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maharana pratap ka vijay abhiyan

maharana pratap ka vijay abhiyan

महाराणा का विजय अभियान

जगन्नाथ कछवाहा के जाते ही राणा प्रताप फिर सक्रिय हो गए । उन्होंने मुगलों द्वारा स्थापित किए गए थानों को फिर से जीतने की योजना बनाई तो सबसे पहले उनके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सशक्त थाने देवीर को चुना। इससे पहले भी उन्होंने जब देवीर पर विजय प्राप्त की थी तो उसके साथ ही बाकी मुगल थानेदारों के छक्के छूट गए थे। देवीर का थानेदार शाहनवाज खाँ एक कुशल सेनापति और वीर योद्धा था । उसके पास देवीर की रक्षा के लिए पर्याप्त सेना थी । अपनी ताकत के घमंड में वह सोच भी नहीं सकता था कि राजपूत देवीर पर हमला कर सकते हैं। उसकी जानकारी के मुताबिक, महाराणा प्रताप और उनके सामंत अपनी सेना के साथ कहीं पहाड़ों में दुबके हुए थे। एक अफवाह यह भी थी कि राणा प्रताप परिवारसहित मेवाड़ छोड़कर कहीं और चले गए हैं। maharana pratap ka vijay abhiyan

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ये अफवाहें राजपूतों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुईं, क्योंकि जब देवीर पर आक्रमण किया गया, शाहनवाज खाँ पूरी तरह गाफिल था । उसे अपनी सेना को व्यवस्थित करके मोरचा सँभालने का मौका भी नहीं मिला। थोड़ी देर की भयंकर मारकाट से ही आतंकित होकर मुगल सेना अपाहन की तरफ भागी जहाँ उसे शरण और सहायता मिलने की आशा थी । राजपूतों ने उन पर निरंतर प्रहार करते हुए, अपाहन तक उनका पीछा तो किया ही, अपाहन पर भी आक्रमण कर दिया। अपाहन की सेना ने कुछ देर तो सामना किया, फिर उसके भी पैर उखड़ गए। प्रतिशोध के आवेश में जल रहे राजपूतों ने मुगल सैनिकों को काटकर रख दिया। यह मेवाड़ की प्रजा पर किए गए उनके अत्याचारों का दंड था। maharana pratap ka vijay abhiyan

राणा प्रताप की विजय-वाहिनी इसके बाद कमलगीर की तरफ बढ़ी। देवीर और अपाहन की पराजय की खबरें तब तक कमलगीर पहुँच चुकी थीं। दुर्गरक्षक अब्दुल्ला खाँ सावधान था और डरा हुआ भी । वह बड़ी बहादुरी से लड़ा, लेकिन युद्ध में मारा गया। कमलगीर की विजय के बाद शेष थानों को स्वतंत्र कराना सहज हो गया। एकएक करके सभी ने हथियार डाल दिए।

अकबर को ये सारे समाचार मिल रहे थे, पर इस बार उसने मेवाड़ की मुगल सेना की सहायता के लिए किसी बड़े सिपहसालार को विशाल सेना के साथ नहीं भेजा। कई बार ऐसा करके अकबर ने उसका परिणाम देख लिया था। इससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा बढ़ने के बजाय उसे धक्का ही लगा था। अकबर के सिपहसालारों ने मेवाड़ में जो नरसंहार, विध्वंस और लूटमार के कृत्य किए थे, उनसे भी बादशाह खिन्न था । उसे यह भी पता था कि स्वयं उसके दरबार के बहुत से राजपूत भी मेवाड़ के विरुद्ध इन सैनिक अभियानों से खिन्न थे। maharana pratap ka vijay abhiyan

