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maharana pratap ka sandhi prastav

maharana pratap ka sandhi prastav

संधि प्रस्ताव

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अकबर के राज्यकाल तक मुगल साम्राज्य दूर-दूर तक फैल चुका था। ऐसे में छोटे से मेवाड़ का अधीनता स्वीकार न करना उसे बुरी तरह अखर रहा था । प्रताप इस बात को अच्छी तरह जानते थे और यह भी कि मेवाड़ कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं करेगा, भले ही स्वाधीनता की कुछ भी कीमत चुकानी पड़े। यानी उनके साथ भावी परिणाम आईने की तरह साफ था | देर-सबेर मुगलों से युद्ध की स्थिति आने पर क्या मेवाड़ अपनी वर्तमान स्थिति में मुगलों से टक्कर लेने लायक था? बिलकुल नहीं ।
अतः महाराणा प्रताप की पहली वरीयता अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने की थी। इसके लिए एक सुगठित, प्रशिक्षित सेना की आवश्यकता थी। सेना के पुनर्गठन और सशक्तीकरण के लिए संसाधनों की आवश्यकता थी, जो इस विपन्नावस्था में मेवाड़ के पास खत्म ही थे । राज्य का अधिकांश उर्वर व मैदानी भाग मुगलों के आधिपत्य में था। आए दिन के आक्रमणों और सैनिक झड़पों के चलते नागरिक अपने घर-द्वार से उजड़ चुके थे। उनमें से बहुत से पर्वतीय क्षेत्र की सुरक्षा में शरण लेकर किसी तरह जीवनयापन के लिए हाथ-पैर मार रहे थे। ऐसी स्थिति में भी उन्होंने यथासंभव सेना को सुगठित करने का प्रयास किया। नई भरती की गई, उन्हें अस्त्र-शस्त्र और प्रशिक्षण दिया गया। अपने सीमित साधनों में इस कार्य को सफल बनाने के लिए प्रताप ने संसाधनों की अपेक्षा नैतिक बल का सहारा अधिक लिया। मेवाड़ के बारे में यथा राजा तथा प्रजावाली बात चरितार्थ हुई। उदयसिंह ने भले ही मेवाड़ की सुरक्षा के लिए प्रयास किए हों, लेकिन देशरक्षा के लिए पराक्रम या बलिदान की भावना का प्रदर्शन कभी नहीं किया। अतः प्रजाजनों में भी निराशा का वातावरण व्याप्त हो गया। जबकि ऐतिहासिक परंपरा बताती है कि उन्होंने न केवल सामान्य जन में अपने देश की रक्षा के लिए जन-जन का आह्वान किया, बल्कि स्वयं भी मेवाड़ के पूर्णत: स्वतंत्र न होने तक हर प्रकार के राजसी सुख-भोग से दूर रहने की प्रतिज्ञा कर ली। उन्होंने सोने-चाँदी के पात्रों में राजसी व्यंजनों का आनंद न लेने और मखमली सेज पर न सोने तक की प्रतिज्ञा कर ली। कहा जाता है कि राणा की इस प्रतिज्ञा की डोंडी पिटवाकर सारी जनता को सूचना दी गई, जिसका बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने स्वयं भी जगह-जगह जाकर जन-जागरण अभियान चलाया। नए महाराणा की वीरता, स्वतंत्रता के प्रति उनकी अटूट लगन और विनम्रता के चर्चे तो उनके युवराज होने के समय से ही घर-घर में हो रहे थे। उनके राजसी सुखों के त्याग की घोषणा ने इसे और बल दिया। maharana pratap ka sandhi prastav

मेवाड़ के एक बड़े पर्वतीय वन प्रदेश में भील बसते हैं। इनकी अपनी युद्धकला है। ये धनुष-बाण के प्रयोग में अत्यंत प्रवीण और अचूक निशानेबाज होते हैं। पहाड़ों और जंगलों के बीहड़ रास्तों की जानकारी तथा उनके प्रयोग में तो स्वभावत: इनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। किशोरावस्था से ही राणा प्रताप की कई भील सरदारों से बहुत घनिष्ठता रही। वे मेवाड़ के महाराजकुँवर के सहज स्नेह और विनम्रता से अभिभूत थे। महाराणा ने मेवाड़ की रक्षा के लिए इनका सहयोग चाहा तो एक-एक भील मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने को तत्पर हो गया। maharana pratap ka sandhi prastav

