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haldighati yuddh ke bad kya hua

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हल्दीघाटी के बाद

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हल्दीघाटी के युद्ध में मानसिंह के नेतृत्ववाली मुगल सेना की जीत हुई थी । इस तथ्य से लगभग सभी इतिहासकार सहमत हैं, लेकिन अपवादस्वरूप एकाध ने यहाँ तक लिखा कि राजपूत विजयी रहे। क्या यह राणा प्रताप के प्रति अंधभक्ति के कारण ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाने का हास्यास्पद प्रयास था ? बात दरअसल यह है कि राजपूतों को विजयी बताने में अतिशयोक्ति भले ही हो, यह बिलकुल निराधार नहीं था। कारण यह है कि हल्दीघाटी के युद्ध को निर्णायक नहीं कहा जा सकता । यह युद्ध दो उद्देश्यों को लेकर मुगलों ने लड़ा था- राणा प्रताप को जीवित या मृत बादशाह अकबर के सामने पेश करने के लिए और मेवाड़ पर अधिकार करके उसे मुगल साम्राज्य में मिलाने के लिए। ये दोनों उद्देश्य पूरे नहीं हुए। मैदानी युद्ध में मुगलों का सामना न कर पाने के कारण राजपूत सेना पीछे तो हट गई, पर मानसिंह के हाथ कुछ न लगा। इससे इतना तो स्पष्ट है कि युद्ध अनिर्णीत रहा। अगर यह कहा जाए कि इसमें न किसी की हार हुई और न जीत, तो शायद बहुत गलत न होगा, क्योंकि पीछे हटने के बाद राजपूतों ने हार नहीं मानी और अपना संघर्ष जारी रखा।

स्वयं शहंशाह अकबर युद्ध के परिणाम से असंतुष्ट था। अगर वह इसे विजय मानता तो युद्ध से लौटे अपने प्रधान सेनापति मानसिंह का स्वागत करता और उसे पुरस्कृत करता, जैसा कि वह अन्य युद्धों को जीतकर मानसिंह के लौटने पर करता आया था। इसके विपरीत मानसिंह की असफलता से खीजकर उसने उससे मिलने से इनकार कर दिया और दंडस्वरूप दो साल तक उसके शाही दरबार में आने पर पाबंदी लगा दी। कोई अपने विजयी सेनापति के साथ ऐसा करता है क्या ? वह भी अकबर जैसा नीति निपुण सम्राट् ? जाहिर है कि उसने इस युद्ध को अपनी हार नहीं तो जीत भी नहीं माना । haldighati yuddh ke bad kya hua

राजपूतों ने अपनी गलती से सबक सीख लिया था। उन्होंने तय कर लिया कि भविष्य में कभी विशाल मुगलवाहिनी से खुले मैदान में नहीं लड़ेंगे। आमने-सामने की लड़ाई के बजाय उन्होंने छापामार युद्ध की पद्धति अपनाने की योजना बनाई । यहाँ सवाल उठता है कि हल्दीघाटी के युद्ध से पूर्व हुई मंत्रणा में जब यह तय हो गया था कि मुगलों से संकीर्ण घाटी की पर्वतीय ऊँचाइयों पर रहकर मुकाबला किया जाएगा तो फिर राणा प्रताप ने अपने सुदृढ़ मोरचे छोड़कर खुले में आकर युद्ध क्यों किया? जबकि इस युद्ध की सारी योजना और मोरचाबंदी स्वयं उन्होंने अपने निर्देशन में कराई थी ।

अनेक इतिहासकारों ने इसे राणा प्रताप की बहुत बड़ी भूल कहा है। उन्होंने टिप्पणी की है कि आवेश में आकर राणा अपनी मजबूत मोरचाबंदी छोड़कर सामने मैदान में खड़ी मानसिंह की सेना पर टूट पड़े। बड़े-से-बड़े संकट में धैर्य न खोने वाले राणा प्रताप भली-भाँति यह जानते हुए कि उनके वीर सेनानी तोपों की मार की हद में आ जाएँगे, ऐसा कैसे कर सकते थे? कोई भी सेनापति अपनी पहले से सुविचारित योजना को ताक पर रखकर आत्मघाती आदेश नहीं देता। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके कई सामंत आत्मनियंत्रण खो बैठे थे। उन्हें अपनी शक्ति और वीरता पर आवश्यकता से अधिक विश्वास था । शत्रु को सामना अपने मोरचों पर डटे रहना उन्हें कायरता लगी । यह नई बात थी, जिनके वे अभ्यस्त न थे । युद्ध – मंत्रणा के समय भी उन्होंने इसके प्रति अपना मतभेद प्रकट किया था । हरावल दस्ते के साथ ही वे भी मोरचों से निकलकर मुगलों पर टूट पड़े। उसके बाद राणा प्रताप के पास शेष सेना को उनकी सहायता के लिए मैदान में उतारने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । haldighati yuddh ke bad kya hua

परिणाम घातक हुए, लेकिन तब भी उन्होंने एक समझदारी दिखाई । युद्ध क्षेत्र में कट मरने की राजपूती परंपरा के विरुद्ध उन्होंने झाला सरदार के अत्यंत आग्रह पर ही सही, वहाँ से हट जाने का निर्णय लिया। अत्यंत घायल अवस्था में वे अधिक-से-अधिर चार छह मुगल सिपाहियों को मार तो सकते थे। उसके बाद वीरगति को प्राप्त होते तो बाद में मेवाड़ की स्वाधीनता के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया, वह कौन करता? अमरसिंह उनका योग्य और वीर उत्तराधिकारी था, पर न तो उसका ऐसा व्यक्तित्व था, जो सबको पूर्ण सहमति के साथ अपने झंडे तले रख पाता और न ही स्वाधीनता के प्रति इतनी प्रतिबद्धता । प्रताप का युद्धक्षेत्र से हट जाना अन्य राजपूतों के लिए भी यह संकेत था कि अब और लड़कर युद्ध का परिणाम बदला नहीं जा सकता है। बेहतर यही था कि युद्धक्षेत्र से हट जाएँ और पुन: संगठित होकर शत्रु से लोहा लें, जैसा कि उन्होंने आगे किया भी । इस दृष्टि से भी हल्दीघाटी के युद्ध को निर्णायक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मुगलों से पहली टक्कर में वे विजयी रहे थे। मुगल सेना पीछे हटी थी । उसके बाद मुगलों का पलड़ा भारी हो गया और राजपूतों को हटना पड़ा। इस मैदान में वे परास्त हुए, लेकिन शीघ्र ही पुनर्गठित होकर उन्होंने फिर संघर्ष किया । अतः ऐतिहासिक दृष्टि से इसे एक अनवरत संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है- जिसके एक मोरचे पर हल्दीघाटी के अनिर्णीत युद्ध में तकनीकी दृष्टि से मुगल सेना विजयी रही।