मेवाड़ के विरुद्ध सैनिक काररवाई न करने का एक और बड़ा कारण यह था कि सन् 1579 से 1585 तक अकबर को उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात में हो रहे विद्रोह का दमन करने में व्यस्त रहना पड़ा। ऐसे में वह मेवाड़ की तरफ कोई बड़ी सेना नहीं भेज सकता था। अभी ये विद्रोह पूरी तरह दबे भी नहीं थे कि पंजाब और उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत में भी मुगलों के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। अकबर को इधर ध्यान देना पड़ा । विशेष रूप से सीमाप्रांत की तरफ जहाँ के विद्रोही कबाइलियों को किसी बड़ी सेना की सहायता से भी कुचलना आसान न था । वे जाँबाज लड़ाके तो थे ही, वहाँ का दुर्गम पर्वतीय प्रदेश उन्हें प्राकृतिक सुरक्षा भी प्रदान करता था।

परिस्थितियाँ बदल चुकी थीं। मुगलों के लिए मेवाड़ के विरुद्ध सैनिक काररवाई कराना कठिन था तो अपनी शक्ति बढ़ जाने के कारण राजपूतों के लिए अपने मेवाड़ को उनकी दासता से मुक्त कराना अपेक्षाकृत सरल हो गया था। धीरे-धीरे लगभग सारे मेवाड़ पर महाराणा प्रताप का अधिकार हो गया । महाराणा के सैन्य बल का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब वे जगन्नाथ कछवाहा और सैयद राजू की सैनिक काररवाइयों का सामना कर रहे थे, तब राठौरों ने लूना चावंडिया के नेतृत्व में उसे अच्छा अवसर समझकर प्रताप के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। महाराणा उस विकट स्थिति में भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने तत्काल मगरा के दक्षिण-पश्चिम में जाकर राठौरों को सबक सिखाना आवश्यक समझा। युद्ध में लूणा चावंडिया बुरी तरह पराजित हुआ और उसके बाद राठौरों ने कभी मेवाड़ के विरुद्ध सिर उठाने का साहस नहीं किया। यह घटना 1585 की है । maharana pratap ka vijay abhiyan

मुगलों के आधिपत्य से मेवाड़ को मुक्त कराने के इन विजयअभियानों का नेतृत्व मुख्यतः अमरसिंह ने किया और हर मोरचे पर सफल रहा। महाराणा की विजय-वाहिनी ने जगन्नाथ कछवाहा के स्थापित किए 36 मुगल थानों पर अधिकार कर लिया । चित्तौड़, मांडलगढ़ और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर शेष सारे मेवाड़ पर अब महाराणा प्रताप का अधिकार था। मुगल सेनापतियों के क्रूर अत्याचारों से मुक्ति पाकर मेवाड़ के जनसाधारण ने राहत की साँस ली । जो लोग सुरक्षा के लिए अपनी जमीनें और घर-बार छोड़कर पहाड़ों में चले गए थे, वे फिर से अपने-अपने पुश्तैनी घरों में लौटने लगे।

मेवाड़-विजय से निवृत्त होकर राणा प्रताप ने आसपास नजर दौड़ाई, आमेर के कछवाहा वंश के प्रति उनके मन में विशेष रोष था। मानसिंह, उसके बाद उसके पिता राजा भगवानदास और चाचा जगन्नाथ कछवाहा ने मेवाड़ को बड़ी निर्दयता से तबाह किया था । अकबर के हरम में जोधाबाई का डोला भेजकर और उसके साथ संधि करने के बाद राजपूतों के विरुद्ध सैनिक काररवाइयाँ करके उन्होंने राणा की नजरों में घोर अपराध किया था, जिसका दंड देने का अवसर अब आ गया था । इस समय मेवाड़ के पास पर्याप्त सैन्य बल था, जबकि कछवाहा राजपूतों को मुगल सेना से सहायता नहीं मिल सकती थी, क्योंकि अकबर ने सारी सैन्य शक्ति विद्रोहों का दमन करने में लगा रखी थी। महाराणा की सेना ने आमेर के क्षेत्रों पर आक्रमण किए, मालपुरे को लूटने के बाद पूरी तरह नष्ट कर दिया, ताकि उन्हें पता चले कि विनाश- लीला की पीड़ा क्या होती है।

जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं, बाँसबाड़ा और डूंगरपुर सदा से मेवाड़ के मित्र थे, पर राजा भगवानदास ने उन्हें मुगलों की शक्ति से भयभीत करके और अकबर के दरबार में ओहदे दिलाने एवं सुरक्षा का आश्वासन देकर मुगलों के अधीन कर लिया था। महाराणा ने इनके विरुद्ध सेना भेजकर दोनों राज्यों को आसानी से अपने अधीन कर लिया। maharana pratap ka vijay abhiyan

अब समय आ गया था जीत की खुशी मनाने का। विजयमहोत्सव गोगूंदा में मनाया गया। एक विशाल सभा में वहाँ महाराणा प्रताप ने 13 वर्षों के मुगलों के विरुद्ध संघर्ष में साथ देनेवाले सभी सामंतों से लेकर जनसाधारण तक के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने अपने वीर सामंतों को बड़ी-बड़ी जागीरें देकर पुरस्कृत व सम्मानित किया, लेकिन इसके साथ-साथ राणा प्रताप अपने साधारण से साधारण सैनिक को भी नहीं भूले ।

युद्ध में जिन सैनिकों ने असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया था, उन सबको भी पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। जो योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे, उनके परिवारों को राज्य की ओर से सहायता देने की तत्काल घोषणा की गई। युद्धकाल में उजड़े मेवाड़ के मैदानी इलाके को फिर से बसाने के लिए तत्काल कदम उठाने की घोषणा भी इस सभा में हुई। भूमिहीन किसानों को जमीन के पट्टे दिए गए, ताकि वे खेती कर सकें। जिन किसानों के पट्टे युद्धकाल में हुई आगजनी में नष्ट हो गए थे या खो गए थे, उन्हें नए पट्टे दिए गए। maharana pratap ka vijay abhiyan
धीरे-धीरे मेवाड़ की खोई हुई खुशहाली लौटने लगी । खेती की हरियाली दिखाई देने लगी और वर्षों तक फूँकी गई धरती पर फिर से किसानों के आवास दिखाई देने लगे । व्यापार तथा अन्य व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य की ओर से सहायता दी गई, ताकि मेवाड़ की खोई हुई संपन्नता लौट सके। जल की आवश्यकता पूरी करने के लिए कुएँ, बावड़ियाँ बनाने के लिए भी राजकोष से धन दिया गया । शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कई योजनाएँ लागू की गईं।

मुगलों के साथ इन 13 वर्षों के सैनिक संघर्ष में चावंड महाराणा प्रताप की गतिविधियों का कई बार केंद्र रहा । पर्वतों से घिरा यह सुरम्य एवं सुरक्षित प्रदेश उन्हें बहुत प्रिय था । महाराणा प्रताप ने यहीं अपनी नई राजधानी बनाने का निश्चय किया। चावंड मेवाड़ के मित्र राज्यों के भी पास पड़ता था। किसी भी प्रकार का संकट आने पर वहाँ से कम समय में सहायता / आपूर्ति मिल सकती थी। इसके आसपास की धरती बहुत उपजाऊ थी, जहाँ खेती करके राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों एवं सेना के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता पूरी की जा सकती थी । maharana pratap ka vijay abhiyan

चावंड में राजमहल एवं अन्य भवनों को युद्धकालीन-स्थापत्य के नमूने कहा जा सकता है। महाराणा ने अपना महल चामुंडा देवी के प्राचीन मंदिर के सामने बनवाया था। इसके निर्माण में महाराणा कुंभा और महाराणा उदयसिंह के बनवाए भवनों की स्थापत्य कला की झलक तो है, लेकिन युद्धकालीन स्थापत्य का पुट भी है, यानी राजमहल एवं महाराणा के अपने प्रमुख सामंतों के लिए बनवाए गए भवनों की रूपरेखा ऐसी तैयार की गई थी कि सुरक्षा का पूरा ध्यान रहे ।