काफी कुछ हुआ, पर यह अब भी नाकाफी था, क्योंकि विशाल मुगल साम्राज्य और छोटा सा मेवाड़ | ऐसे शक्ति- असंतुलन में अपनी स्वाधीनता की रक्षा करना एक कड़ी चुनौती थी । प्रताप ने मेवाड़ के हितैषी और राजपूती आन की रक्षा का संकल्प लेनेवाले सभी रावराजाओं के साथ अपने संबंध और घनिष्ठ बनाने तथा उन्हें भी आने वाले संकट के प्रति सचेत करने के प्रयास भी तेज कर दिए। कुंभलगढ़ में दोबारा अपना राज्याभिषेक कराने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यही थी। इस बहाने उन्होंने बूँदी, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, रणथंभौर के चौहानों, ईडर और सिरोही के देवड़ा तथा कुछ अन्य राव व रावलों से घनिष्ठ मित्रता के संबंध बनाए । प्रताप के मामा जोधपुर के राव चंद्रसेन तो उनके अपने थे ही । एक तो पारिवारिक रिश्तेदारी, दूसरे विचारों में साम्यता । राव चंद्रसेन और प्रताप की घनिष्ठता स्वाभाविक ही थी । चंद्रसेन भी किसी कीमत पर मुगलों की पराधीनता स्वीकार करने को तैयार न थे, भले ही उसके लिए कितना ही बड़ा त्याग क्यों न करना पड़े। maharana pratap ka sandhi prastav

अकबर मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए व्याकुल हो रहा था। उसने उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। छोटा सा मेवाड़ इतने बड़े मुगल साम्राज्य के सामने न झुके – यह उसे सहन नहीं हो रहा था। उसने उम्मीद की थी कि शायद हमले के खतरे को टालने के लिए राणा प्रताप खुद उसके पास संधि- प्रस्ताव भेजेगा। शायद उसे समझने में समय लगा कि उदयसिंह और प्रताप में कितना फर्क है। उसके सामने दो विकल्प थे – सीधे मेवाड़ पर चढ़ाई करके उस पर अधिकार करना या फिर राणा से संधि करके उसे अपने अधीन करना।

अकबर सीधे प्रताप से टकराना नहीं चाहता था। चित्तौड़ विजय का कड़वा स्वाद वह भूला न था। हालाँकि उसकी विजय हुई थी, पर यह जीत उसे इतनी महँगी पड़ेगी, इसकी उसने कभी कल्पना तक न की होगी। और फिर जीतने के बाद उसे मिला था एक खाली दुर्ग, चिता की राख और 30 हजार निरीह नागरिक, जिनका नरसंहार करके उसने अपनी खीज मिटाई थी । maharana pratap ka sandhi prastav

दूरदर्शी और कूटनीतिज्ञ अकबर को यह भी मालूम था कि मेवाड़ घराने के लिए राजपूतों के मन में बहुत आदर- मान है। स्वयं मुगलों के अधीन बहुत से राजपूत भी राणा प्रताप का आदर करते हैं। मुगलों की विशाल शक्ति का सामना करने का साहस न जुटाने के कारण वे अकबर के अधीन तो हो गए थे, लेकिन स्वतंत्रता और निर्भय रहने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध प्रताप का वे हृदय से सम्मान करते थे। मेवाड़ पर चढ़ाई करके वह इनमें असंतोष की भावना नहीं फैलाना चाहता था, इसलिए प्रताप की ओर से कोई प्रस्ताव न आने पर उसने अपनी तरफ से संधिप्रस्ताव भेजने का निर्णय किया ।

