Daku Bhagat Ki Kahani || Bhaktmal Dvara Rachit
Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू भगत की कथा
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पुराने जमाने की बात है। एक धनी गृहस्थके घर भगवत्कथा का बड़ा सुन्दर आयोजन हो रहा था। वैशाखका महीना, शुक्लपक्षकी रात्रि का समय। कथा वाचक पण्डित जी विद्वान् तो थे ही, अच्छे गायक भी थे। वे बीच-बीचमें भगवत्सम्बन्धी भावपूर्ण पदोंका मधुर कण्ठसे गान भी करते। पहले उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधारपर संक्षेपमें भगवान के जन्म की कथा सुनायी, फिर नन्दोत्सव का वर्णन करते-करते एक मधुर पद गाया। कथा का प्रसङ्ग आगे चला। श्रोतागण व्यवहार की चिन्ता और शरीर की सुधि भूलकर भगवदानन्द में मस्त हो गये। बहुतों के शरीर में रोमाञ्च हो आया। कितनों की आँखों में आँसू छलक आये। सभी तन्मय हो रहे थे।Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू का कथा यजमान के घर चोरी करने घुसना
उसी समय सुयोग देखकर एक डाकू उस धनी गृहस्थ के घरमें घुस आया और चुपचाप धन-रत्न ढूँढ़ने लगा। परंतु भगवान की ऐसी लीला कि बहुत प्रयास करने पर भी उसके हाथ कुछ नहीं लगा। वह जिस समय कुछ-न-कुछ हाथ लगाने के लिये इधर-उधर ढूँढ़ रहा था, उसी समय उसका ध्यान यकायक कथा की ओर चला गया। कथा वाचक पण्डित जी महाराज ऊँचे स्वरसे कह रहे थे-“प्रात:काल हुआ। पूर्वदिशा उषा की मनोरम ज्योति और अरुण की लालिमा से रँग गयी। उस समय व्रजकी झाँकी अलौकिक हो रही थी। गौएँ और बछड़े सिर उठा-उठाकर नन्दबाबा के महल की ओर सतृष्ण दृष्टि से देख रहे थे कि अब हमारे प्यारे श्रीकृष्ण हमें आनन्दित करने के लिये आ ही रहे होंगे। उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा श्रीदामा, सुदामा, वसुदामा आदि ग्वालबालों ने आकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम को बड़े प्रेम से पुकारा-‘हमारे प्यारे कन्हैया, आओ न। अबतक तुम सो ही रहे हो? देखो, गौएँ तुम्हें देखे बिना रँभा रही हैं। हम कभी से खड़े हैं। चलो, वनमें गौएँ चराने के लिये चलें। दाऊ दादा, तुम इतनी देर क्या कर रहे हो?’ इस प्रकार ग्वालबालों की पुकार और जल्दी देखकर नन्दरानी ने अपने प्यारे पुत्रोंको बड़े ही मधुर स्वर से पुकार-पुकारकर जगाया। फिर मैया ने स्नेह से उन्हें माखन-मिश्री का तथा भाँति-भाँतिके पकवानों का कलेऊ करवाकर बड़े चाव से खूब सजाया। लाखों-करोड़ों रुपयों के गहने हीरे-जवाहर और मोतियों से जड़े स्वर्णालङ्कार अपने बच्चों को पहनाये। मुकुट में, बाजूबन्द में, हारमें जो मणियाँ जगमगा रही थीं, उनके प्रकाश के सामने प्रात:काल का उजाला फीका पड़ गया। इस प्रकार भलीभाँति सजाकर नन्दरानी ने अपने लाड़ले पुत्रों के सिर सूंघे और फिर बड़े प्रेम से गौ चराने के लिये उन्हें बिदा किया। Daku Bhagat Ki Kahani
