Bhakt Pundrik Ki Katha Bhaktmal Ki Kathaen Dvara Rachit
Bhakt Pundrik Ki Katha
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भक्त पुण्डरीक
स्मरण करनेपर, सन्तुष्ट करनेपर, पूजा करनेपर भगवान्का भक्त अनायास ही चाण्डालतकको भी पवित्र कर देता है।’ पुण्डरीकजी ऐसे ही महाभागवत हो गये हैं। पुण्डरीकका जन्म ब्राह्मण-कुलमें हुआ था। वे वेद शास्त्रोंके ज्ञाता, तपस्वी, स्वाध्यायप्रेमी, इन्द्रियविजयी एवं क्षमाशील थे। वे त्रिकाल सन्ध्या करते थे। प्रातःसायं विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते थे। बहुत दिनोंतक उन्होंने गुरुकी श्रद्धापूर्वक सेवा की थी और नियमित प्राणायाम तथा भगवान् विष्णुका चिन्तन तो वे सर्वदा ही करते थे। वे माता-पिताके भक्त थे। वर्णाश्रम-धर्मानुकूल अपने कर्तव्योंका भलीभाँति विधिपूर्वक पालन करते थे। धर्मके मूल हैं भगवान्। धर्मके पालनका यही परम फल है कि संसारके विषयोंमें वैराग्य होकर भगवान्के चरणोंमें प्रीति हो जाय। भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही लौकिक-वैदिक समस्त कर्मोंका पुण्डरीक पालन करते थे। ऐसा करनेसे उनका हृदय शुद्ध हो गया। संसारके किसी भी पदार्थमें उनकी आसक्ति, ममता, स्पृहा या कामना नहीं रह गयी। वे माता-पिता, भाई-बन्धु, मित्र-सखा, सुहृद्सम्बन्धी आदि स्नेहके-मोहके बन्धनोंसे छूट गये। उनके हृदयमें केवल एकमात्र भगवान्को प्राप्त करनेकी ही इच्छा रह गयी। वे अपने सम्पन्न घर एवं परिवारको तृणके समान छोड़कर भगवत्प्राप्तिके लिये निकल पड़े। bhakt pundrik ki katha
भक्त पुण्डरीक साग, मूल, फल-जो कुछ मिल जाता, उसीसे शरीरनिर्वाह करते हुए तीर्थाटन करने लगे। शरीरके सुख-दुःखकी उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं थी, वे तो अपने प्रियतम प्रभुको पाना चाहते थे। घूमते-घूमते वे शालग्राम नामक स्थानपर पहुँचे। यह स्थान रमणीक था, पवित्र था।यहाँ अच्छे तत्त्वज्ञानी महात्मा रहते थे। अनेक पवित्र जलाशय थे। पुण्डरीकने उन तीर्थकुण्डोंमें स्नान किया। उनका मन यहाँ लग गया। यहीं रहकर अब वे भगवान्का निरन्तर ध्यान करने लगे। उनका हृदय भगवान्के ध्यानसे आनन्दमग्न हो गया। वे हृदयमें भगवान का दर्शन पाने लगे।
अपने अनुरागी भक्तोंको दयामय भगवान् सदा ही स्मरण रखते हैं। प्रभुने देवर्षि नारदजीको पुण्डरीकके पास भेजा कि वे उसे भोले भक्तके भावको और पुष्ट करें। श्रीनारदजी परमार्थके तत्त्वज्ञ तथा भगवान के हृदय-स्वरूप हैं। वे सदा भक्तोंपर कृपा करने, उन्हें सहायता पहुँचानेको उत्सुक रहते हैं। भगवानकी आज्ञासे हर्षित होकर वे शीघ्र ही पुण्डरीकके पास पहुँचे। साक्षात् सूर्यके समान तेजस्वी, वीणा बजाकर हरिगुण-गान करते देवर्षिको देखकर पुण्डरीक उठ खड़े हुए। उन्होंने साष्टाङ्ग प्रणाम किया। देवर्षिके तेजको देखकर वे चकित रह गये। संसारमें