हल्दीघाटी से निकलने के बाद राणा प्रताप ने तनिक भी विश्राम नहीं किया। शक्तिसिंह के अश्व पर आरूढ़ होकर वह कोल्यारी गाँव पहुँचे और तुरंत आदेश दिए कि युद्ध में घायल हुए सभी सैनिकों की चिकित्सा की व्यवस्था की जाए। जो सैनिक युद्धभूमि से हटे थे, उन्हें भी वहाँ एकत्रित होने का आदेश राणा ने दिया। आदेशानुसार घायलों को कोल्यारी में स्थापित किए गए एक चिकित्सा शिविर में लाया गया। यहाँ राणा के प्राथमिक उपचार के साथ उन सबका भी उपचार किया गया । जिन्हें केवल मरहम-पट्टी की आवश्यकता थी, उन्हें अपने-अपने घरों में जाकर स्वास्थ्य लाभ होने तक विश्राम का आदेश दिया गया । जिन्हें लंबे इलाज की जरूरत थी, उनकी चिकित्सा और देखभाल की पूरी व्यवस्था महाराणा ने की। haldighati yuddh ke bad kya hua

यहाँ के प्रबंध से फुरसत पाकर राणा प्रताप गोगूंदा पहुँचे। वहाँ उन्हें समाचार मिला कि मानसिंह हल्दीघाटी से हटने के बाद गोगूंदा आ रहा है। वह सझेरा की तरफ निकल गए, जहाँ भील सरदार एकत्र होकर उनके भावी आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे । राणा ने भील सरदारों का धन्यवाद किया और युद्ध में अपूर्व वीरता का प्रदर्शन करने के लिए सभी भीलों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि युद्ध समाप्त नहीं हुआ है, आरंभ हुआ है, जिसकी पहली झपट में उनकी सेना को आघात पहुँचा है, किंतु भविष्य में ऐसी गलती कभी दोहराई नहीं जाएगी । राणा ने भीलों को पुनर्गठित होकर भावी आदेश की प्रतीक्षा करने के लिए कहा।

मानसिंह खरामा-खरामा गोगूंदा की तरफ आ रहा था। उसके सैनिक लड़ाई की थकान से बेहाल थे । वह बाज की तरह गोगूंदा पर झपटा और 23 जून, 1576 को गोगूंदा पर अधिकार कर लिया । हल्दीघाटी की लड़ाई में राणा प्रताप को मारने या पकड़ने में वह असफल रहा था । उसने सोचा कि अब भी अगर राणा प्रताप हाथ आ जाएँ तो उसकी असफलता का कलंक धुल जाएगा और उसके फूफा शहंशाह अकबर की खुशी का पारावार न रहेगा, लेकिन वहाँ पहुँचने पर उसे असफलता ही हाथ लगी। haldighati yuddh ke bad kya hua

कुछ इतिहासकारों ने टिप्पणी की है कि कुँवर मानसिंह राजपूत होने के नाते प्रताप को गिरफ्तार नहीं करना चाहता था । इस बात में सच्चाई नहीं दिखती। अगर ऐसा ही था तो उसने अकबर से आग्रह करके राणा के विरुद्ध युद्ध में सेना की कमान क्यों सँभाली? अगर ऐसा ही था तो उसने युद्ध के दौरान पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार राणा प्रताप के सामने अपना हाथी लाकर उन्हें क्यों उकसाया? अगर ऐसा ही था तो हल्दीघाटी की लड़ाई के तीसरे ही दिन गोगूंदा पहुँचकर उस पर अधिकार करने की जल्दबाजी क्यों दिखाई? दरअसल वह मुगलों का चाकर था। उसके पुरखों ने राणा कुंभा, राणा साँगा और फिर राणा उदयसिंह के दरबार में हाजिरी भरी थी । सिसौदिया राजपूतों से ईर्ष्या के चलते ही उसके पिता राजा भगवानदास कछवाहा मुगलों की शरण में गए । बारह साल के मानसिंह को उन्होंने अकबर की सेवा में भेज दिया था। इसकी रग-रग में अकबर के प्रति स्वामिभक्ति थी, जिसके राज्य के विस्तार के लिए उसने अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं। अकबर के बाद शहजादा सलीम जब जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा तो मानसिंह उसकी भी चाकरी में रहा।

गोगूंदा पहुँचने के बाद मानसिंह ने पड़ाव डाला और भावी योजना पर विचार करने लगा कि किस तरह राणा प्रताप का पता लगाकर उन्हें पकड़ा जाए या मौत के घाट उतार दिया जाए, पर गोगूंदा में उसकी सेना पर क्या आफत आनेवाली है, इसका अनुमान मानसिंह को न था। जब वास्तविकता सामने आई तो हल्दीघाटी की विजय का सारा नशा चूर हो गया। अव्वल तो गोगूंदा के आस-पास का अधिकांश क्षेत्र अंजर बंजर था। जहाँ कुछ खेती नहीं होती थी, वह सारा इलाका राणा प्रताप के आदेश से फूँक दिया गया था। अब वहां जली हुई धरती के सिवा कुछ न था। साथ लाई रसद खत्म हो चुकी थी । राणा प्रताप के छापेमार दस्तों ने बाहर से रसद मँगाने के सब जरिए खत्म कर दिए थे । राजपूत चंद दिनों में ही इस तरह सक्रिय हो जाएँगे, इसकी उसने कल्पना तक न की थी । haldighati yuddh ke bad kya hua

मानसिंह और उसके सिपहसालारों ने समझा था कि हल्दीघाटी की पराजय से राजपूतों के हौसले पस्त हो जाएँगे और वे कम-से-कम कुछ बरसों तक सिर उठाने लायक न रहेंगे। दरअसल इसके ठीक विपरीत हुआ था। महाराणा, उनके सामंतों और वीर सैनिकों का उत्साह हल्दीघाटी के युद्ध के बाद बहुत बढ़ गया था । इस प्रत्यक्ष अनुभव ने उन्हें बता दिया था कि मुगलों से टक्कर लेना मेवाड़ के लिए संभव है। हल्दीघाटी में ही अगर उन्होंने मैदान में उतरकर शत्रु का सामना करने की गलती न की होती तो विजय उनकी ही होती। उन्होंने अपनी योजना बदल ली थी और चंद दिनों में ही फिर संगठित होकर छापामार युद्ध आरंभ कर दिया था ।