इतनी बातें डाकू ने भी सुनीं; और तो कुछ उसने सुना था नहीं। अब वह सोचने लगा कि ‘अरे! यह तो बड़ा अनुपम सुयोग है। मैं छोटी-मोटी चीजों के लिये इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहता हूँ, यह तो अपार सम्पत्ति हाथ लगने का सु अवसर है। केवल दो बालक ही तो हैं। उनके दोनों गालोंपर दो-दो चपत जड़े नहीं कि वे स्वयं अपने गहने निकालकर मुझे सौंप देंगे।’ यह सोचकर वह डाकू धनी गृहस्थ के घर से बाहर निकल आया और कथाके समाप्त होने की बाट देखने लगा। बहुत रात बीतने पर कथा समाप्त हुई। भगवान के नाम और जयकार के नारों से आकाश गूंज उठा। भक्त गृहस्थ बड़ी नम्रता से ठाकुर जी का प्रसाद ग्रहण करने के लिये सब श्रोताओं से अनुरोध करने लगे। प्रसाद बँटने लगा। उधर यह सब हो रहा था, परंतु डाकू के मनमें इन बातोंपर कोई ध्यान नहीं था। वह तो रह-रहकर कथा वाचक की ओर देख रहा था। उसकी आँखें कथा वाचक जी की गतिविधि पर जमी हुई थीं। कुछ समयके बाद प्रसाद पाकर कथा वाचक जी अपने डेरे की ओर चले। डाकू भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। जब पण्डित जी खुले मैदानमें पहुँचे, तब डाकूने पीछे से कुछ कड़े स्वर में पुकारकर कहा-‘ओ पण्डित जी! खड़े रहो।’ पण्डितजी के पास दक्षिणा के रुपये-पैसे भी थे, वे कुछ डरकर और तेज चाल से चलने लगे। डाकू ने दौड़ते हुए कहा-‘पण्डित जी, खड़े हो जाओ। यों भागने से नहीं बच सकोगे।’ पण्डित जी ने देखा कि अब छुटकारा नहीं है। वे लाचार होकर ठहर गये। डाकू ने उनके पास पहुँचकर कहा–’देखिये, पण्डित जी! आप जिन कृष्ण और बलराम की बात कह रहे थे, उनके लाखों-करोड़ों रुपयों के गहनों का वर्णन कर रहे थे, उनका घर कहाँ है? वे दोनों गौएँ चराने के लिये कहाँ जाते हैं? आप सारी बातें ठीक-ठीक बता दीजिये। यदि जरा भी टालमटोल की तो बस, देखिये मेरे हाथ में कितना मोटा डंडा है; यह तुरंत आपके सिरके टुकड़े-टुकड़े कर देगा।’ पण्डित जी ने देखा, उसका लंबा-चौड़ा दैत्य-सा शरीर बड़ा ही बलिष्ठ है। मजबूत हाथों में मोटी लाठी है, आँखों से क्रूरता टपक रही है। उन्होंने सोचा, हो-न-हो यह कोई डाकू है। फिर साहस बटोरकर कहा–’तुम्हारा उनसे क्या काम है?’ डाकू ने तनिक जोर देकर कहा जरूरत है पंडित जी बोले– जरूरत बतानेमें कुछ अड़चन है क्या?’ डाकूने कहा–’पण्डित जी! मैं डाकू हूँ। मैं उनके गहने लूटना चाहता हूँ। गहने मेरे हाथ लग गये तो आपको भी अवश्य ही कुछ दूंगा। देखिये, टालमटोल मत कीजिये। ठीक-ठीक बताइये।’ पण्डित जी ने समझ लिया कि यह वज्रमूर्ख है। अब उन्होंने कुछ हिम्मत करके कहा-‘तब इसमें डर किस बात का है। मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूंगा। लेकिन यहाँ रास्ते में तो मेरे पास पुस्तक नहीं है। मेरे डेरेपर चलो। मैं पुस्तक देखकर सब ठीक-ठीक बतला दूंगा।’ डाकू उनके साथ-साथ चलने लगा। Daku Bhagat Ki Kahani
पंडितजी द्वारा डाकू को भगवान के ऐश्वर्य का वर्णन Daku Bhagat Ki Kahani