महाराणा प्रताप के सामने भी दो विकल्प थे- या तो वे अन्य राजपूतों की तरह अकबर से संधि करके इस अधीनता के बदले अपने और अपनी प्रजा के लिए सुख-चैन खरीद लेते या स्वतंत्र रहकर संघर्ष का कंटकाकीर्ण मार्ग अपनाते। अकेले महाराणा तो ऐसा निर्णय ले नहीं सकते थे। आखिर बिना सामंतों और प्रजाजनों के सक्रिय सहयोग के यह कैसे संभव था? अतः उन्होंने अपने सभी सामंत – सरदारों, मेवाड़ के सहयोगी राव – रावलों और प्रजाजनों का मन टटोला । परामर्श एक ही था, “पराधीनता स्वीकार करने के बजाय मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना श्रेयस्कर समझेंगे ।” उनके सैनिकों ने ही नहीं प्रजा के हर साधारण जन ने भी यही भाव व्यक्त किए। भील तो अधीनता को कभी स्वीकार नहीं करते थे। अपने महाराणा के लिए सर्वस्व अर्पण करने को वे सदा तत्पर रहते थे। यह महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व का करिश्मा तो था ही, मेवाड़ की परंपरा भी थी । त्याग, बलिदान आत्मोत्सर्ग की भावना रक्त बनकर प्रत्येक मेवाड़वासी की रगों में प्रवाहित हो रही थी। इसने प्रताप का उत्साह दोगुना कर दिया। निर्णय हो गया। अब केवल उसके अनुरूप यथासंभव तैयारी करने की आवश्यकता थी । maharana pratap ka sandhi prastav

अकबर ने महाराणा के सिंहासनारूढ़ होने के लगभग छह महीने बाद ही सितंबर, 1572 में उनके सामने संधि – प्रस्ताव रखने के लिए अपने मिठबोले और घाघ दरबारी जलाल खाँ कोरची को मेवाड़ भेजा। उसके साथ राजदरबारों की रीति-नीति में दक्ष कुछ अन्य दरबारी भी थे। महाराणा ने कोरची और उसके साथियों का उचित आदर-सत्कार किया और शाही अतिथिशाला में उनके लिए अनेक सुविधाओं की व्यवस्था कर दी। कोरची ने अपने शब्दों की चाशनी में डुबोकर प्रताप को मुगलों की अधीनता का कड़वा पेय पिलाने की पूरी कोशिश की। उसने अत्यंत विनम्रता के साथ आदरणीय महाराणा को सम्राट् अकबर महान् के साथ संधि करने के लाभ और संधि न करने से उनको और उनकी प्रजा को होनेवाले संभावित कष्टों के बारे में समझाया।

समय-समय पर प्रताप के साथ बैठे प्रमुख सामंतों और कोरची के साथ आए उसके सहयोगियों में वार्ता के दौर चलते रहे। महाराणा उनकी हर बात को बड़े ध्यान से सुनते थे, पर कोई ठोस प्रतिक्रिया कभी भी व्यक्त नहीं करते थे । कोरची ने अपने प्रयास जारी रखे। वह सकारात्मक या नकारात्मक कोई-न-कोई जवाब चाहता था। लगभग दो महीने बीत जाने पर उसने निश्चित उत्तर के लिए प्रताप से बहुत आग्रह किया तो वे बोले, “खाँ साहब, मेवाड़ के शासक तो भगवान् एकलिंग हैं। मैं तो उनका दीवान हूँ। जब तक मुझे उनकी तरफ से कोई निश्चित उत्तर नहीं मिल जाता, मैं आपको क्या जवाब दूँ?” maharana pratap ka sandhi prastav

कोरची को कुछ समझ में नहीं आया । यह कोई राजपूती पहेली थी, जो उसने आज तक नहीं सुनी थी। समझ में आया तो सिर्फ इतना कि राणा कभी जवाब न देंगे। निराश होकर उसने अगले दिन अपना बोरिया बिस्तर समेटा और दिल्ली की राह ली।

कोरची की असफलता से अकबर निराश नहीं हुआ। उसे लगा कि संधि-वार्ता के लिए किसी राजपूत को भेजना चाहिए था। कुछ सोचविचार करने के बाद उसने कुँवर मानसिंह को इस काम के लिए चुना। maharana pratap ka sandhi prastav

1573 ई. में मानसिंह ने एक बड़ी सेना लेकर शोलापुर पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। इसके बाद उसने अंगरक्षकों की एक छोटी टुकड़ी अपने पास रखकर शेष सेना को अकबर के पास लौट जाने का आदेश दिया। इतनी समझ उसे भी थी कि मेवाड़ की दिशा में दल-बल सहित आगे बढ़ने का अर्थ क्या लगाया जा सकता है। महाराणा प्रताप को मानसिंह के अकबर का दूत बनकर आने की सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्होंने अपने पुत्र अमरसिंह को आदेश दिया कि मानसिंह का उदयपुर आने पर भव्य स्वागत किया जाए। सारी तैयारियाँ हो गईं। अमरसिंह ने कुँवर मानसिंह की अगवानी की और उसे बड़े आदर के साथ दरबार में ले आया, जहाँ स्वयं महाराणा और उनके प्रमुख सामंतों ने उसका स्वागत किया।