आस-पास कोई उपज न थी । बाहर से रसद आने के मार्गों पर महाराणा की छापामार टुकड़ियाँ नजर गड़ाए हुए थीं । बंजारे या दूसरे अनाज बेचनेवाले न जाने कहाँ अदृश्य हो गए थे। मानसिंह के सैनिक भूखे मरने लगे। आस-पास आम की फसल थी। उसे खाकर और जानवरों का मांस खाकर वे अपना पेट भर रहे थे । जब पके आम खत्म हो गए तो भूख से बेहाल सिपाहियों ने कच्ची केरियाँ खाकर गुजारा किया। इससे बहुत से सिपाही बीमार पड़ गए।

एक तो खाने के लाले पड़ गए थे, ऊपर से दिन-रात यह भय सताता रहता था कि न जाने कब राणा प्रताप अपनी सेना लेकर उन पर अचानक हमला कर दें। डर के मारे मानसिंह ने गाँव के चारों तरफ गहरी नींव खुदवाकर ऊँची दीवार खड़ी करवा दी थी। इस तरह से उसे एक अस्थायी किले का सा रूप दे दिया था। आक्रमण की सूचना देने के लिए दूर-दूर तक छोटी चौकियाँ तैनात करके पहरे की व्यवस्था कर दी थी । गोगूंदा पर तो हमला न हुआ, पर आस-पास राजपूतों के छोटे-मोटे छापे मारने के समाचार मिलते रहते थे । haldighati yuddh ke bad kya hua

यह अभूतपूर्व था । अब तक का इतिहास बताता था कि एक बार हारने के बाद राजपूत जल्दी सिर नहीं उठाते थे । उठाते भी कैसे? अपने से चौगुनी सेना के साथ भी टकराने से वे हिचकिचाते नहीं थे। उनकी स्त्रियाँ जीवित चिता में जलकर प्राण दे देती थीं और वे केसरिया बाना पहनकर शाका कर लेते थे- यानी एक एक राजपूत अनेक शत्रुओं को मारकर अपने प्राण दे देता था | पूरी एक युवा पीढ़ी इस तरह कटकर मर जाती थी, फिर दूसरी पीढ़ी के युवा होने तक कौन सिर उठाता? दूसरी पीढ़ी भी लड़ने के लिए इसलिए उपजती थी कि सभी गर्भवती स्त्रियों को जौहर से बचा लिया जाता था। युद्ध की थोड़ी भी आशंका होने पर उन्हें प्राय: किसी सुरक्षित स्थान पर भेज देते थे।

राणा प्रताप के समय में और उसके बाद न कोई जौहर हुआ और न शाका । पुरखों की चलाई नीति की खामी उन्होंने समझ ली थी । इरादा तो उनका हल्दीघाटी की लड़ाई भी छापामार पद्धति से पहाड़ों के सँकरे रास्तों पर लड़ने का था । वह न हुआ तो उससे सबक सीखने के बाद अब राजपूत इस रणनीति पर चल पड़े थे, जिससे पार पाना विशाल मुगल साम्राज्य के लिए भी दूभर ही नहीं असंभव सिद्ध हुआ । किसी तरह दिन कट रहे थे । मानसिंह को समझ में नहीं आ रहा था कि किसी ठोस परिणाम के बिना शहंशाह अकबर के सामने कैसे जाए। आखिर वह उसके आदेश को पूरा नहीं कर पाया था। haldighati yuddh ke bad kya hua

इस बीच जरूरी था कि अकबर को हल्दीघाटी के युद्ध का सारा समाचार दिया जाए। इस काम के लिए शाही इतिहासकार बदायूँनी को बादशाह के पास भेजने का फैसला किया गया । इस युद्ध में राणा प्रता का एक प्रिय हाथी भी मुगलों ने पकड़ लिया था। सोचा गया कि बदायूँनी के साथ उसे भी सम्राट् के पास तोहफे के तौर पर भेज दिया जाए। बदायूँनी को एक छोटे दल के साथ रवाना कर दिया गया। उसने वहाँ जाकर लड़ाई का सारा हाल और मुगल सेना की विजय का समाचार अकबर को दिया। बादशाह हाथी पाकर तो खुश हुआ, लेकिन विजय के समाचार से उसे तनिक भी संतोष नहीं हुआ, बल्कि वह रुष्ट ही हुआ। उसे समझते देर न लगी कि बदायूँनी के विवरण में अतिरंजना है। इस रण का कोई परिणाम तो था नहीं। न तो मानसिंह मेवाड़ पर अधिकार कर सका था और राणा प्रताप को युद्ध में मारने की योजना भी सफल न हुई थी ।। अकबर से यह बात भी छिपी न रह सकी कि हल्दीघाटी के युद्ध से बचे राजपूत फिर से संगठित हो रहे थे।

कच्चे आम और मांस खाकर बीमार पड़ते सिपाही बेहद परेशान थे। एक सिपहसालार ने समझाया कि कुँवरजी, सेना में बदअमनी फैलने का डर है। इससे पहले कि सिपाही बगावत पर उतर आएँ या यहाँ से भाग खड़े हों, हमें किसी दूसरे इलाके में जाना चाहिए, जहाँ कम-सेकम सेना को रसद तो मिल सके। बात मानसिंह को जँच गई। उसने तत्काल कूच के आदेश दे दिए । गोगूंदा की रक्षा के लिए उसने किलेदार और थोड़ी सी सेना तैनात कर दी । haldighati yuddh ke bad kya hua

राणा प्रताप को मानसिंह की गतिविधियों की पल-पल की खबर मिल रही थी। मुगल सेना के कूच के बाद उन्होंने दो दिन इंतजार किया, ताकि वह दूर निकल जाए। उसके बाद एक ही हल्ले में जुलाई 1576 में गोगूंदा पर अधिकार कर लिया। अकबर को यह खबर मिली तो वह गुस्से से आग-बबूला हो गया। उसने तत्काल मानसिंह को अजमेर आने का आदेश भेजा। अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की हल्दीघाटी की विफलता पर नाराजगी जताते हुए उन्हें दो साल तक दरबार में हाजिर न होने की सजा दी। शेष सिपहसालारों को मुगलों की आन की रक्षा करने और राजपूतों के हाथों पराजय से बचाने के लिए पुरस्कृत किया गया। अब उसने सोचा कि खुद ही चलकर अपने नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करके घमंडी राजपूतों और उनके सरगना राणा प्रताप को सजा देनी होगी।

अकबर अजमेर आया । राणा प्रताप को इसकी खबर लगी तो उसके इरादे को भाँप गए । वैसे तो वह ख्वाजा की मजार पर दुआएँ माँगने आया ही करता था, लेकिन सितंबर में जब उर्स होता था। अभी तो मार्च का महीना था । महाराणा पहले ही समझ चुके थे कि मानसिंह के मेवाड़ पर विजय न पाने से अकबर चुप नहीं बैठेगा। इससे उसकी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा को गहरी ठेस लगी थी । वैसे बादशाह ने जाहिर किया कि उसकी मंशा मेवाड़ के मुगलों के अधिकारवाले इलाके में शिकार खेलने की है। ।

