हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
हल्दीघाटी का युद्ध
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युद्ध की तैयारी ऐसी चीज है, जिसे किसी भी काल में गुप्त रखना संभव नहीं था। मुगलों की तरफ से क्या तैयारी हो रही हैउसकी जानकारी प्रतिदिन राणा प्रताप को मिल रही थी। इसी तरह राजपूतों की तैयारी की सारी सूचना अकबर तक भी पहुँच रही थी । राणा प्रताप के साथ बाहर से कौन-कौन से राव- रावल युद्ध में सहायता के लिए तत्पर थे, उसकी खबर भी अकबर को थी। वह उन सब की सम्मिलित शक्ति का पता करना चाहता था, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। अतः उसने अनुमान के आधार पर अपनी सेना को तैयार किया ।
राणा प्रताप को पता चल चुका था कि मानसिंह के नेतृत्व में मुगलों की एक बड़ी सेना मेवाड़ पर धावा बोलने के लिए कूच करनेवाली है। वह कितनी है, इसका पता लगाना या अनुमान करना शायद उनके लिए महत्त्व नहीं रखता था। सेना पाँच हजार हो या पचास हजार – मेवाड़ को तो अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए उसका सामना करना ही था। जो कुछ शक्ति राणा जुटा सकते थे, उन्होंने जुटा ली थी। अब तो आवश्यकता थी युद्धनीति बनाने और मुगल सेना का सामना कहाँ किया जाए, इसका निर्णय लेने की ।
मंत्रणा – कक्ष में रणनीति को लेकर मतभेद स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए। परंपरा से चली आ रही रणनीति को बदलना आसान नहीं होता । विषय कोई भी हो, जो कुछ चला आ रहा है, उसके विपरीत कुछ करने के लिए सामान्यजन तो क्या विशिष्ट लोग भी आसानी से तैयार नहीं होते। राजपूतों की अब तक की परंपरा यह थी कि अपने से संख्या में चाहे कितनी बड़ी सेना हो, उस पर टूट पड़ते थे और जब तक एक भी वीर जीवित है, शत्रु को आगे बढ़ने से रोकने का भरपूर प्रयास करता था । राजपूताने का इतिहास ऐसे शौर्य की गाथाओं से भरा पड़ा है। पराजित होने पर राजपूतों की एक पूरी युवा पीढ़ी बलिदान हो चुकी होती थी । दूसरी पीढ़ी में युवा होनेवाले शत्रु का सामना करने लायक बनने तक विवश रहते थे। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
एक अंग्रेज लेखक ने बहुत अच्छी टिप्पणी की है कि जो लड़ता है, वह अपनी हार निश्चित देखकर युद्धक्षेत्र से भाग खड़ा होता है । वह फिर कभी शत्रु का सामना करने के लिए जीवित रहता है, लेकिन जो शत्रु का पलड़ा भारी होने पर भी पीछे नहीं हटता और कट मरता है, वह कभी अपनी हार का बदला लेने के लिए फिर खड़ा नहीं हो सकता। राजपूतों के साथ ऐसा ही होता आया था, पर वे इस तथ्य को समझने को तैयार न थे ।
हल्दीघाटी की लड़ाई के लिए हुई मंत्रणा सभा में भी ऐसी ही मनोस्थिति सामने आई। पहले के कई छोटे-बड़े युद्धों के कड़े अनुभवों से गुजरे कुछ वरिष्ठ सामंत, जिनमें रामसिंह तंवर प्रमुख थे, इस मन के थे कि मुगलों से सीधी टक्कर न ली जाए। उन्हें पहले आक्रमण करने दिया जाए और दुर्गम व सँकरे पर्वतीय स्तर में हमारी सेना उनका मुकाबला करते हुए उलझाकर रखे। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
ऐसी स्थिति में मुगल सेना का मुख्य बल, उसके हाथी और तोपखाना किसी काम न आ सकेंगे। संख्या में अधिक होने का लाभ भी उनको में मैदान में ही था। पहाड़ के कुछ रास्ते तो इतने सँकरे थे जिन पर एक साथ दो सैनिक भी नहीं चल सकते थे। ऐसे में मोरचाबंदी करके वहाँ डटी राजपूत सेना के लिए उनका सामना करना सहज होगा। पर्वतों की आड़ में लगभग अदृश्य भीलों के अचूक निशाने और विषबद्ध बाणों के प्रहार के सामने बड़ी से बड़ी सेना भी असहाय ही रहेगी। उनका कहना था कि छापामार युद्ध की रणनीति के अनुसार आवश्यकता पड़ने पर किसी एक मोरचे से पीछे हटने और फिर दूसरे पार्श्व से शत्रु पर चोट करने की नीति भी अपनाई जा सकती है। –
यह नई सोच थी, जो परंपरागत शैली की लड़ाईवालों की समझ में नहीं आई। उनकी राय थी कि खुल्लमखुल्ला शत्रु पर पूरी शक्ति से धावा बोला जाए। पहाड़ी कंदराओं की ओट लेकर लड़ने में कहाँ की वीरता है? इससे शत्रु पर वैसा घातक प्रहार भी नहीं हो सकेगा, जो जरूरी है। इनमें से कुछ अति उत्साही सामंतों ने राणा से अनुरोध किया कि उन्हें हरावल दस्ते में रखा जाए। वे अपने आरंभिक प्रहार से ही शत्रु के पैर उखाड़ देंगे ।
काफी सोच-विचार के बाद राणा प्रताप ने लगभग मिली-जुली रणनीति अपनाने का निर्णय लिया। तय हुआ कि युद्ध हल्दीघाटी में लड़ा जाएगा। इस सँकरे और पथरीले इलाके में मुगलों के लिए लड़ना आसान न होगा। वे मैदानी इलाके की लड़ाई के अभ्यस्त थे । राज्य के सैनिक मुगल तोपखाने की मार और हाथियों की विशाल सेना से बचे रहते। यह परंपरागत और छापामार युद्ध के बीच की रणनीति थी, यानी दोनों मतों का समन्वय जिसमें छापादार रणनीति का पुट स्पष्टतः अधिक था। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
