girdhar kaviray ki kundaliyan गिरधर कविराय की कुंडलियां
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girdhar kaviray ki kundaliyan
गिरधर कविराय की कुंडलियां ज्ञान-वैराग्य
तुही शुद्ध परमात्मा
तुही शुद्ध परमात्मा, तुही सच्चिदानन्द।
चतुर्वेद यों कहत हैं, व्यास, वशिष्ठ मुकुन्द॥
व्यास, वशिष्ठ, मुकुन्द, तत्त्वविद् यावत भूपर।
परमेश्वर अद्वितीय न भाषी तुम बिन दूसर॥
कह गिरिधर कविराय, धार सो निश्चय हू ही।
तुही सच्चिदानन्द, शुद्ध परमातम तू ही॥1॥
सरलार्थ:- तू ही शुद्ध आत्मा-परमात्मा है, और तू ही सच्चिदानन्द है। चारों वेद और व्यास, वशिष्ठ, मुकुन्द आदि तत्त्वज्ञानी जितने भी ब्रह्मवेत्ता हैं, वे सभी यही कहते हैं। तेरे सिवाय दूसरा और कोई बखाना नहीं गया, हे परमेश्वर! हे सच्चिदानन्द! यही एक निश्चित धारणा है। गिरधर कविराय की कुंडलियां
बेड़ा तू, दरियाव तू, तुही वार, तुहि पार।
तुही तरावे, तरे तू, तुहि मध डूबनहार॥
तुहि मध डूबनहार, सर्वलीला है तेरी।
तुही घण्टा, तुहि शंख, तुही रणसिंहा भेरी॥
कह गिरिधर कविराय, तुही बस्ती, तुहि खेड़ा।
तुहि नावक, तुहि नीर, तुही पतवारी बेड़ा॥2॥
सरलार्थ:- हर जगह तू ही है मेरे साईं, और जो कुछ भी है सो सब तू , ही है। पार उतरने का बेड़ा तू है, और समन्दर भी तू ही है। तू ही तारता है और तरता भी तू ही है, और मंझधार में तू ही डूबता है। यह सारी लीला तेरी ही तो है। मंदिर का घंटा तू और शंख तू और रणसिंहा तू और तू ही भेरी। तू ही बस्ती है और तू ही वीरान। मेरे मालिक, तू ही खेने वाला है और तू ही अथाह पानी है, पतवार तू है और बेड़ा (नाव) भी तू है। गिरधर कविराय की कुंडलियां
राम तुही, तुहि कृष्ण है, तुहि देवन को देव।
तूब्रह्मा, शिव शांति तू, तुहि सेवक, तुहि सेव॥
तुहि सेवक, तुहि सेव, तुही इंदर तुहि शेषा।
तुही होय सब रूप, कियो सबमें परवेसा॥
कह गिरिधर कविराय, पुरुष तुहि, तूहि वामा।
तुहि लछमन, तुहि भरत, शत्रुघन, सीतारामा॥3॥
सरलार्थ:- तू ही राम और तू ही कृष्ण, और तू ही देवों का भी देव है। तू ही ब्रह्मा, तू ही शिव है और तू ही शक्ति है। सेवक भी तू और सेव्य भी तू। तू ही इन्द्र है और तू ही शेषनाग। अनगिनत रूपों से तूने सभी में प्रवेश कर रखा है। तू ही पुरुष है और तू ही नारी। एक अद्वैत में सबको देख रहा हूं मैं-लक्ष्मण को, भरत को और शत्रुघ्न को और सीता और राम को।
मालिक अपना आप तू, तुव नहिं मालिक अन्य।
समझेगा जिस वक्त यह, तब होवै धनि धन्य॥
तब होवै धनि धन्य, लोक या पुनि परलोक में।
संसार-सिंधु को तरे, न डूबे कूप-शोक में॥
कह गिरिधर कविराय, खलिक का जो है खालिक।
सो परमेश्वर तू ही; पिण्ड ब्रह्माण्ड को मालिक।।4।।
सरलार्थ:- अपना मालिक तू आपही है, तेरा दूसरा कोई मालिक नहीं। जब तू इस बात को समझ लेगा, तभी तू धन्य होगा, इस लोक में और परलोक में भी। संसार-सागर तब तू पार कर जायेगा, शोक के कुएं में तू डूबेगा नहीं। सारी दुनिया का जो सिरजनहार परमेश्वर है वह तू ही है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड का मालिक भी तू ही है। girdhar kaviray ki kundaliyan
करै कृपा जिस पुरुष पर, अतिसय करिके राम।
ताको कोई ना फुरै, लौकिक वैदिक काम॥
लौकिक वैदिक काम, रहै नहि करनो बाकी।
हर जगहा हर बखत, ब्रह्म की होवै झांकी॥
कह गिरिधर कविराय, अविद्या जिसकी मरै।
सर्व क्रिया के माहिं, एक खुद दरसन करै॥5॥
सरलार्थ:- जिस व्यक्ति पर राम की अत्यन्त कृपा होती है, उसे कोई भी कर्म जंचता नहीं चाहे लौकिक हो, चाहे वैदिक। कुछ भी करने को उसे शेष नहीं रहता। हर जगह और हर समय एक ब्रह्म की ही झांकी देखता है। जिसकी अविद्या का अन्त हो गया, वह सभी क्रियाओं में आत्मदर्शन ही करता है। मतलब यह कि उस अवस्था में न कर्म रहता है, न क्रिया और न कर्त्ता ही।
कीजै ऐसी कथा मत, निष्फल कथनी जोय।