मेवाड़ की शक्ति को कम करके आँकने की गलती अनुभवी सम्राट् अकबर ने नहीं की थी । वह फूँक – फूँककर कदम रखना चाहता था । एक सुविचारित योजना बनाकर बहुत बड़े सैन्यबल की सहायता से वह एक ही बार में मेवाड़ को अपने अधीन कर लेना चाहता था | मेवाड़ पर सीधे आक्रमण करने से पहले उसने राणा की सहायता करनेवाले राज्यों को अपने अधीन कर लेना आवश्यक समझा, ताकि मेवाड़ पर चढ़ाई करने पर उसे बाहर से कोई मदद न मिले । मेवाड़ के निकटवर्ती इन छोटे राज्यों को जीत लेने के बाद वह चारों तरफ से मुगल साम्राज्य से घिर जाता, जिससे महाराणा को मेवाड़ की स्वाधीनता बनाए रखना दुष्कर हो जाता । haldighati yuddh ke bad kya hua

ये राज्य थे जालौर और सिरोही । अकबर के लिए इन्हें जीतना कोई मुश्किल न था। ये अपनी रक्षा करने में असमर्थ थे और राणा प्रताप चाहकर भी अपनी वर्तमान परिस्थितियों में इनकी प्रत्यक्ष सैनिक सहायता नहीं कर सकते थे। सेना की दो टुकड़ियाँ उन पर चढ़ाई करने के लिए भेजी गईं, जिन्होंने आसानी से इन पर अधिकार कर लिया। जालौर के ताज खाँ और सिरोही के शासक देवराराय को महाराणा प्रताप की मित्रता की कीमत पराधीनता स्वीकार करके चुकानी पड़ी । इस प्रकार युद्ध की स्थिति में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करनेवाले मेवाड़ के दो मित्र कम हो गए। इतना ही नहीं, अब मेवाड़ को बाहर से युद्ध सामग्री, खाद्यान्न या कुछ भी अन्य उपयोगी वस्तुएँ मँगाने के सारे रास्ते भी बंद कर दिए गए। गुजरात के रास्ते राणा प्रताप को कोई सहायता न मिल सके, उसके लिए अकबर ने हल्दीघाटी के युद्ध से पहले ही वहाँ नाकेबंदी कर दी थी । इस नाकेबंदी का एक उद्देश्य यह भी था कि युद्ध में हारने और समूचे मेवाड़ पर मुगलों का अधिकार हो जाने के बाद महाराणा अपने परिवार और राजकोष के साथ उस रास्ते से भाग न सकें । उसका यह सपना तो पूरा हो नहीं सका था, पर इस बार उसे आशा थी कि वह अवश्य सफल होगा।

महाराणा प्रताप के स्वाधीन रहने से अकबर परेशान जरूर था, पर उसे राणा से व्यक्तिगत शत्रुता या कटुता न थी । प्रताप को बंदी बनाने या मार डालने के पीछे उसका मुख्य उद्देश्य यह था कि उसके साथ ही राजपूतों का मनोबल टूट जाएगा और फिर वह सहज ही मेवाड़ को अपने अधीन कर लेगा । haldighati yuddh ke bad kya hua

कुछ अन्य व्यस्तताओं के कारण अकबर लौट गया और हर साल की तरह इस बार भी अपने नियमानुसार सितंबर में फिर अजमेर आया। उसने ख्वाजा की दरगाह पर खुले दिल से चढ़ावा चढ़ाया और मेवाड़ विजय की दुआ माँगी । अब वह आगामी युद्ध की योजना को क्रियान्वित करने में लग गया। 11अक्तूबर, 1576 को बादशाह अकबर अजमेर से अपने मेवाड़ विजय अभियान के लिए रवाना हुआ। मार्च के बाद इतना समय लेने के पीछे अन्य व्यस्तताओं के अतिरिक्त एक और भी बड़ा कारण था । मेवाड़ में अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ और पहाड़ी नाले हैं, जो वर्षाकाल में अपने पूरे उफान पर रहते हैं। धरती का बड़ा भाग बाढ़ के कारण जलमग्न हो जाता है। यह बाहर से आनेवाली किसी सेना के लिए असुविधा का कारण तो बनता ही है और साथ ही मेवाड़ को अतिरिक्त प्राकृतिक सुरक्षा भी प्रदान करता है । अकबर ने आक्रमण के लिए ऐसा समय चुना था, जब वर्षा की कोई संभावना न हो और नदियों का पानी उतरकर सामान्य स्तर पर आ चुका हो ।

विशाल मुगलवाहिनी अपने पूरे तामझाम के साथ चल रही थी । अकबर के आगे-आगे एक बहुत बड़ा सुरक्षाबल था, जो मार्ग में होनेवाले किसी भी तरह के अवरोध या छापे से निबटने में सक्षम था । सिपहसालारों को स्पष्ट आदेश था कि शहंशाह के रास्ते को पूरी तरह निष्कंटक रखा जाए और उन्हें किसी तरह की रुकावट महसूस न हो । दो दिन बाद ही अकबर गोगूंदा पहुँच गया और उसकी सेना ने वहाँ पड़ाव डाल दिया। अब आगे की योजना पर विचार होने लगा ।

महाराणा प्रताप को सूचना मिल गई थी कि अकबर एक बहुत बड़ी सेना लेकर मेवाड़ की तरफ आ रहा है। अपनी छापामार रणनीति के अनुसार उन्होंने गोगूंदा मुगलों के लिए खाली कर दिया था और अपनी सेना के साथ पहाड़ी प्रदेश में चले गए। गोगूंदा और आसपास के प्रदेश को उन्होंने पूरी तरह उजड़वा दिया था, लेकिन अकबर अपने साथ भरपूर रसद लेकर चला था। इसके अलावा उसने अजमेर तक के रास्ते को खुला और हर तरह से बाधारहित रखने के स्पष्ट निर्देश दिए थे, ताकि हर तरह की आपूर्ति निरंतर मिलती रहे। haldighati yuddh ke bad kya hua

मानसिंह और आसफ खाँ ने सोचा था कि शहंशाह अकबर को गोगूंदा पहुँचने पर इस बात का एहसास हो जाएगा कि उनका हुक्म बजा लाने के लिए इन लोगों ने कितनी मुश्किलों का सामना किया था, पर हुआ इसका उलटा। जमीन फूँकने की राजपूतों की प्रथा नई न थी। सब आक्रमणकारी इससे परिचित थे। अकबर को उलटे गुस्सा आया कि इन मूर्खों ने गोगूंदा में पड़ाव डालने से पहले ही अपनी सेना के लिए भरपूर रसद साथ लाने और अजमेर से निरंतर आपूर्ति मिलने के भरपूर प्रबंध क्यों नहीं किए।

बहरहाल गोगूंदा में पैर पसारने के बाद अकबर ने सबसे पहले राणा प्रताप को गिरफ्तार करने का इरादा किया। उसे पूरा विश्वास था कि एक बार महाराणा पकड़ में आ जाएँ तो फिर मेवाड़ विजय का काम बहुत सरल हो जाएगा । अव्वल तो प्रताप पर दबाव डालकर उन्हें अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया जा सकता है। ऐसा न होने पर भी नेतृत्वहीन राजपूतों पर विजय पाना कठिन न होगा। इसके लिए पहला काम था राणा प्रताप के बारे में पता लगाना कि वह कहाँ हैं?

