सूरदासजी की पद रचनाएं lyrics
श्री सूरदासजी की पद रचनाएं lyrics
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नाम
( ३१ ) राग भैरवी
रे मन, कृष्णनाम कहि लीजै ।
गुरुके बचन अटल करि मानहि, साधु समागम कीजै ॥
पढ़िये गुनिये भगति भागवत, और कहा कथि कीजै ।
कृष्णनाम बिनु जनमु बादिही, बिरथा काहे जीजै ।।
कृष्णनाम रस बह्यो जात है, तृषावन्त हैं पीजै ।
सूरदास हरिसरन ताकिये, जनम सफल करि लीजै ॥
( ३२ ) राग सारंग
जो सुख होत गोपालहि गाये।
सो नहिं होत किये जप-तपके कोटिक तीरथ न्हाये ॥
दिये लेत नहिं चारि पदारथ, चरन कमल चित लाये ।
तीनि लोक तृन सम करि लेखत, नँदनंदन उर आये ॥
बंसीबट बृंदाबन जमुना, तजि बैकुंठ को जाये ।
सूरदास हरिको सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आये ॥
विनय
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( ३३ )राग सारंग
नाथ मोहिं अबकी बेर उबारो ।
तुम नाथनके नाथ सुवामी, दाता नाम तिहारो ।
करमहीन जनमको अंधो, मोते कौन नकारो ॥
तीन लोकके तुम प्रतिपालक, मैं हूँ दास तिहारो।
तारी जाति कुजाति स्याम तुम मोपर किरपा धारो ।।
पतितनमें इक नायक कहिये, नीचनमें सरदारो ।
कोटि पाप इक पासँग मेरे अजामिल कौन बिचारो ॥
नाठो धरम नाम सुनि मेरो, नरक दियो हठि तारो ।
मोको ठौर नहीं अब कोऊ, अपनी बिरद सम्हारो ॥
छुद्र पतित तुम तारै रमापति, अब न करो जिय गारो ।
सूरदास साचो तब माने, जो ह्वै मम निस्तारो ॥
(३४) राग आसावरी
दीनन दुखहरन देव, संतन सुखकारी।
अजामील गीध ब्याध, इनमें कहो कौन साध,।
पंछीहू पद पढ़ात गनिका- सी तारी ॥
ध्रुवके सिर छत्र देत, प्रह्लाद कहँ उबार लेत,।
भगत हेत बाँध्यो सेत, लंकापुरी जारी ॥
तंदुल देत रीझ जात, सागपातसों अघात,।
गिनत नहिं जूठे फल खाटे-मीठे-खारी ॥
गजको जब ग्राह ग्रस्यो, दुस्सासन चीर खस्यो,।
सभा बीच कृष्ण कृष्ण, द्रौपदी पुकारी ॥
इतनेमें हरि आइ गये, बसनन आरूढ़ भये; ।
सूरदास द्वारे ठाढ़ो, आँधरो भिखारी ॥
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( ३५ ) राग आसावरी
अबकी राखि लेहु भगवान ।
हम अनाथ बैठे द्रुम- डरियाँ, पारधि साध्यो बान ॥
ताके डर निकसन चाहत हैं, ऊपर रह्यो सचान ।
दुहूँ भाँति दुख भयो कृपानिधि, कौन उबारै प्रान ।।
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, लाग्यो तीर सचान।
सूरदास गुन कहँ लग बरनौ, जै जै कृपानिधान ॥
( ३६ ) राग नट
प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो ।
समदरसी प्रभु नाम तिहारो अपने पनहि करो ॥
इक लोहा पूजामें राखत इक घर बधिक परो ।
यह दुबिधा पारस नहिं जानत कंचन करत खरो ॥
एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
जब मिलिकै दोउ एक बरन भए सुरसरि नाम परो ।।
एक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरस्याम झगरो ।
अबकी बेर मोहि पार उतारो नहिं पन जात टरो ॥
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( ३७ ) राग सारंग
माधव! मोहि काहेकी लाज ?
