हनुमान जी की कथा
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हनुमान जी की कथा
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।
बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ हनुमान जी की कथा
भगवान् शङ्करके अंशसे वायुके द्वारा कपिराज केसरीकी पत्नी अञ्जनामें हनुमान्जीका प्रादुर्भाव हुआ। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामकी सेवा शङ्करजी अपने रूपसे तो कर नहीं सकते थे; अतएव उन्होंने ग्यारहवें रुद्ररूपको इस प्रकार वानररूपमें अवतरित किया। जन्मके कुछ ही समय पश्चात् महावीर हनुमान्जीने उगते हुए सूर्यको कोई लाल-लाल फल समझा और उसे निगलने आकाशकी ओर दौड़ पड़े। उस दिन सूर्यग्रहणका समय था। राहुने देखा कि कोई दूसरा ही सूर्यको पकड़ने आ रहा है, तब वह उस आनेवालेको पकड़ने चला; किंतु जब वायुपुत्र उसकी ओर बढ़े, तब वह डरकर भागा। राहुने इन्द्रसे पुकार की। ऐरावतपर चढ़कर इन्द्रको आते देख पवनकुमारने ऐरावतको कोई बड़ा-सा सफेद फल समझा और उसीको पकड़ने लपके। घबराकर देवराजने वज्रसे प्रहार किया। वज्रसे इनकी ठोड़ी (हनु)-पर चोट लगनेसे वह कुछ टेढ़ी हो गयी, इसीसे ये हनूमान् कहलाने लगे। वज्र लगनेपर ये मूच्छित होकर गिर पड़े। पुत्रको मूच्छित देखकर वायुदेव बड़े कुपित हुए। उन्होंने अपनी गति बन्द कर ली। श्वास रुकनेसे देवता भी व्याकुल हो गये। अन्तमें हनुमान्को सभी लोकपालोंने अमर होने तथा अग्नि-जल-वायु आदिसे अभय होनेका वरदान देकर वायुदेवको सन्तुष्ट किया। हनुमान जी की कथा
जातिस्वभावसे चञ्चल हनुमान् ऋषियोंके आश्रमों में वृक्षोंको सहज चपलतावश तोड़ देते तथा आश्रमकी वस्तुओंको अस्त-व्यस्त कर देते थे। अतः ऋषियोंने इन्हें शाप दिया- ‘तुम अपना बल भूले रहोगे। जब कोई तुम्हें स्मरण दिलायेगा, तभी तुम्हें अपने बलका भान होगा।’ तबसे वे सामान्य वानरकी भाँति रहने लगे। माताके आदेशसे सूर्यनारायणके समीप जाकर वेद, वेदाङ्ग प्रभृति समस्त शास्त्रों एवं कलाओंका इन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात् किष्किन्धामें आकर सुग्रीवके साथ रहने लगे। सुग्रीवने इन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। जब बालिने सुग्रीवको मारकर निकाल दिया, तब भी ये सुग्रीवके साथ ही रहे। सुग्रीवके विपत्तिके साथी होकर देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरी ही प्रेरणासे उस समय तुम्हारे मुखसे वैसे वचन निकले थे। इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है। तुमने तो मेरा ही काम किया है। अब तुम जाओ और हृदयमें सदा मेरा ध्यान करती रहो। तुम्हारा स्नेहपाश सब ओरसे टूट जायगा और मेरी इस भक्तिके कारण तुम शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी। मैं सर्वत्र समदृष्टि हूँ। मेरे न तो कोई द्वेष्य है और न प्रिय। मुझे जो भजता है, मैं भी उसीको भजता हूँ; परंतु हे माता! जिनकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित है, वे मुझको तत्त्वसे न जानकर सुख-दुःखोंका भोक्ता साधारण मनुष्य मानते हैं। यह बड़े सौभाग्यका विषय है कि तुम्हारे हृदयमें मेरा यह भवनाशक तत्त्वज्ञान हो गया है। अपने घरमें रहकर मेरा स्मरण करती रहो। तुम कभी कर्मोंसे लिप्त नहीं होओगी।’ (अध्यात्मरामायण) भगवान्के इन वचनोंसे कैकेयीकी स्थितिका पता लगता है। भगवान्के कथनका सार यही है कि “तुम ‘महाभाग्यवती’ हो, लोग चाहे तुम्हें अभागिनी मानते रहें। तुम निर्दोष हो, लोग चाहे तुम्हें दोषी समझें। तुम्हारे द्वारा तो यह कार्य मैंने ही करवाया था। जिन लोगोंकी बुद्धि मायामोहित है, वे ही तुमको मामूली स्त्री समझते हैं, तुम्हारे हृदयमें तो मेरा तत्त्वज्ञान है, तुम धन्य हो!” भगवान् श्रीरामके इन वचनोंको सुनकर कैकेयी आनन्द और आश्चर्यपूर्ण हृदयसे सैकड़ों बार साष्टाङ्ग प्रणाम और प्रदक्षिणा करके सानन्द भरतके साथ अयोध्या लौट गयीं। हनुमान जी की कथा
उपर्युक्त स्पष्ट वर्णनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि कैकेयीने जान-बूझकर स्वार्थबुद्धिसे कोई अनर्थ नहीं किया था। उन्होंने जो कुछ किया, सो श्रीरामकी प्रेरणासे ‘रामकाज’ के लिये! इस विवेचनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि कैकेयी बहुत ही उच्चकोटिकी भक्तहृदया देवी थीं। वे सरल, स्वार्थहीन, प्रेममय, स्नेह-वात्सल्ययुक्त, धर्मपरायणा, बुद्धिमती, आदर्श पतिव्रता, निर्भय वीराङ्गना होनेके साथ ही भगवान् श्रीरामकी अनन्य भक्ता थीं। उनकी जो कुछ बदनामी हुई और हो रही है, सो सब श्रीरामकी अन्तरङ्ग प्रीतिका निदर्शनरूप ही है। जिस देवीने जगत्के आधार, प्रेमके समुद्र, अनन्य रामभक्त भरतको जन्म दिया, वह देवी कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं हो सकती, ऐसी प्रातः स्मरणीया देवीके चरणोंमें बार-बार अनन्त प्रणाम हैं। हनुमान जी की कथा
और नगरवासियोंके द्वारा होना पड़ेगा तथापि | ‘रामकाज’ जरूर करना पड़ेगा! यही रामकी इच्छा है । और इस ‘रामकाज’ के लिये रामने कैकेयीको ही प्रधान | पात्र चुना है। इसीसे यह कलङ्कका चिर टीका उन्हींके | सिर पोता गया है। यह इसीलिये कि वे परब्रह्म श्रीरामकी परम अन्तरङ्ग प्रेमपात्री हैं, वे श्रीरामकी लीलाओंमें सहायिका हैं, उन्हें बदनामी-खुशनामीसे कोई काम नहीं, उन्हें तो सब कुछ सहकर भी ‘रामकाज’ करना है। रामरूपी सूत्रधार जो कुछ पार्ट दें, उनके नाटककी | साङ्गताके लिये उनके आज्ञानुसार इन्हें तो वही खेल | खेलना है, चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो। कैकेयी अपना पार्ट बड़ा अच्छा खेलती हैं। राम अपने ‘काज’ के लिये सीता और लक्ष्मणको लेकर खुशी-खुशी वनके लिये विदा होते हैं। कैकेयी इस समय पार्ट खेल रही थीं, इसीलिये उनको उस सूत्रधारसे, नाटकके स्वामीसे, जिसके इंगितसे जगन्नाटकका प्रत्येक परदा पड़ रहा है और उसमें प्रत्येक क्रिया सुचारुरूपसे हो रही है, एकान्तमें मिलनेका अवसर नहीं मिलता। इसीलिये वे भरतके साथ वन जाती हैं और वहाँ श्रीरामसे-नाटकके स्वामीसे एकान्तमें मिलकर अपने पार्टके लिये पूछती हैं और साधारण स्त्रीकी भाँति लीलासे ही लीलामयसे उनको दुःख पहुँचानेके लिये क्षमा चाहती हैं, परंतु लीलामय भेद खोलकर साफ कह देते हैं कि ‘यह तो मेरा ही कार्य था, मेरी ही इच्छासे, मेरी मायासे हुआ था। तुम तो निमित्तमात्र थी; सुखसे भजन करो और मुक्त हो जाओ।’ वहाँका प्रसङ्ग इस प्रकार है। जब भरत श्रीरामको लौटा ले जानेका बहुत आग्रह करते हैं, किसी प्रकार नहीं मानते, तब भगवान् श्रीरामका रहस्य जाननेवाले मुनि वसिष्ठ श्रीरामके संकेतसे भरतको अलग ले जाकर एकान्तमें समझाते हैं—‘पुत्र! आज मैं तुझे एक गुप्त रहस्य सुना रहा हूँ। श्रीराम साक्षात् नारायण हैं; पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इनसे रावण-वधके लिये प्रार्थना की थी, हनुमान जी की कथा
इसीसे इन्होंने दशरथके यहाँ पुत्ररूपसे अवतार लिया है। श्रीसीताजी साक्षात् योगमाया हैं। श्रीलक्ष्मण शेषके अवतार हैं, जो सदा श्रीरामके साथ उनकी सेवामें लगे रहते हैं। श्रीरामको रावणका वध करना है, इससे वे जरूर वनमें रहेंगे; तेरी माताका कोई दोष नहीं है-
कैकेय्या वरदानादि यद्यनिष्ठुरभाषणम् ॥
सर्व देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं विनिवर्तने ॥ तात रामस्य (अ० रा० २।९। ४५-४६)
‘कैकेयीने जो वरदान माँगे और निष्ठुर वचन कहे थे, सो सब देवका कार्य था-रामकाज था। नहीं तो भला, कैकेयी कभी ऐसा कह सकती? अतएव तुम रामको अयोध्या लौटा ले चलनेका आग्रह छोड़ दो।’ हनुमान जी की कथा
रास्तेमें भरद्वाज मुनिने भी संकेतसे कहा था’भरत! तू माता कैकेयीपर दोषारोपण मत कर । रामका वनवास समस्त देव-दानव और ऋषियोंके परम हित और परम सुखका कारण होगा।’ अब श्रीवसिष्ठजीसे स्पष्ट परिचय प्राप्तकर भरत समझ जाते हैं और श्रीरामकी चरण-पादुका सादर लेकर अयोध्या लौटनेकी तैयारी करते हैं। इधर कैकेयीजी एकान्तमें श्रीरामके समीप जाकर आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहाती हुई व्याकुलहृदयसे हाथ जोड़कर कहती हैं—’श्रीराम! तुम्हारे राज्याभिषेकमें मैंने विघ्न किया था। उस समय मेरी बुद्धि देवताओंने बिगाड़ दी थी और मेरा चित्त तुम्हारी मायासे मोहित हो गया था। अतएव मेरी इस दुष्टताको तुम क्षमा करो; क्योंकि साधु क्षमाशील हुआ करते हैं। फिर तुम तो साक्षात् विष्णु हो, इन्द्रियोंसे अव्यक्त सनातन परमात्मा हो, मायासे मनुष्यरूपधारी होकर समस्त विश्वको मोहित कर रहे हो। तुम्हींसे प्रेरित होकर लोग साधु-असाधु कर्म करते हैं। यह सारा विश्व तुम्हारे अधीन है, अस्वतन्त्र है, अपनी इच्छासे कुछ भी नहीं कर सकता। जैसे कठपुतलियाँ नचानेवालेके इच्छानुसार ही नाचती हैं, वैसे ही यह बहुरूपधारिणी नर्तकी माया तुम्हारे ही अधीन है। तुम्हें देवताओंका कार्य करना था, अतएव तुमने ही ऐसा करनेके लिये मुझे प्रेरणा की। हे विश्वेश्वर! हे अनन्त ! हे जगन्नाथ! मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ तुम अपनी तत्त्वज्ञानरूपी निर्मल तीक्ष्णधार तलवारसे मेरी पुत्र-वित्तादि विषयोंमें स्नेहरूपी फाँसी काट दो। मैं तुम्हारे शरण हूँ।’ (अध्यात्मरामायण) कैकेयीके स्पष्ट और सरल वचन सुनकर भगवान्ने हँसते हुए कहा-‘हे महाभागे ! तुम जो कुछ कहती हो, सत्य कहती हो; इसमें किञ्चित् भी मिथ्या नहीं है। ऋष्यमूकपर ये उनके साथ ही रहते थे। हनुमान जी की कथा