ऐसा तेज मनुष्यमें सुना भी नहीं जाता। पूछनेपर नारदजीने अपना परिचय दिया। देवर्षिको पहचानकर पुण्डरीकके हर्षका पार नहीं रहा। उन्होंने नारदजीकी पूजा करके बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की—’प्रभो! मेरा आज परम सौभाग्य है जो मुझे आपके दर्शन हुए। आज मेरे सब पूर्वज तर गये। अब आप अपने इस दासपर कृपा करके ऐसा उपदेश करें, जिससे इस संसार-सागरमें डूबते इस अधमका उद्धार हो जाय। आप तो भगवान के मार्गपर चलनेवालोंकी एकमात्र गति हैं, आप इस दीनपर दया करें।’bhakt pundrik ki katha
पुण्डरीककी अभिमानरहित सरल वाणी सुनकर देवर्षिने कहा-“द्विजोत्तम! इस लोकमें अनेक प्रकारके मनुष्य हैं और उनके अनेक मत हैं। नाना तर्कोसे वे अपने मतोंका समर्थन करते हैं। मैं तुमको परमार्थ-तत्त्व बतलाता हूँ। यह तत्त्व सहज ही समझमें नहीं आता। तत्त्ववेत्तालोग प्रमाणद्वारा ही इसका निरूपण करते हैं। मूर्खलोग ही प्रत्यक्ष तथा वर्तमान प्रमाणोंको मानते हैं। वे अनागत तथा अतीत प्रमाणोंको स्वीकार नहीं करते। मुनियोंने कहा है कि जो पूर्वरूप है, परम्परासे चला आता है, वही आगम है। जो कर्म, कर्मफल-तत्त्व, विज्ञान, दर्शन और विभु है; जिसमें न वर्ण है, न जाति; जो नित्य आत्मसंवेदन है; जो सनातन, अतीन्द्रिय, चेतन, अमृत, अज्ञेय, शाश्वत, अज, अविनाशी, अव्यक्त, व्यक्त, व्यक्तमें विभु और निरञ्जन है-वही द्वितीय आगम है। वही चराचर जगत्में व्यापक होनेसे ‘विष्णु’ कहलाता है। उसीके अनन्त नाम हैं। परमार्थसे विमुख लोग उस योगियोंके परमाराध्य-तत्त्वको नहीं जान सकते।” ‘यह हमारा मत है’ यह केवल अभिमान ही है। ज्ञान तो शाश्वत है और सनातन है। वह परम्परासे ही चला आ रहा है। भारतीय महापुरुष सदा इतिहासके रूपमें इसीसे ज्ञानका वर्णन करते रहे हैं कि उसमें अपने अभिमानकी क्षुद्रता न आ जाय। देवर्षि नारदजीने कहा कि “मैंने एक बार सृष्टिकर्ता अपने पिता ब्रह्माजीसे पूछा था। उस समय परमार्थ-तत्त्वके विषयमें ब्रह्माजीने कहा-‘भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। वे ही प्रभु जगदाधार हैं। वे ही सनातन परमात्मा पचीस तत्त्वोंके रूपमें प्रकाशित हो रहे हैं। जगत्की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय नारायणसे ही होता है। विश्व, तैजस, प्राज्ञ-ये त्रिविध आत्मा नारायण ही हैं। वे ही सबके अधीश्वर, एकमात्र सनातन देव हैं। योगीगण ज्ञान तथा योगके द्वारा उन्हीं जगन्नाथका साक्षात्कार करते हैं। जिनका चित्त नारायणमें लगा है, जिनके प्राण नारायणको अर्पित हैं, जो केवल नारायणके ही परायण हैं, वे नारायणकी कृपा और शक्तिसे जगत्में दूर और समीप, भूत, वर्तमान और भविष्य, स्थूल और सूक्ष्म-सबको देखते हैं। उनसे कुछ अज्ञात नहीं रहता।’bhakt pundrik ki katha