बड़ा आसान काम था। गोगूंदा से कुछ टुकड़ियाँ शाही फरमान के साथ विभिन्न दिशाओं में भेज दी गईं | हुक्म हुआ कि जहाँ भी राणा प्रताप के होने का कोई सुराग मिले, फौरन खबर की जाए, ताकि सारे इलाके को घेरकर इन्हें बंदी बनाया जा सके। इस काम के लिए सेना की दो टुकड़ियाँ बनाई गई थीं, जिनके प्रमुख राजा भगवानदास और कुतबुद्दीन खाँ थे। ये दोनों ही मेवाड़ के भूगोल से दूसरों की अपेक्षा अधिक परिचित थे । इन्होंने छोटी टुकड़ियाँ आगे टोह लेने के लिए भेज दीं। उन्हें समझाया गया कि इनाम का लालच देकर वनवासियों से राणा प्रताप और उनके परिवार के बारे में जानकारी हासिल करें। अब दोनों सेनापति मसनद पर गावतकिए की टेक लगाकर आराम से बैठ गए कि दो-चार दिनों में ही सब खोज – खबर मिल जाएगी । haldighati yuddh ke bad kya hua

कुछ टुकड़ियाँ तो लौटी ही नहीं, उनके सारे सिपाहियों को राजपूतों ने घात लगाकर मौत के घाट उतार दिया। उनकी समझ में नहीं आता था कि छापामार कहाँ से अचानक प्रकट होते हैं और फिर अदृश्य भी हो जाते हैं। कुछ भीलों के विषबुझे तीरों से घायल हो बेहाल लौटते और आपबीती सुनाते कि किस तरह उनके बाकी साथी अचानक हुई बाणों की वर्षा से मारे गए। बाणों का जहर अपना असर दिखाता और उपचार के बावजूद नीले-पीले होकर मर जाते ।

इस बारे में दिलचस्प किस्सा बहुत मशहूर है। भगवानदास स्वयं राजपूत होने और मेवाड़ के निवासियों से भली-भाँति परिचित होने के कारण फूंक-फूंककर कदम रख रहे थे। कुतबुद्दीन इस लिहाज से अनाड़ी ही था । वह समझता था कि पैसे का लालच देकर इन घुटनों तक धोती पहननेवाले गरीब वनवासियों को खरीदना कौन सा मुश्किल काम है? जंगल में कुछ गड़रियों ने राणा प्रताप के बारे में पूछने पर पहले तो अनभिज्ञता जताई, फिर बादशाह अकबर से बताने पर जान से मार देने की धमकी के बाद वे सबकुछ बक पड़े। राणा प्रताप उस स्थान से बहुत दूर न थे। अपनी भेड़-बकरियों को लेकर ये वहीं जा रहे थे. ताकि उनके परिवार की दूध की आवश्यकता पूरी हो सके । यह सुनते ही कुतबुद्दीन खाँ की बाँछें खिल गईं। उसने तुरंत एक सैनिक टुकड़ी इनके साथ कर दी और उम्मीद करने लगा कि चंद घंटों में ही महाराणा प्रताप और सारा परिवार अकबर के सामने हाथ बाँधे खड़ा होगा।

इस दंतकथा के मुताबिक भोले-भाले गड़रिए बड़े सरदार को झुकझुक प्रणाम करते उस टुकड़ी को लेकर चल पड़े। जंगल में काफी चलने के बाद पहाड़ी कंदरा के पास पहुँचकर वे रुक गए। उन्होंने साथ आए सैनिकों को बताया कि हजूर, इसके दूसरे छोर पर एक छोटा सा शिविर है, जिसमें राणा प्रताप और उनका परिवार रहता है। सैनिकों के नेता ने अपने तीन-चार सिपाही गड़रियों पर नजर रखने के लिए वहीं छोड़ दिए। उन्हें कहा कि खबर सही निकली तो मालामाल कर दिया जाएगा। गलत निकली तो मौत के घाट उतार देंगे । वे खुशी-खुशी राजी हो गए। जब वे सैनिक अपने नेता के साथ अँधेरी गुफा में आगे जाकर गुम हो गए तो भोले-भाले गड़रिए अचानक पहरा देनेवाले सैनिकों पर टूट पड़े। इससे पहले कि वे सँभलते, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया । haldighati yuddh ke bad kya hua

राणा प्रताप को जीवित पकड़वाने के अपने उत्साह में जब सैनिक दल गुफा के पार निकला तो राजपूतों के एक दल ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। बच निकलने की कोई संभावना न देखकर उन्होंने हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर दिया। ये राजपूत युवकों के आगे बहुत गिड़गिड़ाए कि उनकी जान बख्श दी जाए। वे बेचारे तो शाही हुक्म की तामील कर रहे थे । वीर राजपूत निहत्थों की हत्या को वैसे भी कायरता ही समझते हैं। उन्हें दया आ गई तो इन सबके सिर मूँड़कर इन्हें वापस भेज दिया गया। लौटते समय वे मन-ही-मन सोच रहे थे कि उस पार जाते ही उन बदमाश गड़रियों का सिर धड़ से अलग करके इस अपमान का बदला लेंगे, लेकिन दूसरे छोर पर पहुँचे तो उन्हें वहाँ अपने साथियों के ही सिर धड़ से अलग पड़े मिले। गड़रियों का तो कहीं नामनिशान न था । वे इसी बदहाली में कुतबुद्दीन खाँ की खिदमत में पेश हुए तो उसके होश उड़ गए। जब यह काररवाई चल रही थी तो राजा भगवानदास कुतबुद्दीन खाँ की मूर्खता पर मन-हीमन हँस रहे थे। उन्होंने जानते हुए भी अपने सहयोगी को समझाने की कोशिश नहीं की कि तुम झाँसे में आ रहे हो । मुगल दरबार की प्रतिद्वंद्विता के किस्से तो आज तक मशहूर हैं। भगवानदास चाहते थे कि कुतबुद्दद्दीन की बेवकूफी सब पर जाहिर हो । यह बात अकबर के कानों तक भी पहुँचे और उसकी साख गिरे। 

