Shukdev Rishi Ki Katha Bhaktmal Dvara Rachit Poranik Kathaen
Shukdev Rishi Ki Katha
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श्री शुकदेव जी
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः॥
(श्रीमद्भा० १।७। १०)
‘जो आत्माराम, आप्तकाम, मायाके समस्त बन्धनोंसे मुक्त मुनिगण हैं, वे भी भगवान में निष्काम भक्ति रखते हैं, वे भी बिना किसी कारणके ही भगवान से प्रेम करते हैं; क्योंकि भगवान के मङ्गलमय दिव्य गुण ही ऐसे हैं।’
श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्रके स्वरूप ही हैं। भगवान् के नित्य गोलोकधाममें भगवान् की आह्लादिनी पराशक्ति श्रीराधाजीके वे लीलाशुक हैं और भगवद्धाम, वहाँके पदार्थ, वहाँके परिकर-पार्षद-सब भगवान् से नित्य अभिन्न उन आनन्दघनके स्वरूप ही होते हैं। शुकदेवजी तो स्वरूपसे भी नन्दनन्दनके समान ही सदा षोडश वर्षकी अवस्थामें रहनेवाले, नवघन-सुन्दर अङ्गकान्तिसे युक्त, कमल-लोचन, सर्वावयवमनोहर हैं और प्रभावसे तो वे आनन्दरूप हैं ही। श्रीश्यामसुन्दर जब अपनी लीला इस लोकमें व्यक्त करनेके लिये व्रजमें पधारे, तब श्रीराधिकाजीके वे लीलाशुक गोलोकधामसे उड़ते-घूमते भगवान् शिवके लोकमें पहुँचे। वहाँ शङ्करजी भगवती पार्वतीको भगवान्की वह अद्भुत लीला सुना रहे थे, जो श्रवणमात्रसे प्राणीको अमरत्व प्रदान कर देती है। पार्वतीजी कथा-श्रवणमें तल्लीन होकर आत्मविस्मृत हो गयीं। कथा रुके नहीं, इसलिये वे लीलाशुक मध्यमें हुंकृति देते रहे। अन्तमें भगवान् शङ्करको जब ज्ञात हुआ कि एक पक्षीने यह कथा सुन ली है, तब वे मारने दौड़े त्रिशूल लेकर; क्योंकि पक्षीदेह उस कथाको धारण करनेका अधिकारी नहीं था। शुक वहाँसे उड़े और व्यासाश्रममें आकर व्यासपत्नीके मुखसे उनके उदरमें प्रविष्ट हो गये। भगवान् शङ्कर सन्तुष्ट होकर लौट गये। अब भगवान् व्यासके पुत्र होकर शुक उस कथा एवं ज्ञानको धारण किये रहें, इसमें कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती थी। shukdev rishi ki katha
श्रीशुकदेवजीकी जन्मसम्बन्धी विविध कथाएँ विभिन्नविभिन्न पुराणों एवं इतिहास-ग्रन्थोंमें मिलती हैं। कल्पभेदसे वे सभी सत्य हैं। एक जगह आया है-इनकी माता वटिका एवं पिता बादरायण श्रीव्यासजीने पृथ्वी, जल, आकाश और वायुके समान धैर्यशील एवं तेजस्वी पुत्र प्राप्त करनेके लिये भगवान् गौरीशङ्करकी विहारस्थली सुमेरुशृङ्गपर अत्यन्त घोर तपस्या की। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन की इच्छा और दृष्टिमात्रसे कई महापुरुषोंका जन्म हो सकता था और हुआ है, तथापि अपने ज्ञान तथा सदाचारके धारण करने योग्य पुत्रकी प्राप्तिके लिये एवं संसारमें किस प्रकारके पुत्रकी सृष्टि करनी चाहिये-यह बात बतानेके लिये ही उन्होंने तपस्या की। इनकी तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् शङ्करजीने तेजस्वी पुत्रकी प्राप्तिका वरदान दे इन्हें कृतकृत्य किया। समयपर गर्भस्थिति हुई। shukdev rishi ki katha
शुकदेवजी माताके गर्भमें बारह वर्ष बने रहे। अपनी योगशक्तिसे वे इतने छोटे बने हुए थे कि माताको कोई कष्ट नहीं था। उन्हें गर्भसे बाहर आनेके लिये भगवान् व्यास तथा दूसरे ऋषियोंने भी आग्रह किया; पर वे सदा यही कहते थे कि ‘जीव जबतक गर्भमें रहता है, उसका ज्ञान प्रकाशित रहता है। भगवान्के प्रति उसमें भक्ति रहती है और विषयोंसे वैराग्य रहता है। किंतु गर्भसे बाहर आते ही भगवान्की अचिन्त्यशक्ति माया उसे मोहित कर देती है। उसका समस्त ज्ञान विस्मृत हो जाता है, वह मायामोहित होकर दुःखरूप घृणित संसार एवं उसके विषयोंमें आसक्त हो जाता है, आसक्तिवश नाना अपकर्म करता है और फिर जन्म-मरणके चक्रसे उसका छुटकारा बहुत ही कठिन हो जाता है। अतः मैं गर्भसे बाहर नहीं आऊँगा। shukdev rishi ki katha
