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Bhakt Bhadratanu Or Unke Guru Daant Ki Katha Bhaktmal Dvara Rachit

Bhakt Bhadratanu Or Unke Guru Daant

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भक्त भद्रतनु और उनके गुरु दान्त

प्राचीन समयमें पुरुषोत्तमपुरीमें एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था भद्रतनु। वह देखने में सुन्दर था और पवित्र कुलमें उत्पन्न हुआ था। माता-पिता उसे बचपन में ही अनाथ करके परलोक चले गये। कोई संरक्षक न होनेसे भद्रतनु युवावस्थामें कुसङ्गमें पड़ गया। युवावस्था, धन, स्वतन्त्रता और कुसङ्ग-इन चारमेंसे एक ही मनुष्यको पतनके मार्गपर ले जानेको पर्याप्त है; जहाँ चारों हों, वहाँ तो विनाश आया ही मानना चाहिये। भद्रतनु कुसङ्गके प्रभावसे स्वाध्याय, संयम, नित्यकर्म आदिसे विमुख हो गया। सत्य, अतिथि-सत्कार, उपासनादि सब उसके छूट गये। वह धर्मका निन्दक हो गया, सदा परधन तथा परस्त्रीको पानेकी घातमें रहने लगा। भोगासक्त और काम-क्रोध-परायण हो गया। जुआ, चोरी, मदिरापान प्रभृति दोष उसमें आ गये ।
नगरके पास ही सुमध्या नामक एक सुन्दरी वेश्या रहती थी। बुरे सङ्गमें पड़कर उसका पतन हो गया था और परिस्थितिवश उसको वेश्या बनना पड़ा था; किंतु इस वृत्तिसे उसे बहुत घृणा थी। वह अपनी दशापर सदा दुःखी रहती, पछताती; पर उससे छूटनेका मार्ग नहीं था। मनुष्यका एक बार पतन हो जानेपर फिर सम्हलना बहुत कठिन होता है। भीड़में जो गिर पड़ता है, उसका कुचल जाना ही सहज सम्भाव्य है, वह कदाचित् ही उठ पाता है। कुछ ऐसी ही दशा होनेपर भी सुमध्याने साहस नहीं छोड़ा। उसके हृदयमें धर्मका भय था, परलोकपर विश्वास था, ईश्वरपर आस्था थी। अपने उद्धारके लिये वह भगवान्से सदा प्रार्थना करती रहती थी। bhakt bhadratanu or unke guru daant


भद्रतनुका सुमध्यापर बड़ा प्रेम था। वह तो कामुक था और वेश्याके सौन्दर्यपर लटू था, पर सुमध्या उससे सचमुच प्रेम करती थी। अनेक स्थानोंसे ऊबकर वह उस ब्राह्मणकुमारसे अनुराग करने लगी थी। उसने भद्रतनुको अनेक बार समझाना चाहा। जुआ-शराब आदिके भयङ्कर परिणाम बतलाकर उसे दोषमुक्त करनेके प्रयत्नमें वह लगी ही रहती थी। इस ब्राह्मण-युवकके पतनसे उसे बड़ा दुःख होता था। परन्तु उसे यह भरोसा नहीं था कि वह छोड़ दे तो भद्रतनु सुधर जायगा तथा और कहीं न जायगा। फिर वेश्याके पेटका भी सवाल था; अतः भद्रतनुको वह इस कुमार्गसे रोक नहीं पाती थी, मन मारकर रह जाती थी। एक दिन भद्रतनुके पिताका श्राद्ध-दिवस आया। श्रद्धा न होनेपर भी लोक-निन्दाके भयसे उसने श्राद्धकर्म किया। किंतु उसका चित्त सुमध्यामें लगा रहा। श्राद्धकार्यसे छुटकारा पाकर वह वेश्याके यहाँ पहुँच गया। देर होनेका कारण बतलाकर कामियोंके प्रलापके समान उसने सुमध्याके सौन्दर्य तथा अपनी आसक्तिकी लम्बीचौड़ी बातें की। bhakt bhadratanu or unke guru daant 