इसके बाद भी राजा भगवानदास और कुतबुद्दीन खाँ की टुकड़ियाँ आए दिन मेवाड़ के जंगलों व पहाड़ियों की खाक छानती रहीं। महाराणा प्रताप का सुराग तो उन्हें कहीं नहीं मिलता था, लेकिन राजपूत युवकों के अचानक हमले से कई मारे जाते या घायल हो जाते। कभी अचानक ही कहीं से भीलों के तीखे बाणों की वर्षा होती और वे लहूलुहान हालत में सिर पर पैर रखकर भागते । अचानक हमले के खौफ से सहमे हुए और अनजान बीहड़ रास्तों की खाक छानने से परेशान सिपाही करते भी तो क्या? कभी उनके बहुत से साथी अचानक हमले में मरते, कभी साथ लाई रसद लूट ली जाती । महीनों इसी तरह गुजर गए । अकबर उनकी विफलता की कहानियाँ और मजबूरियाँ सुन-सुनकर तंग आ गया था। राणा प्रताप को पकड़ने और मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए वह स्वयं आया था। अतः किसी भी कीमत पर असफल नहीं लौटना चाहता था । राजा भगवानदास समझ गया था कि राणा प्रताप को इस तरह पकड़ना संभव न होगा। मेवाड़ की चारों तरफ से नाकेबंदी कर दी गई थी । प्रताप को किसी भी तरह की रसद या सहायता मिलने का सवाल ही न था । भगवानदास का अनुमान था कि अब तक तो राणा और परिवार को खाने के भी लाले पड़ गए होंगे । राणा प्रताप को खोजना असंभव है, पर इतना निश्चित है कि जगह-जगह पर उनकी खोज में मुगल सेना के छापे पड़ने के कारण उन्हें जल्दी-जल्दी दल-बल के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता होगा। इससे भी वह निश्चित ही परेशान हो गए होंगे। ऐसे में अगर किसी तरह उन तक संदेश पहुँचाया जाए कि राजा भगवानदास मिलना चाहते हैं तो कैसा रहेगा ! संभव है राणा मिलने को तैयार हो जाएँ । संभव है वर्तमान परिस्थितियों में संधि के लिए राजी हो जाएँ। अगर कोई युक्ति काम कर गई तो संभव है छल से उन्हें गिरफ्तार ही किया जा सके या इस प्रक्रिया में उनका कोई सुराग लग जाए या कोई संपर्क सूत्र हाथ लग जाएँ अथवा उनका कोई विश्वस्त लालच में आकर उनके छिपने का गुप्त स्थान बता दे ।

विचार बुरा नहीं था। भगवानदास कछवाहा उसे क्रियान्वित करने के प्रयास में जुट गया । पहला काम तो उसने यह किया कि राणा प्रताप के विरुद्ध भेजी जानेवाली सभी सैनिक टुकड़ियों को विश्राम करने को कहा । ये सैनिक कारण तो नहीं जानते थे, पर उन्होंने चैन की साँस ली। कुछ दिन की शांति के बाद जब भगवानदास को लगा कि वातावरण बातचीत के लायक बन गया है तो अपने कुछ दूत इधर-उधर छोड़ दिए जो किसी उपयुक्त व्यक्ति को खोजें जिसका राणा प्रताप से संपर्क हो । आखिर एक राजपूत सहमत हो गया। उसने कहा कि आपका संदेश राणाजी तक पहुँचा दूँगा। अगर वे मान गए तो दो-तीन दिन में मैं आपकी मुलाकात उनसे करा दूंगा । वह अगले दिन फिर राणा प्रताप का उत्तर लेकर आने के लिए कहकर चला गया। राजा भगवानदास को बहुत उम्मीद थी कि इस बार बात बन जाएगी। haldighati yuddh ke bad kya hua

इस कथा के अनुसार, दूसरे दिन वह दूत राणा का संदेश लेकर हाजिर हुआ। उसने अत्यंत विनम्रता से राजा भगवानदास को प्रणाम करने के बाद कहा कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह आपके लिए राणाजी का संदेश है। अगर इसमें आपको कुछ ऊँच-नीच लगे तो मुझे क्षमा करेंगे ।

“ठीक है, राणाजी ने क्या संदेश भिजवाया है, निर्भय होकर कहो। ” भगवानदास बोले ।

“महाराणाजी ने कहा कि वैसे तो राजा भगवानदास और उनके चाकर भी उसी व्यवहार के लायक हैं, जो व्यवहार कुतबुद्दीन खाँ के आयोजकों के साथ किया गया, लेकिन वे राजपूत हैं, इस नाते उन्हें क्षमा किया जाता है । वे जिसकी चाकरी करते हैं उसके तलवे चाटें या दुम हिलाएँ यह उनकी मरजी है । “

1 कुत्ते से अपनी तुलना सुनकर भगवानदास कछवाहा के तन-बदन में आग लग गई। उसने दूत से कुछ न कहा । उसे दंड देना तो धर्मविरुद्ध होता, फिर अपने सब आदमियों के सामने वह उसे अभयदान भी दे चुका था।

जब यह तरकीब भी असफल रही तो भगवानदास की समझ में नहीं आया कि आखिर किया क्या जाए। नए सिरे से सैनिकों की टोलियाँ इधर-उधर भेजना और जहाँ कहीं राणा प्रताप के होने की खबर या अफवाह मिले, वहाँ छापे मारना जारी रहा। कुतबुद्दीन भी यही कर रहा था । खबर देनेवाले भील उन्हें बीहड़ जंगली रास्तों पर दूर तक भटका देते। कभी घात लगाकर बैठे राजपूत युवकों या भीलों की तरफ भेज देते, जहाँ से वे क्षत-विक्षत होकर लौटते । अब तक अकबर की सेना के जान-माल का काफी नुकसान हो चुका था, लेकिन हाथ कुछ भी न लगा था ।

अपने इन दोनों सिपहसालारों के प्रयासों से निराश होकर अकबर ने इन दोनों को इस कार्य से हटा दिया। उनकी अकर्मण्यता के दंडस्वरूप उन्हें दरबार में प्रवेश न करने का हुक्म भी बादशाह ने सुनाया। उसके बाद सारी काररवाई की बागडोर खुद सँभाली। उसने राणा प्रताप को चारों तरफ से घेरने के लिए जगह-जगह नाकेबंदी की और पर्याप्त सेना के साथ अपने थाने स्थापित किए। इन थानों में ऐसी व्यवस्था थी कि आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता कर सकें । अकबर खुद अपने साथ भी भारी लाव-लश्कर लेकर चल रहा था । कहीं-न-कहीं उसके मन में भी राणा प्रताप के अचानक आक्रमण का डर समाया हुआ था । उसकी रणनीति यह थी कि धीरे-धीरे सारे प्रदेश की नाकेबंदी कर दी जाए। आखिर उसके बीच में पहाड़ी प्रदेश में ही राणा प्रताप कहीं होंगे, फिर उस प्रदेश पर बड़ी सैनिक काररवाई करके उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है ।