इससे पहले स्वयं महाराणा प्रताप और उनके कुछ अन्य सामंत मांडलगढ़ के खुले इलाके में मुगलों का सामना करने के पक्ष में थे, पर सारी स्थिति पर पुनर्विचार करने और यद्ध-मंत्रणा के बाद दल्नीमानी में छापामार शैली में लड़ने को ही श्रेयस्कर समझा गया। इधर अकबर ने मानसिंह को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजी जानेवाली सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त किया। कुछ मुसलमान सिपहसालारों को यह अखरा भी, पर वे मौन रहे। अकबर चाहता था कि राजपूत राणा प्रताप के विरुद्ध जो सेना जाए, उसका नेतृत्व एक राजपूत ही करे। इससे उसका साथ देनेवाले अन्य राजपूतों पर गलत संदेश नहीं जाता। मानसिंह जब संधि-वार्ता के लिए आया था, तब उसने प्रताप की अनुपस्थिति को अपना अपमान समझा था और उसने अकबर से कहा भी था कि समय आने पर उसे इस अपमान का बदला लेने का अवसर दिया जाए। इसके अलावा मानसिंह कई युद्धों का विजेता, कुशल एवं अनुभवी सेनापति था । अकबर को उसकी वीरता और रणनीति पर पूरा भरोसा था ।
मानसिंह के रणकौशल पर तो अकबर को पूरा भरोसा था, लेकिन एक राजपूत का दूसरे राजपूत से लड़ते समय उस पर पूरा भरोसा करना उसने उचित नहीं समझा । अतः उसने मानसिंह की सहायता के लिए अपने चुने हुए मुसलमान सिपहसालारों गाजी खान, महाबल खान, मुजाहिद खान, मिहतर खान, अरशद खान, ख्वाजा मुहम्मद रफी, आसफ खान, मीर बक्शी और सैयद हमीम बरहा को भी साथ कर दिया। इसके अलावा हिंदू सेनापति राय लूनकरण, माधोसिंह और जगन्नाथ कछवाहा भी थे । रणनीति के लिए जिन युद्धों पर राजपूतों ने चर्चा की थी, मुगलों की मंत्रणा सभा में भी उन्हीं पर चर्चा हुई थी। उसका सारांश भी यही था कि दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में मेवाड़ की सेना को परास्त करना सरल न होगा। वहाँ न तोपखाना काम आएगा, न हाथियों की फौज, जिस पर मुगलों को बहुत भरोसा था । मुगल सेना में सभी अनेक बड़े युद्धों के अनुभवी सिपहसालार थे । उन्होंने राय लूनकरण के इस तर्क को एकमत से स्वीकार किया। रणनीति यही तय हुई कि किसी भी तरह राजपूतों को उकसाकर मैदान में लाया जाए और आमने-सामने की लड़ाई में परास्त किया जाए । दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में यदि युद्ध होता है तो मुगल सेना कदाचित् अनिश्चित काल के लिए वहाँ फँस जाएगी। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
मानसिंह को प्रधान सेनापति बनाकर भेजने के पीछे एक चाल और थी । राणा कुंभा के आमेर को अपने अधीन कर लेने के बाद से आमेर के कछवाहा राजपूत चित्तौड़ के दरबार में हाजिरी भरते थे। स्वयं मानसिंह के पिता राजा भगवानदास भी कुछ समय तक महाराणा प्रताप के पिता राणा उदयसिंह के दरबार में हाजिरी देते रहे, लेकिन बाबर के हाथों राणा साँगा की पराजय के बाद से ही वे मुगलों की बढ़ती शक्ति के प्रति आकर्षित हो रहे थे। बीच में हुमायूँ का अस्त-व्यस्तता का समय आने पर और दिल्ली में शेरशाह सूरी का राज्य स्थापित होने के कारण वे कुछ निर्णय न ले सके, फिर अकबर के समय में मुगलों की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई। अकबर कुछ राजपूतों को अपने साथ मिलाना चाहता था । आमेर के कछवाहा भी इसी अवसर की ताक में थे । उन्होंने न केवल उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, बल्कि मानसिंह की बुआ जोधाबाई का डोला अकबर के हरम की शोभा बढ़ाने को भेजकर इस संबंध को और भी सुदृढ़ कर लिया ।
जाहिर है कि उदयसिंह और उनके बाद राणा प्रताप इस विश्वासघात को भूले न थे। अकबर को विश्वास था कि मानसिंह को अपने विरुद्ध युद्ध का संचालन करते देख राणा प्रताप का खून खौल उठेगा। तय पाया गया कि उचित अवसर देखकर मानसिंह अपना हाथी बढ़ाकर राणा प्रताप के घोड़े के सामने ले आए और अगर फिर भी राणा उत्तेजित न हो तो उसे युद्ध के लिए ललकारे। इस पर प्रताप आपा खोकर मानसिंह पर टूट पड़ेगा। हाथी पर सवार मानसिंह घुड़सवार प्रताप पर भारी पड़ेगा। वह अपने घोड़े को हाथी पर चढ़ाने की कोशिश कर सकता है। इसलिए तय पाया गया कि हाथी की सूँड़ में तीखी दोधारी तलवारें बाँध दी जाएँ, जिनसे राणा का घोड़ा चेतक घायल हो जाए। मानसिंह के हाथी के आस-पास चुनिंदा वीर सैनिकों का एक जबरदस्त दस्ता तैनात कर दिया गया, जिन्हें निर्देश था कि ऐसा अवसर आने पर जिसकी बहुत संभावना थी, वे महाराणा प्रताप को घेरकर मार डालें। अपने महाराणा को मरते देख राजपूतों के हौसले पस्त हो जाएँगे और फिर शेष युद्ध को जीतना सरल हो जाएगा। जैसा कि हम आगे देखेंगे, मुगलों ने इसी रणनीति के तहत काम किया, जो काफी हद तक सफल रही । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
मेवाड़ की विजय अकबर के लिए कितना महत्त्व रखती थी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि युद्ध की रणनीति तय हो जाने के बाद बादशाह अकबर खुद मार्च 1576 में अजमेर आया। उसने ख्वाजा की दरगाह पर माथा टेका और बहुत सा चढ़ावा चढ़ाकर युद्ध में सफलता की मन्नत माँगी । अजमेर में बैठकर अकबर ने भावी युद्ध से संबंधित गतिविधियों का खुद निरीक्षण किया। इसके अतिरिक्त उसे मेवाड़ के इलाकों में होनेवाली गतिविधियों की सूचनाएँ भी यहाँ आसानी से मिल जाती थीं ।
यहाँ एक और तथ्य की चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा। राजपूताना के इतिहास में कर्नल टॉड ने और उनके विवरण से प्रभावित होकर कुछ अन्य लेखकों ने भी लिखा है कि अकबर ने मानसिंह के साथ अपने बेटे सलीम को भी युद्ध में भेजा था। सलीम का जन्म अगस्त 1559 में हुआ था | हल्दीघाटी का युद्ध जून 1576 में हुआ था । इससे साफ जाहिर है कि इस युद्ध के समय सलीम की उम्र सत्रह साल थी । अपने सत्रह साल के बेटे को लड़ाई के मैदान में भेजने की गलती क्या अकबर जैसा समझदार बादशाह कभी करता और वह बेटा, जो उसे बड़ी मन्नतों के बाद मिला था ?