सिद्धि न जिसमें अर्थ की, नहिं परमारथ होय॥
नहिं परमारथ होय, वार्ता सो सब तजिए।
राम कृष्ण नारायण गोविन्द हरि हरि भजिए।
कह गिरिधर कविराय सुधा अनुभव रस पीजै।
आतम-अनुसंधान होय सो चरचा कीजै॥6॥
सरलार्थ:- व्यर्थ की कथनी को तू मत कह ऐसी कथनी कि जिसका अर्थ सच्चा न हो, प्रामाणिक न हो और जिसमें न कोई परमार्थ की बात होऐसी चर्चा को तू छोड़ दे। राम, कृष्ण, नारायण, गोविन्द और हरि का भजन सदा तू करता रह। अनुभव का अमृत-रस छककर तू पी ले। और ऐसी चर्चा में अपना चित्त लगा दे, जिससे आत्मा का अनुसंधान हो। जिसमें अपने आपको खोजने की जिज्ञासा हो। girdhar kaviray ki kundaliyan
रहनी सदा इकन्त को, पुनि भजनो भगवन्त।
कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है सन्त॥
यही मतो है सन्त, सत्व को चिंतन करनो।
प्रत्यक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अन्तर धरनो॥
कह गिरिधर कविराय, वचन दुर्जन को सहनो।
तजके जन-समुदाय, देश निर्जन में रहनो॥7॥
सरलार्थ:- एकान्त में सदा शांतिपूर्वक रहना और भगवान् का भजन करना और एक अद्वैत की ही चर्चा सुनना-यही संत-मत है। सदा आत्मत्व का चिन्तन और सर्वत्र बिना किसी भेद-भाव के ब्रह्म की व्यापकता का ध्यान करना-यही सही सच्चा रास्ता है। दुर्वचनों को सहना और दुनियादारी से दूर निर्जन स्थान में अनासक्ति-भाव से रहना-यही संत का मार्ग है।
बहता पानी निर्मला, पड़ा गंध सो होय।
त्यों साधू रमता भला, दाग न लागै कोय॥
दाग न लागै कोय, जगत में रहै अलेदा।
राग द्वेष जुग प्रेत न चितको करै बिछैदा॥
कह गिरिधर कविराय, शीत उष्णादिक सहता।
होइ न कहुं आसक्त, यथा गंगाजल बहता॥8॥
सरलार्थ:- निर्मल तो बहता पानी है; जो बहता नहीं, वह गंदा हो जाता है। इसी प्रकार रमता अर्थात् विचरता हुआ साधु ही अच्छा होता है। उसे कहीं कोई दाग नहीं लगता, वह निष्कलंक रहता है। दुनियादारी से वह अलिप्त रहता है। राग और द्वेष-ये दोनों प्रेत उसके चित्त को अशान्त नहीं कर सकते। सर्दी और गर्मी का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और वह किसी में आसक्त नहीं होता। ऐसा रमता साधु तो मानो गंगा का बहता हुआ जल है। girdhar kaviray ki kundaliyan
जैसा-कैसा अन्न ले, भिक्षु करै आहार।
मीटो जीरण कापड़ो, पहरै तजै विकार॥
पहरै तजै विकार, चीनकर अपना हूदा।
उदासीन है रहै सर्व से, पकरे मूदा॥
कह गिरिधर कविराय, समीपन राखै पैसा।
सोई परम विरक्त, भने हैं शास्त्र हु जैसा॥9॥
सरलार्थ:- जहां भी, जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसी में संतोष मानना, मोटा-झोटा पहनना और मन के सारे विकारों को छोड़ देना, अपना निज पद, अपना सच्चा निज स्थान पहचान लेना, सबके साथ उदासीन-भाव से रहना और अपना मुद्दा पकड़ लेना और परिग्रह से कुछ भी वास्ता न रखना। यही परम विरक्त की संपदा है। वेदान्त शास्त्र भी ऐसा ही कहता है।
भिक्षा खावै मांगकै, रहै जहां-तहं सोय।
काम न राखे किसी सों, जो होवै सो होय॥
जो होवै सो होय, विरक्त की यही निशानी।
ब्रह्म-विद्या के बिना, और बोलै नहिं बानी॥
कह गिरिधर कविराय, ज्ञान की देवै दिक्षा।
क्षुधानिवृती अर्थ मांगकैं खावै भिक्षा॥10॥
सरलार्थ:- भिक्षा मांगकर खा लेना, और चाहे जहां सो जाना, किसी से वास्ता न रखना, फिर चाहे जो हो। विरक्त साधु का यही लक्षण है। वह ब्रह्मविद्या के सिवाय दूसरी कोई बात नहीं कहता। जो भी उसके पास आता है उसे वह ज्ञान की ही दीक्षा देता है। भिक्षा वह केवल क्षुधा-निवृत्ति के लिए ही मांगता है। girdhar kaviray ki kundaliyan
भिक्षू, बालक, भारजा, पुनि भूपति यह चार।
अस्ति, नास्ति जानें न कछु, देही देहि पुकार॥
देही देहि पुकार रातदिन आठो जामू।
जाग्रत सुपनै माहिं फुरै नहिं दूसर कामू॥
कह गिरिधर कविराय जगत में कोहु तितिक्षू।
