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raja priyavrat ki katha

raja priyavrat ki katha

महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः । छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहामतिः ॥

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( श्रीमद्भा० ५। १ । ३) जिन महापुरुषोंके चित्तमें उत्तम श्लोक, श्रीहरिके पाद-पद्मोंकी छायाने संसारके तुच्छ भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न कर दी है, उनमें कुटुम्बी होनेकी स्पृहा या कुटुम्बासक्ति नहीं होती।’

स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रतजी जन्मसे ही भगवान्के परम भक्त थे। उन्हें भगवान्के गुणगान, उन उत्तमश्लोकके मङ्गलचरित-श्रवणको छोड़कर र कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। देवर्षि नारदकी कृपासे उन परमभागवतने परमार्थतत्त्वको जान लिया था। वे देवर्षिके समीप गन्धमादनपर्वतपर रहकर निरन्तर भगवान्‌का चिन्तन करते और नारदजीसे भगवान्की परम पावन लीलाका श्रवण करते। जब मनुजी ब्रह्मसत्रकी दीक्षा लेने लगे, तब उन्होंने प्रियव्रतको राज्य करनेके लिये बुलाया; किंतु जिनका चित्त भगवान् वासुदेवमें ही सब ओरसे लगा था, उन प्रियव्रतजीको राज्यके सुख-भोग अच्छे न लगे। उन्होंने संसारके विषयोंको विषके समान समझ लिया था। अतएव राज्य सञ्चालन उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

की जब हम संसारके विषयोंको अपने सुखके लिये अपना मानकर भोगते हैं, तब वे हमारे लिये बन्धनके कारण बनते हैं और चित्त उनमें आसक्त होता है। परंतु सच्ची बात यह है कि यह सारा संसार भगवान्का स्वरूप है। यह भगवान्की लीला है। जीव इस भगवान्‌के रंगमञ्चपर उनकी लीलामें सहयोग देने आया है। जिसके लिये जो कर्तव्य इस लीलामें प्रभुने दिया है, उसे प्रभुकी सेवा समझकर उस कर्तव्यका पालन करना चाहिये। हम भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये, उनकी लीलामें योग देनेके लिये कर्म कर रहे हैं – इस प्रकार जो भगवान्‌को बराबर स्मरण रखकर, कर्मोमें अहंता न करके स्वकर्मके द्वारा भगवान्‌का निष्काम पूजन करता है, वह कभी मायाके जालमें नहीं फँसता । उसके सब कर्म भगवान्‌की सेवाके लिये होते हैं। उसका जीवन ही भगवत्पूजारूप हो जाता है। raja priyavrat ki katha

प्रियव्रतने जब राज्य करना अस्वीकार कर दिया, स्वयं भगवान् ब्रह्मा उन्हें समझानेके लिये तबस 2 ब्रह्मलोकसे वहाँ पधारे। आकाशसे हंसवाहन सृष्टिकर्ताको आते देख नारदजी और प्रियव्रत खड़े हो गये । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके उनका पूजन किया। ब्रह्माजीने कहा- ‘बेटा प्रियव्रत! अप्रमेय, सर्वेश्वर प्रभुने जो कर्तव्य तुम्हें दिया है, उसमें तुम्हें दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिये। मैं, शङ्करजी, महर्षिगण विवश होकर उन प्रभुके आदेशका पालन करते हैं। कोई भी देहधारी तपस्या, विद्या, योगबल, मनोबल, अर्थ या धर्मके द्वारा स्वयं या दूसरोंकी सहायतासे भी उन सर्वसमर्थके किये विधानको अन्यथा नहीं कर सकता। उन प्रभुको प्रसन्न करना ही तुम्हारा भी उद्देश्य है, अतः तुम्हें उनके विधानसे प्राप्त कर्तव्यका पालन करना चाहिये। देखो, जो मुक्त पुरुष हैं, उन्हें भी अभिमानशून्य होकर प्रारब्ध शेष रहनेतक देह धारण करना ही पड़ता है। वे भी प्रारब्धका भोग भोगते ही हैं; किंतु जैसे स्वप्नमें अनुभव किये भोग जाग जानेवालेको बाधित नहीं करते, वैसे ही वे प्रारब्धके भोग मुक्त पुरुषोंको दूसरा शरीर नहीं दे पाते। रही घरमें रहने और वनमें तप करनेकी बात, सो जो प्रमत्त है, उसके लिये वनमें भी पतनका भय है; क्योंकि उसके चित्तमें काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर- ये छः विकार लगे हैं। किंतु जो सावधान है, जितेन्द्रिय है, आत्मचिन्तनमें लगा है, भगवदाश्रयी है, उसकी गृहस्थाश्रम क्या हानि कर सकता है। जो कामादि छः रिपुओंको जीतना चाहता हो, उसे पहले गृहस्थाश्रममें रहकर ही इनको जीत लेना चाहिये। क्योंकि गृहस्थाश्रमके भोगोंको भोगता हुआ किलेमें सुरक्षित राजाके समान शत्रुरूप इन विकारोंको वह सरलतासे जीत सकता है। तुम तो कमलनाभ नारायणके चरणकमलरूपी गढ़का आश्रय लेकर सभी विकारोंको जीत चुके हो; अतः अब भगवान्‌के दिये हुए भोगोंको भोगो और आसक्तिरहित होकर प्रजाका पालन करो।’ raja priyavrat ki katha