डेरेपर पहुँचकर पण्डित जीने किसी से कुछ कहा नहीं। पुस्तक बाहर निकाली और वे डाकूको भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की रूप-माधुरी सुनाने लगे। उन्होंने कहा’श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही चरण-कमलों में सोने के सुन्दर नूपुर हैं, जो अपनी रुनझुन ध्वनि से सबके मन मोह लेते हैं। श्यामवर्ण के श्रीकृष्ण पीत वर्णका और गौर वर्णके बलराम नील वर्णका वस्त्र धारण कर रहे हैं। दोनों की कमर में बहुमूल्य मोतियों से जड़ी सोने की करधनी शोभायमान है। गलेमें हीरे-जवाहरात के स्वर्णहार हैं। हृदयपर कौस्तुभमणि झलमला रही है। ऐसी मणि जगत में और कोई है ही नहीं। कलाई में रत्नजड़ीत सोने के कङ्गन, कानों में मणि-कुण्डल, सिरपर मनोहर मोहन चूड़ा। धुंघराले काले-काले बाल, ललाटपर कस्तूरी का तिलक, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, आँखों से मानो आनन्द और प्रेम की वर्षा हो रही है। श्रीकृष्ण अपने कर-कमलों में सोने की वंशी लिये उसे अधरोंसे लगाये रहते हैं। उनकी अङ्ग-कान्ति के सामने करोड़ों सूर्यों की कोई गिनती नहीं। रंग-विरंगे सुगन्धित पुष्पोंकी माला, तोते की-सी नुकीली नासिका, कुन्दबीज के समान श्वेत दाँतों की पाँत, बड़ा लुभावना रूप है! अजी, जब वे त्रिभङ्गललित भावसे खड़े होते हैं, देखतेदेखते नेत्र तृप्त ही नहीं होते। बाँकेबिहारी श्रीकृष्ण जब अपनी बाँसुरी में ‘राधे-राधे की मधुर तान छेड़ते हैं तब बड़े बड़े ज्ञानी भी अपनी समाधि से पिंड छुड़ा कर उसे सुनने के लिए दौड़ आते हैं। यमुना के तट पर वृंदावन में कदंब के वृक्ष के नीचे प्रायः उनके दर्शन मिलते हैं। वनमाली श्री कृष्ण और हलधारी बलराम। डाकूने पूछा-‘अच्छा पण्डितजी, सब गहने मिलाकर कितने रुपयों के होंगे?’ पण्डित जी ने कहा-‘ओह, इसकी कोई गिनती नहीं है। करोड़ों-अरबों से भी ज्यादा !’ डाकू-‘तब क्या जितने गहनोंके आपने नाम लिये, उनसे भी अधिक हैं?’ पण्डितजी-‘तो क्या? संसारकी समस्त सम्पत्ति एक ओर और कौस्तुभमणि एक ओर। फिर भी कोई तुलना नहीं।’ डाकूने आनन्द से गद्गद होकर कहा-‘ठीक है, ठीक है! और कहिये, वह कैसी है?’ पण्डित जी-‘वह मणि जिस स्थानपर रहती है, सूर्यके समान प्रकाश हो जाता है। वहाँ अँधेरा रह नहीं सकता। वैसा रत्न पृथ्वीमें और कोई है ही नहीं!’ डाकू-‘तब तो उसके दाम बहुत ज्यादा होंगे। क्या बोले? एक बार भलीभाँति समझा तो दीजिये। हाँ, एक बात तो भूल ही गया। मुझे किस ओर जाना चाहिये?’ पण्डित जी ने सारी बातें दुबारा समझा दी। डाकूने कहा- देखिये, पण्डित जी! मैं शीघ्र ही आकर आपको कुछ दूंगा। यहाँ से ज्यादा दूर तो नहीं है न? मैं एक ही रात में पहुँच जाऊँगा, क्यों? अच्छा; हाँ-हाँ, एक बात और बताइये। क्या वे प्रतिदिन गौएँ चराने जाते हैं?’ पण्डित जी-‘हाँ, और तो क्या?’ डाकू-‘कब आते हैं?’ पण्डित जी-‘ठीक प्रात:काल। उस समय थोड़ा-थोड़ा अँधेरा भी रहता है।’ डाकू- -‘ठीक है, मैंने सब समझ लिया। हाँ तो, अब मुझे किधर जाना चाहिये?’ पण्डितजी-‘बराबर उत्तरकी ओर चले जाओ।’ डाकू प्रणाम करके चल पड़ा। पण्डितजी मन-ही-मन हँसने लगे। देखो, यह कैसा पागल है! थोड़ी देर बाद उन्हें चिन्ता हो आयी, यह मूर्ख दो-चार दिन तो ढूँढ़ने का प्रयत्न करेगा। फिर लौटकर कहीं यह मुझपर अत्याचार करने लगा तो? किंतु नहीं, यह बड़ा विश्वासी है। लौटकर आयेगा तो एक रास्ता और बतला दूंगा। यह दो-चार दिन भटकेगा, तबतक मैं कथा समाप्त करके यहाँसे चलता बनूँगा। इससे पिण्ड छुड़ाने का और उपाय ही क्या है। पण्डित जी कुछ-कुछ निश्चिन्त हुए। Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू अपने घर गया। उसकी भूख, प्यास, नींद सब उड़ गयी। वह दिन-रात गहनों की बात सोचा करता, चमकिले गहनों से लदे दोनों नयन मन हरण बालक उसकी आँखों के सामने नाचते रहते। डाकू के मनमें एक ही धुन थी। अँधेरा हुआ, डाकू ने लाठी उठाकर कंधेपर रखी। वह उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। वह उत्तर भी उसकी अपनी धुनका ही था, दूसरोंके देखनेमें शायद वह दक्खिन ही जा रहा हो! उसे इस बातका भी पता नहीं था कि उसके पैर धरतीपर पड़ रहे हैं या काँटोंपर। Daku Bhagat Ki Kahani
चलते-चलते एक स्थानपर डाकू की आँख खुली। उसने देखा, बड़ा सुन्दर हरा-भरा वन है। एक नदी भी कल-कल करती बह रही है। उसने सोचा, निश्चय किया ‘यही है, यही है! परंतु वह कदम्ब का पेड़ कहाँ है?’ डाकू बड़ी सावधानी के साथ एक-एक वृक्षके पास जाकर कदम्बको पहचानने की चेष्टा करने लगा। अन्तमें वहाँ उसे एक कदम्ब मिल ही गया। अब उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने सन्तोष की साँस ली और आस-पास आँखें दौड़ायीं। एक छोटा-सा पर्वत, घना जंगल और गौओं के चरने का मैदान भी दीख गया। हरी-हरी दूब रातके स्वाभाविक अँधेरे में घुल-मिल गयी थी। फिर भी उसके मनके सामने गौओं के चरने और चरानेवालों की एक छटा छिटक ही गयी। अब डाकू के मनमें एक ही विचार था। कब सबेरा हो, कब अपना काम बने। वह एक-एक क्षण सावधानी से देखता और सोचता कि आज सबेरा होने में कितनी देर हो रही है! ज्यों-ज्यों रात बीतती, त्यों-त्यों उसकी चिन्ता, उद्वेग, उत्तेजना, आग्रह और आकुलता बढ़ती जाती। वह कदम्बपर चढ़ गया और देखने लगा कि किसी ओर उजाला तो नहीं है। कहींसे वंशीकी आवाज तो नहीं आ रही है? उसने अपने मनको समझाया-‘अभी सबेरा होने में देर है। मैं ज्यों ही वंशीकी धुन सुनूँगा, त्यों ही टूट पडूंगा।’ इस प्रकार सोचता हुआ बड़ी ही उत्कण्ठा के साथ वह डाकू सबेरा होने की बाट जोहने लगा। देखते-ही-देखते मानो किसीने प्राची दिशाका मुख रोली के रंगसे रँग दिया। डाकू के हृदयमें आकुलता और भी बढ़ गयी। वह पेड़से कूदकर जमीनपर आया, परंतु वंशीकी आवाज सुनायी न पड़ने के कारण फिर उछलकर कदम्बपर चढ़ गया। वहाँ भी किसी प्रकार की आवाज सुनायी नहीं पड़ी। उसका हृदय मानो क्षण-क्षणपर फटता जा रहा था। अभी-अभी उसका हृदय विहर उठता; परंतु यह क्या, उसकी आशा पूर्ण हो गयी! दूर, बहुत दूर वंशीकी सुरीली स्वर-लहरी लहरा रही है। वह वृक्षसे कूद पड़ा। हाँ, ठीक है, ठीक है; बाँसुरी ही तो है। अच्छा, यह स्वर तो और समीप होता जा रहा है ! डाकू आनन्द के आवेश में अपनी सुध-बुध खो बैठा और मूर्छित होकर धरतीपर गिर पड़ा। कुछ ही क्षणों में उसकी बेहोशी दूर हुई, आँखें खुलीं; वह उठकर खड़ा हो गया। देखा तो पास ही जंगलमें एक दिव्य शीतल प्रकाश चारों ओर फैल रहा है। उस मनोहर प्रकाशमें दो भुवन-मोहन बालक अपने अङ्गकी अलौकिक छटा बिखेर रहे हैं। गौएँ और ग्वालबाल उनके आगे-आगे कुछ दूर निकल गये हैं। Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू और भगवान का मिलन तथा वार्तालाप