बचपनमें माता अञ्जनासे बार-बार आग्रहपूर्वक इन्होंने अनादि रामचरित सुना था। अध्ययनके समय वेदमें, पुराणोंमें श्रीरामकथाका अध्ययन किया था। किष्किन्धा आनेपर यह भी ज्ञात हो गया कि परात्पर प्रभुने अयोध्या में अवतार धारण कर लिया। अब ये बड़ी उत्कण्ठासे अपने स्वामीके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे। श्रीमद्भागवतमें कहा गया है- ‘जो निरन्तर भगवान्की कृपाकी आतुर प्रतीक्षा करते हुए अपने प्रारब्धसे प्राप्त सुख-दुःखको सन्तोषपूर्वक भोगते रहकर हृदय, वाणी तथा शरीरसे भगवान्को प्रणाम करता रहता है- हृदयसे भगवान्का चिन्तन, वाणीसे भगवान्के नाम-गुणका गानकीर्तन और शरीरसे भगवान्का पूजन करता रहता है, वह मुक्तिपदका स्वत्वाधिकारी हो जाता है।’ श्रीहनुमान्जी तो जन्मसे ही मायाके बन्धनोंसे सर्वथा मुक्त थे। वे तो अहर्निश अपने स्वामी श्रीरामके ही चिन्तनमें लगे रहते थे। अन्तमें श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मणके साथ रावणके द्वारा सीताजीके चुरा लिये जानेपर उन्हें ढूँढ़ते हुए ऋष्यमूकके पास पहुँचे। सुग्रीवको शङ्का हुई कि इन राजकुमारोंको बालिने मेरे मारनेको न भेजा हो। हनुमान्जीको परिचय जाननेके लिये उन्होंने भेजा। विप्रवेष धारणकर हनुमान्जी आये और परिचय पूछकर जब अपने स्वामीको पहचाना, तब वे उनके चरणोंपर गिर पड़े। वे रोते-रोते कहने लगे । हनुमान जी की कथा
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ॥
श्रीरामने उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया। तभीसे हनुमान्जी श्रीअवधेशकुमारके चरणोंके समीप ही रहे। हनुमान्जीकी प्रार्थनासे भगवान्ने सुग्रीवसे मित्रता की और बालिको मारकर सुग्रीवको किष्किन्धाका राज्य दिया। राज्यभोगमें सुग्रीवको प्रमत्त होते देख हनुमान्जीने ही उन्हें सीतान्वेषणके लिये सावधान किया। वे पवनकुमार ही वानरोंको एकत्र कर लाये। श्रीरामजीने उनको ही अपनी मुद्रिका दी। सौ योजन समुद्र लाँघनेका प्रश्न आनेपर जब जाम्बवन्तजीने हनुमान्जीको उनके बलका स्मरण दिलाकर कहा कि ‘आपका तो अवतार ही रामकार्य सम्पन्न करनेके लिये हुआ है, तब अपनी शक्ति का बोधकर केसरीकिशोर उठ खड़े हुए। देवताओंके द्वारा भेजी हुई नागमाता सुरसाको सन्तुष्ट करके समुद्र में छिपी राक्षसी सिंहिकाको मारकर हनुमान्जी लङ्का पहुँचे। द्वाररक्षिका लङ्किनीको एक घूँसेमें सीधा करके छोटा रूप धारणकर ये लङ्कामें रात्रिके समय प्रविष्ट हुए। विभीषणजीसे पता पाकर अशोकवाटिकामें जानकीजीके दर्शन किये। उनको आश्वासन देकर अशोकवनको उजाड डाला। रावणके भेजे राक्षसों तथा रावणपुत्र अक्षयकुमारको मार दिया। मेघनाद इन्हें किसी प्रकार बाँधकर राजसभामें ले गया। वहाँ रावणको भी हनुमान्जीने अभिमान छोड़कर भगवान्की शरण लेनेकी शिक्षा दी। राक्षसराजकी आज्ञासे इनकी पूँछमें आग लगा दी गयी। इन्होंने उसी अग्निसे सारी लङ्का फूँक दी। सीताजीसे चिह्नस्वरूप चूड़ामणि लेकर भगवान्के समीप लौट आये। हनुमान जी की कथा