मानसिंह कितनी सेना लेकर आया था – इस बारे में कई आँकड़े मिलते हैं। मेवाड़ के ख्यातों के अनुसार मानसिंह 80 हजार की विशाल सेना लेकर आया था, जबकि राणा प्रताप के पास उसका सामना करने के लिए कुल 20 हजार सैनिक थे। ऐसा प्रतीत होता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में राजपूतों की पराजय का कारण उनका इतनी बड़ी सेना से मुकाबला होना ही था । जाहिर है कि यह राजपूतों की वीरता को साहित्यमंडित करने और उनकी पराजय के बावजूद उनके इतनी विशाल सेना से टकराने का साहस दिखाने के लिए किया गया । साथ ही यह भी कहा जाता है कि इनमें से 14 हजार राजपूत मुगलों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, किंतु तथ्यों की छानबीन से निष्कर्ष निकलता है कि ये आँकड़े बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं। वास्तव में मानसिंह पाँच हजार की सेना लेकर आया था। उसका मुकाबला करने के लिए राणा प्रताप के पास तीन हजार घुड़सवार थे। भीलों की सेना इसके अलावा थी, जिसकी निश्चित संख्या उपलब्ध नहीं है । इतना जरूर कहा जाता है कि इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी। इस बात पर भी सभी इतिहासकार सहमत हैं कि महाराणा प्रताप की सेना से मुगल सेना की संख्या बहुत अधिक थी, जो सर्वथा युक्तिसंगत प्रतीत होता है । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
अकबर ने अपने गुप्तचरों के माध्यम से इस बात का पता लगाने की पूरी कोशिश की थी कि राणा प्रताप के पास कुल कितनी सेना है। निश्चित संख्या कदाचित् उसे नहीं मिली, लेकिन जो अनुमानित संख्या मिली, उससे कहीं अधिक सेना भेजना उसके लिए स्वाभाविक ही था । मानसिंह के पाँच हजार की सेना लेकर आने के तथ्य की पुष्टि एक और बात से भी होती है। मानसिंह को जब अकबर ने मेवाड़ के विरुद्ध जानेवाली सेना का प्रधान सेनापति बनाया तो इसके साथ ही उसे पाँच हजारी मनसबदार का ओहदा भी दिया था ।
राणा प्रताप की सेना में मुख्य सेनापति ग्वालियर के रामसिंह तंवर, राव कृष्णदास, झाला मानसिंह, पुरोहित जगन्नाथ, बीदा झाला, रामदास राठौर, चारण जस्सा, हाकिम खाँ सूर, शंकरदास और भील सरदार पुंजा थे । युद्ध के लिए हल्दीघाटी को चुना गया था, जिसकी मिट्टी हल्दी के रंग का हान के कारण उसका यह नाम हल्दीघाटी पड़ा था । यह मेवाड़ की अति संकीर्ण दरोंवाली घाटियों में से एक थी । पर्वतीय वन प्रदेश से घिरी इस घाटी में युद्ध करना राजपूतों के लिए अत्यधिक अनुकूल था । इसके संकीर्ण मार्गों की रक्षा में तैनात थोड़ी सी सेना भी बड़ी से बड़ी सेना को आगे बढ़ने से रोक सकती थी और उसे पर्याप्त क्षति पहुँचा सकती थी। यदि राजपूतों को पीछे हटना पड़ता तो वे इन सँकरे पहाड़ी मार्गों पर युद्ध करते हुए बहुत लंबे समय, लगभग अनिश्चित काल तक शत्रु को उलझाए रख सकते थे ।
राजपूत सेना गोगूंदा से चलकर हल्दीघाटी पहुँच गई और रणनीति के अनुरूप वहाँ मोरचे जमाकर शत्रु की प्रतीक्षा करने लगी। एक और बात जो राजपूतों के लिए अनुकूल थी, वह थी जून की भीषण गरमी, जिसे सहने के वे आदि थे, लेकिन किसी आक्रामक सेना के लिए इस प्रचंड गरमी में लंबे समय तक युद्ध करना उसे पस्त कर देता । मुगल हालाँकि संख्या में कहीं अधिक थे, लेकिन इन परिस्थितियों में उनके लिए मेवाड़ की सेना का सामना करना कठिन था। इससे स्पष्ट होता है कि मुगलों की अधीनता से इनकार करने और उनका सामना करने का साहस दिखाने में महाराणा प्रताप का राजपूती दंभ नहीं था, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। उसके पीछे ठोस वास्तविकता थी, अपनी सेना की वीरता, मेवाड़ की प्राकृतिक सुरक्षा और अपनी रणनीति पर उन्हें पूरा भरोसा था कि अकबर कितनी भी बड़ी सेना भेज दे, अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए वे उसका सामना कर सकते हैं । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
3 अप्रैल, 1576 को अकबर ने अपने आशीर्वाद के साथ मुँहबोले ‘फर्जंद’ (पुत्र) मानसिंह को उसकी सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए अजमेर से रवाना किया। उसकी सेना में पैदल और घुड़सवारों के अलावा हाथी और तोपखाना भी था। अपनी इस सेना के साथ मानसिंह मांडलगढ़ में आकर रुका । वह दो महीनों तक यहाँ छावनी डाले पड़ा रहा। शायद वह सोचता था कि राणा प्रताप इस लंबी प्रतीक्षा से अपना धैर्य खो देंगे और उस पर मांडलगढ़ में ही आक्रमण करेंगे । वह जहाँ तक हो सके, खुले मैदान में मेवाड़ी सेना का सामना करना चाहता था। भले ही वह मेवाड़ के पर्वतीय प्रदेश के भूगोल से बहुत परिचित न था, पर इतना अवश्य जानता था कि दुर्गम पर्वत- प्रदेश में जहाँ उसका तोपखाना और हाथी व्यर्थ सिद्ध होते, राजपूतों को हराना लगभग असंभव होगा। कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि राणा प्रताप की युद्ध की तैयारी की पूरी सूचना पाकर मानसिंह को अपनी सेना अपर्याप्त लगी और उसने सम्राट् अकबर से और सेना भेजने का आग्रह किया था। अब वह मांडलगढ़ में रुककर उस अतिरिक्त सेना के पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहा था। इस बात में सच्चाई हो सकती है, क्योंकि हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में लगभग सभी इतिहासकार इससे सहमत हैं कि मुगलों की सेना राजपूतों से बहुत अधिक थी । अकबर भी हर कीमत पर मेवाड़ को जीतना चाहता था । अतः उसने मानसिंह के कहने पर और सेना भेजी हो तो कोई बड़ी बात नहीं ।