अपने और अपने सामंतों के लिए भवनों का निर्माण कराने के साथ-साथ महाराणा प्रताप ने जनसाधारण का भी ध्यान रखा । उन्होंने चावंड को नगर का रूप दिया तो वहाँ सामान्य जन के आवास के लिए बहुत से कच्चे घर भी बनवाए । राणा प्रताप के बाद गद्दी पर बैठे महाराणा अमरसिंह के राज्यकाल में सन् 1615 तक चावंड सिसौदियावंशीय राजपूतों की राजधानी रहा। आज यह फिर से एक गाँव रह गया है, लेकिन यहाँ राजमहल एवं अन्य सामंतों की हवेलियों के खंडहर प्राचीन इतिहास की गाथा सुनाते प्रतीत होते हैं । maharana pratap ka vijay abhiyan

मेवाड़ में शांतिकाल आ गया था । वह वैभव व धन-धान्य से परिपूर्ण था। खेतों में फसलें लहलहाती थीं । व्यापार-वाणिज्य उन्नति पर था। न्यायप्रिय महाराणा स्वयं सबकी फरियाद सुनते थे। किसी के साथ अन्याय या अनुचित व्यवहार की शिकायत मिलने पर तुरंत अपराधी को दंडित किया जाता था । नैतिकता का स्तर अब पहले से भी उन्नत था, जिस कारण अपराध कम ही होते थे । बहुत से अपराध तो अभाव के कारण जन्मते थे और मेवाड़ अब अभावग्रस्त न था ।

महाराणा प्रताप ने कलाओं और साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन दिया। कवि और कलावंत न केवल राजदरबार में पुरस्कृत होते थे, उन्हें भरण-पोषण के लिए सहायता भी उपलब्ध थी । इतिहासकारों का कहना है कि न केवल महाराणा के काल में, बल्कि उसके बाद भी चावंड में ललितकलाएँ और साहित्य फूले-फले । उसका ऐसा दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा कि राजधानी बनी रहने के दो शताब्दियों बाद तक चावंड साहित्य एवं कलाओं का केंद्र बना रहा।

शताब्दियों से बाहरी आक्रमणों में ध्वस्त हुए सारे मेवाड़ का पुनर्निर्माण हो रहा था । अत: वास्तुशिल्पियों तथा अन्य कारीगरों एवं सामान्य श्रमिकों के लिए भी रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हुए। राजकोष भरपूर था और महाराणा उदारता से प्रजा के कल्याण के लिए खर्च भी कर रहे थे ।

मेवाड़ सुरक्षा के वातावरण में फूल-फल रहा था, पर राणा प्रताप उसे किसी बाहरी आक्रमण से पूर्णत: सुरक्षित बनाने के प्रयत्नों में लगे रहे। उन्होंने सेना को और सशक्त बनाने पर ध्यान दिया। मुख्य ठिकानों की मोरचेबंदी को सुदृढ़ किया और किसी संभावित आक्रमण की स्थिति में एक थाने के दूसरे के साथ संपर्क करने व तत्काल सहायता पहुँचाने की व्यवस्था की । maharana pratap ka vijay abhiyan

सौभाग्य से अकबर की तरफ से कोई भी आक्रमण मेवाड़ पर फिर कभी नहीं हुआ, पर उसकी संभावना से कैसे इनकार किया जा सकता था । संभवत: इसी कारण महाराणा प्रताप ने अपने पिता की राजधानी उदयपुर पर अधिकार कर लेने के बाद भी चावंड को ही अपनी राजधानी बनाए रखा, जो उदयपुर की अपेक्षा अधिक सुरक्षित था। इतने बड़े मुगल साम्राज्य से टक्कर लेकर अंततः विजयी होना साधारण सफलता न थी, पर अंतिम समय तक राणा प्रताप को चित्तौड़गढ़ के मुगलों के अधिकार में रहने की पीड़ा सताती रही । मेवाड़ की प्रतिष्ठा और गौरव के प्रतीक इस दुर्ग की बहुत कड़ी सुरक्षा व्यवस्था अकबर ने उसे जीतने के बाद ही कर दी थी । वहाँ एक बड़ी रक्षक सेना थी । महाराणा जानते थे कि चित्तौड़ को जीतने के प्रयास करने में बहुत अधिक रक्तपात होगा। अतः उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने के बजाय मेवाड़ के पुनर्निर्माण पर ध्यान देने को वरीयता दी ।

