Devmali Bhakt Ki Katha Bhaktmal Dvara Rachit Pauranik Kathaen
Devmali Bhakt Ki Katha
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भक्त देवमाली ब्राह्मण
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च।
एते पञ्चदशाना ह्यर्थमूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥
(श्रीमद्भा० ११। २३। १८-१९)
चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, अहङ्कार, मद, भेदबुद्धि, शत्रुता, अविश्वास, डाह और स्त्री, सुरा एवं द्यूतके व्यसन-इन पंद्रह अनर्थोंकी जड़ धन ही है। अतएव जिसे आत्मकल्याणकी इच्छा हो, उसे इस अर्थ कहलानेवाले अनर्थको दूरसे ही त्याग देना चाहिये। devmali bhakt ki katha
रैवत देशमें एक देवमाली नामक ब्राह्मण रहता था। था तो वह वेद-वेदाङ्गोंका विद्वान्, शास्त्रज्ञ, प्राणियोंपर दया रखनेवाला और भगवान्की पूजा करनेवाला; किंतु घर और धनमें उसकी बहुत आसक्ति थी। धन प्राप्त करनेके लिये वह निषिद्ध कर्म करने में भी हिचकता न था। वह रसादिका विक्रय करता और चाण्डालसे भी दान ले लेता। अपने व्रत, तप, पाठ आदिको भी दक्षिणा लेकर दूसरोंके लिये सङ्कल्प कर देता। उसके दो पुत्र हुए-यज्ञमाली और सुमाली। बड़े होनेपर पुत्रोंको भी उस लोभी ब्राह्मणने धन कमानेके अनेक उपाय सिखलाने प्रारम्भ किये। इसी प्रकारका जीवन बिताते हुए वह वृद्ध हो गया। एक दिन वह अपने धनको गिनने बैठा। करोड़ों सोनेकी मुहरें गिनते-गिनते वह पहले तो बड़ा प्रसन्न हुआ, फिर उस धनराशिको देखकर भगवान्की कृपासे उसके चित्तमें विचारका उदय हुआ। वह सोचने लगा-‘ओहो! devmali bhakt ki katha
अच्छे-बुरे नाना उपायोंसे मैंने इतना धन एकत्र कर लिया, यह धन एकत्र करते-करते मैं बूढ़ा हो मैं गया, फिर भी अभी मेरा लोभ नहीं गया। अब भी मैं अपने घरमें सोनेका पर्वत देखनेकी तृष्णासे रात-दिन जल रहा हूँ। लोग कहते हैं कि धनसे सुख होता है; किंतु इस धनने मुझे क्या सुख दिया? बाहरसे मैं भले सुखी दीखता होऊँ, पर मेरे हृदयमें तो तनिक भी चैन नहीं है। मैं तो रात-दिन तृष्णा तथा चिन्ताकी आगसे जला करता हूँ। यह धनकी तृष्णा ही मेरे क्लेशोंका कारण है। जिसको तृष्णा है, वह कुछ पा जाय तो उसकी तृष्णा और बढ़ती ही है। बुढ़ापेमें नेत्र, कान, हाथ-पैर आदि सब इन्द्रियाँ और शरीर तो दुर्बल हो जाता है। किंतु तृष्णा तो और भी बलवान् होती जाती है। जिसको धनकी तृष्णा है, वह विद्वान् होनेपर भी मूढ़, शान्त होनेपर भी क्रोधी और बुद्धिमान् होनेपर भी मूर्ख है। धनके लिये मनुष्य बन्धु-बान्धवोंसे शत्रुता करता है, अनेक प्रकारके पाप करता है। बल, तेज, यश, विद्या, शूरता, कुलीनता और मान-सभीको धनकी तृष्णा नष्ट कर देती है। धनका लोभी अपमान और क्लेशकी चिन्ता नहीं करता, पापको पाप नहीं गिनता। वह अपने हाथों अपने लिये दुःख और नरकका मार्ग उत्साहपूर्वक बनाता है। हाय! हाय! मैंने धनकी तृष्णामें पड़कर सारी बहुमूल्य आयु नष्ट कर दी। मेरा शरीर जीर्ण हो गया। पाप बटोरने में ही मेरा जीवन लगा।’ इस प्रकार पश्चात्तापसे ब्राह्मण व्याकुल हो गया। वह भगवान्से अपने उद्धारके लिये प्रार्थना करने लगा। devmali bhakt ki katha