जिनको तृष्णा नाहिं सो ऐसे बिरलो भिक्षु॥11॥
सरलार्थ:- भिक्षु, बालक, भार्या (पत्नी) और राजा, इन चारों को वास्तविक ज्ञान नहीं होता है कि कोई वस्तु असल में ‘है’ या ‘नहीं’ है। ये सदा अपनी देह का ही ध्यान रखते हैं, रात और दिन आठों पहर अपनी देह को संवारने और सुख पहुंचाने में व्यस्त रहते हैं। जागने और सोने की अवस्था में और सपने में भी कोई दूसरा काम नहीं सोचते। ऐसा भिक्षु तो दुनिया में कोई बिरला ही मिलता है, जो तितिक्षु हो अर्थात् सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों को सहन करता हो और तृष्णा के साथ जिसका कुछ भी लगाव न हो।
देही सदा अरोग है, देह रोगमय चीन।
यह निश्चय परिपक जिसे, सोइ चतुर परवीन॥
सोइ चतुर परवीन, विवेकी सो है पंडित।
दरश करै अत्यन्त आत्मा लखै अखंडित॥
कह गिरिधर कविराय आपना आप सनेही।
परमानन्दस्वरूप और नहिं एहै देही॥12॥
सरलार्थ:- देही अर्थात् आत्मा सदैव रोग-रहित है, रोग उसे छू नहीं सकता, और देह यह अनेक रोगों से भरी हुई है। जिसे यह पक्का निश्चय हो गया वही वास्तव में चतुर है और वही प्रवीण है। वही विवेकी है, और वही सच्चा पंडित है। वह अखंड आत्मा का एकाग्र होकर प्रतिक्षण दर्शन करता है। वह आप ही अपना परम स्नेही मित्र है। वह परमानन्द-स्वरूप है। वह अन्यथा और कुछ भी नहीं। girdhar kaviray ki kundaliyan
पासी जबलग मजब की, तबलग होत न ज्ञान।
मजब-पासि टूटे जबैं, पावे पद निर्वान॥
पावे पद निर्वान, निरंजन माहिं समावै।
जनम-मरन-भवचक्र, वि. फिर योनि न आवै॥
कह गिरिधर कविराय बांध बिन भ्रमैं चौरासी।
तबलग होत न ज्ञान मजब की जबलग पासी॥13॥
सरलार्थ:- जबतक किसी मत-मजहब का जाल गले में पड़ा हुआ है, तब तक आत्मज्ञान होने का नहीं। मजहब का जाल टूट जाने पर ही निर्वाण का पद प्राप्त होता है और निरंजन ब्रह्म में जीव का लय हो जाता है। जन्म और मरण का छुटकारा पा जाने से संसार-चक्र का अन्त हो जाता है। तब जीव किसी भी योनि में भटकता नहीं। आत्मज्ञान के बगैर चौरासी योनियों से मुक्ति नहीं।
गढ़े अविद्या ने रचे, हाथी डूब अनंत।
जोइ गिर्यो तिस खांत में, धंसग्यो कानप्रयंत॥
धंसग्यो कानप्रयन्त, आपको सुनै न देखे।
बहिरो अंधरो भयो, दशो दिशि तम इक पेखै॥
कह गिरिधर कविराय यदपि शास्तर स्मृति पढे।
तिसीतिसी में मगन गिर्यो है जिस-जिस गढ़े॥14॥
सरलार्थ:- अविद्या ने कितने गड्ढे बना डाले हैं-हाथी सरीखे बड़े-बड़े बलवान् कितने ही उनमें डूब गये! जो भी जिस गड्ढे में गिरा वह कानों तक धंस गया दलदल में। ऐसी दशा में न वह कुछ सुनता है, न कुछ देखता है। यद्यपि उसने शास्त्रों को पढ़ा और स्मृतियों को भी पढ़ा है, तो , भी जिस किसी गड्ढे में अविद्या ने उसे धक्का देकर गिरा दिया, वह उसी में मगन है। girdhar kaviray ki kundaliyan
जैसा यह मन भूत है, और न दुतिय वैताल।
छिन में चढ़े अकाश को, छिन में धंसै पताल॥
छिन में धंसै पताल, होत छिन में कम जादा।छिन में शहर-निवास करै छिन वन का रादा॥
कह गिरिधर बिन ज्ञान चित्त थिर होत न ऐसा।
गुरु-अनुग्रह बिना बोध दृढ़ होत न जैस।।15।।
सरलार्थ:- इस मन जैसा कोई दूसरा भूत-वैताल नहीं। एक क्षण में तो यह आकाश पर चढ़ जाता है, और दूसरे ही क्षण पाताल में जा धंसता है इसकी गति कभी कम हो जाती है, तो कभी ज्यादा बढ़ जाती है। किसी क्षण शहर में बस जाता है, तो दूसरे ही क्षण जंगल का इरादा कर लेता है। बिना आत्मज्ञान के यह चित्त स्थिर नहीं हो रहा। बिना गुरु-कृपा के और बिना परिपक्व ज्ञान के स्थिर यह होने से रहा।
शरीरी सकल शरीर में, व्यापक नभवत एक।
स्थावर जंगम तजि जिते, हैं परिछिन्न अनेक॥
हैं परिछिन्न अनेक, द्रव्य जड़प विकारी।
द्रष्टा चेतन नित्य, आतमा अव्यभिचारी॥
गिरिधर कविराय, मिटै तब सब दिलगीरी।
जब निश्चय साक्षात्, होत अपरोक्ष शरीरी॥16॥