• प्रभु-पद-रत भव-बिरत नित बंदौं भक्त उदार।।

प्रियव्रतने अपनेसे श्रेष्ठ ब्रह्माजीकी आज्ञा स्वीकार की। लोकस्रष्टा उनसे सत्कृत होकर अपने लोकको चले गये। प्रियव्रत नगरमें आये । ब्रह्माजीके इस उपदेशमें आजके साधकोंके लिये बहुत ही महत्त्वकी बातें बतायी गयी हैं। किसी भी उत्तेजना या दुःखके कारण घरका त्याग करना कल्याणकारी नहीं है। घर छोड़कर बाहर जानेसे अधिक भजन होगा, यह भी मनका एक भ्रम ही है। जबतक मनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर हैं, तबतक घर छोड़ देनेपर पतनका भय ही अधिक है। इन दोषोंपर घर रहकर जितनी सरलतासे विजय पायी जा सकती है, उतनी बाहर नहीं। भगवान्के चरणोंका आश्रय लेकर, भगवन्नामका जप करते हुए, कर्तव्यका पालन करते हुए घर रहकर ही इन दोषोंको जीतना चाहिये। इन शत्रुओंसे बचे रहनेके लिये घर सुरक्षित किला है। जो घरमें इन दोषोंसे घबराता है, उसे जानना चाहिये कि बाहर उसकी कठिनाई और बढ़ जायगी, दोषोंको बढ़नेके लिये बाहर अधिक अवसर मिलेगा। raja priyavrat ki katha

ब्रह्माजीकी आज्ञा मानकर प्रियव्रत राजधानीमें आये। उन्होंने राज्य और गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। प्रजापति विश्वकर्माकी पुत्री बर्हिष्मतीसे उन्होंने विवाह किया। उनके दस पुत्र और एक कन्या हुई। प्रियव्रत सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके स्वामी थे। उन्हें यह अच्छा न लगा कि आधी पृथ्वीपर एक समय दिन और आधीपर रात्रि रहे। ‘मैं रात्रिको भी दिन बना दूँगा।यह सोचकर अपने ज्योतिर्मय दिव्य रथपर बैठकर वे सूर्य-रथकी गतिके समान ही वेगसे रात्रिवाले भागमें यात्रा करने लगे। इस प्रकार सात दिन – रात्रि वे घूमते रहे और उतने काल उन्होंने पूरे भूमण्डलपर दिनके समान प्रकाश बनाये रखा। ब्रह्माजीने इस कार्यसे उन्हें रोका। उनके रथके पहियोंसे ही सात समुद्र बन गये। उन समुद्रोंसे घिरे एक-एक द्वीपका अधिपति उन्होंने अपने एक- एक पुत्रको बनाया । आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र – ये उनके सात पुत्र क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप, शाकद्वीप तथा पुष्करद्वीपके स्वामी हुए। कवि, महावीर और सवन- ये तीन पुत्र आजन्म ब्रह्मचारी, आत्मवेत्ता परमहंस हो गये। raja priyavrat ki katha

इतना बड़ा अखण्ड साम्राज्य, पूरे भूमण्डलका ऐश्वर्य, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि समस्त सुख और स्वर्गादि लोकोंके लोकपाल भी मित्र ही थे; किंतु भगवान्‌के परम भक्त प्रियव्रतको इन सबका तनिक भी मोह नहीं था। उन्हें लगता था कि व्यर्थ ही मैंने यह प्रपञ्च बढ़ाया। वे अपनेको गृहासक्त तथा पत्नीमें कामासक्त मानकर बराबर धिक्कारते थे। पुत्रोंको राज्य देकर वे सम्पूर्ण ऐश्वर्यका त्याग करके फिर गन्धमादनपर नारदजीके पास चले गये। भगवान्‌का निरन्तर चिन्तन करना उन्होंने अपना एकमात्र व्रत बना लिया । कर्मके द्वारा, पुण्यके द्वारा और योगके द्वारा मिलनेवाला पृथ्वी और स्वर्गादि लोकोंका समस्त भोग उन्हें प्राप्त था; किंतु उन महाभागने उसे नरकके भोगके समान मानकर त्याग दिया। परमपुरुष भगवान्‌के अनन्त सुधा-सिन्धुमें जिनका चित्त निमग्न हो गया है, वे धन्यभाग्य भगवद्भक्त ही ऐसा त्याग कर सकते हैं! raja priyavrat ki katha

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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