बहरहाल वजह चाहे और सेना के इंतजार की रही हो या राजपूतों के आक्रमण की, दो महीने के बाद जून के आरंभ में मानसिंह ने मांडलगढ़ छोड़ दिया और माही गाँव में आकर पड़ाव डाला । यह सारा क्षेत्र उसे एकदम वीरान मिला, जिसमें घास का एक तिनका तक न था। आक्रमणकारी को कोई स्थानीय सहायता न मिले, इसके लिए उस सेना के सारे रास्ते को खाली कर दिया जाता था, खेतों में आग लगा दी जाती थी और जलाशयों में विष घोल दिया जाता था। इससे मानसिंह परिचित था । इसलिए वह अपनी सेना के लिए पर्याप्त रसद – पानी लेकर चला था और आक्रमण की योजना बनने के साथ ही पीछे से आपूर्ति आने और संचार के लिए उसने व्यापक व्यवस्था कर ली थी । मांडलगढ़ से चलते हुए उसने जहाँ-जहाँ पड़ाव डाले, वहाँ चौकियाँ स्थापित करके सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था करता आया था, ताकि राजपूत उस मार्ग से आनेवाली रसद वगैरह छापा मारकर लूट न सकें। जून की भयंकर गरमी से बेहाल अपने सैनिकों और पशुओं को विश्राम देने के लिए अंततः उसने मोलेला गाँव में आकर खेमे गाड़े और सेना की छावनी स्थापित की। बनाम नदी यहाँ से लगभग आधा किलोमीटर दूर बहती थी । अतः यह स्थान सेना के पड़ाव के लिए मानसिंह को उपयुक्त लगा । गरमी के कारण उसका पानी काफी सूख गया था और नदी पतले नाले की तरह हो गई थी, लेकिन फिर भी यह जलस्रोत उनके लिए पर्याप्त था । यहाँ से हल्दीघाटी का मुहाना करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था | मानसिंह ने बनाम नदी के साथ-साथ अपनी सेना को बढ़ाने की नीति अपनाई थी, ताकि इस प्राकृतिक जल स्रोत का लाभ उसके सैनिकों और पशुओं को मिले । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
मानसिंह को अपने संधि-वार्ता के लिए मेवाड़ आने के दिनों की याद हो आई, तब वह अमरसिंह के आतिथ्य में ऐसे ही किसी वन प्रदेश में शिकार खेलने गया था। उसने अपने कुछ चुने हुए अंगरक्षकों को साथ लिया और पास के जंगल में शिकार खेलने के लिए निकल पड़ा। उसने इस वन प्रदेश को निरापद समझने की भारी भूल की थी । वह नहीं जानता था कि जंगल का चप्पा-चप्पा वनवासी भीलों की निगरानी में है, जिनकी तीव्र दृष्टि और तीखे बाणों से बचकर कोई नहीं जा सकता । उनके लिए बहुत सरल था कि इस छोटी सी टोली को घेरकर मौत के घाट उतार देते, पर अपने राणा की अनुमति के बिना उन्होंने ऐसा कोई कदम उठाना उचित नहीं समझा । एक भील युवक को तुरंत महाराणा प्रताप को इसकी सूचना देने के लिए दौड़ाया गया। राणा प्रताप ने उसकी बात सुनने पर पल भर सारी स्थिति पर मनन किया और अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि मानसिंह भले ही हमारा शत्रु है पर ऐसी स्थिति में उसे घेरकर मारना कायरता होगी। प्रभु एकलिंग ने चाहा तो युद्ध भूमि में ललकार कर उसे मारेंगे। किंवदंती के अनुसार इतना ही नहीं, राणा प्रताप के आदेश पर एक तीर के पीछे छोटा सा संदेश लिखकर मानसिंह को शिकार खेलने आई टोली के पास फेंका गया, जिसमें उसे सावधान किया गया था कि इस क्षेत्र में शिकार न खेले, यह उसके लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकता है। मानसिंह को तुरंत अपनी भूल का एहसास हो गया। उसने अपने साथियों के साथ घोड़े को एड़ लगाई और सीधे अपनी छावनी में आकर दम लिया।
महाराणा के इस निर्णय पर कहा जाता है कि कुछ भील युवक क्षुब्ध हुए, लेकिन अपने राणा के आदेश की अवहेलना वे नहीं कर सकते थे। अधिकांश राजपूत सामंतों ने राणा प्रताप के इस निर्णय की मुक्तकंठ से प्रशंसा की । यह फैसला आखिर राजपूती आन के अनुरूप था । इस तरह मानसिंह का वध करना उसे धोखे से मारना ही होता, जो राजपूतों ने कभी नहीं किया । युद्ध और प्रेम में सबकुछ जायज होता है, यह नीति अंग्रेजों ने बनाई थी, राजपूतों ने नहीं। अगर उस अवसर का लाभ उठाकर राजपूत मानसिंह को मौत के घाट उतार देते तो संभव है कि अपने प्रधान सेनापति की हत्या से बौखलाए मुगल राजपूतों को दंड देने के लिए हल्दीघाटी के सँकरे पहाड़ी प्रदेश में मोरचे जमाए बैठी मेवाड़ी सेना पर आक्रमण कर देते और इतिहास कुछ और ही होता। सच है, उच्च नैतिकता का पालन करना कभी-कभी बहुत महँगा पड़ता है।
हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून, 1576 को प्रातः लगभग 8 बजे आरंभ हुआ था। दोनों पक्षों के प्रधान सेनापतियों महाराणा प्रताप और कुँवर मानसिंह ने अपनी-अपनी सेनाओं का संयोजन परंपरागत युद्ध शैली में किया था, जिसमें हरावल, चंदावल, दक्षिण और वाम पार्श्व होते हैं । हरावल सेना का अग्रिम भाग होता है, चंदावल पिछला भाग। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है दक्षिण और वाम पार्श्व सेना क्रमश: दाएँ और बाएँ भाग को कहते हैं। प्रधान सेनापति स्वयं इनके केंद्र में होता है। महाराणा प्रताप सिंह ने अपनी सेना के हरावल दस्ते में अपने अत्यंत विश्वस्त सेनापति हाकिम खाँ को तैनात किया था। उसकी सहायता के लिए चूड़ावत कृष्णदास, भीमसिंह, रावत साँगा आदि थे। दक्षिण पार्श्व का नेतृत्व ग्वालियर के राजा रामसिंह तंवर कर रहे थे। उनके साथ सहायता के लिए उनके तीन पुत्र, प्रताप के एक अन्य विश्वस्त सेनापति भामाशाह और उनके भाई ताराचंद थे । वाम पार्श्व मानसिंह झाला के नेतृत्व में था और उनके साथ झाला मान, मानसिंह सोनगरा तथा कुछ अन्य सामंत थे | चंदावल या सेना के पिछले भाग के नेता राणा पुंजा थे। उनके साथ प्रताप के चुने हुए सेनापति और चारण केशव थे। केंद्र में अपने प्रिय घोड़े चेतक पर सवार महाराणा प्रताप थे। भीलों को राणा ने अपने धनुष-बाणों के साथ आस-पास के क्षेत्र की सुरक्षा करने और आवश्यकतानुसार शत्रु पर छापा मारने का काम सौंपा था, जिसका नेतृत्व भील सरदार पुंजा कर रहे थे । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
कुँवर मानसिंह ने भी इसी पद्धति से अपना सेना-संयोजन किया था। उसने अपने हरावल दस्ते में राजा जगन्नाथ, आसफ खान और ग्यासुद्दीन को रखा। दक्षिण पार्श्व के नेता सैयद अहमद खान थे और वाम पार्श्व में गाजी खान तथा राय लोन करफा थे। चंदावल दस्ते का नेतृत्व मानसिंह ने मिहतर खान को सौंपा था और आरक्षित सेना का नायक एक और विश्वस्त व योग्य सेनापति माधोसिंह को बनाया था। मुगलों के पास एक बड़ा तोपखाना और कुछ गाड़ियों पर रखी छोटी तोपें थीं, जिन्हें आवश्यकतानुसार इधर-उधर तेजी से ले जाया जा सकता था । यह उनकी बहुत बड़ी शक्ति थी । आमने-सामने की मैदानी लड़ाई में किसी सेना का तोपों की गोलाबारी में टिक पाना लगभग असंभव था।
मेवाड की सेना के पास ऐसा कोई तोपखाना नहीं था। अगर उसके पास दो-चार तोपें होतीं तो उन्हें पहाड़ की ऊँचाई पर लगाकर वहाँ से मुगल सेना पर विध्वंसक गोलाबारी की जा सकती थी । युद्ध में संसाधन और बेहतर हथियारों का बहुत महत्त्व होता है । कुई युद्धों में तो बड़ी सेनाओं के भी तोपों की गोलाबारी के सामने पैर उखड़ते देखे गए। इसीलिए एक अंग्रेज लेखक ने बहुत सही टिप्पणी की थी कि ईश्वर सदा विशाल और शक्तिशाली सेना की तरफ होता है । अब अगर इन आग उगलनेवाले तोपखाने से बचने का कोई उपाय था तो केवल यही कि घाटी के दर्रों में जाकर बैठे रहें और वहीं से शत्रु का सामना करें । योजना तो यही बनी थी, जो सही थी, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
21 जून को सुबह-सवेरे तैयारियाँ शुरू हो गईं। सभी पशुओं को उनका चारा खिलाया गया। सैनिकों ने नाश्ता किया और गरमी से राहत के लिए शीतल पेय पिया, फिर सबने अपने-अपने मोरचे सँभाल लिए । सबमें शत्रु का सामना करने के लिए विलक्षण उत्साह था। इनमें बहुत से ऐसे युवक थे, जिनके पिता या निकट संबंधी चित्तौड़ के युद्ध में या उसके बाद हुए नरसंहार में मारे गए थे । वे मुगलों से बदला लेने के लिए बेचैन हो रहे थे । अधिकांश सेना नई भरतीवाली और कम समय में प्रशिक्षण पाई हुई थी। उसे युद्ध का कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं था, लेकिन इनमें वीरता की कोई कमी न थी ।
मानसिंह और उसके अनेक युद्धों के अनुभवी सिपहसालार अच्छी तरह जानते थे कि दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में राजपूतों से लड़ना अत्यंत कठिन है। वे उन्हें उकसाकर मैदान में लाना चाहते थे । मानसिंह अपनी सेना लेकर मोलेला से आगे बढ़ा । वह हल्दीघाटी के सँकरे मुहाने पर आकर रुक गया । यह एक छोटा मैदान था, जिसे अब बादशाह बाग कहते हैं । धनुषाकार पहाड़ियों से घिरे इस मैदान की आगे की ऊबड़-खाबड़ धरती पर भी युद्ध करना मुगल सेना के लिए बहुत सुविधाजनक तो न था, लेकिन पहाड़ियों में मोरचा जमाए राजपूतों से लड़ने से कहीं बेहतर था। मानसिंह यहीं रुककर राजपूतों के आक्रमण का इंतजार करने लगा। उसे उम्मीद थी कि राजपूत शत्रु सेना को देखकर जोश में आ जाएँगे और पहाड़ी दर्रों की अपनी सुदृढ़ मोरचाबंदी छोड़कर उस पर आक्रमण करने की गलती जरूर करेंगे।