सरलार्थ:- आत्मा समस्त शरीरों में एक समान व्याप्त है-जैसे आकाश। जितने भी अचर और चर जीव सृष्टि में हैं, सभी परिछिन्न हैं आत्मा से। द्रव्य अर्थात् वस्तुएं जड़रूप हैं और विकारमान हैं। आत्मा दृश्यमात्र का दृष्टा है, और वह नित्य है और निर्विकार है। जब अपरोक्ष आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब न शोक रहता है और न कोई संताप। girdhar kaviray ki kundaliyan
नारायण वह आप है, स्वप्रकाश विज्ञान।
निज स्वरूप को भूलनो, है कल्पित अज्ञान॥
है कल्पित अज्ञान नानाविध नाच नचावै।
घटी यंत्र जो उर्घ-अर्घ इत-उत भरमावै॥
कह गिरिधर कविराय पीवै जब ज्ञान-रसायन।
स्वप्रकाश विज्ञान आपके विषै नरायन॥17॥
सरलार्थ:- आत्मा स्वयं नारायणस्वरूप है, वह स्वतः प्रकाशित है और स्वयं ही अध्यात्म-विज्ञान। कल्पित अज्ञान के कारण अपने स्वरूप को वह भूल गया है, और वही अज्ञान अनेक प्रकार का नाच नचा रहा है। कभी नीचे चला जाता है और कभी ऊपर को, जैसे रहट की घड़ियां।
यारी तासंग कीजिए, गहै हाथ सों हाथ।
दुःख-सुख संपति-विपति में, छिनभर तजै न साथ॥
छिनभर तजै न साथ, महत दृष्टांत बखानो।
ज्यों अकास संग पोल, और इक सुनौ पखानो॥
कह गिरिधर कविराय निमक में ज्यों रस खारी।
या प्रकार जो व्याप्त ताहिं संग लइये यारी।।18।।
सरलार्थ:- मित्रता उसीसे की जाय, जो अपने हाथ से हमारा हाथ पकड़ ले। दुःख और सुख में और सम्पत्ति और विपत्ति में एक क्षण भी जो साथ न छोड़े। जीवन में वह ऐसे समा जाय जैसे कि आकाश में पोल (शून्यत्व) और जैसे नमक में खारापन। तभी मित्रता या प्रीति का रस है। ऐसा अभिन्न मित्र तो एक आत्मा ही है।
द्रष्टा दृश्य न होत है, दृश्य न द्रष्टा होइ।
द्रष्टा ने जब आपको, दृश्यरूप कर जोइ॥
दृश्यरूप कर जोइ, इसीते भयो कुचैनी।
मान्यो निजको शैव शाक्त वैष्णव अरु जैनी॥
कह गिरिधर कविराय सहै नानाविधि कष्टा।
भ्रांति-कूप के माहिं पर्यो जिस दिन से द्रष्टा॥19॥
सरलार्थ:- जो द्रष्टा है अर्थात् आत्मा, वह दृश्य अर्थात् मायिक जगत नहीं हो सकता। इसी प्रकार मायिक दृश्य कभी दृष्टा का रूप नहीं हो सकता। दृश्य में फंस जाने के कारण ही द्रष्टा व्याकुल और अशांत हो गया है। मिथ्या दृष्टि के कारण उसने अपने को शैव या शाक्त अथवा वैष्णव या जैन मान लिया है। उसी दिन से दृष्टा भ्रांति के कूप में जा पड़ा।
जंगल में मंगल तुझे, जो तू होवै फकर।
खिदमत तेरी सब करें, दिल का छोड़ मकर॥
दिल का छोड़ मकर, फकीरी का रंग लावै।
मूल सहित संसार-रोग सिगरो भ्रम भागै॥
कह गिरिधर कविराय, कुफर की तोरो संगल।
जहं इच्छा तहं रहो, नगर हो अथवा जंगल॥20॥
सरलार्थ:- अगर तू विरक्त है, जो तुझे जंगल में भी मंगल है। छल-फरेब मन में न रखने से सभी तेरी खिदमत करेंगे। फकीरी का रंग लग जाने से, भव-रोग अर्थात् सारा भ्रम समूल कट जायेगा। बस, कुफ्र की यानी मिथ्या विश्वास की जंजीर को तोड़ डाल, फिर जहां भी इच्छा हो, नगर में या जंगल में, जाकर तू चैन से रह। girdhar kaviray ki kundaliyan
जानो नहिं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम।
तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कछु काम॥
जिनसो नहिं कछु काम, करे जो उनकी चरचा।
राग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा॥
कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो।
ताकी पूछो जात बरन कुल है क्या जानो।।21।।
सरलार्थ:- जिस गांव में जाना ही नहीं, उसका नाम क्यों पूछना! ऐसे साथियों की क्या बात, जिनसे कोई मतलब नहीं! जिनसे कोई वास्ता नहीं, उनकी बात चलाने से लाभ क्या! उनका परिचय तो यह मालूम हो जाने से हो जाता है कि उनमें राग है, द्वेष है और क्रोध भरा हुआ है। जिनके साथ बैठकर खाना है, अर्थात् जिनसे एकरस हो जाना है, तुम तो उन्हींसे पूछो कि उनकी जात क्या है, वर्ण क्या है और कुल क्या है?
