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maharana pratap ka sandhipatra

maharana pratap ka sandhipatra

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संधि-पत्र

राणा प्रताप के बारे में एक दंतकथा यह भी है कि उन्होंने अकबर को संधि – पत्र लिखा था। इसका एक अधिक प्रचलित रूप इस प्रकार है

महाराणा जंगलों में भटक रहे थे । मुगलों की गिरफ्त से बचने के लिए वे अपने परिवार को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते । खाने के लाले पड़ गए थे । जब कुछ नसीब न हुआ तो घास की रोटी खानी शुरू कर दी । एक दिन महारानी ने इसी तरह घास की रोटियाँ बनाकर सब बच्चों को दीं। साथ में पहाड़ी सोते का पानी पीने के लिए दिया। राणा की छोटी बेटी ने अभी एक कौर ही खाया था कि एक वनबिलाव ने झपटकर उसकी रोटी छीन ली और जंगल में भाग गया। maharana pratap ka sandhipatra

बच्ची रोने लगी । कन्या का यह दुःख देखकर राणा प्रताप से रहा नहीं गया । वह कागज-कलम लेकर अकबर से संधि के लिए पत्र लिखने लगे। महारानी ने यह देखा तो उनका हाथ थाम लिया । कागज़ और कलम-दवात उनके समाने से उठा लीं और प्रार्थना करते हुए कहा कि कितनी ही माताओं के लाल आपके एक इशारे पर मातृभूमि की रक्षा में मर मिटे । कितनी ही युवतियों के पतियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। आप मेवाड़ के गौरव हैं, उसकी स्वाधीनता के संरक्षक हैं। झाला सरदार ने अपने प्राण आप पर क्या इसीलिए न्योछावर किए थे कि आप एक दिन कायरों की तरह शत्रु से संधि कर लें? राणा प्रताप बहुत लज्जित हुए। उन्होंने रानी से क्षमा माँगी और फिर कभी अकबर से संधि करने का विचार मन में नहीं लाए । maharana pratap ka sandhipatra

एक अन्य विवरण के अनुसार- दाने-दाने को मुहताज और आए दिन जंगलों में सपरिवार भटकते रहकर राणा प्रताप थक हार गए। उनसे जब ये घोर कष्ट सहन नहीं हुए तो अकबर को संधि – पत्र लिख भेजा। अकबर के दरबार में संधि-पत्र आया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसे राणा प्रताप से ऐसी आशा न थी । पत्र की सत्यता जानने के लिए शहंशाह अकबर ने अपने दरबारी बीकानेर नरेश के भाई पृथ्वीराज को यह पत्र दिखाया, जो प्रताप के हस्ताक्षर पहचानते थे । वह राणा प्रताप के निकट संबंधी और उनका अत्यंत आदर-मान करनेवालों में से थे। महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह की बेटी सुंदरदे उनकी पत्नी थी । इस नाते वह राणा के प्रताप की भतीजी थी । अतः परिवार के दामाद होने के नाते पृथ्वीराज राणा प्रताप, शक्तिसिंह व उनके अन्य भाइयों को व्यक्तिगत रूप से जानते भी थे और उनके हस्ताक्षरों व लिखावट से भी परिचित थे । देखने में उन्हें पत्र के हस्ताक्षर महाराणा प्रताप के ही लगे, पर विश्वास नहीं हुआ कि राणा प्रताप जैसा वीर, स्वाभिमानी ऐसा कर सकता है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये राणा प्रताप के हस्ताक्षर नहीं। सारा संधि-पत्र जाली प्रतीत होता है। maharana pratap ka sandhipatra

अकबर की अनुमति से पृथ्वीराज वह पत्र घर ले आए और अपनी पत्नी सुंदरदे को दिखाया। सुंदरदे को इस बात पर बहुत गर्व था कि वह महाराणा प्रताप की भतीजी है, जिन्होंने कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की। उसने पति से कहा कि हस्ताक्षर तो ताऊजी के ही लगते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जरूर किसी ने यह जालसाजी की है। हूबहू उनकी लिखावट में पत्र लिखकर और उनके हस्ताक्षर बनाकर सम्राट् अकबर को भेजा है। आप महाराणा को एक पत्र लिखकर इस संधि-पत्र की सच्चाई का पता लगाएँ। इस पर पृथ्वीराज ने, जो एक अच्छे कवि थे, कविता की अत्यंत प्रेरक भाषा में एक पत्र लिखकर उसी दूत के हाथों महाराणा को भेज दिया, जो संधि – पत्र लेकर आया था।

