kabir das ji ke dohe । कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
kabir das ji ke dohe
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दोस्तों यह साधारण दिखने वाले दोहों का अर्थ स्वयं कबीर साहिब जी ने किया है इनका अर्थ इतना अद्वितीय और अनुपम है कि पढ़ने में बहुत साधारण है लेकिन इतने ही गूढ़ रहस्य से भरपूर यह दोहे जब आप पढ़ोगे तब आप को भी लगेगा कि सच में यह बहुत ही अद्वितीय अनुपम अर्थ वाले दोहे हैं।
दण्डवत् गोविन्द गुरु, बन्दूँ
कबीर, दण्डवत् गोविन्द गुरु, बन्दूँ अविजन सोय।
पहले भये प्रणाम तिन, नमो जो आगे होय ।।1
➡️ सरलार्थ :- गुरु तथा परमात्मा को समान भाव से देखना चाहिए। इसलिए परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) में अपने मुख कमल से कहा है कि गुरु तथा परमेश्वर (गोविन्द) को दण्डवत प्रणाम करें, अन्य महापुरुषों को जो पहले हो चुके हैं तथा भविष्य में परमार्थ के लिए जन्म लेंगे। उन सबको प्रणाम शीश झुकाकर नमन कीजिए।(1)
गुरु को कीजे दण्डवत kabir das ji ke dohe
कबीर, गुरु को कीजे दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जानै भृंगको, यों गुरुकरि आप समान।।2
➡️ सरलार्थ :- गुरुजी को दण्डवत प्रमाण करना चाहिए तथा करोड़-करोड़ बार प्रणाम करना चाहिए। जैसे भृंग कीट किसी अन्य कीट को उठाकर लाता है, उसको अपनी आवाज सुना-सुनाकर अपने जैसे रंग व पँखों वाला बना लेता है। ऐसे ही गुरु जी अपने शिष्य को बार-बार सत्संग सुनाकर अपने जैसे गुणों वाला बना लेता है।(2)
गुरु गोविंद कर जानिये
कबीर, गुरु गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तौ दण्डवत बन्दगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय।।3
➡️ सरलार्थ :- गुरु जी को गोविन्द (परमात्मा तुल्य) जानना चाहिए और उनके द्वारा दिये गये भक्ति साधना के शब्द (नाम) को सदा जाप करते रहिए। जब कभी गुरुजी मिले, उस समय उनको दण्डवत प्रणाम करें, नहीं तो पल-पल उनमें ध्यान लगायें यानि गुरु जी की याद बनी रहे।(3)
सतगुरु के उपदेश का, सुनिया एक विचार
कबीर, सतगुरु के उपदेश का, सुनिया एक विचार।
जो सतगुरु मिलता नहीं, जाता यमके द्वार।।5
कबीर, यम द्वारेमें दूत सब, करते खैंचा तानि।
उनते कभू न छूटता, फिरता चारों खानि।।6
कबीर, चारि खानिमें भरमता, कबहुं न लगता पार।
सो फेरा सब मिटि गया, सतगुरुके उपकार।।7
➡️ सरलार्थ :- वाणी सँख्या 5 से 7 का भावार्थ है कि “तत्वज्ञान” की प्राप्ति के पश्चात् विचार लगाया कि यदि सतगुरु नहीं मिलते तो भक्तिहीन जीव यमद्वार अर्थात् काल के नरक का द्वार जिसके अन्दर यमराज विराजमान है, उसके करोड़ों यमदूत हैं जो मृत्यु उपरांत भक्तिहीन प्राणी को यमराज के पास ले जाते हैं। जो उनको धर्मराय के आदेशानुसार जैसी-जैसी यातनाएं लिखी हैं, वैसी यातनाएं देता है, नरक में डालता है साथ में ही नरक बना है, उसी के पास यमराज का आसन है। जिस समय यमदूत पापी प्राणियों को कर्मानुसार नरक में डालते हैं तो जीव उस नरक के कष्ट को देखकर वापिस भागने की कोशिश करते हैं। यमदूत उनको डण्डों, भालों तथा गंडासों से मार-पीटकर नरक में डाल देते हैं। इसको खैंचातान कहा है। नरक में तो जाता ही, फिर 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में भी कष्ट उठाता, कभी-भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता था। वह सब फेरा (चक्र) मेरे सतगुरु देव जी के उपकार से समाप्त हो गया। अब सत्य साधना शास्त्रनुसार करके सीधे सत्यलोक में चले जायेंगे। न नरक में जाना तथा न 84 लाख प्राणियों के जीवनों का कष्ट उठाना। भवसागर से पार हो जाना है।(5-6-7)