“ब्रह्माजीने देवताओंसे एक दिन कहा था-‘धर्म नारायणके आश्रित है। सब सनातन लोक, यज्ञ, शास्त्र, वेद, वेदाङ्ग तथा और भी जो कुछ है, सब नारायणके ही आधारपर हैं। वे अव्यक्त पुरुष नारायण ही पृथ्वी आदि पञ्चभूतरूप हैं। यह समस्त जगत् विष्णुमय है। पापी मनुष्य इस तत्त्वको नहीं जानता। जिनका चित्त उन विश्वेश्वरमें लगा है, जिनका जीवन उन श्रीहरिको अर्पित है, ऐसे परमार्थ-ज्ञाता ही उन परम पुरुषको जानते हैं। नारायण ही सब भूतरूप हैं, वे ही सबमें व्याप्त हैं, वे ही सबका पालन करते हैं। समस्त जगत् उन्हींसे उत्पन्न है, उन्हींमें प्रतिष्ठित है। वे ही सबके स्वामी हैंसृष्टिके लिये वे ही ब्रह्मा, पालनके लिये विष्णु और संहारके लिये रुद्ररूप धारण किये हैं। वे ही लोकपाल हैं। वे परात्पर पुरुष ही सर्वाधार, निष्कल, सकल, अणु और महान् हैं। सबको उन्हींके शरण होना चाहिये।” हैं bhakt pundrik ki katha
देवर्षिने कहा-‘ब्रह्माजीने ऐसा कहा था, अत: द्विजश्रेष्ठ! तुम भी उन्हीं श्रीहरिकी शरण लो। उन नारायणको छोड़कर भक्तोंके अभीष्टको पूरा करनेवाला और कोई नहीं है। वे ही पुरुषोत्तम सबके पिता-माता हैं; वे ही लोकेश, देवदेव, जगत्पति हैं। अग्निहोत्र, तप, अध्ययन आदि सभी सत्कर्मोंसे नित्य-निरन्तर सावधानीके साथ एकमात्र उन्हें ही सन्तुष्ट करना चाहिये। तुम उन पुरुषोत्तमकी ही शरण लो। उनकी शरण होनेपर न तो बहुत-से मन्त्रोंकी आवश्यकता है, न व्रतोंका ही प्रयोजन है। एक नारायण-मन्त्र- ‘ॐ नमो नारायणाय’ ही सब मनोरथोंको पूरा करनेवाला है। भगवान्की आराधनामें किसी बाहरी वेषकी आवश्यकता नहीं। कपड़े पहने हो या दिगम्बर हो, जटाधारी हो या मूंड़ मुड़ाये हो, त्यागी हो या गृहस्थ हो-सभी भगवान्की भक्ति कर सकते हैं। चिह्न (वेष) धर्मका कारण नहीं है। जो लोग पहले निर्दय, पापी, दुष्टात्मा और कुकर्मरत रहे हैं, वे भी नारायण-परायण होनेपर परम धामको प्राप्त हो जाते हैं। भगवान्के परम भक्त पापके कीचड़में कभी लिप्त नहीं होते। अहिंसासे चित्तको जीतकर वे भगवद्भक्त तीनों लोकोंको पवित्र करते हैं। प्राचीनकालमें अनेक लोग प्रेमसे भगवान का भजन करके उन्हें प्राप्त कर चुके हैं। श्रीहरिकी आराधनासे सबको परम गति मिलती है और उसके बिना कोई परमपद नहीं पा सकता। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी-कोई भी हो, परमपद तो भगवान्के भजनसे ही मिलता है। मैं हरिभक्तोंका दास हूँ’ यह सुबुद्धि सहस्रों जन्मोंके अनन्तर भगवान की कृपासे ही प्राप्त होती है। ऐसा पुरुष भगवान को प्राप्त कर लेता है। तत्त्वज्ञ पुरुष इसीलिये चित्तको सब ओरसे हटाकर नित्य-निरन्तर अनन्यभावसे उन सनातन परम पुरुषका ही ध्यान करते हैं।’ देवर्षि यह उपदेश देकर चले गये। bhakt pundrik ki katha