कीनो चाहै काम को, करना ता में देर।
पुनः विपर्यय होइगो, यहि अदृष्ट को फेर॥
यहि अदृष्ट को फेर कर्म-ग्रह टरै न टार्यो।
बिन भोगे प्रारब्ध और विध मरै न मार्यो।
कह गिरिधर कविराय जु पूरब दीनो-लीनो।
सो-सो भोगै पुरुष दुःख सुख अपनो कीनो॥22॥
सरलार्थ:- जो कर्तव्य-कार्य तुम करना चाहते हो, उसमें देरी मत करो कोई-न-कोई विघ्न आ जायेगा, तब काम पूरा न कर सकोगे। अदृष्ट की लीला को कौन जानता है कि क्या से क्या हो जाये! भाग्य का ग्रह टालने से भी नहीं टलेगा, प्रारब्ध का फल बिना भोगे किसी भी विधि से जाने का नहीं। पूर्वजन्म में जो कुछ भी दिया और लिया था, उसका फल भोगना ही होगा। जो कुछ किया था, वही दुःख और सुख के रूप में मिलेगा।
सांची सांची बात सुन, रे मन छांड़ पखंड।
लहै निरंकुश तृप्ति तब चीन्है एक अखंड॥
चीन्है एक अखंड, शुद्ध तब होवे दृष्टी।
कर्ता क्रिया कर्म ना किंचित भासै सृष्टी॥
कह गिरिधर कविराय और करनी सब कांची।
जिस करि आतम लहै जान विद्या सो सांची॥23॥
सरलार्थ:- मेरे मन! पाखंड छोड़ दे, छल-कपट त्याग दे और अपने हित में सच्ची बात सुन। अखंड ब्रह्म को पहचानने से ही तुझे अबाध तृप्ति प्राप्त होगी और तभी दृष्टि निर्मल हो जायेगी। सृष्टि में कर्त्ता, क्रिया और कर्म कुछ भी नहीं भायगा, सिवाय एक आत्मा के या ब्रह्म के। जिससे आत्मा का लाभ हो, उसी सच्ची विद्या को तू जान ले, बाकी सारी ही करनी कच्ची है, मिथ्या है।
ऐसी रचना तू रची, अतुल असंख्य अमाप।
रचकर जब देखन लग्यो, भूल गयो फिर आप॥
भूल गयो फिर आप, झूठ को सच कर जान्यो।
सांचै को पुनि झूठ, देव को देवल मान्यो।
कह गिरिधर कविराय सुपन की सृष्टी जैसी।
जाग्रत में रह नाहिं दृश्य संपूरण ऐसी॥24॥
सरलार्थ:- तूने ऐसी अतुलनीय और असंख्य और असीम रचना रची कि जब उसे देखने लगा तो तू अपने आपको भूल गया। मिथ्या को सत्य मान लिया और सत्य को मिथ्या। देव को तूने देवालय मान लिया। यह सारी रचना स्वप्न-जैसी है, जाग जाने पर स्वप्न का सारा दृश्य विलुप्त हो जायेगा।
खटकेवाली वस्तु को, दीनी जिसने डार।
भावै रहै बजार में, भावै बीच उजार॥
भावै बीच उजार, परा रहे, मुख नहिं बोलै।
अथवा बात अनेक करत निसिवासर डोलै॥
कह गिरिधर कविराय, चीज जो चारों पटके।
सुत दारा धन धाम गये तिनके सब खटके॥25॥
सरलार्थ:- संदेह और भय वाली चीज को जिसने फेंक दिया, वह चाहे बाजार में रहे, चाहे उजाड़ के बीच। वह मौज में मस्त पड़ा है, या तो मौन है या फिर दिन-रात अपने आपसे बात करता हुआ घूमता है। पुत्र, स्त्री, धन और धाम, ये चारों चीजें जिसने त्याग दी, उसे अब किसका खटका, किसका भय? >
परम प्रेम को विषय जो, सो है अपना इष्ट।
ता बिन और जु जगत में, सो सब जान अनिष्ट ॥
सो सब जान अनिष्ट, दृष्टि यह जिनकी जागी।
सो पुमान उत्कृष्ट श्रेष्ठ अतिशय बड़भागी॥
कह गिरिधर कविराय, अलौकिक पायो मरमा।
याते परे न और कोउ पुरुषारथ परमा॥26॥
सरलार्थ:- हमारा अपना इष्ट है परमप्रेम। इसे छोड़कर जगत् में जो भी कुछ है वह सारा अनिष्ट है। जिसकी दृष्टि में परमप्रेम स्फूर्त हो गया, वही पुरुष उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है और अत्यन्त भाग्यशाली है। यह अलौकिक रहस्य है, इससे बड़ा कोई दूसरा परम पुरुषार्थ नहीं। girdhar kaviray ki kundaliyan