वाणी :-
कबीर, सात समुन्द्र की मसि करूं, लेखनि करूं बनिराय।
धरती का कागद करूं, गुरु गुण लिखा न जाय।।8
➡️ सरलार्थ :- ऐसे सतगुरु की महिमा करने के लिए यदि सातों समुद्रों की स्याही (Ink) करूँ और सर्व वृक्षों की कलम बनाऊँ तथा पूरी पृथ्वी जितना कागज बना लूं तो भी ऐसे सतगुरु की महिमा नहीं लिखी जा सकती।
➡️ उदाहरण : यदि कुत्ते के जीवन का कष्ट लिखें, फिर गधे के जीवन का कष्ट लिखें। फिर अन्य 84 लाख प्रकार के प्राणियों का कष्ट लिखें जो सतगुरु जी ने नहीं होने दिया तो उपरोक्त कलम-दवात कागज कम पड़ेंगे।(8)
वाणी :-
कबीर, बलिहारी गुरु आपना, घरी घरी सौ-सौ बार।
मानुष तें देवता किया, करत न लागी बार।।9
➡️ सरलार्थ :- ऐसे सतगुरु पर सौ-सौ बार कुर्बान जाऊँ जिसने सर्व बुराई और आदतें छुड़वाकर मनुष्य से देवता बना दिया। जैसे सच्चा सौदा सिरसा डेरे वाले संत गुरुमीत सिंह ने अपने संत जीवन की अंतिम उपलब्धि बताई है कि मैंने अपने अनुयाईयों को इन्सां (मनुष्य) बना दिया। सिरसा डेरे के सर्व प्रेमी तथा प्रेमण बहनें अपने नाम के पश्चात् जैसे गोत्र लिखा करते हैं, ऐसे इन्सां (इन्सान=मनुष्य) लिखकर गर्व महसूस कर रहे हैं। उस भोले इंसान श्री गुरमीत सिंह जी को पता नहीं कि सतगुरु तो इन्सां (मनुष्य) से देवता (हंस) बनाता है। अभी तो आप तथा आपके अनुयाई अधूरे हैं।(9)
वाणी :-
कबीर, गुरु को मानुष जो गिनै, चरणामृत को पान।
ते नर नरकै जाहिगें, जन्म-जन्म होय श्वान।।10
➡️ सरलार्थ :- जो सतगुरु तत्वदर्शी है, उसको परमात्मा के तुल्य ही मानना चाहिए। यदि साधक ने गुरु धारण कर रखा है और नियमानुसार चरणामृत भी पी रहा है और गुरु जी को केवल संत रुप में देखता है और परमात्मा अन्य मानता है तो वह शिष्य पार नहीं हो सकता। पार नहीं हुआ तो श्वान यानि कुत्ते आदि के शरीर प्राप्त करता रहेगा।(10)
वाणी :-
कबीर, गुरु मानुष करि जानते, ते नर कहिये अंध।
होय दुखी संसार में, आगे यमका फंद।।11
➡️ सरलार्थ :- जो साधक गुरुजी को सामान्य मनुष्य मानते हैं, वे व्यक्ति अन्धे (तत्वज्ञान नेत्रहीन) हैं। उनको भक्ति का कोई लाभ नहीं मिलता। जिस कारण से इस संसार में भी दुःखी रहेंगे तथा फिर यम (यमराज) के नरक का कष्ट भी बना रहेगा।(11)
➡️ उदाहरण : जैसे गणित की पढ़ाई में एक ऋण का प्रश्न होता है। उसमें मूलधन ज्ञात करना होता है। वह मूलधन करोड़ों की संख्या में धनराशि होता है। उस करोड़ों रुपये के मूलधन को प्राप्त करने के लिए मानना पड़ता है कि मान लो मूलधन 100 रु., हालांकि सौ रु. मूलधन नहीं है। फिर भी सौ रुपये को मूलधन मानकर ही करोड़ों रुपयों का मूलधन प्राप्त किया जा सकता है। तभी विद्यार्थी को सफलता मिलती है। इसी प्रकार गुरु भले ही परमात्मा नहीं है, परंतु परमात्मा को प्राप्त करने के लिए गुरु जी को परमात्मा मानना पड़ेगा यानि यह मानकर भक्ति की क्रियाऐं करे जैसे मान लो गुरु जी के रूप में परमात्मा उपस्थित होते तो शिष्य का उनके प्रति कैसा लगाव होता। साधक को भगवान मिल जाए तो तुरंत चरणों से लिपटकर रोएगा। अपना जीवन धन्य समझकर विशेष सत्कार करेगा, तभी साधक मोक्ष प्राप्त करेगा।