जलाल खाँ कोरची और मानसिंह में बहुत अंतर था । जहाँ जलाल में खाँ मृदुभाषी विनम्र था, मानसिंह मुगल साम्राज्य की अपरिमित शक्ति के नशे में चूर था । अकबर का एक प्रमुख सेनापति होने के नाते वह कई विजय अभियानों पर गया था और मुगलवाहिनी व अपने रणकौशल के दम पर उसने जगह-जगह जीत के झंडे लहराए थे । वह यह मानकर आया था कि मेवाड़ जैसा छोटा सा राज्य उसके विनम्र प्रस्ताव में छिपी धमकी से भयभीत होकर संधि के लिए राजी हो जाएगा। उसकी भाषा में किसी दूत की विनम्रता के स्थान पर ताकत के बल पर अपनी बात मनवाने की खनक ज्यादा थी। maharana pratap ka sandhi prastav

पहले दिन की बैठक में ही मानसिंह और उसके साथ आए दरबारियों ने महाराणा के सामने प्रस्ताव रखे। इनका सारांश यह था कि महान् मुगल सम्राट् को मेवाड़ के वीर शिरोमणि राणा से संधि करके अतीव प्रसन्नता होगी। यदि आपस में विवाह संबंध हो जाएँ तो यह मैत्री स्थायी और प्रगाढ़ हो सकती है। इतना सुनना था कि राणा के सामंतों की त्यौरियाँ चढ़ गईं। पर प्रताप के संकेत पर सब शांत हो गए। इसके साथ ही यह विकल्प भी था कि यदि महाराणा को विवाह संबंधवाला प्रस्ताव किसी कारण से उचित नहीं लगता तो यह संधि की अनिवार्य शर्त नहीं है । वह अकबर के दरबार में हाजिरी दें और शहंशाह उन्हें ऊँचा रुतबा देंगे । दरबार में उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही उनका मान-सम्मान रहेगा। इसके साथ ही मानसिंह के साथ आए दरबारियों ने राणा को दी जानेवाली जागीर, पदवी तथा अन्य भेंटों के बारे में विस्तृत जानकारी दी।

महाराणा प्रताप सारी बात ध्यानपूर्वक सुनते रहे। उसके बाद उन्होंने इतना ही उत्तर दिया कि अपने सभी सामंतों से परामर्श करने के बाद ही वे कोई निर्णय कर सकेंगे। अमरसिंह ने दिल्ली दरबार से आए मेहमानों के आतिथ्य का बहुत अच्छा प्रबंध कर रखा था । मानसिंह की सुखसुविधा और आमोद-प्रमोद का वह स्वयं ध्यान रख रहा था। उसे पता था कि मानसिंह को शिकार खेलने का बहुत शौक है, इसलिए उसने उसका भी विशेष प्रबंध किया था । maharana pratap ka sandhi prastav

तीन दिन बीत गए, लेकिन कोई निश्चित उत्तर मानसिंह को न मिला । वह समझ गया कि महाराणा प्रताप उसका प्रस्ताव कभी नहीं मानेंगे । वह केवल टालमटोल कर रहे हैं। कोरची को उन्होंने दो महीने तक इसी तरह टाला था । उसमें इतना धैर्य नहीं था । वह बुरी तरह चिढ़ गया। अपना प्रस्ताव न माने जाने को उसने व्यक्तिगत अपमान समझा। उसकी बुआ जोधाबाई की शादी उसके पिता ने अकबर से कर दी थी, इस नाते वह खुद को शहंशाह का निकट संबंधी समझता था। इसके अलावा वह सम्राट् अकबर का चहेता तो था ही। बारह बरस की छोटी सी उम्र में ही अकबर की चाकरी में आए मानसिंह को पराधीनतास्वाधीनता का अंतर समझ में नहीं आ सकता था । संधि- प्रस्ताव को टालना उसे महाराणा की हठधर्मिता ही लगा। विदाई का दिन आने पर अमरसिंह ने उदयसागर के किनारे अतिथियों के लिए विशेष भोज का आयोजन किया। झील के किनारे लगाए गए सुंदर गलियारे में अतिथियों एवं उनके साथ भोजन करनेवाले सामंतों के लिए आसन लगाए गए और परंपरागत तरीके से भोजन करने के लिए इनके सामने चौकियाँ रखकर सोने-चाँदी के बरतनों में भोजन परोसा गया । मानसिंह राणा प्रताप के आने की प्रतीक्षा कर रहा था । जब कुछ देर बाद भी राणा प्रताप नजर नहीं आए तो उसने पूछा, “अमरसिंह, भोजन तक तो बहुत सुंदर आयोजन हुआ है, पर अभी तक राणा प्रताप नहीं आए?