पृथ्वीराज द्वारा महाराणा को कविता में लिखे पत्र का भावार्थ कुछ इस प्रकार था कि अकबर ने हमारे धर्म और कुल- गौरव को खरीद लिया है, लेकिन वह उदयपुर के राणा प्रताप को नहीं खरीद सका । जिस प्रताप ने अपना सर्वस्व त्याग दिया है, क्या वह भी अब अपने स्वाभिमान का सौदा करना चाहता है ? यदि महाराणा रूपी सूर्य ही अस्त होने को आ गया तो संसार को उजाला देनेवाला कौन बचेगा? इस पत्र की ये पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुईं, जिनका उद्धरण आज भी राजस्थान में पुराने लोग देते हैं—

अकबर समंदर अथाह, तिहं डूबा हिंदू तुरक । मेवाड़ो विन माह, पोयण फूल प्रताप सी ॥
( अकबर अथाह समुद्र है जिसमें हिंदू-तुर्क सब डूब गए, पर मेवाड़ का अधिपति राणा प्रताप कमल पुष्प के समान उसके ऊपर शोभायमान है।)

इस पत्र की दो पंक्तियाँ और जो अकसर सुनी जाती हैं, वे हैंअकबरिए इणबार दागल की सारी दुणी । अण दागल असबार, रहियो राणा प्रताप सी ॥ ( अकबर ने सारे संसार को कलुषित-कलंकित कर दिया है। हे अश्वारोही राणा प्रताप ! सदा निष्कलंक बने रहना ।) नीचे की पंक्ति का एक पाठ्यांतर इस प्रकार भी हैं अण दागर असवार, चेतक राणा प्रताप सी ॥ (किंतु चेतक घोड़े की सवारी करनेवाले राणा प्रताप निष्कलंक बने रहे।) maharana pratap ka sandhipatra

पत्र के अंत में पृथ्वीराज ने राणा प्रताप से पूछा कि जिस प्रकार सूर्य का पश्चिम से उदय होना असंभव है, उसी प्रकार राणा प्रताप के मुख से अकबर के लिए बादशाह शब्द निकलना भी असंभव ही है । हे एकलिंग के दीवान, आप मुझे लिखकर भेजें कि क्या ऐसा हुआ है? मैं अपनी मूँछों पर ताव दूँ या अपने शरीर को तलवार की भेंट कर दूँ (आत्महत्या कर लूँ) ?

पातल जो पतसाह, बोलै मुख हुआ बयण । मिहर पछम स माह, उमैं कासप राव उत ॥ पटकूँ मूँछा पाण, कै पटकूँ निन तन करद । दीजै लिख दीवाण, इन माँहली बात इक ॥ पृथ्वीराज का पत्र मिलने तक महाराणा अपनी क्षणिक कमजोरी से उबर चुके थे और उन्होंने मुगलों के साथ संघर्ष जारी रखने और मेवाड़ की स्वाधीनता बनाए रखने का अडिग निश्चय कर लिया था। इस पत्र ने उनमें और भी उत्साह भर दिया। उन्होंने दूत के हाथों अपना उत्तर भेजा maharana pratap ka sandhipatra

तुरक कहासी मुख पतों इण तन सूँ इकलिंग। ऊगै जाहीं अगसी, प्राची बीच पतंग ॥ खुशी हूंत पथिल कमध, पटको मूँछां पाण। पथरण है जेतैं पतौ, कलमां सिरकै वाण ॥ (इस मुख से भगवान् एकलिंग बादशाह को तुर्क ही कहलवाएँगे । सूर्य सदा पूर्व दिशा से ही उगेगा। हे वीर राठौर, जब तक राणा प्रताप की तलवार मुगलों के सिर पर है, आप अपनी मूँछों पर ताव देते रहें । ) यह सारी कहानी कहने-सुनने में भले ही दिलचस्प लगे, लेकिन एकदम मनगढंत है । पहली बात तो यह कि राणा प्रताप की कोई बेटी नहीं थी, फिर उसकी घास की रोटी बिलाव छीनकर कैसे ले गया? घास की रोटी कैसे बनती है और बिलाव घास की रोटी पसंद करता है, यह भी अटपटा ही लगता है । मेवाड़ के पर्वतीय वनों में कई तरह के फल-मूल उत्पन्न होते हैं, जिन्हें भील बड़े शौक से खाते हैं। अपने महाराणा के लिए प्राण न्योछावर करने को तत्पर भील क्या उनको और उनके परिवार को ये फल आदि नहीं दे सकते थे, जो उन्हें घास की रोटी खानी पड़ती ?