खानो निज प्रारब्ध फिर, क्योंकर होना दीन।
रहनो जगत-सराइ में, दावा कहा प्रवीन॥
दावा कहा प्रवीन, जु कीनो अपनो पइये।
बुरे काम का नाम भूल कर कबहुं न लइये॥
कह गिरिधर कविराय जु तिल इक संग न जानो।
तो संग्रह नहिं बनै बन देनो वा खानो॥27॥
सरलार्थ:- खाना जब अपने प्रारब्ध से मिलता है, तो फिर क्यों किसी के आगे हम दीन बनें? संसाररूपी सराय में रहकर क्यों चतुराई का दावा किया जाय? जो किया है, वही पाना है, भूलकर भी कभी बुरे काम का नाम नहीं लेना चाहिए। एक तिल भी अपने साथ जाने का नहीं, तब किसकी खातिर संग्रह किया जाय? जितना जो बने, वह दूसरों को देना और उतना पाकर संतुष्ट रहना, जितना कि प्रारब्ध में लिखा है।
मेरी तेरी छोड़के, पक्षा पक्षी नाख।
राग-द्वेष को दूर कर, निजानंद-रस चाख॥
निजानंद-रस चाख और रस लागे फीके।
एक ज्ञान के भये दुःख मिट जावैं जी के॥
कह गिरिधर कविराय रंग जो पैरे गेरी।
तब यह होवै सफल तजै जब मेरी-तेरी॥28॥
सरलार्थ:- छोड़ दे मेरी और तेरी की भेद-भावना और फैंक दे पक्ष और अपक्ष को। द्वोष को दूर कर आत्मानन्द के रस का आस्वादन तू किया कर। इस रस के आगे दुनिया के सारे ही रस फीके हैं। आत्मज्ञान का प्रकाश हुआ कि तेरे जी से उपजे सारे दुःख दूर हो जायेंगे। गेरुए रंग का धारण करना तभी सफल होगा, जब तू मेरी-तेरी से पिण्ड छुड़ा लेगा।
गई-गई पुनि गई रे, करके निसिदिन सोर।
घड्याल पुकारै और कछु, तैं समझी कछु और॥
तें समझी कछु और, यथारथ ना हम भाषी।
ता पर इक दृष्टांत सुनो बदरन की साखी॥
कह गिरिधर कविराय, समझ जब उलटी अई।
घटका घटका करके सिगरी आयुष घट गई॥29॥
सरलार्थ:- दिन और रात घड़ियाल पुकार रही है कि तेरी आयु इतनी चली गई, इतनी चली गई और जा ही रही है। पर तू कुछ और ही समझ रहा है। चेतावनी की बात को सच नहीं मान रहा है। मति तेरी उल्टी हो गई है और तू देख नहीं रहा कि घड़ी-घड़ी करके तेरी सारी आयु घटती जा रही है।
संग न कोऊ राखिये, त्याग आनकी आश।
एकाएकी विचरिये, तोरि भ्रांति का पाश॥
तोरि भ्रांति का पाश, रहै वन में वा जन में।
आतम-चिंतन करे सदा निसि-बासर मन में॥
कह गिरिधर कविराय, चढ़े जब अपना रंग।
किसकी राखै चाह, करै पुनि किसका संग॥30॥
सरलार्थ:- किसी को साथ नहीं रखना चाहिए, दूसरों की आशा छोड़ देनी चाहिए। भ्रांति का फंदा तोड़कर अकेला ही बिचरा जाय। किसी में आसक्ति न रखकर चाहे जन के बीच रहा जाय चाहे निर्जन वन में। दिन और रात निरन्तर आत्मा का चिन्तन किया जाय। जब आत्मा का रंग चढ़ गया, तब किसकी तो चाह और किसका संग? (संग का आशय है आसक्ति से) girdhar kaviray ki kundaliyan
काल्ह काम करना जोऊ, सो तो कीजै आज।
मूल अविद्या-नींद ते, शीघ्रहि तू अब जाग॥
शीघ्रहि तू अब जाग, आपना कर ले कारज।
ऐसी मानव-देह फेर कब मिलहै आरज॥
कह गिरिधर कविराय, काट कर भ्रम के जाल।
लखो आपको ब्रह्म काल को जो है काल॥31॥
सरलार्थ:- जो काम कल करना है, वह आज कर लिया जाय। अविद्या की गहरी निद्रा से तू अब शीघ्र जाग जा और अपना काम पूरा कर डाल। मालूम नहीं, मनुष्य का यह उत्तम शरीर फिर कब मिलेगा। भ्रांति का जाल फेंक दे और अपने आपको ब्रह्म-स्वरूप में देख, दे जो ब्रह्म काल का भी काल है।
योगी डूबे योग में, भोगी डूबे भोग।