मानसिंह अपनी चाल में सफल रहा। राजपूतों ने अपना संयम खो दिया। अब उनसे और इंतजार न हो सका। उनकी ओर से रणभेरी गूँजी, मेवाड़ का झंडा फहराता एक हाथी घाटी से निकलकर सामने आया । इसके साथ ही हाकिम खाँ सूर अपने हरावल दस्ते के साथ प्रकट हुआ और आनन-फानन में मुगलों की सामने की रक्षा – पंक्ति पर टूट पड़ा। भयंकर मारकाट मच गई । मानसिंह की मुख्य सेना ने जहाँ मोरचे जमाए थे, बादशाह बाग का वह स्थान अपेक्षाकृत समतल था, लेकिन उसके आगे की जमीन पथरीली और ऊबड़-खाबड़ थी, जिस पर युद्ध करने के मुगल सैनिक अभ्यस्त नहीं थे। राजपूतों के लिए यह कोई कठिनाई नहीं थी । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
प्रताप के हरावल दस्ते का धावा इतना तीव्र था कि देखते-हीदेखते मुगल सेना के पैर उखड़ गए। बहुत से सैनिक तो पथरीली धरती पर अपना संतुलन कायम न रख पाने के कारण मारे गए। यह देखकर राजपूतों का उत्साह दोगुना हो गया। राणा प्रताप को भी किसी बड़े युद्ध का अनुभव न था। अपनी हरावल सेना की सफलता से उत्साहित होकर वे अनुभवी सेनापतियों की बनाई सारी रणनीति भूल गए और पहाड़ी के सुरक्षित मोरचे को छोड़कर अपनी समस्त सेना के साथ मैदान में उतर आए। यह भारी भूल थी, जिसकी कीमत राजपूतों को पराजय के रूप में चुकानी पड़ी।
मुख्य सेना आते ही बादशाह बाग की समतल भूमि पर मोरचे जमार खड़ी मुगल वाहिनी पर टूट पड़ी। हालाँकि यह स्थान यद्ध के लिए मुगलों के भी अनुकूल था, फिर भी आक्रमण इतना तीव्र था कि उनके लिए अपने स्थान पर जमे रहना कठिन हो गया । मानसिंह के दाहिने पार्श्व पर राजपूतों का जबरदस्त दबाव पड़ा। राय लूनकरण और उनके साथी सेनापति जान बचाकर भाग खड़े हुए। मानसिंह की मुख्य सेना के लिए भी पाँव जमाना मुश्किल हो रहा था । उसके कुछ सैनिक भी घबराकर 10-12 कोस की दूरी तक भागते चले गए। ऐसा लगता था कि राजपूतों की जीत निश्चित है।
मुगल सेना पीछे हट रही थी। अपनी पहाड़ी की मोरचाबंदी में राजपूतों के लौटने का तो सवाल ही अब नहीं था । वे जोश से उसका पीछा कर रहे थे। अगर लौटते या रुकते तो मुगलों के पुनर्गठित होने की आशंका थी । लड़ते-लड़ते वे कुछ पीछे उस स्थान पर पहुँच गए जिसे खून की तलाई कहते हैं । यह बनाम नदी के तट पर है । मुगल सेना छिन्न-भिन्न हो रही थी। भारी मारकाट मची थी। मुगल बड़ी बहादुरी से राजपूतों का मुकाबला कर रहे थे । मानसिंह के अधीन मुख्य सेना भी उसके नेतृत्व में डटी थी। हालाँकि उसके भी कुछ सैनिक भाग रहे थे। आसफ खाँ ने तोपों की निरंतर गोलाबारी से अपने स्थान पर राजपूतों की बाढ़ को रोक रखा था। उसकी छोटी सचल तोपें जहाँ राजपूतों का भारी दबाव था, उस पर गोले बरसाकर उसे छिन्न-भिन्न करने का प्रयास कर रही थीं, फिर भी राजपूत मुगलों पर हावी हो रहे थे । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
अपनी सेना की यह दुर्दशा देखकर मुगलों के चंदावल दस्ते का प्रमुख मिहतर खान अपनी टुकड़ी को लेकर आगे आया । अनेक युद्धों का अनुभवी मिहतर खान समझ गया था कि जब तक भागती हुई फौज को रोका नहीं जाता, जीतना असंभव है। उसने एक चाल चली, तुरंत ढोल बजवाकर झूठी मुनादी करवा दी कि खुद शहंशाह अकबर एक बड़ी सेना के साथ युद्ध में पहँच चके हैं। इससे भागती सेना के पैर फिर से जम गए । पर्वतीय प्रदेश के सुरक्षित मोरचे बहुत पीछे छूट गए थे। युद्ध बादशाह बाग से बनाम के किनारे पर पहुँच गया था । अपनी पूरी ताकत से मुगलों से भिड़ने के कारण राजपूत थकने लगे थे। ऐसे में भागती मुगल सेना के पैर जमने और मिहतर खान के ताजादम दस्ते के आक्रमण ने अपना असर दिखाया । तोपों की गोलाबारी जो कहर ढा रही थी, सो अलग । मुगलों को भी भीलों की अचूक तीरंदाजी ने कम बेहाल नहीं किया था। अपने राणा के लिए वे बड़ी वीरता से लड़ रहे थे, हालाँकि उनको भी पहाड़ों की सुरक्षा से तीर चलाने की सुविधा अब नहीं थी ।
युद्ध में थोड़ी स्थिरता आने पर और मिहतर खान की चाल की सफलता देखकर मानसिंह ने अपनी दूसरी सोची-समझी चाल पर अमल किया। अपने हाथी को आगे बढ़ाता हुआ वह राणा प्रताप के सामने पहुँच गया। उसे देखते ही राणा प्रताप का खून खौल गया । उस जातिद्रोही को दंड देने के लिए वे तेजी से आगे बढ़े। राणा प्रताप के इशारे पर उनके सधे हुए घोड़े चेतक ने अपने दोनों अगले पैर मानसिंह के हाथी के मस्तक पर जमा दिए । राणा प्रताप ने अपने भाले से मानसिंह पर प्रहार किया, लेकिन मानसिंह जल्दी ही होदे की ओट में छिप गया । भाले के प्रहार से घायल होकर उसका महावत गिर पड़ा और उसके प्राण पखेरू हो गए । महावत के बिना हाथी चिंघाड़ता हुआ भाग खड़ा हुआ। इस युद्ध में एक दुखद घटना यह घटी कि हाथी पर अपने पैर जमाने के प्रयास में चेतक का एक पैर उसकी सूँड़ में बँधी दोधारी तलवार से बुरी तरह घायल हो गया था। अब वह पहले जैसे फुरती से नहीं लड़ सकता था, फिर भी वह अपने स्वामी के आदेश का यथासंभव पालन कर रहा था । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