यह बात सच है कि संसाधनों की कमी थी । इसीलिए राणा प्रताप ने बहुत बड़ी सेना का गठन नहीं किया, लेकिन जो छापामार सेना थी, वह भी तो बहुत छोटी न थी । उसका वेतन, रसद आदि का प्रबंध अगर राणा प्रताप नहीं करते थे तो कौन करता था ? भले ही ये युवक राणा के अंधभक्त या अनन्य देशप्रमी रहे हों, लेकिन यह विश्वसनीय नहीं लगता कि वर्षों तक उन्होंने बिना वेतन के संघर्ष किया । आखिर उनके परिवार भी होंगे जिनके लिए उन्हें कम-से-कम अनिवार्य वस्तुओं की जरूरत तो पड़ती ही होगी ।

जिस पराक्रम से ये छापामार युवक मुगलों से लड़ते थे, उससे पता चलता है कि वे बहुत हृष्ट-पुष्ट और बली रहे होंगे । पर्याप्त भोजन मिलने पर ही कोई सैनिक हृष्ट-पुष्ट रह सकता है। अगर वे अपने दम पर भी पर्याप्त भोजन कर लेते थे तो क्या अपने महाराणा को घास की रोटी खाने देते? maharana pratap ka sandhipatra

राणा प्रताप ने आदेश जारी किया था कि कोई भी किसान, जिस क्षेत्र पर मुगलों ने अधिकार कर लिया है, वहाँ फसल नहीं उगाएगा । उनकी आज्ञा पाकर बहुत से किसानों ने पर्वतीय प्रदेश में आकर जो थोड़ी-बहुत धरती मिली, उस पर खेतीबारी की । इनसे कहा गया कि अगर आपको अन्न की कमी हो तो राजकीय भंडार से अन्न ले सकते हैं, यानी राणा के अपने भंडार में इतना अन्न था कि प्रजा की आवश्यकता पर उसे दिया जा सके। उत्तर में कुंभलगढ़ से लेकर दक्षिण में ऋषभदेव तक के 90 मील लंबे और पूर्व में देवरी से पश्चिम में सिरोही सीमा तक 70 मील चौड़े प्रदेश में राणा प्रताप का शासन था । इतने बड़े क्षेत्र में बहुत लोग रहते होंगे । इन प्रजाजनों की अन्न की कमी होने पर सहायता करने की क्षमता राणा प्रताप में थी यानी उनके भंडार में भरपूर अनाज था और बाहर से अनाज मँगाने के जरिए भी थे । इतने बड़े क्षेत्र के शासक को भोजन की कमी कैसे हो सकती थी? यह और बात है कि राणा प्रताप अपनी प्रतिज्ञा के कारण विलासिता का जीवन व्यतीत नहीं करते थे। उनका और उनके परिवार का रहन-सहन, खान-पान सामान्य जन जैसा ही था । maharana pratap ka sandhipatra

राणा प्रताप के शासनवाले इस क्षेत्र में सैकड़ों गाँव पहाड़ियों के बीच समतल भूमि में थे, जहाँ के किसान चावल, चना, मकई की खेती करते थे । यहाँ प्राकृतिक जलस्रोतों की भी कमी नहीं थी। अतः फसल अच्छी होती थी। कुछ इतिहासकारों ने कहा है कि चारों तरफ से मुगलों की नाकेबंदी की वजह से प्रताप दाने-दाने को मोहताज हो गए थे । अगर लाखों की सेना थी तो इस पर्वतीय प्रदेश की चारों तरफ से नाकेबंदी नहीं कर सकती थी । दरअसल मेवाड़ का उत्तर पूर्वी क्षेत्र ही मुगल सेना से घिरा हुआ था। शेष क्षेत्र उससे मुक्त था और सिरोही, ईडर, मालवा की तरफ से अन्न तथा आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ मँगाने की सुविधा थी। अगर ऐसा नहीं होता तो चारों तरफ से घिरकर और दाने-दाने को मोहताज होकर कोई वर्षों तक इतनी बड़ी मुगल सेना से टक्कर कैसे लेता? या तो वह आत्मसमर्पण करता या फिर राजपूती परंपरा के अनुसार शत्रु पर टूट पड़ता। भले ही उनमें से हरेक योद्धा वीरगति ही क्यों न पाता।