पश्चात्ताप एवं भगवान्की प्रार्थनासे हृदयमें बल आया। ब्राह्मणने शेष जीवन भजनमें लगानेका निश्चय किया। उसने स्वयं धन कमाया था, अतः आधा धन अपने पास रखकर शेष आधेमेंसे दोनों पुत्रोंको बराबर-बराबर दे दिया। अपने भागके धनको उसने मन्दिर, सरोवर, कुएँ, धर्मशाला बनवाने, वृक्ष लगवाने, अन्न दान करनेमें व्यय कर दिया। इस प्रकार अपने अपार धनको सत्कर्ममें लगाकर वह तपस्या करने बदरिकाश्रमको चला गया। बदरिकाश्रममें देवमालीने पुष्प-फलोंसे सुशोभित सुन्दर वृक्षोंवाला एक आश्रम देखा। वहाँ शास्त्रचिन्तनमें लगे, भगवत्सेवा-परायण अनेक वृद्ध मुनिगण निवास करते थे। मुनियोंके बीच में एक परम शान्त तेज:पुञ्ज महात्मा भगवान्की स्तुति कर रहे थे। देवमालीने उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया। वे केवल सूखे पत्ते खाकर रहनेवाले परम तपस्वी महात्मा जानन्ति थे। ब्राह्मणने अपना सारा इतिहास सुनाकर नम्रतापूर्वक मुनिसे अपने उद्धारका उपाय पूछा। devmali bhakt ki katha
महात्मा जानन्तिने कृपा करके ब्राह्मणसे कहा-‘तुम ‘ नित्य-निरन्तर भगवान् विष्णुका ही स्मरण और भजन करो। किसीके दोष मत देखो। किसीकी चुगली मत करो। सदा परोपकारमें लगे रहो। मूर्धीका साथ छोड़कर श्रीहरिकी पूजामें ही लगे रहो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरको त्यागकर सभी प्राणियोंको सर्वथा अपने समान समझो। न तो कभी किसीसे कोई कठोर वचन कहो और न कोई निर्दयताका व्यवहार करो। डाह, परनिन्दा, दम्भ और अहङ्कारको सावधानीपूर्वक छोड़ दो। सभी प्राणियोंपर दया करो। सत्पुरुषोंकी सेवा करो। जो पापी हैं, उन्हें पापसे छुड़ानेका प्रयत्न करो, उन्हें धर्मका सच्चा मार्ग बतलाओ। प्रतिदिन आदरपूर्वक अतिथियोंकी सेवा करो। पत्र, पुष्प, माला, फल, तुलसी आदिसे प्रतिदिन नियमपूर्वक भगवान् नारायणकी पूजा करो। देवता, ऋषि तथा पितृगणोंके लिये यथासमय विधिपूर्वक हवन, तर्पण तथा श्राद्ध करो। एकाग्रचित्तसे भगवान्के मन्दिरको स्वच्छ करना, लीपना, पुराने मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करना, मन्दिरमें दीपक जलाना आदि तुम्हारे समस्त पापोंको दूर कर देंगे। भगवान्की पूजा, भगवान्की स्तुति, पुराण-श्रवण, पुराण-पाठ और शास्त्रोंका, वेदान्तका प्रतिदिन अध्ययन करना चाहिये। इन उपायोंसे शीघ्र ही तुम्हारा चित्त निर्मल हो जायगा। निर्मल चित्त होनेपर उसमें स्वयं ज्ञानका उदय होगा और तब तुम्हारे सभी दुःख दूर हो जायँगे। तुम्हें परम शान्ति प्राप्त होगी।’ devmali bhakt ki katha
मुनि जानन्तिकी आज्ञा मानकर देवमाली साधनमें लग गया। कभी कोई शङ्का होनेपर वह गुरुसे पूछकर सन्देह दूर कर लेता। इस प्रकार श्रद्धा एवं दृढ़तासे नियमपूर्वक साधन करनेसे वह शीघ्र निष्पाप हो गया। उसका हृदय निर्मल हो गया। भगवान्की कृपासे उसे बोध प्राप्त हुआ। अन्तमें गुरुदेवकी आज्ञासे वाराणसी (काशी)-में आकर देवमालीने भगवान्का परम पद प्राप्त किया। devmali bhakt ki katha
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