वाणी :-
कबीर, ते नर अंध हैं, गुरुको कहते और।
हरिके रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।12
➡️ सरलार्थ :- कबीर परमेश्वर जी स्वयं तत्वज्ञान बताते हुए कह रहे हैं कि वे व्यक्ति अंधे (ज्ञान नेत्रहीन) हैं जो गुरु को परमात्मा से अन्य केवल सन्त देखते हैं। यदि हरि (प्रभु) रुष्ट हो जाए तो गुरु जी की शरण जाइए। यदि गुरु जी रुठ गए तो साधक को ठौर (स्थान) नहीं है जो सुखी कर सके।(12) kabir das ji ke dohe
वाणी :-
कबीर, कबीरा हरि के रूठते, गुरुके शरने जाय।
कहै कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय।।13
➡️ सरलार्थ :- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि यदि भगवान रुष्ट हो गया है तो गुरु जी की शरण में जाओ। गुरुजी आपको नाम दीक्षा तथा आशीर्वाद देकर सुखी कर देगा। यदि गुरु जी ही रुष्ट हो गए तो परमात्मा सहायता नहीं करेगा।(13)
➡️ उदाहरण : जैसे गर्मी के मौसम में कोई व्यक्ति खेतों में कार्य कर रहा है। उसने पीने के लिए पानी का घड़ा भर रखा था। कुछ समय उपरांत घड़े का पानी बार-बार पीने से समाप्त हो गया। जब तक घड़े में जल था तो आप जी को कोई कष्ट महसूस नहीं हो रहा था। जब जल समाप्त हुआ तो प्यास लगी, जान को बन आई। आप जी हैंडपंप या कुएँ पर गये। जल का घड़ा भर लाए तो आपके दुःख का निर्वाण हुआ।
➡️ इसी प्रकार जब तक मानव के पूर्व जन्म-जन्मान्तर के पुण्यों से घड़ा रुपी जीवन भरा है तो आप जी को सर्व सुख प्राप्त है। जिस समय पूर्व जन्म के पुण्य समाप्त हो जाते हैं तो पाप कर्मों का दौर प्रारम्भ होता है। उस समय आपका हरि यानि परमात्मा रुष्ट हो गया। जिस समय कोई व्यक्ति चारों ओर से आपदाओं से घिर जाता है तो स्वयं कहा करता है कि मेरा राम रुठ गया। मुझे संकटों ने घेर लिया। ऐसे समय में व्यक्ति यदि पूर्ण सतगुरु जी के चरणों में यानि शरण में चला जाता है तो गुरुजी नाम की दीक्षा तथा आशीर्वाद देकर उसको पुण्य करने की विधि बताकर पुण्य संग्रह कराकर तथा अपना आशीर्वाद देकर उस शरणागत भक्त को सुखी कर देता है। इसलिए कहा है कि हरि रुष्ट हो जाने पर गुरु की शरण में जाने से दुःखी प्राणी सुखी हो जाता है। फिर कहा है कि गुरु तथा गोविन्द दोनों मे से आप किसको चुनोगे? उत्तर भी बताया है कि गुरुजी को चुनेंगे। जैसे एक ओर तो पीने के पानी का नल (हैंडपम्प) खड़ा है, दूसरी ओर जल का भरा घड़ा रखा है। नल तो गुरु जानों तथा घड़े में जल को हरि जानो। यदि आप जी से कहा जाए कि आप दोनों में से किसे चाहते हैं तो बुद्धिमान का उत्तर होगा कि मैं तो नल (हैंडपंप) को लूँगा क्योंकि घड़े का जल तो समाप्त हो जाएगा, परंतु नल तो जल का स्त्रोत है। जल तो हरि अर्थात् प्यासे को सुखी करने वाला है और नल अर्थात् गुरु सुखदाई जल अर्थात् हरि का भण्डार है। यदि गुरु रुठ गया तो हरि कोई मदद नहीं कर सकेगा। इसका भावार्थ है कि यदि नल (हैण्डपंप) खराब हो गया तो जल प्राप्त नहीं होगा। इसलिए कहा है कि हरि रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहीं ठौर।।
वाणी :-