डाकू ने उन्हें देखा, अभी पुकार भी नहीं पाया था कि मन मुग्ध हो गया-‘अहाहा! कैसे सुन्दर चेहरे हैं इनके, आँखों से तो अमृत ही बरस रहा है। और इनके तो अङ्ग-अङ्ग बहुमूल्य आभूषणों से भरे हैं। हाय-हाय! इतने नन्हे-नन्हे सुकुमार शिशुओं को माँ-बापने गौएँ चरानेके लिये कैसे भेजा? ओह! मेरा तो जी भरा आता है-मन चाहता है, इन्हें देखता ही रहूँ! इनके गहने उतारने की बात कैसी, इन्हें तो और भी सजाना चाहिये। नहीं, मैं इनके गहने नहीं छीनूँगा। ना, ना, गहने नहीं छीनूँगा तो फिर आया ही क्यों? ठीक है। मैं गहने छीन लूँगा। परंतु इन्हें मारूँगा नहीं। बाबा-रे-बाबा, मुझसे यह काम न होगा! धत् तेरेकी! यह मोह-छोह कैसा? मैं डाकू हूँ, डाकू। मैं और दया? बस, बस, मैं अभी गहने छीने लेता हूँ। यह कहते-कहते वह श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके पास पहुँचकर उनका स्वरूप देखते ही उसकी चेतना एक बार फिर लुप्त हो गयी। पैर लड़खड़ाये और वह गिर पड़ा। फिर उठा। कुछ देर टकटकी लगाये देखता रहा, आँखें आँसुओं से भर आयीं। फिर न मालूम क्या सोचा, हाथमें लाठी लेकर उनके सामने गया और बोला-‘खड़े हो जाओ। सारे गहने निकालकर मुझे दे दो।’
श्रीकृष्ण-‘हम अपने गहने तुम्हें क्यों दें?
डाकू-‘दोगे नहीं? मेरी लाठीकी ओर देखो।
श्रीकृष्ण-‘लाठीसे क्या होगा? डाकू-‘अच्छा, क्या होगा? गहना न देनेपर तुम्हारे सिर तोड़ डालूँगा; और क्या होगा?’
श्रीकृष्ण-‘नहीं, हमलोग गहने नहीं देंगे।’
डाकू-‘अभी-अभी मैं कान पकड़ के ऐंठूगा और सारे गहने छीन-छानकर तुम्हें नदीमें फेंक दूंगा।
श्रीकृष्ण-(जोरसे) ‘बाप-रे-बाप! ओ बाबा! ओ बाबा!’
डाकूने झपटकर अपने हाथसे श्रीकृष्णका मुँह दबाना चाहा, परंतु स्पर्श करते ही उसके सारे शरीरमें बिजली दौड़ गयी। वह अचेत होकर धड़ामसे धरतीपर गिर पड़ा। कुछ क्षणोंके बाद जब चेत हुआ, तब वह श्रीकृष्णसे बोला-‘अरे, तुम दोनों कौन हो? मैं ज्यों ज्यों तुम दोनोंको देखता हूँ, त्यों-त्यों तुम मुझे और सुन्दर, और मधुर, और मनोहर क्यों दीख रहे हो? मेरी आँखोंकी पलकें पड़नी बंद हो गयीं। हाय! हाय! मुझे रोना क्यों आ रहा है?’ मेरे शरीरके सब रोएँ क्यों खड़े हो गये हैं? जान गया, जान गया, तुम दोनों देवता हो, मनुष्य नहीं हो।