सुमध्या ब्राह्मण-कुमारकी मूर्खतापर हँस रही थी। उसे भद्रतनुपर क्रोध आया। उसने कहा-‘अरे ब्राह्मण! धिक्कार है तुझे। तेरे-जैसे पुत्रके होनेसे अच्छा था कि तेरे पिता पुत्रहीन ही रहते। आज तेरे पिताका श्राद्ध-दिन है और तू निर्लज्ज होकर एक वेश्याके यहाँ आया है। तूने शास्त्र पढ़े हैं; तू जानता है कि जो मनुष्य श्राद्धके दिन स्त्री-सहवास करता है, परलोकमें उसके पितर तथा वह भी वीर्य-भक्षण करते हैं। मेरे इस शरीरमें हड्डी, मांस, रक्त, मज्जा, मेद, मल, मूत्र, थूक आदिके अतिरिक्त और क्या है? तू क्यों इस नरककुण्डमें कूदने आया है? ऐसे घृणित शरीरमें तूने क्यों सौन्दर्य मान ही लिया है? क्या मनुष्य-शरीर तुझे पाप कमानेके लिये मिला है? मैं तो वेश्या हूँ, अधम हूँ, मुझमें आसक्त होकर तो तेरी अधोगति ही होनी है। यही आसक्ति यदि तेरी भगवान्में होती तो, पता नहीं, अबतक तू कितनी ऊँची स्थितिको पा लेता। जीवनका क्या ठिकाना है, मृत्यु तो सिरपर ही खड़ी है। कच्चे घड़ेके समान काल कभी भी जीवनको नष्ट कर देगा। तू ऐसे अल्पजीवनमें क्यों पापमें लगा है? विचार कर। मनको मुझसे हटाकर भगवान्में लगा। भगवान् बड़े दयालु हैं, वे तुझे अवश्य अपना लेंगे।’ bhakt bhadratanu or unke guru daant


सुमध्याके वचनोंका भद्रतनुपर बहुत प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगा-‘सचमुच मैं कितना मूर्ख हूँ! एक वेश्यामें जितना ज्ञान है, उतना भी मुझ दुरात्मामें नहीं है। ब्राह्मणकुलमें जन्म लेकर भी मैं पाप करनेमें ही लगा रहा। जब मृत्यु निश्चित है, जब मृत्युके पश्चात् पापका दण्ड भोगनेके लिये यमराजके पास जाना भी निश्चित ही है, तब क्यों मैं और पाप करूँ? मैंने तो जप-तप, अध्ययन-पूजन, हवन-तर्पण आदि कोई सत्कर्म किये नहीं। मुझसे भगवान्की उपासना भी नहीं हुई। अब मेरी क्या गति होगा ? कैसे मेरा पापोंसे छुटकारा होगा।’ इस i प्रकार पश्चात्ताप करता वह सुमध्याको पूज्यभावसे प्रणाम । करके लौट आया। सुमध्याने भी उसी समयसे वेश्या वृत्ति छोड़ दी और वह भगवान्के भजनमें लग गयी। भद्रतनु पश्चात्ताप करता हुआ मार्कण्डेय मुनिक समीप गया। वह उनके चरणोंपर गिर पड़ा और फूटफूटकर रोने लगा। मार्कण्डेयजीने भद्रतनुकी बात सुनकर उससे बड़े स्नेहसे कहा-‘तुम पाप करनेवाले होकर भी पुण्यात्मा जान पड़ते हो। अपने पापोंके लिये पश्चात्ताप, पापसे घृणा और फिर पाप न करनेका निश्चय बड़े पुण्य-बलसे ही होता है। संसारके अधिकांश लोग तो पापको पाप मानते ही नहीं। वे बड़े उत्साहसे उसीमें लगे रहते हैं। bhakt bhadratanu or unke guru daant

तुम्हारी बुद्धि पापसे अलग हुई, यह तुमपर भगवान्की कृपा है। जो पहले पापी रहा हो, पर पापप्रवृत्ति छोड़कर भगवान्के भजनका निश्चय कर ले तो वह भगवान्का प्रिय पात्र है; भगवान् ही उसे पापसे दूर होनेकी सद्बुद्धि देते हैं। तुमने अनेक जन्मोंमें भगवान्की पूजा की है, अतः तुम्हारा कल्याण शीघ्र होगा। मैं इस समय एक अनुष्ठानमें लगा हूँ, अतः तुम दान्त मुनिके पास जाओ। वे सर्वज्ञ महात्मा तुम्हें उपदेश करेंगे। भद्रतनु वहाँसे दान्त मुनिके आश्रमपर गया। वहाँ उसने मुनिके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रार्थना की-‘महात्मन् ! मैं जातिसे ब्राह्मण होनेपर भी महापापी हूँ। मैने सदा पाप ही किये हैं। आप सर्वज्ञ हैं, दयालु हैं । कृपया मुझ पापीके लिये संसार-बन्धनसे छूटनेका उपदेश कीजिये।’ bhakt bhadratanu or unke guru daant


