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शिवभक्त उपमन्यु की कथा

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शिवभक्त उपमन्यु की कथा

शिवभक्त उपमन्यु की कथा
शिवभक्त उपमन्यु की कथा

शिवभक्त उपमन्यु

भक्तराज उपमन्यु परम शिवभक्त, वेदतत्त्वके ज्ञाता महर्षि व्याघ्रपादके बड़े पुत्र थे। एक दिन उपमन्युने मातासे दूध माँगा। घरमें दूध था नहीं। माताने चावलोंका आटा जलमें घोलकर उपमन्युको दे दिया। उपमन्यु मामाके घर दूध पी चुके थे। अतएव उन्होंने यह जानकर कि यह दूध नहीं है, मातासे कहा-‘मा! यह तो दूध नहीं है।’ ऋषिपत्नी झूठ बोलना नहीं जानती थी; उन्होंने कहा-‘बेटा! तू सत्य कहता है, यह दूध नहीं है। नदी-किनारे वनों और पहाड़ोंकी गुफाओंमें जीवन बितानेवाले हम तपस्वी मनुष्योंके यहाँ दूध कहाँसे मिल सकता है, हमारे तो सर्वस्व श्रीशिवजी महाराज हैं। तू यदि दूध चाहता है तो उन जगन्नाथ श्रीशिवजीको प्रसन्न कर! वे प्रसन्न होकर तुझे दूध-भात देंगे। ‘माताकी बात सुनकर बालक उपमन्युने पूछा-‘मा! भगवान् श्रीशिवजी कौन हैं? कहाँ रहते हैं? उनका कैसा रूप है, मुझे वे किस प्रकार मिलेंगे? और उन्हें प्रसन्न करनेका उपाय क्या है?’ शिवभक्त उपमन्यु की कथा
बालकके सरल वचनोंको सुनकर स्नेहवश माताकी आँखोंमें आँसू भर आये। माताने उसे शिवतत्त्व बतलाया और कहा–’तू उनका भक्त बन, उनमें मन लगा, उनमें विश्वास रख, एकमात्र उनकी शरण हो जा, उन्हींका भजन कर उन्हींको नमस्कार कर। यों करनेसे वे कल्याणस्वरूप तेरा निश्चय ही कल्याण करेंगे। उनको प्रसन्न करनेका महामन्त्र है-‘नमः शिवाय’।’

शिवभक्त उपमन्यु की कथा
शिवभक्त उपमन्यु की कथा

मातासे उपदेश पाकर बालक उपमन्यु शिवको प्राप्त करनेका दृढ़ सङ्कल्प करके घरसे निकल पड़े। वनमें जाकर प्रतिदिन ‘नमः शिवाय’ मन्त्रके द्वारा वनके पत्रपुष्पोंसे भगवान् शिवजीकी पूजा करते और शेष समय मन्त्र-जप करते हुए कठोर तप करने लगे। वनमें अकेले रहनेवाले तपस्वी उपमन्युको पिशाचोंने बहुत कुछ सताया; परन्तु उपमन्युके मनमें न तो भय हुआ और न विघ्न करनेवालोंके प्रति क्रोध ही! वे उच्च स्वरसे ‘नमः शिवाय’ मन्त्रका कीर्तन करने लगे। इस पवित्र मन्त्रके सुननेसे मरीचिके शापसे पिशाचयोनिको प्राप्त हुए, उपमन्युके तपमें विघ्न करनेवाले वे मुनि पिशाचयोनिसे छूटकर पुनः मुनिदेहको प्राप्त हो कृतज्ञताके साथ उपमन्युकी सेवा करने लगे। तदनन्तर देवताओंके द्वारा उपमन्युकी उग्र तपस्याका समाचार सुनकर सर्वान्तर्यामी भक्तवत्सल भोलेनाथ श्रीशङ्करजी भक्तका गौरव बढ़ानेके लिये उनके अनन्यभावकी परीक्षा करनेकी इच्छासे इन्द्रका रूप धारणकर श्वेतवर्ण ऐरावतपर सवार हो उपमन्युके समीप जा पहुँचे। शिवभक्त उपमन्यु की कथा