अमरसिंह ने अत्यंत विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर निवेदन किया, “कुँवरजी, मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ। आपके साथ भोजन भी अवश्य करूँगा। पिताश्री उदरशूल से परेशान हैं। अत: नहीं आ सकेंगे।” इतना सुनना था कि मानसिंह के तन-बदन में आग लग गई । वह समझ गया कि राणा प्रताप उसके साथ बैठकर भोजन करने में अपना अपमान समझते हैं। वह म्लेच्छ जो है । वह सामने परोसा गया भोजन छोड़कर उठ खड़ा हुआ और बोला, “कोई बात नहीं, कुँवर अमरसिंह, मैं जा रहा हूँ। अब दिल्ली से उनके पेटदर्द की दवा लेकर ही आऊँगा ।” maharana pratap ka sandhi prastav

अमरसिंह तो खून का घूँट पीकर चुप रहा, लेकिन एक राजपूत सामंत जो मुगलों की अधीनता स्वीकार करनेवाले के साथ बैठकर भोजन करने की विवशता से क्षुब्ध था, चुप न रह सका । उसने आगे बढ़कर कहा, “कुँवर मानसिंह, अगर आप दवा लेकर अकेले आए तो हम मालपुरा में आपका स्वागत करेंगे। अगर अपने फूफा के साथ आए तो जहाँ भगवान् एकलिंग को मंजूर होगा, वहाँ आपका भरपर स्वागत किया जाएगा।” maharana pratap ka sandhi prastav

मानसिंह और उसके साथ आए सभी दरबारियों के जाने के बाद सारा भोजन फेंकवा दिया गया। महाराणा प्रताप के आदेश के अनुसार दरबार कक्ष, अतिथिशाला और भोजन के स्थान को बार-बार गंगाजल से धुलवाकर पवित्र किया गया ।

मानसिंह ने प्रताप की हठधर्मिता और उसके साथ बैठकर भोजन न करने के अपमान की कहानी थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर अपने फूफा अकबर से बयान की । अकबर को समझते देर न लगी कि युवा मानसिंह को दूत बनाकर भेजने में उससे भूल ही हुई है। मानसिंह युद्धों के लिए एक योग्य सेनापति तो था, लेकिन संधि-वार्ता के लिए योग्य दूत नहीं हो सकता था। उसे उम्मीद थी कि अपने से बड़े प्रताप के प्रति विनम्रता दिखाकर और उनका सजातीय राजपूत होने के नाते अपनी ही भाषा में उन्हें ऊँच-नीच समझाकर मानसिंह संधि के लिए राजी कर लेगा, परंतु मानसिंह से मिले विवरण और उसके साथ गए अन्य दरबारियों से मिली विस्तृत सूचना के आधार पर उसे पता चल गया कि मानसिंह दूत न बनकर मुगल सम्राट् का प्रतिनिधि बनकर उदयपुर गया और उसने महाराणा के सामने विनम्र प्रस्ताव रखने के बजाय अहंकार भरी आदेशात्मक भाषा का प्रयोग किया था। राजनय के अनुरूप कुँवर मानसिंह का मेवाड़ के राजकुँवर अमरसिंह द्वारा स्वागत करना और उसके साथ बैठकर भोजन करने का प्रस्ताव रखना बिलकुल न्यायोचित था। महाराणा प्रताप के उसके साथ भोजन न करने से उसका कोई अपमान न हुआ था, पर वह चुप रहा । संधि-वार्त्ता भंग होने का तो उसे खेद रहा, लेकिन मानसिंह का बदला लेने का इरादा प्रकट होने से अकबर खुश ही हुआ । समय आने पर अब वह राजपूत को राजपूत से लड़ा सकेगा, पर अभी तो किसी वरिष्ठ और अनुभवी राजपूत को दूत बनाकर एक बार फिर मेवाड़ भेजना चाहिए। शायद राणा प्रताप ने इस बीच सोच विचार करके मुगलों की विशाल शक्ति से टकराने और पराजित होने के बजाय संधि का अपना मन बना लिया हो । maharana pratap ka sandhi prastav
उसने इस बार मानसिंह के पिता राजा भगवानदास को संधिप्रस्ताव के साथ भेजने का निर्णय लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार मानसिंह भगवानदास का भतीजा था, जिसे वह पुत्र ही मानते थे । आमेर के राजवंश का जहाँ अकबर से अब घनिष्ठ संबंध था, वहीं कभी उसका मेवाड़ के राजवंश से भी गहरा नाता था । आमेर के कछवाहा राजपूत कभी राणा साँगा के दरबार में हाजिरी भरते थे और उनके साथ किसी भी युद्ध में सहयोग करने को तत्पर रहते थे । मेवाड़ की शक्ति क्षीण हो जाने पर और अकबर के समय में मुगलों का अपरिमित सैन्य बल देखकर वे उसके साथ ही हो गए थे। उनकी समझ में आ गया था कि मेवाड़ की सारी सम्मिलित शक्ति भी अकबर को पराजित नहीं कर सकती। राणा प्रताप की स्वाधीनता की लगन उन्हें हठधर्मिता और मूर्खता ही नजर आती थी । maharana pratap ka sandhi prastav