राणा प्रताप के राजकोष में राणा कुंभा और राणा साँगा के समय का बहुत सा संचित धन था जो उनके विश्वस्त भामाशाह की देख-रेख में सदा सुरक्षित रहा। उसकी गंध तक मुगलों को नहीं लगी । इसके अलावा स्वयं भामाशाह के पास और राणा के अन्य सामंतों के पास भी अपने पुरखों का कमाया पर्याप्त धन था। क्या वे फिर भी महाराणा और उनके परिवार को विपन्न अवस्था में रहने देते? maharana pratap ka sandhipatra

मेवाड़ के अलावा मेवाड़ के बाहर भी उनके बहुत से मित्र थे । स्वयं अकबर के दरबार में रहनेवाले कई राजपूत भी राणा के प्रशंसक ही नहीं बल्कि भक्त थे । आवश्यकता पड़ने पर वे भी उनकी गुप्त सहायता कर सकते थे। राणा ने अकबर के विरुद्ध जो इतना लंबा संघर्ष करके मेवाड़ को सदा स्वतंत्र रखा और राजपूती आन की रक्षा की, उसके लिए संभव है कि अकबर के दरबार के कुछ राजपूतों से भी उन्हें किसी-न-किसी प्रकार की गुप्त सहायता मिलती रही हो ।

टॉड ने अपने राजपूताना के इतिहास में इस घटना का वर्णन किया है, लेकिन यह नहीं बताया कि ऐसी जानकारी उन्हें कहाँ से मिली, जबकि किसी भी अन्य इतिहासकार ने इसका वर्णन नहीं किया । राणा प्रताप के संधि-पत्र लिखने की दंतकथा अवश्य है, पर यह भी काल्पनिक ही लगती है। अगर उन्होंने कभी सम्राट् अकबर को कोई संधि-पत्र लिखा होता तो क्या अकबर के दरबार के मुसलिम इतिहासकार इसका जिक्र न करते ? maharana pratap ka sandhipatra

दरअसल, राणा प्रताप को मुगलों से दबने या संधि करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मेवाड़ के पर्वतीय प्रदेश पर उनका सदा अधिकार रहा, जहाँ राणा प्रताप व उनके सभी सामंत एवं उन सबके परिवार पूर्ण सुरक्षा में रहे। इन दुर्गम प्रदेशों में मुगलों की घुसपैठ संभव न थी, न ही उन्हें या उनके सामंतों को कभी किसी चीज का अभाव रहा।

सवाल उठता है कि जब वास्तविकता यह थी तो फिर मेवाड़ के इस प्रतापी महाराणा की इतनी दयनीय स्थिति की आधारहीन कहानी कैसे फैली, जो टॉड के कानों तक पहुंची और उन्होंने उसे इतिहास बना दिया? अकबर अपनी सारी शक्ति लगाकर भी राणा प्रताप को झुका नहीं सका था। मेवाड़ के स्वाधीन रहने से मुगल साम्राज्य को इतना नुकसान नहीं हो रहा था, जितनी उसके अहं को चोट पहुंची थी। ऐसा लगता है कि इस असफलता से हताश अकबर के घायल अहं की तुष्टि के लिए कुछ चाटुकारों ने ऐसे किस्से गढ़कर सम्राद को सुनाए कि आपकी सेना से चारों तरफ से घिरकर प्रताप दाने-दाने को मोहताज हो गया है। उसके परिवार को रोटी तक नसीब नहीं होती। वह आपके भेजे सिपहसालारों से बचने के लिए जंगलों में मारा-मारा फिर रहा है आदि। इसके अलावा और भी कहानियाँ विभिन्न रूपों में प्रचलित हो गई। maharana pratap ka sandhipatra

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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