श्रीकृष्ण-[मुसकराकर] ‘नहीं’ हम मनुष्य हैं। हम ग्वालबाल हैं। हम व्रजके राजा नन्दबाबाके लड़के हैं। डाकू-अहा! कैसी मुसकान है! ‘जाओ, जाओ; तुम लोग गौएँ चराओ। मैं अब गहने नहीं चाहता। मेरी आशा-दुराशा, मेरी चाह-आह सब मिट गयीं। हाँ, मैं चाहता हूँ कि तुम दोनोंके सुरंग अङ्गोंमें अपने हाथोंसे और भी गहने पहनाऊँ। जाओ, जाओ। हाँ, एक बार अपने दोनों लाल-लाल चरण-कमलोंको तो मेरे सिरपर रख दो। हाँ, हाँ; जरा हाथ तो इधर करो! मैं एक बार तुम्हारी स्निग्ध हथेलियों का चुम्बन करके अपने प्राणों को तृप्त कर लूँ। ओह, तुम्हारा स्पर्श कितना शीतल, कितना मधुर! धन्य! धन्य!! तुम्हारे मधुर स्पर्श से हृदय की ज्वाला शान्त हो रही है। आशा-अभिलाषा मिट गयी। जाओ, हाँ-हाँ, अब तुम जाओ। मेरी भूख-प्यास मिट गयी। अब कहीं जानेकी इच्छा नहीं होती। मैं यहीं रहूँगा। तुम दोनों रोज इसी रास्ते से जाओगे न? एक बार केवल एक क्षणके लिये प्रतिदिन, हाँ, प्रतिदिन मुझे दर्शन देते रहना। देखो, भूलना नहीं। किसी दिन नहीं आओगे दर्शन नहीं दोगे तो याद रखो, मेरे प्राण छटपटाकर छूट ही जायँगे।
श्रीकृष्ण-‘अब तुम हमलोगों को मारोगे तो नहीं? गहने तो नहीं छीन लोगे? हाँ, ऐसी प्रतिज्ञा करो तो हमलोग प्रतिदिन आ सकते हैं।’ Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू-‘प्रतिज्ञा? सौ बार प्रतिज्ञा! अरे भगवान की शपथ! तुमलोगों को मैं कभी नहीं मारूँगा। तुम्हें मार सकता हो, ऐसा कोई है जगत में? तुम्हें तो देखते ही सारी शक्ति गायब हो जाती है, मन ही हाथसे निकल जाता है। फिर कौन मारे और कैसे मारे। अच्छा, तुमलोग जाओ!’
श्रीकृष्ण-‘यदि तुम्हें हम लोग गहना दें तो लोगे?’
डाकू-‘गहना, गहना! अब गहने क्या होंगे? अब तो कुछ भी लेनेकी इच्छा नहीं है।’
श्रीकृष्ण-‘क्यों नहीं? ले लो। हम तुम्हें दे रहे हैं न!’
डाकू-‘तुम दे रहे हो? तुम मुझे दे रहे हो? तब तो लेना ही पड़ेगा। परंतु तुम्हारे माँ-बाप तुमपर नाराज होंगे, तुम्हें मारेंगे तो?
श्रीकृष्ण-नहीं-नहीं, हम राजकुमार हैं। हमारे पास ऐसे-ऐसे न जाने कितने गहने हैं। तुम चाहो तो तुम्हें और भी बहुत-से गहने दे सकते हैं।’ डाकू-‘ऊहूँ , मैं क्या करूँगा। हाँ, हाँ; परंतु तुम्हारी बात टाली भी तो नहीं जाती। क्या तुम्हारे पास और गहने हैं? सच बोलो।
श्रीकृष्ण–’हैं नहीं तो क्या हम बिना हुए ही दे रहे हैं? लो, तुम इन्हें ले जाओ।’
भगवान् श्रीकृष्ण अपने शरीरपर से गहने उतारकर देने लगे। Daku Bhagat Ki Kahani
डाकूने कहा-‘देखो भाई! यदि तुम देना ही चाहते हो तो मेरा यह दुपट्टा ले लो और इसमें अपने हाथों से बाँध दो। किंतु देखो, लाला! यदि तुम मेरी इच्छा जानकर बिना मनके दे रहे हो तो मुझे गहने नहीं चाहिये। मेरी इच्छा तो अब बस, एक यही है कि रोज एक बार तुम्हारे मनोहर मुखड़े को मैं देख लिया करूँ और एक बार तुम्हारे चरणतल से अपने सिरका स्पर्श करा लिया करूँ।’ श्रीकृष्ण-नहीं-नहीं, बेमन की बात ‘कैसी। तुम फिर आना, तुम्हें इस बार और गहने देंगे।’ श्रीकृष्णने उसके दुपट्टेमें सब गहने बाँध दिये। daku bhagat ki kahani
डाकूने गहने की पोटली हाथमें लेकर कहा—’क्यों भाई! मैं फिर आऊँगा तो तुम मुझे और गहने दोगे न? गहने चाहे न देना, परंतु दर्शन जरूर देना।’
श्रीकृष्णने कहा-‘अवश्य! गहने भी और दर्शन भी दोनों।’