समाचार पाकर श्रीरामने युद्धके लिये प्रस्थान किया। समुद्रपर सेतु बाँधा गया। संग्राम हुआ और अन्तमें रावण अपने समस्त अनुचर, बन्धु-बान्धवोंके साथ मारा गया। युद्धमें श्रीहनुमान्जीका पराक्रम, उनका शौर्य, उनकी वीरता सर्वोपरि रही। वानरीसेनाके संकटके समय वे सदा सहायक रहे। राक्षस उनकी हुंकारसे ही काँपते थे। लक्ष्मणजी जब मेघनादकी शक्तिसे मूर्च्छित हो गये, तब मार्गमें पाखण्डी कालनेमिको मारकर द्रोणाचलको हनुमान्जी उखाड़ लाये और इस प्रकार संजीवनी ओषधि आनेसे लक्ष्मणजीको चेतना प्राप्त हुई। मायावी अहिरावण जब माया करके राम-लक्ष्मणको युद्धभूमिसे चुरा ले गया, तब पाताल जाकर अहिरावणका वध करके हनुमान्जी श्रीरामजीको भाई लक्ष्मणजीके साथ ले आये। रावणवधका समाचार श्रीजानकीजीको सुनानेका सौभाग्य और श्रीराम लौट रहे हैं—यह आनन्ददायी समाचार भरतजीको देनेका गौरव भी प्रभुने अपने प्रिय सेवक हनुमान्जीको ही दिया। हनुमान जी की कथा
हनुमान्जी विद्या, बुद्धि, ज्ञान तथा पराक्रमकी मूर्ति हैं, किंतु इतना सब होनेपर भी अभिमान उन्हें छू-तक नहीं गया। जब वे लङ्का जलाकर अकेले ही रावणका मानमर्दन करके प्रभुके पास लौटे और प्रभुने पूछा कि ‘त्रिभुवन-विजयी रावणको लङ्काको तुम कैसे जला सके?” तब उन्होंने उत्तर दिया
साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई ।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
हनुमान्जीकी भक्ति तो अतुलनीय है। अयोध्या में राज्याभिषेक हो जानेपर भगवान्ने सबको पुरस्कृत किया। सबसे अमूल्य अयोध्याके कोषकी सर्वश्रेष्ठ मणियोंकी माला श्रीजानकीजीने अपने कण्ठसे उतारकर हनुमान्जीके गलेमें डाल दी। हनुमान्जी मणियोंको ध्यानसे देख-देखकर तोड़ने लगे और मुखमें डालकर फोड़ने भी लगे। दुर्लभ रत्नोंको इस प्रकार नष्ट होते देख कुछ लोगोंको बड़ा कष्ट हुआ। कुछने उन्हें रोका। हनुमान्जीने कहा—’मैं इनमें भगवान्का नाम तथा उनकी मूर्ति ढूँढ़ रहा हूँ। जिस वस्तुमें मेरे स्वामी श्रीसीतारामका नाम न हो, जिसमें उनकी मूर्ति न हो, वह तो व्यर्थ है।’ प्रश्न करनेवालेने पूछा-‘क्या आपके शरीरमें वह मूर्ति और नाम है?’ तुरन्त अपने नखोंसे हनुमान्जीने छातीका चमड़ा फाड़कर सबको दिखाया। उनके रोम-रोममें ‘राम’ यह परम दिव्य नाम अङ्कित था और उनके हृदयमें श्रीजनकनन्दिनीजीके साथ सिंहासनपर बैठे महाराजाधिराज श्रीअवधेशकी भुवनसुन्दर मूर्ति विराजमान थी। सब लोग ‘जयजयकार करने लगे। भगवान्ने हनुमान्जीको हृदयसे लगा लिया। हनुमान जी की कथा
हनुमान्जी आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। व्याकरणके महान् पण्डित हैं, वेदज्ञ हैं, ज्ञानिशिरोमणि हैं, बड़े विचारशील, तीक्ष्णबुद्धि तथा अतुलपराक्रमी हैं। श्रीहनुमान्जी बहुत निपुण संगीतज्ञ और गायक भी हैं। एक बार एक देव-ऋषि-दानवोंके महान् सम्मेलनमें जलाशयके तटपर भगवान् शङ्कर तथा देवर्षि नारदजी आदि गा रहे थे। अन्यान्य देवर्षि-दानव भी योग दे रहे थे। इतनेमें ही हनुमान्जीने मधुर स्वरसे ऐसा सुन्दर गान आरम्भ किया कि जिसे सुनकर उन सबके मुख म्लान हो गये, जो बड़े उत्साहसे गा-बजा रहे थे और सभी अपना-अपना गान छोड़कर मोहित हो गये और चुप होकर सुनने लगे। उस समय केवल हनुमान्जी ही गा रहे थे हनुमान जी की कथा
ग्लानमम्लानमभवत् कृशाः पुष्टास्तदाभवन् ।