कबीर, गुरु सो ज्ञान जो लीजिये, शीश दीजिये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान।।14
➡️ सरलार्थ :- गुरु जी से उपदेश लेने के पश्चात् भक्त ने स्वयं को गुरु जी को समर्पण कर देना चाहिए। मन में अभिमान नहीं रखना चाहिए। मन में अभिमान रखकर भक्ति करने का नाटक करने वाले अनेकों मूर्ख अपना मानव जीवन नष्ट कर गए।(14)
वाणी :-
कबीर, गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्हीं दान।।15
➡️ सरलार्थ :- यदि गुरुजी से कोई नाम दीक्षा माँगता है तो उस जैसा बुद्धिमान याचक (मँगता) नहीं और सतगुरु जैसा दानकर्ता (दाता) नहीं जिसने छोटा दान न देकर अनमोल नाम दे दिया जिसके समान तीन लोक भी नहीं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि :-
कबीर, कहता हूँ कही जात हूँ कहूँ बजाकर ढोल।
श्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
➡️ यदि साधक सतगुरु से प्राप्त नाम का स्मरण करता है तो उसके एक श्वांस-उश्वांस के नाम के जाप की कीमत तीन लोक (पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग लोक) के समान है।(15)
तन मन दिया तो भला किया kabir das ji ke dohe
कबीर, तन मन दिया तो भला किया, सिर का जासी भार।
जो कभू कहै मैं दिया, बहुत सहे शिर मार।।16
➡️ सरलार्थ :- यदि शिष्य ने गुरु जी को तन-मन-धन समर्पित कर दिया तो अच्छा किया सिर का भार (चिंता) समाप्त हुआ। यदि कभी यह कह दिया कि मैंने इतना दान कर दिया तो आपका दिया दान फल रहित हो जाता है और गुरु के मार्ग से नाम रहित होकर बहुत कष्ट उठाएगा।(16)
वाणी :-
कबीर, गुरु बड़े हैं गोविन्द से, मन में देख विचार।
हरि सुमरे सो वारि हैं, गुरु सुमरे होय पार।।17
➡️ सरलार्थ :- गुरुजी को परमात्मा से बड़ा बताया है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है :-
कबीर, राम कृष्ण से कौन बड़ा उन्हूं भी गुरु किन्हं।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन।।
➡️ जैसे हम पौराणिक कथाओं के आधार से श्री राम तथा श्री कृष्ण जी को प्रभु मानते रहे तो परमात्मा कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब राम-कृष्ण भी गुरु जी के सामने झुके हैं तो गुरु तो गोविन्द (परमात्मा) से बड़े हुए। इस वाणी का यह भी भावार्थ है कि यदि राम-कृष्ण जी ने गुरु धारण करके भक्ति की और स्वर्गलोक जा सके तो सामान्य मानव को भी गुरु बनाना अनिवार्य है। kabir das ji ke dohe
➡️ अब वाणी संख्या 17 का सरलार्थ करते हैं :- जैसे किसी को प्यास लगी है, घड़ा लेकर पानी की खोज में चला। वह पानी-पानी कर रहा है तो कोई व्यक्ति अपने घड़े से उसको घड़ा भरने को पानी नहीं देगा। इसलिए वह वाँछित वस्तु से खाली रह जाएगा। यदि वह कुआँ या नल पूछेगा-पुकारेगा तो उसको नल मिल जाएगा। फिर कितने ही घड़े भरो। इसी प्रकार यदि व्यक्ति केवल संतों से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए जाता है तो जो भक्ति से खाली होते हैं, वे चाहे हाथ से आशीर्वाद भी देते हैं तो भी शरणागत को कोई लाभ नहीं होता। यदि वो भक्ति कर रहा है तो उसको ज्ञान भी होता है कि अपनी भक्ति कमाई (धन) को आशीर्वाद द्वारा अन्य को नहीं बाँटना चाहिए। उसको नल अर्थात् गुरु धारण करने की राय देता है। इसलिए कहा है कि जो हरि सुमरता है, वह खाली रह जाता है जो गुरु के बताए हरि के नाम को स्मरण करता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है।(17)