दान्त मुनिने कृपापूर्ण स्वरमें कहा-भाई! भगवान्की कृपासे ही तुम्हारी बुद्धि ऐसी हुई है। मैं तुम्हें वे उपाय बतला रहा हूँ, जिनसे मनुष्य सहज ही भव-बन्धनसे छूट जाता है।’ मुनिने भद्रतनुको पाखण्डका त्याग; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, असत्य और हिंसाका त्याग-ये दो ‘निषेध’ रूप तथा दया-शान्ति-दमका सेवन करते हुए भगवान्की पूजा, भगवन्नामोंका जप तथा अहोरात्रव्रत, पञ्चमहायज्ञ और भगवद्गुणानुवाद-श्रवण-ये चार ‘विधि’ रूप उपदेश किये। भद्रतनुने इन साधनोंको भलीभाँति समझानेकी प्रार्थना की तो मुनिने बताया bhakt bhadratanu or unke guru daant

१-वेद-शास्त्र-सम्मत कर्मोंको छोड़कर दूसरा कर्म करनेवाला पाखण्डी है और शास्त्रानुकूल अपने वर्णाश्रमधर्मका पालन करनेवाला सज्जन है। bhakt bhadratanu or unke guru daant

२-कामिनी-काञ्चन आदि विषयोंको सेवन करनेकी इच्छा ‘काम’ कहलाती है। अपने विपरीत काम होते देख या अपने अपमान तथा निन्दासे जो हृदयमें जलन होती है वह ‘क्रोध’ है। दूसरेके धनको पानेकी इच्छा ‘लोभ’ है। मेरी स्त्री, मेरा पुत्र, मेरा घर, मेरा परिवार’ आदिरूप मेरापन ‘मोह’ है। अपने धन, बल, परिवार, गुणका गर्व होना ‘मद’ है। दूसरे अपनेसे श्रेष्ठ क्यों हैं, ऐसी डाहको ‘मत्सर’ कहते हैं। सबको सुख पहुँचानेवाले यथार्थ वचनको सत्य कहते हैं और जो वाणी इससे उलटी है, वह ‘असत्य’ है। दूसरेको हानि पहुँचानेका विचार और यत्न ‘हिंसा’ है। इन सबका त्याग करना चाहिये।

३-दूसरेके कष्टको दूर करनेकी इच्छा ‘दया’ है। जो कुछ प्राप्त हो, उस थोड़ेमें ही तृप्ति मान लेना ‘शान्ति’ है। बुरे कार्योंसे चित्तको हटाना ‘दम’ है। सुखदुःख, शत्रु-मित्र, सबमें एक-सा भाव रखना ‘समदृष्टि’ है। भगवान्पर विश्वास करके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदिसे श्रद्धाके साथ भगवान्के श्रीविग्रहकी पूजा करना आराधना’ है।

४-दोपहर और मध्यरात्रिमें भोजन न करना (पूरे चौबीस घंटेका उपवास) ‘अहोरात्रव्रत’ है तथा भगवान्के स्मरण’ साथ आत्माके एकत्वका बराबर स्मरण रखना ‘विष्णुहै।

५-ब्रह्मयज्ञ, नरयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ और भूतयज्ञ-ये पाँच ‘महायज्ञ’ हैं। bhakt bhadratanu or unke guru daant

६-ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’-यही द्वादशाक्षर मन्त्र जप करने में सर्वोत्तम है।

दान्त बताये और भद्रतनु एकान्तमें जाकर मन लगाकर श्रद्धापूर्वक उनका आचरण करता हुआ भजन करने लगा। भगवान्ने कहा ही है कि ‘जो महापापी भी मेरा अनन्यभावसे भजन करता है, वह सब पापोंसे छूटकर साधु हो जाता है।’ भगवान्की अनन्य भक्तिसे भद्रतनुका हृदय शुद्ध हो गया। अतः उसपर कृपा करनेके लिये उसके सम्मुख दयामय प्रभु प्रकट हो गये। भगवान्का दर्शन करके भद्रतनुको बड़ा आनन्द हुआ; वह गद्गद स्वरसे स्तुति करने लगा। भगवान्की महिमाका वर्णन करते हुए उसने भगवद्भक्तोंके भावका बड़ा सुन्दर वर्णन किया। उसने कहा-‘भगवन् ! bhakt bhadratanu or unke guru daant