जब देवर्षि नारदजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह आश्वासन प्राप्त कर लिया कि गर्भसे बाहर आनेपर भी श्रीव्यासनन्दनको माया स्पर्श नहीं करेगी, अथवा कहीं कहा गया है कि जब भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं वहाँ आकर दर्शन दिया और आश्वासन दिया, तब शुकदेवजी माताके उदरसे बाहर आये। जन्मते ही ये वनकी ओर चल पड़े। इनका नालोच्छेदन-संस्कार भी नहीं हुआ था। इतने सुन्दर, सुकुमार, ज्ञानी पुत्रको इस प्रकार तत्काल विरक्त होकर वनमें जाते देख भगवान् व्यास व्याकुल हो गये। वे ‘पुत्र! पुत्र!’ पुकारते हुए शुकदेवजीके पीछे चलने लगे। शुकदेवजीमें भेदबुद्धिका लेश नहीं था। सचराचर जगत्में उनका अखण्ड एकात्मभाव जागरूक था। उनकी इस एकात्मताका इतना प्रभाव हुआ कि वृक्षोंसे वाणियाँ फूट पड़ी और उनकी ओरसे वृक्षोंने व्यासजीकी पुकारका उत्तर दिया। shukdev rishi ki katha
भगवान् व्यास शुकदेवजीको पुकारते हुए उनके पीछे विह्वल हुए चले जा रहे थे। एक स्थानपर उन्होंने देखा कि वनके एकान्त सरोवरमें कुछ देवाङ्गनाएँ स्नान कर रही थीं। वे व्यासजीको आते देख लज्जावश बड़ी शीघ्रतासे जलसे निकलकर अपने वस्त्र पहनने लगीं। आश्चर्यमें पड़कर व्यासजीने पूछा-‘देवियो! मेरा पुत्र युवक है, दिगम्बर है, इधरसे अभी गया है। आप सब उसे देखकर तो जलक्रीड़ा करती रहीं, उसे देखकर आपने लज्जाका भाव नहीं प्रकट किया; फिर मुझ वृद्धको देखकर आपने लज्जाका भाव क्यों प्रकट किया?’ shukdev rishi ki katha
बड़ी नम्रतासे देवियोंने कहा-‘महर्षे! आप हमें क्षमा करें। आप यह पहचानते हैं कि यह पुरुष है और यह स्त्री है; अतः आपको देखकर हमें लज्जा करनी ही चाहिये। किंतु आपके पुत्रमें तो स्त्री-पुरुषका भाव ही नहीं है। वे तो सबको एक ही देखते हैं। उनके सम्मुख वस्त्र पहने रहना या न पहने रहना एक-सा ही है।’ shukdev rishi ki katha
देवियोंकी बात सुनकर भगवान् व्यास लौट आये। उन्होंने समझ लिया कि ऐसे समदर्शीके लिये पितापुत्रका सम्बन्ध कोई अर्थ नहीं रखता। वह बुलानेसे नहीं लौटेगा। परंतु व्यासजीका स्नेह अपार था। वह बढ़ता ही जाता था। वे चाहते थे कि शुकदेव उनके समीप रहकर कुछ दिन शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करें। ब्रह्मनिष्ठ तो वे हैं ही, श्रोत्रिय भी हो जायें। व्यासजी जानते थे कि ऐसे आत्माराम विरक्तोंको केवल भगवान्का दिव्यरूप एवं मङ्गलमय चरित ही आकर्षित करता है। अतएव व्यासजीने अपने शिष्योंको श्रीश्यामसुन्दरके परम मनोहर स्वरूपकी झाँकीका वर्णन करनेवाला एक श्लोक पढ़ाकर आदेश दिया कि वनमें वे उसे बराबर मधुर स्वरसे गान किया करें। ब्रह्मचारीगण समिधा, फल, पुष्प, कुश लेने वनमें जाते तो वह श्लोक गाया करते थे। शुकदेवजीके कानोंमें जब वह श्लोक पड़ा, तब जैसे मृग सुन्दर रागपर मुग्ध होकर खिंचा चला आता है, वे उन ब्रह्मचारियोंके पास चले आये और उस श्लोकको सीखनेका आग्रह करने लगे। ब्रह्मचारी उन्हें व्यासजीके पास ले आये और वहाँ पूरे श्रीमद्भागवतका अध्ययन किया शुकदेवजीने। shukdev rishi ki katha