पुण्डरीककी भगवद्भक्ति देवर्षिके उपदेशसे और भी दृढ़ हो गयी। वे नारायणमन्त्रका अखण्ड जप करते और सदा भगवान्के ध्यानमें निमग्न रहते। उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि उनके हृदयकमलपर भगवान् गोविन्द सदा प्रत्यक्ष विराजमान रहने लगे। सत्त्वगुणका पूरा साम्राज्य हो जानेसे निद्रा, जो पुरुषार्थकी विरोधिनी और तमोरूपा है, सर्वथा नष्ट हो गयी बहुत-से महापुरुषोंमें यह देखा और सुना जाता है कि उनके मन और बुद्धिमें भगवान्का आविर्भाव हुआ और वे दिव्य भगवद्रूपमें परिणत हो गये; किंतु किसीका स्थूल-शरीर दिव्य हो गया हो, यह नहीं सुना जाता। ऐसा तो कदाचित् ही होता है। पुण्डरीकमें यही लोकोत्तर अवस्था प्रकट हुई। उनका निष्पाप देह श्यामवर्णका हो गया, चार भुजाएँ हो गयीं; उन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म आ गये। उनका वस्त्र पीताम्बर हो गया। एक तेजोमण्डलने उनके शरीरको घेर लिया। पुण्डरीकसे वे ‘पुण्डरीकाक्ष’ हो गये। वनके सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर पशु भी उनके पास अपना परस्परका सहज वैर-भाव भूलकर एकत्र हो गये और प्रसन्नता प्रकट करने लगे। नदीसरोवर, वन-पर्वत, वृक्ष-लताएँ-सब पुण्डरीकके अनुकूल हो गये। सब उनकी सेवाके लिये फल, पुष्प, निर्मल जल आदि प्रस्तुत रखने लगे। पुण्डरीक भक्तवत्सल भगवान्की कृपासे उनके अत्यन्त प्रियपात्र हो गये थे। प्रत्येक जीव, प्रत्येक जड-चेतन उस परम वन्दनीय भक्तकी सेवासे अपनेको कृतार्थ करना चाहता था! bhakt pundrik ki katha
पुण्डरीकके मन-बुद्धि ही नहीं, शरीर भी दिव्य भगवद्प हो गया था; तथापि दयामय करुणासागर प्रभु भक्तको परम पावन करने, उसे नेत्रोंका चरम लाभ देने उसके सामने प्रकट हो गये। भगवान्का स्वरूप, उनकी शोभा, उनकी अङ्ग-कान्ति जिस मनमें एक झलक दे जाती है, वह मन, वह जीवन धन्य हो जाता है। उसका वर्णन कर सके, इतनी शक्ति कहाँ किसमें है। पुण्डरीक भगवान्के अचिन्त्य सुन्दर दिव्य रूपको देखकर प्रेमविह्वल हो गये। भगवान्के श्रीचरणोंमें प्रणिपात करके भरे कण्ठसे उन्होंने स्तुति की। स्तुति करते-करते प्रेमके वेगसे पुण्डरीककी वाणी रुद्ध हो गयी।
भगवान्ने पुण्डरीकको वरदान माँगनेके लिये कहा। पुण्डरीकने विनयपूर्वक उत्तर दिया-‘भगवन्! कहाँ तो मैं दुर्बुद्धि प्राणी और कहाँ आप सर्वेश्वर, सर्वज्ञ। मेरे परम सुहृद् स्वामी! आपके दर्शनके पश्चात् और क्या शेष रह जाता है, जिसे माँगा जाय-यह मेरी समझमें नहीं आता। मेरे नाथ! आप मुझे माँगनेका आदेश कर रहे हैं तो मैं यही माँगता हूँ कि मैं अबोध हूँ; अतः जिसमें मेरा कल्याण हो, वही आप करें।’
भगवान्ने अपने चरणोंमें पड़े पुण्डरीकको उठाकर हृदयसे लगा लिया। वे बोले-‘वत्स ! तुम मेरे साथ चलो। तुम्हें छोड़कर अब मैं नहीं रह सकता। अब तुम मेरे धाममें मेरे समीप मेरी लीलामें सहयोग देते हुए निवास करो।’ भगवान्ने पुण्डरीकको अपने साथ गरुड़पर बैठा लिया और अपने नित्यधाम ले गये। bhakt pundrik ki katha
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