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Karmaiti Bai Ki Katha || Bhaktmal Ki Kathaon Se

Karmaiti Bai Ki Katha

Karmaiti Bai Ki Katha
Karmaiti Bai Ki Katha

भक्त मति करमेति बाई की कथा

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जयपुर के अंतर्गत खंडेला नामक एक स्थान है । वहां सेखावत सरदार राज्य करते थे । पंडित परशुराम जी खंडेला राज्य के कुल-पुरोहित थे । करमैती बाई भाग्यशाली परशुराम जी की सद्गुणवती पुत्री थी । पूर्व संस्कारवश लड़कपन से ही करमेटती का मन श्याम सुंदर में लगा हुआ था । वह निरंतर श्री कृष्णा के नाम का जप किया करती और एकांत स्थल में श्री कृष्ण का ध्यान करती हुई ‘हा नाथ ! हा नाथ !’ पुकार करती । ध्यान में उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगती । शरीर पर पुलकावली छा जाती । प्रेमावेश में वह कभी हंसती, कभी रोती और कभी ऊंची सुरीली आवाज से कीर्तन करने लगती । नन्ही-सी बालिका का सरल भगवत्प्रेम देखकर घर के और आसपास के सभी लोगों प्रसन्न होते । होते-होते करमैती की उम्र विवाह के योग्य हो गई, पिता माता सुयोग्य वर की खोज करने लगे; परंतु करमैतीबाई को विवाह की चर्चा नहीं सुहाती । वह लज्जावश माता-पिता के सामने कुछ बोलती तो नहीं, परंतु विषयों की बाते उसे विष के समान प्रतीत होतीं । इच्छा ना होने पर भी पिता की इच्छा से उसका विवाह हो गया; परंतु वह तो अपने-आप को विवाह से पूर्व ही– नहीं, नहीं, पूर्व जन्म में ही भगवान के अर्पण कर चुकी थी । भगवान की वस्तु पर दूसरे का अधिकार होना वह कैसे सहन कर सकती थी । वह तो इस संसार के परे दिव्य प्रेम-राज्य के अधिश्वर नित्य नवीन चिरकुमार सौंदर्य की राशि श्याम-वदन सच्चिदानंद को वरणकर दिन-रात उन्हीं का चिंतन किया करती थी ।कुछ दिन तो यों ही बीते, परंतु एक दिन ससुराल वाले उसे लेने को आ गए । उसे पता लगा कि वह जिस घर में ब्याही गई है, वहां के लोग भगवान को नहीं मानते, वे वैष्णव और संतों के विरोधी हैं ; वहां उसे अपने प्यारे ठाकुर जी की सेवाका भी अवसर नहीं मिलेगा और अपने शरीर-मनको भी विषय-सेवा में लगाना पड़ेगा ।यह सब सोचकर-विचार कर वह व्याकुल हो उठी, मन-ही-मन भगवान को स्मरण कर रोने लगी । उसने कहा– ‘नाथ ! इस विपत्ति से तुम ही बचाओ । क्या यह तुम्हारी दासी आज जबरदस्ती विषयों की दासी बनाई जाएगी ?क्या तुम इसे ऐसा कोई उपाय नहीं बतला दोगे, जिससे यह तुम्हारे ब्रज धाम में पहुंचकर वहाकी पवित्र धूलि को अपने मस्तक पर धारण कर सके? Karmaiti Bai Ki Katha
घर में माता-पिता बेटी को ससुराल भेजने की तैयारी में लगे हैं, इधर करमैती दूसरी ही धुन में मस्त हैं । रात को थककर सब सो गए, परंतु करमैती तो भगवान से उपर्युक्त प्राथना कर रही है । अकस्मात् उसके मन में स्फुरणा हुई कि जगत् की इस विषय-वासना में, जो मनुष्य को सदा के लिए प्यारे भगवान से विमुख कर देती है, रहना सर्वथा मूर्खता है । अत एव कुछ भी हो, विषयों का त्याग ही मेरे लिए सर्वथा श्रेयस्कर है । यों विचार कर आधी रात के समय, अंधकार और सन्नाटे को चीरती हुई करमैती निर्भय चित्त से अकेली ही घर से निकल गई । जो उस प्राण प्यारे के लिए मतवाले होकर निकलते हैं, उन्हें किसी का भी भय नहीं रहता आज से पूर्व और करमैती कभी घर से अकेली नहीं निकली थी, परंतु आज आधी रात के समय सब कुछ भूल कर दौड़ रही हैं । कोई साथ नहीं है । साथ हैं भक्तों के चिर-सखा-सदासंगी भगवान श्याम सुंदर, जिनका एक काम ही शरणागत-आश्रित भक्तों के साथ रहकर उनकी रक्षा करना है । Karmaiti Bai Ki Katha