सुरक्षा और घेराव के इस सारे प्रबंध में पूरे दो महीने का समय लग गया। उसके बाद सम्राट् अकबर उदयपुर की ओर बढ़ा । उस पर भी आसानी से अधिकार हो गया। कहीं भी आमने-सामने की लड़ाई लड़ने का तो राणा का कोई इरादा था ही नहीं । वह तो मुगल सेना को छकाकर थका देना चाहते थे। जगह-जगह छापे मारने पर भी जब अकबर को राणा प्रताप का कुछ पता न चला तो वह हताश होने लगा । अब उसकी समझ में आ रहा था कि उसके अनुभवी सिपहसालार क्यों विफल हुए थे । शायद इसी कारण बाद में माफी माँगने पर बादशाह ने उनको क्षमा कर दिया। haldighati yuddh ke bad kya hua

उदयपुर में थोड़ा दम लेने और अपनी सारी स्थिति को स्थिर करने के बाद एक बार फिर अकबर ने आगे बढ़ने का मन बनाया । उदयपुर आखिर एक महत्त्वपूर्ण मुकाम था । अतः वहाँ की सुरक्षा का सारा भार उसने अपने अनुभवी और योग्य सेनानायकों – राजा जगन्नाथ और फखरुद्दीन को सौंपा। उनके साथ पर्याप्त सेना रख दी गई। इसके साथ ही अकबर ने राजा भगवानदास को उदयपुर के निकटवर्ती प्रदेश में राणा प्रताप का पता लगाने की जिम्मेदारी एक बार फिर सौंपी। उसकी सहायता के लिए एक और सिपहसालार अब्दुल्ला खाँ को नियुक्त कर दिया। अकबर जानता था कि जिस क्षेत्र में वह जा रहा है, वहाँ उसकी सेना की दबिश पड़ने पर राणा प्रताप अपना स्थान बदलना चाहेंगे। ऐसे में उनके दल के उदयपुर के वन क्षेत्र में आने की संभावना अधिक है, तब उनकी ताक में बैठे ये दोनों सिपहसालार उन्हें दबोच लेंगे । यह भी संभव है कि एक तरफ से घिर जाने के बाद बचाव का कोई रास्ता न देखकर राणा प्रताप आत्मसमर्पण कर दें ।

अकबर को उम्मीद थी कि अब प्रताप और उनके राजपूत सामंत अधिक दिन यह दबाव सहन नहीं कर सकेंगे । वह शक्तिसिंह की सीख भूल गया था कि पूरे क्षेत्र को घेरने के लिए कम-से-कम दो लाख की फौज चाहिए, तभी अचानक एक ऐसी घटना घटी जिससे अकबर को गहरा धक्का लगा।

बादशाह ने नाथद्वारा के नजदीक मोही गाँव में एक बड़ा थाना स्थापित किया था। उसकी सुरक्षा के लिए और आसपास के थानों से मदद के लिए उसने तीन हजार सैनिकों की बड़ी सेना मुजाहिद खान के अधीन रखी थी। रसद की समस्या तो थी ही। अतः मुजाहिद खान ने वहाँ जोरदबरदस्ती से या पैसे का लालच देकर एक खेत में मक्का की फसल उगाने का प्रबंध किया। वह सोच भी नहीं सकता कि राजपूतों के लंबे हाथ यहाँ तक मार कर सकते हैं । haldighati yuddh ke bad kya hua

राणा प्रताप ने सारे क्षेत्र में किसी भी तरह की खेती करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। साथ ही यह घोषणा भी करवा दी थी कि अगर कोई इसका उल्लंघन करेगा तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। टॉड ने एक जगह लिखा है कि शत्रु को सहायता पहुँचानेवाले गड़रिए का सिर काट लिया गया। एक अन्य इतिहासकार ने लिखा है कि एक मुगल सिपहसालार के लिए सब्जी उगाने का प्रयास करनेवाले एक किसान का सिर काटकर खेत में उस मुगल सिपहसालार के लिए रख दिया गया था ।

राणा के पास मोही में खेती करने की भी शिकायत पहुँची तो उन्होंने कुँवर अमरसिंह को युवक राजपूतों के एक दल और कुछ भीलों के साथ वहाँ आवश्यक काररवाई के लिए भेजा। योजना के अनुसार कुँवर अमरसिंह अपने साथियों और धनुष-बाण से लैस कुछ भीलों के साथ कुछ दूर पर रात के अँधेरे में चुपचाप खड़े रहे । दो-चार भीलों को इशारा किया गया तो वे आगे बढ़कर फसल काटने लगे । दूर पहरा दे रहे कुछ सिपाहियों ने देखा तो दौड़कर अपने थानेदार मुजाहिद खान को खबर दी कि हुजूर कुछ लोग चोरी से फसल काट रहे हैं । वह तुरंत घोड़े पर सवार होकर कुछ सैनिकों के साथ वहाँ पहुँच गया, ताकि उन्हें अपने किए का दंड दे सके । बेचारे को क्या पता था कि उसे ही अपने किए का मृत्युदंड मिलनेवाला है। तीरों की बौछार ने मुगलों की इस टुकड़ी का स्वागत किया। मुजाहिद खान समझ पाता कि किस तरफ से तीर आ रहे हैं, इससे पहले एक भाला उसके सीने में लगा, जो उसके भारी भरकम शरीर के आर-पार हो गया । सैनिक अपने थानेदार को उठाने आगे बढ़े तो फिर तीरों की एक और बौछार उन पर पड़ी। वे भी जवाब में तीर और गोलियाँ चला रहे थे, पर कोई दिखाई देता तब ना? आखिर खान को वहीं छोड़ वे जान बचाकर भागे ।

भीलों ने सारी फसल लूट ली । उस किसान को मारकर उसकी लाश एक पेड़ पर टाँग दी और वहाँ से यह टोली चुपचाप लौट आई। अकबर को यह समाचार मिला तो वह सन्नाटे में आ गया। संदेश बड़ा स्पष्ट था कि सारे मेवाड़ में अब भी महाराणा की राजाज्ञा चलती है, मुगल सम्राट् अकबर की नहीं। उसे इस बात की भी हैरानी थी कि कहाँ तो उसे खबरें मिल रही थीं कि चारों तरफ से घिरकर राजपूत पिंजरें में फँसे पशुओं जैसे हो गए हैं, उन्हें खाने तक के लाले पड़ रहे हैं, अब उनके महाराणा के पास आत्मसमर्पण करने के अलावा और कोई चारा नहीं और कहाँ ऐसे मौके पर जब वह खुद इतनी बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ आया है उसकी नाक के नीचे उसके एक सरदार को मौत के घाट उतार दिया गया। उसका सारा आत्मविश्वास डोल गया । इसी समय अकबर के गुप्तचरों ने सूचना दी कि राणा प्रताप फिर से गोगूंदा पर अधिकार करने की योजना रहे हैं। वह परेशान हो गया और तुरंत राजा भगवानदास और मिर्जा खाँ को एक सेना के साथ गोगूंदा की रक्षा के लिए भेजा। haldighati yuddh ke bad kya hua