स्वां स्वां गीतिमतः सर्वे तिरस्कृत्यैव मूर्छिताः ॥ तूष्णीम्भूतं समभवद् देवर्षिगणदानवम्।
एक: स हनुमान् गाता श्रोतारः सर्व एव ते ॥
(पद्मपुराण, जबतक पृथ्वीपर श्रीरामकी कथा रहेगी, तबतक पृथ्वीपर रहनेका वरदान उन्होंने स्वयं प्रभुसे माँग लिया है। श्रीरामजीके अश्वमेधयज्ञमें अश्वकी रक्षा करते समय जब अनेक महासंग्राम हुए, तब उनमें हनुमान्जीका पराक्रम ही सर्वत्र विजयी हुआ। महाभारतमें भी केसरीकुमारका चरित है। वे अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठे रहते थे। उनके बैठे रहनेसे अर्जुनके रथको कोई पीछे नहीं हटा सकता था। कई अवसरोंपर उन्होंने अर्जुनकी रक्षा भी की। एक बार भीम, अर्जुन और गरुड़जीको आपने अभिमानसे भी बचाया था। हनुमान जी की कथा
पातालखंड)
कहते हैं कि हनुमान्जीने अपने वज्रनखसे पर्वतकी शिलाओंपर एक रामचरित-काव्य लिखा था। उसे देखकर महर्षि वाल्मीकिको दुःख हुआ कि यदि वह काव्य लोकमें प्रचलित हुआ तो मेरे आदिकाव्यका समादर न होगा। ऋषिको सन्तुष्ट करनेके लिये हनुमान्जीने वे शिलाएँ समुद्रमें डाल दीं। सच्चे भक्तमें यश, मान, बड़ाईकी इच्छाका लेश भी नहीं होता। वह तो अपने प्रभुका पावन यश ही लोकमें गाता है। हनुमान जी की कथा
श्रीरामकथा-श्रवण, राम-नामकीर्तनके हनुमान्जी अनन्यप्रेमी हैं। जहाँ भी रामनामका कीर्तन या रामकथा होती है, वहाँ वे गुप्तरूपसे आरम्भमें ही पहुँच जाते हैं। दोनों हाथ जोड़कर सिरसे लगाये सबसे अन्ततक वहाँ वे खड़े ही रहते हैं। प्रेमके कारण उनके नेत्रोंसे बराबर आँसू झरते रहते हैं। उन अनन्य तथा अतुलनीय श्रीरामभक्तके पावन पदकमलोंमें अनन्त नमस्कार ! हनुमान जी की कथा
ओर पड़ने के लिया निसे नजर दे
1 भक्त सुव्रत की कथा 2 भक्त कागभुशुण्डजी की कथा 3 शांडिल्य ऋषि की कथा 4 भारद्वाज ऋषि की कथा 5 वाल्मीक ऋषि की कथा 6 विस्वामित्र ऋषि की कथा 7 शुक्राचार्य जी की कथा 8 कपिल मुनि की कथा 9 कश्यप ऋषि की कथा 10 महर्षि ऋभु की कथा 11 भृगु ऋषि की कथा 12 वशिष्ठ मुनि की कथा 13 नारद मुनि की कथा 14 सनकादिक ऋषियों की कथा 15 यमराज जी की कथा 16 भक्त प्रह्लाद जी की कथा 17 अत्रि ऋषि की कथा 18 सती अनसूया की कथा
1 गणेश जी की कथा 2 राजा निरमोही की कथा 3 गज और ग्राह की कथा 4 राजा गोपीचन्द की कथा 5 राजा भरथरी की कथा 6 शेख फरीद की कथा 7 तैमूरलंग बादशाह की कथा 8 भक्त हरलाल जाट की कथा 9 भक्तमति फूलोबाई की नसीहत 10 भक्तमति मीरा बाई की कथा 11 भक्तमति क
र्मठी बाई की कथा 12 भक्तमति करमेति बाई की कथा
1 कवि गंग के दोहे 2 कवि वृन्द के दोहे 3 रहीम के दोहे 4 राजिया के सौरठे 5 सतसंग महिमा के दोहे 6 कबीर दास जी की दोहे 7 कबीर साहेब के दोहे 8 विक्रम बैताल के दोहे 9 विद्याध्यायन के दोह 10 सगरामदास जी कि कुंडलियां 11 गुर, महिमा के दोहे 12 मंगलगिरी जी की कुंडलियाँ 13 धर्म क्या है ? दोहे 14 उलट बोध के दोहे 15 काफिर बोध के दोहे 16 रसखान के दोहे 17 गोकुल गाँव को पेंडोही न्यारौ 18 गिरधर कविराय की कुंडलियाँ 19 चौबीस सिद्धियां के दोहे 20 तुलसीदास जी के दोहे अगस्त्य ऋषि कौन थे उनका परिचय
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