जनम जनम ह्वै रहो मैं ऐसौ अभिमानी बेकाज ॥
कोटिक कर्म किये करुनामय या देहीके साज।
निसिबासर बिषयारत रुचितें कबहुँ न आयो बाज ॥
बहुत बार जल थल जग जायो भ्रम आयो दिन देव ।
औगुनकी कछु सकुच न संका परि आई यह टेव ॥
अब अनखाय कहौं घर अपने राखो बाँधि बिचारि ।
सूर स्वानके पालनहारे लावत है दिन गारि ॥
(३८) राग देवगंधार
तुम मेरी राखो लाज हरी ।
तुम जानत सब अंतरजामी, करनी कछु न करी ॥
औगुन मोते बिसरत नाहीं, पल छिन घरी घरी ।।
सब प्रपंचकी पोट बाँधि कै, अपने सीस धरी ॥
दारा – सुत-धन मोह लिये हैं, सुधि – बुधि सब बिसरी ।।
सूर पतित को बेग उधारो, अब मेरी नाव भरी ॥
दैन्य
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(३९)
अब मैं नाच्यों बहुत गुपाल ।
काम क्रोधको पहिरि चोलना, कंठ बिषयकी माल ॥
महा मोहके नूपुर बाजत, निंदा शब्द रसाल ।
भरम भर्यो मन भयो पखावज, चलत कुसंगत चाल ॥
तृष्ना नाद करत घट भीतर, नाना बिधि दै ताल ।
मायाको कटि फेंटा बाध्यो लोभ तिलक दै भाल ॥
कोटिक कला काँछि देखराई, जलथल सुधि नहिं काल ।
सूरदासकी सबै अबिद्या, दूरि करौं नँदलाल ॥
( ४० ) राग आसावरी
मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमकहरामी ॥
भरि – भरि उदर बिषयकों धायो जैसे सूकर ग्रामी ।
हरिजन छाँड़ि हरी बिमुखनकी निसि दिन करत गुलामी ॥
पापी कौन बड़ो जग मोते सब पतितनमें नामी ।।
सूर पतितको ठौर कहाँ है, तुम बिनु श्रीपति स्वामी ॥
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( ४१ ) राग भैरवी
सुने री मैंने निरबलके बल राम ।
पिछली साख भरूँ संतनकी, अड़े सँवारे काम ॥
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम ।
निरबल है बल राम पुकार्यो आये आधे नाम ।।
द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन, तजि आये निज धाम ।
दुस्सासनकी भुजा थकित भई, बसन रूप भये स्याम ।।
अप-बल, तप-बल और बाहु- बल, चौथो है बल दाम ।
सूर किसोर कृपातें सब बल हारेको हरिनाम ॥
निर्धनका धन –
(४२)
माई मेरे निरधन को धन राम ॥ टेर ॥
खरचे ना खूटे चोर ना लूंटे, भीड़ पड़े आवे काम ॥
दिन दिन सूरज सवायो ऊगे, घटत न एक छदाम ॥
राम-नाम मेरे हिरदे में राखूँ, ज्यों लोभी राखे दाम ॥
‘सूरदास’ के इतनी ही पूँजी, रतन मणी से नहिं काम ॥
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चेतावनी
(४३) राग आसावरी
भजन बिनु कूकर सूकर जैसो ।
जैसे घर बिलावके मूसा, रहत बिषय बस तैसो ॥
बकी और बक गीध गीधनी, आइ जनम लिय वैसो ।।
उनहूँके ये सुत दारा हैं, इन्हें भेद कहु कैसो ॥
जीव मारिकैं उदर भरत हैं, तिनके लेखे ऐसो ।।
सूरदास भगवंत – भजन बिनु, मनो ऊँट खर भैंसो ॥
(४४)
रे मन मूरख जनम गँवायो ।
कर अभिमान बिषयसों राज्यों, नाम सरन नहिं आयो ।।
यह संसार फूल सेमरको सुंदर देखि लुभायो ।।
चाखन लाग्यो रूई उड़ि गइ, हाथ कछू नहिं आयो ।।