अकबर का आदेश पाकर राजा भगवानदास ने अक्तूबर 1573 में मेवाड़ की तरफ कूच किया । मानसिंह की तरह भगवानदास भी सेना लेकर चला और रास्ते में बड़नगर, रावलिया आदि को रौंदता हुआ आगे बढ़ा। अपनी इस जीत के माध्यम से वह राणा प्रताप को संदेश देना चाहता था कि मुगलों से दोस्ती न करनेवालों का क्या हश्र होता है। वहाँ से आगे बढ़कर उसने ईडा में डेरा डाला और थोड़ा विश्राम करने के बाद प्रताप के पास अपने आने का संदेश भेजा। वैसे तो राणा प्रताप को राजा भगवानदास के आगमन व उसके उद्देश्य के बारे में पहले ही खबर मिल चुकी थी। उन्होंने मानसिंह की तरह इस बार भी मुगल दरबार से आनेवाले दूत के स्वागत की पूरी तैयारी कर ली थी ।

भगवानदास के आने पर महाराणा प्रताप ने स्वयं उनकी आगवानी की और भरपूर स्वागत-सत्कार किया । राणा ने कहा कि आप तो मेरे बड़े हैं, पूज्य हैं। इससे भगवानदास को आशा की किरण दिखाई दी। उन्होंने सोचा कि मानासह को धमकी का कुछ तो असर इस पर हुआ है। राजा भगवानदास को आशंका थी कि अन्य सामंतों की उपस्थिति में संधि की चर्चा करने से कुछ समस्या हो सकती है। वह मेवाड़ी राजपूतों के स्वभाव और चरित्र से भली-भाँति परिचित थे। किसी भी राव – रावल की नकारात्मक प्रतिक्रिया वार्ता को विफल कर सकती थी । अतः उसने पहली शर्त यह रखी कि जो कुछ बातचीत होगी वह प्रताप और उनके बीच ही होगी। कोई तीसरा इसमें सम्मिलित नहीं होगा । यहाँ तक कि कुँवर अमरसिंह और राव कृष्णदास को भी इससे अलग रखा गया। इस पर किसी को आपत्ति न थी। सभी सामंत अपने महाराणा को जानते थे कि वे कभी मेवाड़ की स्वाधीनता के साथ समझौता नहीं करेंगे । maharana pratap ka sandhi prastav