योग भोग जाके नहीं, सो विद्वान अरोग॥
सो विद्वान अरोग, अचाह, अमान, असंगी।
भेदभाव से रहित बुद्धि तिसकी यकरंगी॥
कह गिरिधर कविराय ज्ञान बिन हैं सब रोगी।
भोगी अटके भोग, योग में अटके योगी॥32॥
सरलार्थ:- योगी तो अहंकार के कारण योग में डूब गये और भोगी डूब मरे भोग में स्वस्थ तो वह है, जिसने योग और भोग दोनों का बन्धन काट डाला है। किसी को उसे चाह नहीं, मान-सम्मान का वह भूखा नहीं और सर्वथा अनासक्त है। भेद-भावना उसकी चली गई है और एक आत्मा का ही रंग उसपर चढ़ गया है। बिना आत्मज्ञान के योगी और भोगी, सभी रोगी ही हैं।
निसबत तेरी किसी सों न है, न थी, न होग।
मुहबत जिन संग करे तू, सब सराय के लोग।
सब सराय के लोग, समझकर पकड़ कायदा।
समझेगा जिस वक्त तुझे तब होइ फायदा॥
कह गिरिधर कविराय, जिसम की जेती किसमत।
तितनोही तिस होय, न जिस्मी की कोई निसबत ॥33॥
सरलार्थ:- किसी से तेरा वास्ता नहीं, और न था और न रहेगा। जिनके साथ तू प्रेम और मुहब्बत करता है, वे सभी सराय के मुसाफिर हैं। इस बात को तू गांठ में बांध ले, इसी में तेरा फायदा है। किस्मत में जो लिखा होगा, उतना ही तेरा है। जिस्मी यानी देही (आत्मा) का किसी से कोई सरोकार नहीं।
तीनों मूल उपाधि की, जर, जोरू और जमीन।
है उपाधि तिसके कहां, जाके नहिं ये तीन॥
जाके नहिं ये तीन, हृदय में नाहिंन इच्छा।
परमसुखी सो साधु, खाय यद्यपि लै भिच्छा॥
कह गिरिधर कविराय, एक आतम-रस-भीनो।
निर्भय विचरै संत सर्वथा तजकर तीनों॥34॥
सरलार्थ:- जर (धन-दौलत), जोरू (स्त्री) और जमीन ये तीनों उपाधि की जड़ हैं। निरुपाधि वही है, जिसकी आसक्ति इन तीनों में नहीं। नसके मन में कोई वासना नहीं और जो भिक्षा पर गुजर करता वह सबसे बड़ा सुखी है। आत्म-रस में ही वह सदा मगन रहता है। संत इन तीनों उपाधियों को छोड़कर चाहे जहां निर्भय होकर चरता है। girdhar kaviray ki kundaliyan
बेटो बेटी भानजा, भाई ससुर अरु सार।
पिता पितामह आदि लों, सब मतलब के यार॥
सब मतलब के यार नहीं इनमें कोई तेरो।
भयो तुझे परमाद जो इनको बन रह्यो चेरो॥
कह गिरिधर कविराय, सबन से झगरा मेटो।
ना तू बाप किसी का, तेरा कोई ना बेटो।।35।।
सरलार्थ:- बेटा, बेटी, भानजा, भाई, ससुर, साला और पिता और पितामह सभी मतलब के मीत हैं। सल में इनमें से कोई भी तेरा सच्चा साथी नहीं। रा यह पागलपन है जो तू इनका गुलाम बन गया है। प्रपंच मेट दे, असल में न तू किसी का बाप है और न कोई तेरा बेटा है।
घिरत तेल तण्डुल लवण, तक्र रु ईंधन रास।
निसिदिन चिंतन जो करै, विपुल बुद्धि हो नास॥
विपुल बुद्धि हो नास किया कुण्ठित सो पीनी।
स्थूल पदारथ गहै वस्तु नहिं पावै झीनी॥
कह गिरिधर कविराय करत विषयन में निरत।
मिश्री दुग्ध जलेबी बरफी चाहे घिरत ॥36॥
सरलार्थ:- जो दिन-रात चिन्ता करता रहता है घी, तेल, चावल, नमक, मट्ठा और ईंधन की, उसकी सारी बुद्धि का नाश हो जाता है। पुष्ट बुद्धि को वह कुण्ठित कर देता है। स्थूल वस्तु को वह पकड़ लेता है और सूक्ष्म वस्तु अर्थात् आत्मा को वह प्राप्त नहीं करता है। विषय-वासनाओं में वह निरत रहता है और उसे हमेशा मिश्री, दूध, जलेबी, बर्फी और घी की चाह बनी रहती है।
लोभ पाप का बीज है, रस व्याधी का बाप।
राग कैद का बीज, तज तीन सुखी हो आप॥
तीन सुखी हो आप, ताप नहिं तुझे तपावै।