भगवत्प्रेम में मातवाली करमैती अंधकार को भेदन करती हुई चली जा रही है । उसे यह सुधि नहीं है कि मैं कौन हूं और कहां जा रहा हूं । वह तो दौड़ी चली जा रही है । रात भर में कितनी दूर निकल गई, कुछ पता नहीं । प्रांत:काल हो गया,पर वह तो नींद-भूख को भुलाकर उसी प्रकार दौड़ी जा रही है । इधर सवेरा होते ही करमैती की माता ने जब बेटी को घर में नहीं पाया, तब रोती हुई अपने पति परशुराम के पास जा कर यह दु:संवाद सुनाया । परशुराम को बड़ा दुख हुआ, एक तो पुत्री का स्नेह और दूसरे लोक-लाज का भय ! यद्यपि वह जानता था कि मेरी बेटी विषय-विराग और भगवदनुराग के कारण ही कहीं चली गई है, तथापि गांव के लोग न मालूम क्या-क्या कहेंगे, मेरी सती पुत्री पर व्यर्थ कलंक लगेगा । इन विचारों से वह महान दु:खी होकर अपने यजमान राजा के पास गया । राजा ने पुरोहित के दु:ख में सहानुभूती प्रकट करते हुए चारों और सवार दौड़ाये । दो घुडसवार उस रास्ते भी गए, जिस रास्ते में करमैती जा रही थी । दूर से घोड़ों की टाप सुनायी दी, तब करमैती को होश हुआ । उसने समझा, हो-ना-हो ये सवार मेरे ही पीछे आ रहे हैं ; परंतु वह छिपे कहां? न कहीं पहाड की कन्दरा है और न वृक्षका ही कोई नाम-निशान है रेगिस्तान-सा खुला मैदान है । अंत में एक बुद्धि उप जी । पास ही एक मरा हुआ ऊंट पड़ा था । सियार-गिद्धोंने उसके पेट को फाड़कर मांस निकाल लिया था पेट एक होली की तरह बन गया था । पेट एक खोह की तरह बन गया था । करमैती बेधड़क उसी सड़ी दुर्गन्ध से पूर्ण ऊंट के कंकाल में जा छिपी । सवारों ने उस और ताका ही नहीं । तीव्र दुर्गन्ध के मारे वे तो वहां ठहर ही नहीं सके । करमैती के लिए तो विषयों की दुर्गन्ध इतनी असहा हो गई थी कि उसने उस दुर्गन्ध से बचने के लिए इस दुर्गन्ध को बहुत तुच्छ समझा या प्रेम-पागलिन भक्त बालिका के लिए भगवत्कृपा से वह दुर्गन्ध महान् सुगन्ध के रूप में ही परिणत हो गई । जिसकी कृपा से अग्नि शीतल और विष अमृत बन गया था, उसकी कृपा से दुर्गन्ध का सुगन्ध बन जाना कौन बड़ी बात थी । तीन दिन तक करमैती ऊंट के पेट में प्यारे श्याम के ध्यान में पडी रही । चौथे दिन वहां से निकली । थोड़ी दूर आगे जाने पर साथ मिल गया । करमैती ने पहले हरद्वार पहुंचकर भागीरथी में स्नान किया, फिर चलते-चलते वह साँवरे की लीला भूमि वृंदावन में जा पहुंची । उस जमाने में वृंदावन केवल सच्चे विरागी वैष्णव साधुओं का ही केंद्र था ।वहां चारों ओर के मतवाले भगवत्प्रेमियों का ही जमघट्ट रहा करता था, इसी से वह परम पवित्र था और इसी से भक्तों की दृष्टि उसकी ओर लगी रहती थी । Karmaiti Bai Ki Katha