मुनिकुमार भक्त श्रेष्ठ उपमन्युने इन्द्ररूपी भगवान् महादेवको देखकर धरतीपर सिर टेककर प्रणाम किया और कहा-‘देवराज! आपने कृपा करके स्वयं मेरे समीप पधारकर मुझपर बड़ी कृपा की है। बतलाइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’ इन्द्ररूपी परमात्मा शङ्करने प्रसन्न होकर कहा–’हे सुव्रत! तुम्हारी इस तपस्यासे मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे मनमाना वर माँगो; तुम जो कुछ माँगोगे, वही मैं तुम्हें दूंगा।’ शिवभक्त उपमन्यु की कथा
इन्द्रकी बात सुनकर उपमन्युने कहा-‘देवराज! आपकी बड़ी कृपा है, परन्तु मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता। मुझे न तो स्वर्ग चाहिये, न स्वर्गका ऐश्वर्य ही। मैं तो भगवान् शङ्करका दासानुदास बनना चाहता हूँ। जबतक वे प्रसन्न होकर मुझे दर्शन नहीं देंगे, तबतक मैं तपको नहीं छोड़ेंगा। त्रिभुवनसार, सबके आदिपुरुष, अद्वितीय, अविनाशी भगवान् शिवको प्रसन्न किये बिना किसीको स्थिर शान्ति नहीं मिल सकती। मेरे दोषोंके कारण मुझे इस जन्ममें भगवान्के दर्शन न हों और यदि मेरा फिर जन्म हो तो उसमें भी भगवान् शिवपर ही मेरी अक्षय और अनन्य भक्ति बनी रहे।’ इन्द्रसे इस प्रकार कहकर उपमन्यु फिर अपनी तपस्यामें लग गये। तब इन्द्ररूपधारी शङ्करने उपमन्युके सामने अपने गुणोंद्वारा अपनी ही निन्दा करना आरम्भ किया। मुनिको शिवनिन्दा सुनकर बड़ा ही दुःख हुआ; कभी क्रोध न करनेवाले मुनिके मनमें भी इष्टकी निन्दा सुनकर क्रोधका सञ्चार हो आया और उन्होंने इन्द्रका वध करनेकी इच्छासे अघोरास्त्रसे अभिमन्त्रित भस्म लेकर इन्द्रपर फेंकी और शिवनिन्दा सुननेके प्रायश्चित्तस्वरूप अपने शरीरको भस्म करनेके लिये आग्नेयी धारणाका प्रयोग करने लगे। उनकी यह स्थिति देखकर भगवान् शङ्कर परम प्रसन्न हो गये। भगवान्के आदेशसे ‘आग्नेयी धारणा’ का निवारण हो गया और नन्दीने अघोरास्त्रका निवारण कर दिया। इतनेमें ही उपमन्युने चकित होकर देखा कि ऐरावत हाथीने चन्द्रमाके समान सफेद कान्तिवाले बैलका रूप धारण कर लिया और इन्द्रकी जगह भगवान् शिव अपने दिव्य रूपमें जगज्जननी उमाके साथ उसपर विराजमान हैं। वे करोड़ों सूर्योंके समान तेजसे आच्छादित और करोड़ों चन्द्रमाओंके समान सुशीतल सुधामयी किरणधाराओंसे घिरे हुए हैं। उनके शीतल तेजसे सब दिशाएँ प्रकाशित और प्रफुल्लित हो गयीं। वे अनेक प्रकारके सुन्दर आभूषण पहने थे। उनके उज्ज्वल सफेद वस्त्र थे। सफेद फूलोंकी सुन्दर माला उनके गलेमें थी। श्वेत मस्तकपर चन्दन लगा था। श्वेत ही ध्वजा थी, श्वेत ही यज्ञोपवीत था। धवल चन्द्रयुक्त मुकुट था। सुन्दर दिव्य शरीरपर सुवर्ण-कमलोंसे गुंथी हुई और रत्नोंसे जड़ी हुई माला सुशोभित हो रही थी। माता उमाकी शोभा भी अवर्णनीय थी। ऐसे देवमुनिवन्दित भगवान् शङ्करके माता उमाके सहित दर्शन प्राप्तकर उपमन्युके हर्षका पार नहीं रहा। उपमन्यु गद्गद कण्ठसे प्रार्थना करने लगे।
शिवभक्त उपमन्यु की कथा
शिवभक्त उपमन्यु की कथा

भक्तकी निष्कपट और सरल प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने कहा-‘बेटा उपमन्यु! मैं तुझपर परम प्रसन्न हूँ। मैंने भलीभाँति परीक्षा करके देख लिया कि तू मेरा अनन्य और दृढ़ भक्त है। बता, तू क्या चाहता है? यह याद रख कि तेरे लिये मुझको कुछ भी अदेय नहीं है।’ भगवान् शङ्करके स्नेहभरे वचनोंको सुनकर उपमन्युके आनन्दकी सीमा न रही। उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी धारा बहने लगी। वे गद्गद स्वरसे बोले-‘नाथ! आज मुझे क्या मिलना बाकी रह गया? मेरा यह जन्म सदाके लिये सफल हो गया। देवता भी जिनको प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, वे देवदेव आज कृपा करके मेरे सामने विराजमान हैं-इससे अधिक मुझे और क्या चाहिये। इसपर भी आप यदि देना ही चाहते हैं तो यही दीजिये कि आपके श्रीचरणोंमें मेरी अविचल और अनन्य भक्ति सदा बनी रहे। भगवान् चन्द्रशेखरने उपमन्युका मस्तक सूंघकर उन्हें देवीके हाथोंमें सौंप दिया। देवीजीने भी अत्यन्त स्नेहसे उनके मस्तकपर हाथ रखकर उन्हें अविनाशी कुमारपद प्रदान किया। तदनन्तर भगवान् शिवजीने कहा-‘बेटा! तू आज अजर, अमर, तेजस्वी, यशस्वी और दिव्य ज्ञानयुक्त हो गया। तेरे सारे दु:खोंका सदाके लिये नाश हो गया। तू मेरा अनन्य भक्त है। यह दूध-भातकी खीर ले।’ यह कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। उपमन्युने ही भगवान् श्रीकृष्णको शिवमन्त्रकी दीक्षा दी थी। शिवभक्त उपमन्यु की कथा

 

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