वाणी :-
कबीर, ये तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।18
➡️ सरलार्थ :- यदि गुरु भी नहीं मिलते हैं तो यह मानव शरीर विषय-विकारों रुपी विष (जहर) की लता है यानि पाप का भंडार है। गुरु तत्वज्ञान रुपी अमृत की खान अर्थात् भण्डार है जो मानव को विषय-विकारों से हटाकर अमृत ज्ञान से भर देता है। ऐसा तत्वदर्शी सन्त (गुरु) शीश दान करने से भी मिल जाए तो सस्ता ही जानें। शीश दान का भावार्थ है कि गुरु दीक्षा किसी भी मूल्य में मिल जाए। जैसे मीराबाई जी को गुरु बनाने के लिए अपने जीवन को जोखिम में डाला, चाहे जान भी चली जाती, परंतु गुरु रविदास से नाम लिया। फिर परमेश्वर कबीर जी ने उस मीराबाई को सत्यनाम देकर कृत्यार्थ किया। इसलिए कहा है कि यदि पूरे गुरु से दीक्षा लेने में जीवन को भी खतरा (भय) हो तो भी प्राप्त करना चाहिए, यह भी सस्ता सौदा है।(18) kabir das ji ke dohe
वाणी :-
कबीर, सात द्वीप नौ खण्ड में, गुरु से बड़ा ना कोय।
करता करे ना कर सकै, गुरु करे सो होय।।19
➡️ सरलार्थ :- सूक्ष्मवेद की वाणियों का सरलार्थ किया जा रहा है। सूक्ष्मवेद स्वयं परम अक्षर ब्रह्म ही बताते हैं। कबीर जी परम अक्षर ब्रह्म हैं। कबीर जी स्वयं सतगुरु रुप में इस पृथ्वी पर आए थे। सन् 1398 (विक्रमी संवत्.1455) में उस समय हिन्दू लोग तो श्री राम-श्री कृष्ण जी को गोविन्द मान रहे थे। उस समय परम अक्षर ब्रह्म स्वयं सतगुरु थे, कहा कि आप जिन गोविन्दों की भक्ति करते हो, वे आपका तीन ताप का कष्ट तथा पाप कर्म से उत्पन्न कर्म लेख समाप्त नहीं कर सकते। मैं सतगुरु हूँ। मुझसे दीक्षा लो, जो सुख आपके गोविन्द नहीं दे सकते, वह गुरु प्रदान करेगा। यह गुरु आपके गोविन्द से बड़ा है। गुरु के समान 7 द्वीप तथा नौ खण्ड में कोई बड़ा नहीं है। इसी प्रकार जो संत उसी ज्ञान तथा दीक्षा नाम को जानता है और नामदान करने का अधिकारी है, वह भी वही गुण रखता है जो परमात्मा स्वयं गुरु रुप में आता है।(19)
राम कृष्ण से को बड़ा, तिन्हूं भी गुरु कीन्ह
कबीर, राम कृष्ण से को बड़ा, तिन्हूं भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगै आधीन।।20
➡️ सरलार्थ :- कबीर जी ने कहा है कि आप जी जो बिना गुरु के फिरते हो, कभी कोई अनुष्ठान करते हो, कभी स्वयं ही कोई नाम जप करते हो, किसी से सुना और कोई व्रत रखने लग जाते हो। आपका कल्याण तब होगा जब आप गुरु धारण करोगे। आप जी श्री राम तथा श्री कृष्ण जी से तो किसी को बड़ा नहीं मानते। उन्होंने भी गुरु बनाये थे। ये तीन लोक के मालिक (धनी) होकर भी गुरु जी के आगे नतमस्तक होते थे। इसलिए सर्व मानव को गुरु बनाना अनिवार्य है तथा उसके बताए अनुसार भक्ति करने से ही मोक्ष प्राप्त होगा।(20)
वाणी :-
कबीर, हरि सेवा युग चार है, गुरु सेवा पल एक।
तासु पटन्तर ना तुलैं, संतन किया विवेक।।21
➡️ सरलार्थ :- बिना गुरु धारण किए परमात्मा की भक्ति चार युग तक करते रहना और गुरु धारण करके एक पल अर्थात् एक नाम का स्मरण भी कर लिया तो उसके समान मनमुखी साधना चार युग वाली नहीं है अर्थात् कम है।(21)
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