अकबर परेशान था। उसे स्वयं मेवाड़ की खाक छानते छह महीने हो गए थे। हर तरकीब आजमाने पर भी राणा प्रताप को पकड़ना तो दूर उनके बारे में कोई ठोस खबर तक नहीं मिली थी और न ही किसी सैनिक काररवाई में कोई और बड़ा सामंत या पहाड़ों में कहीं छिपाकर रखा गया राणा प्रताप का खजाना हाथ आया था । इस दौरान राजपूतों के छापामार दस्तों ने जगह-जगह घात लगाकर उसकी सेना को काफी नुकसान पहुँचाया था, पर बदले में वह कुछ न कर सका। आखिरकार उसने लौट जाने का फैसला किया।

राजा भगवानदास राणा प्रताप को पकड़ने या उनका पता लगाने में अपनी असफलता पर शर्मिंदा था । प्रताप को एक बार फिर संधिप्रस्ताव भेजने या उनसे भेंट करके समझाने की कोशिश में भी अपमान ही हाथ लगा था, पर उसने उसकी भरपाई के लिए कुछ और प्रयत्न किए। उसने मेवाड़ के मित्र डूंगरपुर के शासक रावल आसकरण और बाँसवाड़े के रावल प्रताप सिंह को ऊँच-नीच समझाकर, भयंकर परिणामों का डर दिखाकर और ओहदों का लालच देकर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया । सम्राट् अकबर बिना रक्तपात के किसी छोटे से रजवाड़े के भी उसके अधीन होने पर बहुत प्रसन्न होता था। उसने इन दोनों का स्वागत किया और भगवानदास कछवाहा की प्रशंसा की। haldighati yuddh ke bad kya hua

12 मई, 1577 को बादशाह अकबर मेवाड़ से राजधानी लौट आया । उसके लौटते ही राणा प्रताप ने अपनी गतिविधियाँ तेज कर दीं। एक के बाद एक मुगलों के स्थापित किए थानों पर फिर से राजपूतों का अधिकार होने लगा । राणा के छापामार सैनिक कब कहाँ हमला कर दें, इस आशंका से डरे-सहमे मुगल सैनिकों में अब पहले जैसा हौसला नहीं रह गया था, जबकि इतनी बड़ी सेना का अपनी छापामार रणनीति के सफलतापूर्वक सामना कर लेने पर राजपूतों के हौसले बुलंद थे । उन्होंने गोगूंदा पर फिर से अधिकार कर लिया था। राणा प्रताप कुंभलगढ़ को राजधानी बनाकर वहाँ से सारा राजकार्य चला रहे थे । थोड़ा सा अवकाश मिलते ही उन्होंने मुगलों के अत्याचार से त्रस्त अपनी प्रजा के कल्याण और मैदानी क्षेत्र में फिर कृषि कार्य आरंभ करने पर विचार करना आरंभ किया।

राणा प्रताप और मेवाड़ के धरती – पुत्रों के भाग्य में सुख-चैन नहीं था । अकबर अभी मेरठ तक ही पहुँचा था कि उसे ये सारे समाचार मिले। उसने राणा प्रताप को पकड़ने और मेवाड़ को पूरी तरह मुगलों के पैरों तले रौंद देने के लिए बड़ी योजना बना डाली। उसे स्वयं महाराणा की शक्ति का अनुमान हो गया था। अत: इस बार उसने पूरी ताकत से मेवाड़ को कुचलने के लिए एक बहुत बड़ी सेना भेजने का निर्णय कर डाला | शाहबाज खाँ के नेतृत्व में भेजी जानेवाली इस सेना में सम्राट् अकबर ने चुन-चुनकर अपने सिपहसालार नियुक्त किए। इनमें सैयद हासिम, सैयद कासिम, पाइंदा खाँ, सैयद राजू, मिर्जा खाँ, राजा भगवानदास कछवाहा और मानसिंह शामिल थे। haldighati yuddh ke bad kya hua

अकबर 12 मई, 1577 को मेवाड़ से लौटा था। शाहबाज खाँ ने 15 अक्तूबर, 1577 को अपनी विशाल सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए कूच किया। इतना समय लगने से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शाहबाज खाँ ने मेवाड़ ‘विजय’ के लिए कितनी तैयारियाँ की होंगी। उसने बादशाह को पूरा यकीन दिलाया था कि मेवाड़ विजय करके और राणा प्रताप को गिरफ्तार करके ही दम लेगा। मेवाड़ पहुँचकर शाहबाज खाँ को पता चला कि वह कितने पानी में है। अपने आरंभिक प्रयत्नों में असफल होने पर शाहबाज खाँ ने दो काम किए। एक तो सम्राट् अकबर से अनुमति लिए बिना ही राजा भगवानदास, मानसिंह के साथ अन्य सभी छोटे-बड़े हिंदू सिपहसालारों को अपनी सेना से अलग कर दिया। उसे आशंका थी कि शायद ये राजपूत राणा से सहानुभूति रखते हैं। दूसरा, उसने अकबर के पास संदेश भेजा कि इतनी सेना काफी नहीं है । जवाब में बादशाह ने शेख इब्राहिम के नेतृत्व में एक और बड़ा सैन्यबल शाहबाज खाँ की सहायता के लिए भेज दिया। उसके दिल-दिमाग पर मेवाड़ को झुकाने का फितूर जारी था। स्वयं अपने प्रयत्नों में भी असफल होने के कारण वह बुरी तरह खीज गया था।

कहाँ तो राणा प्रताप अपने उजड़े मेवाड़ को फिर से हरा-भरा करने का सपना देख रहे थे और कहाँ शाहबाज खाँ के बहुत बड़ी सेना लेकर आने का समाचार पाकर इन्हें उसे फिर से उजाड़ने का आदेश देना था । वे नहीं चाहते थे कि अन्न का एक दाना भी शत्रु सेना को स्थानीय सहायता के रूप में मिले। अनाज बेचनेवाले बंजारे तो भूल से भी उस तरफ नहीं आते थे। haldighati yuddh ke bad kya hua

bhaktigyans

My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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