डाकू गहने लेकर अपने घरके लिये रवाना हुआ। डाकू आनन्दके समुद्रमें डूबता-उतराता घर लौटा। दूसरे दिन रातके समय कथा वाचक पण्डित जी के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और गहनों की पोटली उनके सामने रख दी। बोला- देखिये, देखिये, पण्डित जी! कितने गहने लाया हूँ। आपकी जितनी इच्छा हो, ले लीजिये। पण्डित जी! उसने और गहने देना स्वीकार किया है।’ पण्डित जी तो यह सब देख-सुनकर चकित रह गये। उन्होंने बड़े विस्मयके साथ कहा-‘मैंने जिनकी कथा कही थी, उनके गहने ले आया?’ Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू का वापिस पंडित जी को गहने देने के लिए आना
डाकू बोला-‘तब क्या, देखिये न; यह सोने की वंशी! यह सिरका मोहन चूड़ामणि!!’ पण्डित जी हक्के-बक्के रह गये। बहुत सोचा, बहुत विचारा; परंतु वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके। जो अनादि, अनन्त पुरुषोत्तम हैं, बड़ेबड़े योगी सारे जगत् को तिनके के समान त्यागकर, भूखप्यास-नींदकी उपेक्षा करके सहस्र-सहस्र वर्ष पर्यन्त जिनके ध्यान की चेष्टा करते हैं, परंतु दर्शन से वञ्चित ही रह जाते हैं, उन्हें यह डाकू देख आया? उनके गहने ले आया? ना, ना, असम्भव! हो नहीं सकता। परतु यह क्या! यह चूड़ामणि, यह बाँसुरी, ये गहने, सभी तो अलौकिक हैं-इसे ये सब कहाँ, किस तरह मिले? कुछ समझमें नहीं आता। क्षणभर ठहरकर पण्डित जी ने कहा-‘क्यों भाई! तुम मुझे उसके दर्शन करा सकते हो? Daku Bhagat Ki Kahani
डाकू-‘क्यों नहीं, कल ही साथ चलिये न?’ पण्डितजी पूरे अविश्वासके साथ केवल उस घटनाका पता लगानेके लिये डाकूके साथ चल पड़े और दूसरे दिन नियत स्थानपर पहुँच गये। पण्डित जी ने देखा एक सुन्दर-सा वन है। छोटी-सी नदी बह रही है, बड़ा-सा मैदान और कदम्ब का वृक्ष भी है। वह व्रज नहीं है, यमुना नहीं हैं; पर है कुछ वैसा ही। रात बीत गयी, सबेरा होनेके पहले ही डाकूने कहा- देखिये, पण्डित जी! आप नये आदमी हैं। आप किसी पेड़की आड़में छिप जाइये! वह कहीं आपको देखकर न आये तो! अब प्रात:काल होनेमें विलम्ब नहीं है। अभी आयेगा।’ डाकू पण्डित जी से बात कर ही रहा था कि मुरली की मोहक ध्वनि उसके कानों में पड़ी। वह बोल उठा-‘सुनिये, सुनिये, पण्डित जी! बाँसुरी बज रही है! कितनी मधुर! कितनी मोहक! सुन रहे हैं न?’ पण्डित जी’कहाँ जी, मैं तो कुछ नहीं सुन रहा हूँ। क्या तुम पागल हो गये हो?’ डाकू-‘पण्डित जी! पागल नहीं, जरा ठहरिये; अभी आप उसे देखेंगे। रुकिये, मैं पेड़पर चढ़कर देखता हूँ कि वह अभी कितनी दूर है। Daku Bhagat Ki Kahani
डाकूने पेड़पर चढ़कर देखा और कहा–’पण्डित जी! पण्डित जी! अब वह बहुत दूर नहीं है।’ उतरकर उसने देखा कि थोड़ी दूरपर वैसा ही विलक्षण प्रकाश फैल रहा है। वह आनन्द के मारे पुकार उठा-‘पण्डित जी! वह है, वह है। उसके शरीरकी दिव्य ज्योति सारे वनको चमका रही है।’ पण्डित जी-‘मैं तो कुछ नहीं देखता।’ डाकू–’ऐसा क्यों, पण्डित जी? वह इतना निकट है, इतना प्रकाश है; फिर भी आप नहीं देख पाते हैं? अजी! आप जंगल, नदी, नाला-सब कुछ देख रहे हैं और उसको नहीं देख पाते?’ पण्डित जी-‘हाँ भाई! मैं तो नहीं देख रहा हूँ। देखो, यदि सचमुच वे हैं तो तुम उनसे कहो कि ‘आज तुम जो देना चाहते हो, सब इसी ब्राह्मणके हाथपर दे दो।’ डाकूने स्वीकार कर लिया। अबतक भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी डाकू के पास आकर खड़े हो गये थे। डाकूने कहा-‘आओ, आओ; मैं आ गया हूँ। तुम्हारी बाट जोह रहा था।’Daku Bhagat Ki Kahani