मानसिंह तो भाग गया, लेकिन पूर्व नियोजित रणनीति के अनुसार उसके चुने हुए सैनिकों के अंगरक्षक दस्ते ने राणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया। मानसिंह ने यह योजना इसलिए बनाई थी कि अगर युद्ध में राणा प्रताप इस तरह मारा जाता है तो उसे अपने अपमान का बदला तो मिल ही जाएगा। इसके साथ ही अपने महाराणा को मरते देख राजपूत सेना के हौसले भी पस्त हो जाएँगे और वह युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ी होगी। उधर हाकिम खाँ सूर और झाला मान की नजर राणा प्रताप की तरफ ही थी, उन्होंने अपने राणा को संकट में देखा तो वे मानसिंह के अंगरक्षक दस्ते पर टूट पड़े । भयंकर मारकाट मचाते हुए शत्रु की रक्षा पंक्ति को चीरते वे लगातार आगे बढ़ रहे थे । झाला मान अत्यंत वीरता से लड़ता हुआ राणा प्रताप के पास पहुँच गया । पहुँचते ही उसने आग्रह किया, “अन्नदाता, आप अपना छत्र और पताका मुझे दे दें और युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित निकल जाएँ ।”
“यह तो कायरता होगी ।” प्रताप बोले ।
“मेवाड़ को आपकी आवश्यकता है। अपने लिए नहीं अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता का संघर्ष जारी रखने के लिए आप अभी निकल जाइए।” इतना कहते हुए उसने राणा प्रताप को और कुछ कहने का अवसर न देकर उनकी पताका और छत्र स्वयं ले लिया। प्रताप ने घायल चेतक को मोड़ा, कृतज्ञता से एक बार झाला को देखा और निराश भाव से युद्धभूमि से निकल पड़े।
मुगल सैनिकों ने पताका और छत्र देखकर झाला को राणा प्रताप समझ लिया। वे उन पर टूट पड़े। झाला और उनके साथ के सैनिक बड़ी वीरता से लड़े, लेकिन मुगलों की बहुत बड़ी संख्या से लड़ते-लड़ते अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। इसके साथ ही महाराणा के छत्र और पताका का भी पतन हो गया ।
झाला मान को राणा समझने की भूल केवल मुगल सैनिकों से ही नहीं हुई। राजपूत सैनिकों ने भी ध्वज और पताका के साथ अश्वारोही को गिरते देख समझ लिया कि महाराणा प्रताप युद्ध में मारे गए। इससे उनके हौसले पस्त हो गए। अकबर के बड़ी सेना लेकर आने की अफवाह राजपूतों के कानों में पड़ी थी, वे भी निराश हो गए। उन्हें लगा कि पहले हो मुकाबले की टक्कर हो रही थी। अब नई सेना का सामना तो संभव न होगा। देखते ही देखते राजपूत पिछड़ने लगे। जिन राजपूत सैनिकों ने अपने प्रधान सेनानायक महाराणा प्रताप को चेतक पर जाते देख लिया था. वे भी युद्धभूमि से हटने लगे। घायल अश्व पर बैठे प्रताप उस समय उन्हें कोई निर्देश देने की स्थिति में भी न थे । न-भिन्न हो चुकी राजपूत सेना पीछे हट गई। दोपहर तक मुगलों ने यह लड़ाई जीत ली थी, लेकिन जैसा कि अकसर होता है, उन्होंने पीछे हटली सेना का पीछा नहीं किया। उस दिन के कड़े मुकाबले के बाद उसमें इतनी ताकत बाकी न थी कि उनके पीछे भागते । इसके अलावा मनसिंह जानता था कि पीछे हटते हुए राजपूत अपने पहाड़ी मोरचों की सुरक्षा की शरण लेंगे। अपनी थकी-हारी सेना को उनके पीछे भेजना मौत को दावत देना था। पहले ही अपनी वीरता के जौहर दिखाकर उन्होंने मुगल सेना का कम विध्वंस नहीं किया था।
सवार और घोड़ा दोनों घायल थे। चेतक की एक टाँग में तलवार का गहरा घाव लगा था। राणा प्रताप के शरीर पर अनेक जगह घाव हो गए थे, जिनसे रक्त बह रहा था । वे बेहद थके हुए थे। उन्होंने अपना बोड़ा बालिया गाँव की तरफ मोड़ दिया, जो रक्त-तालाब से लगभग दो मील की दूरी पर था।
दो मुगल घुड़सवारों ने झाला सरदार को राणा का छत्र एवं पताका और महाराणा को वहाँ से निकलते देख लिया था। उन्होंने उनका पीछा करना आरंभ कर दिया। उन्हें राणा प्रताप को मारने में सफल होने पर बहुत बड़ा इनाम मिलने का लालच जो था । सम्राट् अकबर ने भी आदेश दिया था कि इस युद्ध में राणा प्रताप को जीवित न क्रेड़ा जाए। घायल प्रताप की हत्या करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं राणा का रूठा हुआ भाई शक्तिसिंह भी इस युद्ध में मानसिंह के कहने पर उसके साथ आया था । मानसिंह उसे यह कहकर लाया था कि राणा द्वारा मेरे और तुम्हारे अपमान का बदला लेने का समय आ गया, लेकिन लड़ाई के मैदान में आकर उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मेवाड़ की स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले अपने बड़े भाई के विरुद्ध तलवार कैसे उठाए। उसमें व्यक्तिगत वीरता की कमी न थी, लेकिन युद्ध में राजपूतों पर वार करने के बजाय उसने केवल अपनी रक्षा करने के लिए ही तलवार चलाई ।