राणा प्रताप ने लगभग ग्यारह वर्षों तक नवनिर्मित मेवाड़ पर शासन किया। यद्यपि उनकी उम्र भी काफी हो गई थी, पर शिकार खेलने का शौक बरकरार था । ऐसे ही शिकार के समय उनके पाँव में गहरा घाव हो गया। भील घायल महाराणा को चावंड के राजमहल में ले आए। राजवैद्यों ने बहुत यत्न किए, लेकिन उनकी दशा बिगड़ती चली गई। महाराणा की चिंताजनक हालत की खबर मिलते ही दूर-दूर के मेवाड़ के सामंत भी चावंड में एकत्रित हो गए, लेकिन कोई उपचार या प्रार्थना काम नहीं आई। 19 जनवरी, 1597 को मेवाड़ को पराधीनता के अंधकार से निकालकर स्वतंत्रता के प्रकाश में लानेवाला उनका जीवनदीप बुझ गया ।

सारा मेवाड़ शोक में डूब गया। सारा राजपूत समाज अपना अनमोल रत्न खोकर स्तब्ध रह गया । राणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु सम्राट् अकबर स्वाधीनता के इस पुजारी का हृदय से प्रशंसक था । कहते हैं कि शोकाकुल अकबर दरबार में चुपचाप बैठा था, तभी उसके दरबार के एक चारण दुरसा ने महाराणा प्रताप के महाप्रयाण से भावविह्वल राजस्थानी में एक छाप्पय सुनायाः maharana pratap ka vijay abhiyan

अण लेगा अण दाग, पाग लेगो अण नाभी ।
गो आड़ा गबड़ाय, जिको बहतो धुर बायो॥
नवरोजे रह गयो, न तो आतशा न वली ।
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली ॥
गहलोत राणा जीती गयो, दशन मूँद रशनां उसी ।
नीशास मूक भरिया नयण, मृत शाह प्रताप सी ॥

(जिसने कभी अपने घोड़े शाही सेना में भेजकर दगवाए नहीं, जिसने किसी के सामने अपनी पगड़ी झुकाई नहीं; जो सदा शत्रुओं के प्रति उपहास से परिपूर्ण कवित्त ही गाता रहा, जो देश के भार की गाड़ी अपने बाएँ कंधे से ही खींचने की शक्ति रखता था, जो कभी बादशाह की खुशामद में नौरोज में हाजिर नहीं हुआ, सारी दुनिया में बादशाह के जिस झरोखे की बहुत प्रतिष्ठा थी, जो कभी उसके नीचे नहीं आयाऐसा गहलौत महाराणा प्रताप विजयी रहकर संसार से विदा हुआ। यह समाचार जानकर शहंशाह अकबर ने दाँतों तले जीभ दबा ली है और उसकी आँखों में पानी भर आया है । हे महाराणा ! तेरे निधन से ऐसा हुआ है। ) maharana pratap ka vijay abhiyan

भरे दरबार में बादशाह के सामने उस शत्रु की ऐसी प्रशंसा ! चारण दुरसा आढ़ा का यह दुस्साहस देख चारों ओर सन्नाटा छा गया। सब दरबारी साँस रोककर अकबर की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे कि उद्दंड दुरसा को बादशाह क्या सजा देता है ।

“वाह, क्या बात है ! दुरसा, तुमने तो हमारे दिल की बात को कविता में कह सुनाया। अपना छाप्पय एक बार और पढ़ो।” अकबर के मुँह से निकला ।

उसने दोबारा कविता सुनी, जी भर के उसकी और महाराणा की वीरता की प्रशंसा की और चारण दुरसा को भरपूर इनाम दिया ।

जिस महाराणा के शत्रु भी उसके वीरोचित गुणों के इतने प्रशंसक थे, उसके प्रशंसकों, अनुयायियों, परिजनों के मनोभाव क्या रहे होंगेइसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है ।

महाराणा प्रताप चले गए, पर अपनी शौर्यगाथा भारतीय इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में लिखवा गए । maharana pratap ka vijay abhiyan

bhaktigyans

My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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