श्रीकृष्ण-‘गहने लोगे?’ डाकू-‘नहीं भाई! मैं गहने नहीं लूँगा। जो तुमने दिये थे, वे भी तुम्हें देनेके लिये लौटा लाया हूँ ; तुम अपना सब ले लो। लेकिन भैया, ये पण्डित जी मेरी बातपर विश्वास नहीं कर रहे हैं। विश्वास कराने के लिये ही मैं इन्हें साथ लाया हूँ। मैं तुम्हारी वंशी-ध्वनि सुनता हूँ। तुम्हारी अङ्गकान्ति से चमकते हुए वनको देखता हूँ, तुम्हारे साथ बातचीत करता हूँ। परंतु पण्डित जी यह सब देख-सुन नहीं रहे हैं। यदि तुम इन्हें नहीं दीखोगे तो ये मेरी बातपर विश्वास नहीं करेंगे।’ श्रीकृष्ण-‘अरे भैया, अभी ये मेरे दर्शन के अधिकारी नहीं हैं। बूढ़े, विद्वान् अथवा पण्डित हैं तो क्या हुआ।’ डाकू-‘नहीं, भाई! मैं बलिहारी जाऊँ तुमपर। उनके लिये जो कहो, वही कर दूं। परंतु एक बार इन्हें अपनी बाँकी झाँकी जरूर दिखा दो।’ श्रीकृष्णने हँसकर कहा-‘अच्छी बात, तुम मुझे और पण्डित जी को एक साथ ही स्पर्श करो।’ डाकू के ऐसा करते ही पण्डित जी की दृष्टि दिव्य हो गयी। उन्होंने मुरली मनोहर पीताम्बर धारी श्यामसुन्दर की बाँकी झाँकी के दर्शन किये। फिर तो दोनों निहाल होकर भगवान के चरणों में गिर पड़े। Daku Bhagat Ki Kahani
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1 भक्त सुव्रत की कथा 2 भक्त कागभुशुण्डजी की कथा 3 शांडिल्य ऋषि की कथा 4 भारद्वाज ऋषि की कथा 5 वाल्मीक ऋषि की कथा 6 विस्वामित्र ऋषि की कथा 7 शुक्राचार्य जी की कथा 8 कपिल मुनि की कथा 9 कश्यप ऋषि की कथा 10 महर्षि ऋभु की कथा 11 भृगु ऋषि की कथा 12 वशिष्ठ मुनि की कथा 13 नारद मुनि की कथा 14 सनकादिक ऋषियों की कथा 15 यमराज जी की कथा 16 भक्त प्रह्लाद जी की कथा 17 अत्रि ऋषि की कथा 18 सती अनसूया की कथा
1 गणेश जी की कथा 2 राजा निरमोही की कथा 3 गज और ग्राह की कथा 4 राजा गोपीचन्द की कथा 5 राजा भरथरी की कथा 6 शेख फरीद की कथा 7 तैमूरलंग बादशाह की कथा 8 भक्त हरलाल जाट की कथा 9 भक्तमति फूलोबाई की नसीहत 10 भक्तमति मीरा बाई की कथा 11 भक्तमति कर्मठी बाई की कथा 12 भक्तमति करमेति बाई की कथा
1 कवि गंग के दोहे 2 कवि वृन्द के दोहे 3 रहीम के दोहे 4 राजिया के सौरठे 5 सतसंग महिमा के दोहे 6 कबीर दास जी की दोहे 7 कबीर साहेब के दोहे 8 विक्रम बैताल के दोहे 9 विद्याध्यायन के दोह 10 सगरामदास जी कि कुंडलियां 11 गुर, महिमा के दोहे 12 मंगलगिरी जी की कुंडलियाँ 13 धर्म क्या है ? दोहे 14 उलट बोध के दोहे 15 काफिर बोध के दोहे 16 रसखान के दोहे 17 गोकुल गाँव को पेंडोही न्यारौ 18 गिरधर कविराय की कुंडलियाँ 19 चौबीस सिद्धियां के दोहे 20 तुलसीदास जी के दोहे
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