शक्तिसिंह की नजर युद्धभूमि से निकलकर जाते हुए अपने घायल बड़े भाई पर थी। उसने देखा कि मुगल सेना के दो घुड़सवार उनका पीछा कर रहे हैं । शक्तिसिंह ने तुरंत अपना घोड़ा उनके पीछे दौड़ाया । वे प्रताप से थोड़ी दूरी पर पहुँच चुके थे। राणा ने भी देख लिया था कि उनका पीछा हो रहा है। इतने में उन्होंने देखा कि एक घुड़सवार तेजी से आया। उसकी इनसे कुछ बातचीत हुई । इसके बाद उस घुड़सवार ने अचानक वार करके उनमें से एक असावधान मुगल सैनिक का सिर धड़ से अलग कर दिया। दूसरे ने सावधान होकर उसका सामना किया, लेकिन दोनों का कोई मुकाबला न था । इस घुड़सवार ने जरा देर में ही पैंतरा बदलकर वार किया और उस मुगल सैनिक का सिर भी जमीन पर लोटने लगा। हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
महाराणा प्रताप अपने रास्ते पर आगे बढ़ने लगे तो उस घुड़सवार ने आवाज दी, ओ नीले घोड़े के सवार, ठहर जा । “
राणा प्रताप ने चेतक को मोड़ा और तलवार तानकर खड़े हो गए, लेकिन वह पास आकर शीघ्रता से अपने घोड़े से उतरा और अपनी तलवार राणा के कदमों में रख दी ।
“शक्तिसिंह, तुम?” महाराणा के मुख से अचानक निकला। वह दूर से अपने भाई को पहचान नहीं पाए थे। तुरंत घोड़े से उतर पड़े । उत्तर में शक्तिसिंह के मुँह से केवल इतना निकला, “भैया !” बाकी सबकुछ उसके आँसुओं और रुँधे गले ने कह दिया।
बरसों से बिछडे दोनों भाई गले मिले।
“आप यहाँ रुकें नहीं, हो सकता है कुछ और मुगल सैनिक आपको खोजते हुए इधर आ जाएँ ।” शक्तिसिंह बोला । तब तक चेतक धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। थोड़ी ही देर में उसने दम तोड़ दिया । शक्तिसिंह ने राणा को अपना घोड़ा दिया और एक बार फिर जल्दी से निकल जाने को कहा। उसने मृत सिपाहियों में से एक का घोड़ा लिया और तेजी से मुगल छावनी की तरफ चल पड़ा। कहते हैं कि वहाँ जाकर शक्तिसिंह ने सफाई दी कि राणा प्रताप ने उनका पीछा करनेवाले दोनों सवारों को मार डाला। उसने मुझ पर वार किया जिससे घायल होकर मेरा घोड़ा मर गया। मैं बचकर एक मृत सिपाही के घोड़े पर सवार होकर इधर चला आया। मानसिंह को भले ही यह कहानी हजम न हुई हो, पर उसने कुछ कहा नहीं। शायद वह मन-ही-मन भाई की सहायता करने के लिए शक्तिसिंह की प्रशंसा कर रहा था । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ
मानसिंह ने जिन कारणों से भी शक्तिसिंह की संदेहास्पद कहानी को स्वीकार कर लिया। अकबर को उससे बहुत असंतोष हुआ। वास्तविकता समझने में उसे देर नहीं लगी, पर वह भी शक्तिसिंह को नाराज नहीं करना चाहता था । अगर बादशाह उसे दंड देना भी चाहता तो किस आधार पर ? केवल संदेह था, कोई ठोस प्रमाण नहीं । उसने हुक्म दिया कि शक्तिसिंह को सेना से अलग कर दिया जाए ।
छोटी सी बात पर भाई से झगड़कर शत्रुओं से मिल जाने की ग्लानि अंदर ही अंदर शक्तिसिंह को कचोट रही थी । आखिरकार उसने अपने चुने हुए राजपूत साथियों को साथ लेकर वहाँ से मेवाड़ लौट जाने का फैसला कर लिया। उसे लगा कि खाली हाथ महाराणा से मिलना उचित न होगा । अतः एक छोटी सेना एकत्र करके उसने माइनासोर के दुर्ग पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में ले लिया। मेवाड़ आकर महाराणा प्रताप से मिलने पर उसने यह किला उन्हें भेंटस्वरूप दिया।
स्वभाव से विनम्र, सबके प्रति प्रेम भाव रखनेवाले राणा प्रताप ने सूअर के शिकार को लेकर हुए विवाद या उसके परिणामस्वरूप कुलपुरोहित की आत्महत्या के कारण शक्तिसिंह को देशनिकाला नहीं दिया था । वे तो अपने प्रति उसकी घोर ईर्ष्या के कारण सशंकित रहते थे कि कभी कोई बड़ा षड्यंत्र न रच डाले। हल्दीघाटी के मैदान से लौटते समय जिस तरह शक्तिसिंह ने उनकी सहायता की थी, उससे सिद्ध हो गया था कि अब उसके मन में मैल नहीं है। प्रताप ने भाई को प्रेम से गले लगा लिया और उसका जीता हुआ दुर्ग उसे ही जागीर के रूप में वापस लौटा दिया। जिन भाइयों में इतनी दुश्मनी हो गई थी कि एक रुष्ट होकर शत्रु के खेमे में चला गया, अब उनमें सगे भाइयों जैसा प्रेम हो गया। राणा प्रताप ने जब पर्वतों में जगह-जगह अपने स्थान बदलकर मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध करने की योजना बनाई तो उन्होंने अपने बेटे अमरसिंह के परिवार तथा अन्य परिजनों को साथ रखा। लेकिन अपनी वृद्ध माता जैवंताबाई को इस तरह से भटकने का कष्ट न हो, यह सोचकर माइनसोर के किले में शक्तिसिंह के पास भेज दिया। शक्तिसिंह उदयसिंह की दूसरी रानी सज्जाबाई का पुत्र था, पर उसने अपनी विमाता जैवंताबाई का भरपूर आदरमान किया और उनकी सुख-सुविधा का सारा प्रबंध कर दिया। कहते हैं जैवंताबाई भी वहाँ आकर बहुत खुश थीं, क्योंकि वह बेटे शक्तिसिंह से भी प्रताप की तरह ही स्नेह करती थीं । हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