भवनिधि तरे सुखेन, फेर नहिं गोते खावै॥
कह गिरिधर कविराय न तुझको व्यापै क्षोभ।
काम-वृत्ति के सहित त्यागता जिस क्षण लोभ॥37॥
सरलार्थ:- पाप का बीज लोभ है और रोग का बीज है जीभ का स्वाद और बन्धन का बीज है राग। इन तीनों को त्याग कर तू सुखी हो जा, फिर गोते नहीं खायेगा। आसानी से तू संसार-सागर पार कर जायेगा। कामवृत्ति के साथ-साथ जिस क्षण तू लोभ त्याग देगा, तुझे कोई भी लोभ नहीं सतायेगा।
खाली रहे न एक दिन, रास्ते की जु सराय।
भलो बुरो उतरो रहै, इत उत से कोइ आय॥
इत उत से कोइ आय रैनि बसि आगे जावै।
तिसके पीछे दूसर और मुसाफिर आवै॥
कह गिरिधर कविराय दृष्टांत जो सो सुन हाली।
सुख दुःख इष्टानिष्ट बिना तनु रहै न खाली॥38॥
सरलार्थ:- यह दुनिया रास्ते की सराय है, किसी भी दिन खाली नहीं रहती है। इधर-उधर से अच्छे और बुरे मुसाफिर इस सराय में उतरते हैं और रैन-बसेरा करके आगे चले जाते हैं। फिर दूसरे मुसाफिर आ जाते हैं। यह शरीर भी सराय ही है, इसमें सुख और दुःख, प्रिय और है अप्रिय आते-जाते रहते हैं। यह भी कभी खाली नहीं रहती है। girdhar kaviray ki kundaliyan
भूख विधाता ने रची, सबका हरै गुमान।
क्षुधा-निवारण के अरथ क्या नहिं करै पुमान॥
क्या नहिं करै पुमान; विहित अविहित ना देखै।
खाऊं खाऊं करै रु भक्ष्याभक्ष्य न पेखै॥
कह गिरिधर कविराय, न ऐसा जग में दूख।
त्रयलोकी में जैसी यह व्यापी है भूख॥ 39॥
सरलार्थ:- भगवान् ने भूख को ऐसा बनाया है कि इसके आगे किसी का भी गुमान नहीं रहता। इसे मिटाने को मनुष्य क्या-क्या नहीं करता, न देखता है उचित और न देखता है अनुचित। नहीं देखता कि क्या तो भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य? संसार में भूख के समान कोई दूसरा दु:ख नहीं और इसका राज तीनों लोकों में देखने में आता है।
करुणा हो प्रभु राम की, औ गुरु को परताप।
पुनि पुरुषारथ आपनो, कटै अविद्या-पाप।।
कटे अविद्या-पाप जुड़े जब यह संयोगा।
देहेन्द्रिय मन प्राण माहिं कोई रहे न रोगा।
कह गिरिधर कविराय, छुटे जब जन्म रु मरना।
कृत-कृत भयो पुमान बहुरि कछु रहे न करना॥40॥
सरलार्थ:- अविद्या तभी दूर हो सकती है, जब श्रीराम की करुणा हो, कृपा हो और सद्गुरु का प्रताप हो और उसके बाद अपना स्वयं का पुरुषार्थ हो। इन तीनों के संयोग से अविद्यारूपी पाप का नाश हो सकता है। तब देह में, इन्द्रियों में, मन और प्राण में कोई रोग नहीं रहता। जन्म और मरण से छुटकारा मिल जाता है, और मनुष्य का जीवन कृत-कृत्य हो जाता है, और तब कुछ भी करने को शेष नहीं रह जाता। girdhar kaviray ki kundaliyan
तेरो ईश्वर तूहि है, और न दूसर सीव।
महत भूल कर आपनी, भयो तुच्छ तू जीव॥
भयो तुच्छ तू जीव, न कारज कोउ संवार्यो।
अपनो हत्थी आप, आपना काम बिगार्यो॥
कह गिरिधर कविराय, आपको आपै हेरौ।
आधि-व्याधि को ताप सकल मिटि जावे तेरो॥41॥
सरलार्थ:- तेरा ईश्वर तू ही है और तू ही तेरा शिव है, कोई दूसरा शिव नहीं। अपने महत्त्व को भूलकर अविद्या के कारण तू अपने को तुच्छ जीव मानने लगा। अपने ही हाथों तू अपना काम बिगाड़ बैठा। अब खुद ही अपने-आपको तू देख, कोई आधि-व्याधि नहीं रहेगी और तेरा सारा संदेह जनित दु:ख दूर हो जायेगा।
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