गुरुके द्वारा प्राप्त ज्ञान ही उत्तम होता है। फिर जिसे लोकमें आचार्य होना है, उसे शास्त्रीय मर्यादाका पूरा पालन करना ही चाहिये। भगवान् व्यासकी आज्ञा स्वीकार करके शुकदेवजी मिथिला गये और मिथिला पहुँचकर जब वे राजमहलमें घुसने लगे, तब द्वारपालने उन्हें वहीं डाँटकर रोक दिया। वे निर्विकार शान्तचित्तसे वहीं खड़े रह गये। न उन्हें रास्तेकी थकावटका कोई ध्यान था, न भूखप्यासका और न प्रचण्ड घामका। कुछ समय बाद दूसरे एक द्वारपालने आकर आदरके साथ हाथ जोड़ तथा विधिके अनुसार पूजा करके उन्हें महलकी दूसरी कक्षामें पहुँचा दिया। अपमान और मानकी कुछ भी स्मृति न रखते हुए वे वहीं बैठकर आत्मचिन्तन करने लगे। धूप-छाँहका उन्हें कोई खयाल नहीं था। अब तीसरी परीक्षा हुई, उन्हें अन्तःपुरसे सटे हुए ‘प्रमदावन’ नामक सुन्दर बगीचेमें पहुँचा दिया गया और पचास खूब सजी हुई अति सुन्दरी नवयुवती वाराङ्गनाएँ उनकी सेवामें लग गयीं। वे बातचीत करने और नाचने-गानेमें निपुण थीं। मन्द मुसकानके साथ बातें करती थीं। वे वाराङ्गनाएँ श्रीशुकदेवजीकी पूजा करके उन्हें नहला तथा खिला-पिलाकर बगीचेकी सैर कराने ले गयीं। उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकारकी क्रीड़ाएँ करती जाती थीं। परंतु श्रीशुकदेवजीका अन्त:करण सर्वथा विशुद्ध था। वे सर्वथा निर्विकार रहे। स्त्रियों की सेवा से ने उन्हें हर्ष हुआ न क्रोध तदनंतर उन्हें देवताओं के बैठने योग्य दिव्य रत्न जड़ित पलंग पर बहुमूल्य बिसौने बिछाकर उस पर चयन करने के लिए कहा गया। वे वही पवित्र आसन से बैठकर मोक्ष तत्व का विचार करते हुए ध्यानस्त हो गये। रात्रि के मध्य भाग में सोये और फिर ब्रह्ममुहूर्त में जग गये तथा शौच आदि से निवृत्त होकर पुनः ध्यान मग्न हो गये। अब राजा स्वयं मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर वहाँ आये, उनकी राजाने पूजा की और अंदर महलमें ले गये। वहाँ महाराज जनकसे उन्होंने अध्यात्म-विद्याका उपदेश ग्रहण किया। वैसे तो वे जन्मसे ही परम विरक्त हैं। नंगे, उन्मत्तकी भाँति अपने-आपमें आनन्दमग्न, भगवान्की लीलाओंका अस्फुट स्वरमें गान करते तथा हृदयमें भगवान्की दिव्य झाँकीका दर्शन करते वे सदा विचरण करते रहते हैं। वे नित्य अवधूत किसी गृहस्थके यहाँ उतनी देरसे अधिक कभी नहीं रुके, जितनी देरमें गाय दुही जाती है। shukdev rishi ki katha
जब ऋषिके शापका समाचार महाराज परीक्षित्को मिला कि उन्हें सात दिन पश्चात् तक्षक काट लेगा और उससे उनका शरीरपात हो जायगा, तब वे अपने ज्येष्ठ पुत्र जनमेजयको राजतिलक करके स्वयं निर्जल व्रतका निश्चय कर गङ्गातटपर आ बैठे। इस समाचारके फैलते ही दूर-दूरसे ऋषिगण महाभागवत परीक्षित्पर कृपा करने वहाँ पधारे। उसी समय कहींसे घूमते हुए अकस्मात् शुकदेवजी भी वहाँ पहुँच गये। उन्हें उन्मत्त समझकर बालक घेरे हुए थे। शुकदेवजीको देखते ही सभी ऋषि उठ खड़े हुए। सबने उनका आदर किया। परीक्षित्ने उच्चासनपर बैठाकर उनका पूजन किया। परीक्षित्के पूछनेपर शुकदेवजीने सात दिनमें उन्हें पूरे श्रीमद्भागवतका उपदेश किया। shukdev rishi ki katha
श्रीशुकदेवजी भागवताचार्य तो हैं ही, वे शाङ्कर अद्वैत सम्प्रदायके भी आद्याचार्यों में हैं। अगले मन्वन्तरमें वे सप्तर्षियोंमें स्थान ग्रहण करेंगे। वे अवधूत व्रजेन्द्रसुन्दरको हृदयमें धारण किये, उनके स्मरण एवं गुणगानमें मत्त सदा विचरण ही किया करते हैं। भगवत्कृपासे अनेक बार अधिकारी महापुरुषोंने उनका दर्शन प्राप्त किया है। shukdev rishi ki katha
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