करना पड़ा।

धन, गुन, जोबन, रूप, मद, दुरै न उकौ संच।
ज्यों हाँसी खाँसी बहुर, रोके रहत त रंच।।186।।

धन, गुण, यौवन, रूप और मद इनमें से यदि एक भी हो तो वह छिपाये नहीं छिपता। हंसी और खांसी रोकने पर भी नहीं रुकती है।

चिदानंद घट में बसै, बूझत कहां निवास ।
ज्यों मृगमद मृग नाभि में, ढूँढत फिरत सुवास ।।187।।

परमेश्वर तो घट-घट में बसा हुआ है, और हम पूछते हैं कि उसका निवास-स्थान कहां है ! मृग की नाभि में कस्तूरी होती है, फिर भी वह जहां-तहां खोजता फिरता है कि यह सुगन्ध कहां से आई !

एक-एक अच्छर पढ़े, जाने ग्रंथ-बिचार।
पेंड-पैंडहू चलत जो, पहुंचै कोस हजार ।।188।।

एक-एक अक्षर पढ़ने से पूरे ग्रंथ का भाव समझ में आ जाता है एक-एक पग चलनेवाला हजार कोस पहुंच जाता है।

चालै नित्य पिपीलिका, समुद पार कै जाय।
जौ न चले तो गरुड़हूं, पैंडइ चले न पाय ।।189।।

चींटी नित्य चलते-चलते समुद्र को पार कर जाती है। गरुड़ यदि बैठा रहे, तो उससे एक डग भी नहीं चला जा सकता है। kavi vrind ke dohe

निबल जानि कीजै नहीं, कबहूं बैर-विवाद।
जीते कछु सोभा नहीं, हारे निन्दावाद ।।190।।

निर्बल समझकर किसी के साथ बैर नहीं बांधना चाहिए, और न उसके साथ विवाद बढ़ाना चाहिए। उससे जीत गये तो कोई शोभा नहीं, और हार गये तो निन्दा फैलेगी।

जोति-सरूपी हिय बसै, सब सरीर में जोति।
दीपक धरिये ताक में, सब घर आमा होति।।191।।

ज्योतिस्वरूप परमेश्वर सबके अन्तर में बसा हुआ है, उसकी ज्योति घट-घट में प्रकाशित है। आले में दिया रख दिया जाये, तो सारे घर में रोशनी हो जाती है।

इनको मानुष जन्म दै, कहा कियो भगवान।
सुन्दर मुख बोल न सकै, दै न सकै धनवान।।192।।

पर ऐसों को मनुष्य-जन्म देकर भगवान् ने क्या कर डाला ! मुख सुन्दर है, पर वह बोल नहीं सकता। इसी प्रकार धन है, धनवान् उसे देना नहीं जानता।
गहत तत्व ज्ञानी पुरुष, बात बिचारि-बिचारि ।
मथनिहार तजि छाछ कों, माखन लेत निकारि।।193।।
ज्ञानी पुरुष विचार की गहराई में जाकर सार-तत्त्व ग्रहण कर लेता है। बिलोनेवाला छाछ को छोड़ देता है और मक्खन को निकाल लेता है।

परधन लेत छिनाय इक, इक धन देत हसंत।
सिसिर करतु पतझार तरु गहिरे करतु बसंत।।194।।

एक ऐसे होते हैं, जो दूसरों का धन छीन लेते हैं, और एक ऐसे, जो प्रसन्नचित्त से अपने धन का दान कर देते हैं। शिशिर ऋत्रु पतझड़ कर देती है, और बसन्त ऋत्रु नये पल्लवों है से वृक्षों को भर देती है।

अरि के कर में दीजिये, अवसर को अधिकार।
ज्यों-ज्यों द्रव्य लुटाय है, त्यों-त्यों जस बिस्तार ।।195।।

उत्सव समारोह के अवसर पर शत्रु के हाथ में अधिकार दे देना चाहिए। ज्यों-ज्यों वह द्रव्य को लुटायेगा, त्यों-त्यों चारों ओर अपनी कीर्ति फैलेगी।

जपत एक हरिनाम तें, पातक कोटि बिलाय।
एकहि कनिका आगि तें, घास ढेर जरि जाय।।196।।

भगवान् के एक नाम का जप करने से करोड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं। अग्नि के एक कण से घास का ढेर-का-ढेर भस्म हो जाता है। kavi vrind ke dohe

जो जैसे तिहि तैसिये, करिये नीति प्रकास।
काठ कठिन भेदै भ्रमर, मृदु अरबिंद-निवास ।।197।।

जो आदमी जैसा हो, उसके साथ वैसी ही नीति का बर्ताव करना चाहिए। भौंरा कठोर से कठोर काठ को छेद देता है, पर कमल को वह छेद नहीं सकता, उसके अन्दर ही बन्द रह जाता है।
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उम्मीद करता हूँ दोस्तों ये वृंद कवि के सुबोध दोहे आपको पसन्द आए होंगे ऐसे ही और दोहे छंद सवैये आदि पढ़ने के लिए निचे दिए हुए समरी पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। धन्यवाद!!

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