जिनका भजन करके लोग समस्त विपत्तियोंसे छूट जाते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते हैं, उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जो धन, स्तुति, दान, तपस्याके बिना केवल भक्तिसे ही सन्तुष्ट होते हैं, उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जो कृपापूर्वक गौ, ब्राह्मण और साधुओंका नित्य हित करते हैं; जो दीन, अनाथ, वृद्ध और रोगियोंका दुःख दूर करते हैं; जो देवता, नाग, मनुष्य, राक्षस और कीट पतङ्गमें भी समान भावसे विराजमान हैं; जो पण्डितमूर्ख, धनी-दरिद्र-सबमें समदृष्टि हैं; जिनके तनिक लीलापूर्वक रोष दिखलानेपर पर्वत भी तृणके समान हो जाता है और जिनके तुष्ट होनेपर तृण भी पर्वताकार हो जाता है-उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जैसे पुण्यात्मा पुरुषका मन पुण्यमें, पिताका पुत्रमें तथा सती स्त्रीका अपने पतिमें लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन आपमें लगा रहे। जैसे कामीका मन स्त्रीमें, लोभीका धनमें, भूखेका भोजनमें, प्यासेका जलमें, गरमीसे व्याकुलका चन्द्रमाकी शीतलतामें और जाड़ेसे ठिठुरतेका सूर्यमें लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन आपमें लगा रहे।’ bhakt bhadratanu or unke guru daant

इसके पश्चात् भद्रतनुको अपने पापोंका ध्यान आया। उसने उनका जो वर्णन किया, वह साधकोंके बड़े कामका है। उनसे सबको बचना चाहिये। उसने कहा-‘प्रभो! मैंने बुद्धिमान् होकर परस्त्री-सङ्ग किया, मोहवश अवध्यका वध किया, अज्ञानमें पड़कर विश्वासघात किया, अखाद्य खाया और न पीनेयोग्य सुरापान किया, लोभवश दूसरेका धन हरण किया; भ्रूणहत्या, व्यभिचार, परनिन्दा, हिंसा आदि पाप किये; शरणागतका अहित किया, दूसरेकी जीविका नष्ट की, दूसरोंको लज्जित करके नीचा दिखाया, अयोग्यसे दान लिया; रास्ते, देवस्थान, गोशाला आदिमें मल-मूत्र त्याग किया; हरे वृक्ष काटे, स्नान और भोजनको जाते मनुष्योंको रोका, पिता-माताके प्रति अभक्ति और अश्रद्धा की, घर आये अतिथिका सत्कार नहीं किया, जल पीनेके लिये दौड़कर जाती हुई गायोंको रोक दिया, प्रारम्भ किये व्रतको बीचमें ही छोड़ दिया, पति-पत्नीमें भेद डाला, भगवत्कथामें विघ्न किये, मन लगाकर दूसरोंकी निन्दा सुनी, जीविका चलानेवालोंका तिरस्कार किया, दूसरोंकी पापचर्चा सुनी, याचकों और ब्राह्मणोंका अपमान किया*-ऐसे-ऐसे सहस्रों पाप मैंने अनेक जन्मोंमें किये; परन्तु आज वे सब दूर हो गये! आज मैं आपका दर्शन करके कृतार्थ हो गया। प्रभो ! दयामय ! आपको नमस्कार। भगवान्की कृपाका अनुभव करके भद्रतनु विह्वल होकर उनके चरणोंपर गिर पड़ा। भगवान्ने उसे उठाकर हृदयसे लगा लिया। भगवानका दर्शन करते ही भद्रतनुकी मुक्तिकी इच्छा दूर हो गयी थी। वह तो भक्तिका भूखा हो उठा था। उसने भगवान्से प्रार्थना की-‘प्रभो! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया, फिर भी मैं आपसे एक वरदान माँगता हूँ। आपके चरणोंमें जन्म-जन्म मेरा अनुराग अविचल रहे।’ bhakt bhadratanu or unke guru daant

जन्मजन्मनि मे भक्तिस्त्वय्यस्तु सुदृढा प्रभो।

(पद्मपुराण, क्रियायोग० १७। ९१) भगवान्ने उसे ‘सख्य-भक्ति’ प्रदान की। उसके अनुरोधपर उसके गुरु दान्त मुनिको भी भगवान्ने दर्शन दिये। दान्त मुनिने भी भगवान्से भक्तिका ही वरदान माँगा। गुरु-शिष्य दोनोंको कृतार्थ करके भगवान् अन्तर्धान हो गये। भक्तिमय जीवन बिताकर अन्तमें गुरु दान्त मुनि और उनके शिष्य भद्रतनु दोनों ही भगवान्के परम धामको प्राप्त हुए। bhakt bhadratanu or unke guru daant 

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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