राजा भगवानदास और राणा प्रताप की एकांत वार्ता का भी सार संक्षेप वही था जो मानसिंह के साथ उनकी बातचीत में सामने आया था । अंतर केवल इतना था कि भगवानदास बहुत विनम्रता और अपनेपन से पेश आ रहे थे। उन्होंने राणा को समझाया कि आमेर के राजवंश का अनुकरण करने में ही उनकी भलाई है । वह स्वयं अकबर से सिफारिश करेंगे कि महाराणा को दरबार में उचित सम्मानजनक पद और उपाधि दी जाए। मुगलों की विशाल शक्ति से टकराव छोटे से मेवाड़ के लिए विजय की आशा रखना असंभव ही तो है । जब पराधीनता निश्चित है तो व्यर्थ के रक्तपात से क्या लाभ ? इससे तो मेवाड़ की प्रजा की दुर्दशा ही होगी। अभी जो मान-सम्मान महाराणा को मिल रहा है, युद्ध में पराजय के बाद उसकी आशा रखना भी व्यर्थ ही होगा। आखिरकार इन सारे तर्कों के उत्तर में राणा प्रताप ने स्वतंत्रता के बदले स्वर्ग का राज्य मिलने पर भी उसे तुच्छ कहा तो भगवानदास चिढ़ गए। बड़े होने के नाते बोले कि प्रताप, मैं तो तुम्हारे हित के लिए समझा रहा था, पर अगर तुम आत्महत्या का रास्ता ही अपनाना चाहते हो तो तुम्हारी मरजी । अपनी हठधर्मिता से तुम मेवाड़ को युद्ध की आग में झोंकोगे और हजारों वीर राजपूतों के बलिदान के लिए उत्तरदायी होगे । तुम मेवाड़ के साथ अपने लिए भी विपदा मोल ले रहे हो, स्वतंत्रता नहीं। भगवानदास की समझ में नहीं आ रहा था आखिर मुगलों की विशाल शक्ति से टकराकर मेवाड़ स्वतंत्र कैसे रह सकता है ? यह तो नितांत असंभव है। maharana pratap ka sandhi prastav

राजा भगवानदास निराश होकर लौट गए, पर अकबर उनसे सारा वृत्तांत सुनने के बाद भी निराश नहीं हुआ, इनके बाद एक और प्रयास करने के लिए उसने राजा टोडरमल को संधि-वार्त्ता के लिए चुना। दिसंबर 1573 में टोडरमल भी मेवाड़ के लिए रवाना हुए, हालाँकि न टोडरमल को और न ही सम्राट् अकबर को इस वार्त्ता की सफलता की कोई उम्मीद थी। फिर भी नीतिकुशल और व्यवहारकुशल टोडरमल को भेजकर एक और प्रयास करना उसने उचित समझा । टोडरमल को भी राणा प्रताप से वहीं उत्तर मिला जो दूसरों को मिला था । वे किसी भी कीमत पर मेवाड़ की स्वतंत्रता के साथ समझौता करने को तैयार नहीं हुए। राणा को लगता था कि यह तो अपनी सुख-सुविधा के लिए मेवाड़ की स्वतंत्रता को बेचना होगा। वे अच्छी तरह जानते थे कि इस इनकार के बाद युद्ध अवश्यंभावी है। वे युद्ध के परिणाम से भी अवगत थे । यदि एक सैनिक संघर्ष में मेवाड़ की विजय भी होती है तो अकबर का अहंकार इस अपमान को न सह सकेगा । वह अपनी सारी शक्ति मेवाड़ को झुकाने के लिए युद्ध में झोंक देगा । स्वयं महाराणा और उनके प्रिय मेवाड़ को किस तरह के कष्टों का सामना करना पड़ सकता है, इसे वे अच्छी तरह समझते थे । पर स्वतंत्रता उनके लिए सर्वोपरि थी ।

राणा प्रताप को आरंभ से ही पता था कि किसी तरह की संधिवार्ता सफल नहीं हो सकती, चाहे कितना बड़ा प्रलोभन क्यों न हो, मेवाड़ कभी पराधीनता स्वीकार न करेगा, पर वे वार्त्ताओं का क्रम जारी रखना चाहते थे, ताकि आनेवाले युद्ध का सामना करने की यथासंभव तैयारी कर लें। अकबर भी कोरची और मानसिंह की असफलता के बाद समझ गया था कि प्रताप को अधीनता के लिए राजी करना असंभव है, पर अपनी कूटनीति के तहत वह अन्य राजपूतों को दिखाना चाहता था कि मैंने तो मेवाड़ से मित्रता का भरसक प्रयास किया, पर महाराणा के हठ के आगे मेरी एक न चली, फिर विवश होकर आक्रमण का आदेश देना पड़ा। इस बीच जो समय मिला, उसका उपयोग उसने मेवाड़ के अन्य संभावित सहयोगियों को दबाने में लगाया, ताकि मुगलों को राजपूतों की सम्मिलित शक्ति का सामना न करना पड़े । शायद कहीं उसे यह आशा भी थी कि इस प्रकार लगभग अकेला पड़ जाने पर राणा प्रताप संभवत: झुक जाएँ । maharana pratap ka sandhi prastav

bhaktigyans

My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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