वृंदावन पहुंच कर करमैती मानो आनंद सागर में डूब गई । वह जंगल में ब्रह्मकुण्डर पर रहने लगी । प्रेम सिंधु की मर्यादा टूट जाने से उसका जीवन नित्य अपार प्रेम धारा में बहने लगा ! इधर परशुराम को जब कहीं पता न लगा, तब वह ढूंढते-ढूंढते वृंदावन पहुंचा । वृंदावन में भी करमैती का पता कैसे लगता ।जगत् के सामने अपनी भक्ति का स्वाँग दिखाने वाली वह कोई नामी-गरामी भक्त तो थी ही नहीं, वह तो अपने प्रियतम के प्रेम में डूबी हुई अकेली जंगल में पड़ी रहती थी । एक दिन परशुराम ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो ब्रह्माकुंड पर एक वैरागिणी दिखाई दी; वह परंतु उतरकर वहां दौड़ा गया ।जाकर देखता है करमैती साधु वेश में ध्यानमग्न बैठी हैं । उसके मुख पर भजन का निर्मल शीतल तेज छिटक रहा है । आंखों से प्रेम के आंसुओं की अनवरत धारा बह रही हैं । परशुराम पुत्री की यह दशा देखकर हर्ष-शोक में डूब गया । पुत्री की बाहरी अवस्था पर तो शोक था और उसके भगवत्प्रेम पर उसे बड़ा हर्ष था ।वह अपने को ऐसी भक्तिमति देवी का पिता समझ कर धन्य मान रहा था । Karmaiti Bai Ki Katha
परशुराम को वहां बैठे कई घंटे हो गए । वह उसकी प्रेम-दशा देख-देखकर बेसुध-सा हो गया, पर करमैती नहीं जागी । आखिर परशुराम ने उसे हिलाकर होश कराया और बहुत अनुनय-विनय के साथ घर चलकर भजन करने के लिए कहा । करमैती ने कहा–‘पिताजी ! यहां आकर कौन वापस गया है । फिर मैं तो उस प्रेममय के प्रेम-सागर में डूब कर अपने को खो चुकी हूं, जीती हुई ही मर चुकी हूं । यह मुर्दा अब यहां से कैसे उठे? आप घर जाकर मेरी माता सहित श्री कृष्णा का भजन करें । इसके समान सुख का साज त्रिलोकी में कि मैं कहीं दूसरा नहीं है ।’ भगवान के गुण गाते-गाते प्रेमावेश में करमैती मूर्च्छित हो गई । ब्राह्मण परशुराम ने अपने संसारी जीवन को धिक्कार देते हुए उसे जगाया और श्री कृष्ण-भजन की प्रतिज्ञा कर के प्रेम में रोता हुआ वहां से घर लौटा । घर पहुंच कर उसने गृहिणी को पुत्री के समाचार सुना कर कहा। कि ‘ब्राह्मणी ! तू धन्य हैं जो तेरे पेट से ऐसी संतान पैदा हुई । आज हमारा कुल पवित्र और धन्य हो गया ।’ Karmaiti Bai Ki Katha
राजा ने जब यह समाचार सुना, तब वह भी करमैती के दर्शन के लिए वृंदावन को चल दिया । राजा ने वृंदावन पहुंच कर करमैती की बड़ी ही प्रेम-तन्मय अवस्था देखी । राजा का मस्तक भक्ति भाव से उसके चरणों में आप ही झुक गया । राजा ने कुटिया बना देने के लिए बड़ी प्रार्थना की, परंतु करमैती इन्कार करती रही । अंत में राजा के बहुत आग्रह करने पर कुटिया बनाने में करमैती ने कोई बाधा नहीं दी । राजा ने कुटिया बनवा दी । सुनते हैं कि करमैती की कुटिया का ध्वंसावशेष अब भी हैं। Karmaiti Bai Ki Katha
करमैती बाई बड़े ही त्याग भाव से रहती थी । उसका मन क्षण-क्षण में श्री कृष्णा रूप का दर्शन करके मतवाला बना रहता था उसकी आंखों पर तो सदा ही वर्षा-ऋतु छायी रहती थी । यों परम तप करते-करते अंत में इस तपस्विनी देवी ने वहीं देह त्याग कर गोलोककी शेष यात्रा की । Karmaiti Bai Ki Katha

 

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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