कहा भयो अबके मन सोचे, पहिले नाहिं कमायो ।।
सूरदास हरि नाम-भजन बिनु सिर धुनि धुनि पछितायो ॥
(४५)
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं।
ता दिन तेरे तन – तरुवरके सबै पात झरि जैहैं ।।
घरके कहिहैं बेगहिं काढ़ो, भूत भये कोउ खैहैं।
जा प्रीतमसों प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरैहैं ।।
कहँ वह ताल कहाँ वह शोभा, देखत धूरि उड़े हैं।
भाई बन्धू कुटुंब कबीला, सुमिरि – सुमिरि पछितैहैं ॥
बिना गुपाल कोऊ नहिं अपनों, जस कीरति रहि जैहैं।
सो तो सूर दुर्लभ देवनको, सत-संगति महँ पैहैं ॥
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भक्त-महिमा
(४६)
हम भगतनके भगत हमारे ।
सुन अरजुन परतिग्या मोरी यह ब्रत टरत न टारे ।।
भगतन काज लाज हिय धरिकै पाँय पियादे धायौ ।
जहँ-जहँ भीर परै भगतनपै तहँ तहँ होत सहायौ ।।
जो भगतनसों बैर करत है सो निज बैरी मेरो ।
देख बिचार भगत-हित कारन हाँकत हौं रथ तेरो ॥
जीते जीत भगत अपनेकी हारे हार बिचारों ।
सूर स्याम जो भगत-बिरोधी चक्र सुदरसन मारों ॥
वेदान्त
(४७) राग आसावरी
अपुनपो आपुन ही बिसर्यो ।
जैसे स्वान काँच-मंदिरमें भ्रमि भ्रमि भूसि मर्यो ।।
हरि सौरभ मृग नाभि बसतु है, द्रुमतृन सूधि मर्यो ।
ज्यों सपनेमें रंक भूप भयो तसकरि अरि पकर्यो ।।
ज्यों केहरि प्रतिबिंब देखिकैं, आपुन कूप पर्यो ।
ऐसे गज लखि फटिक-सिलामें, दसनन जाइ अर्यो ।।
मरकट मूठि छाँड़ि नहिं दीनी, घर-घर द्वार फिर्यो ।
सूरदास नलिनीको सुवटा, कहि कौने जकर्यो ।।
लीला
(४८) राग बिलावल
जागिये ब्रजराजकुँअर कमल कुसुम फूले ।
कुमुद – बृंद सकुचित भये भृंग लता फूले ॥
तमचुर खग रौर सुनहु बोलत बनराई ।।
राँभति गौ खरिकनमें बछरा हित धाई ॥
बिधु मलीन रबिप्रकास गावत नर-नारी ।।
सूर स्याम प्रात उठौ अंबुज कर धारी ॥
( ४९ ) राग गौरी
जसोदा हरि पालने झुलावै ।
हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोई कछु गावै ॥
मेरे लालको आउ निदरिया काहे न आनि सुआवै।
तू काहे न बेगि – सी आवै तोको कान्ह बुलावै ॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन है है रही कर कर सैन बतावै ॥
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै ।
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ सो नँद भामिनि पावै ॥
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( ५० ) राग देवगंधार
कहन लगे मोहन मैया मैया ।
पिता नंदसों बाबा बाबा अरु हलधरसों भैया ॥
ऊँचे चढ़ि चढ़ि कहत जसोदा लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि कहूँ जिनि जाहु लला रे मारेगी काहूकी गैया ॥
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर लेत बलैया ।
मनिखंभन प्रतिबिंब बिलोकत नचत कुँवर निज पैया ॥
नंद जसोदाजीके उरतें इह छबि अनत न जइया ।
सूरदास प्रभु तुमरे दरसको चरननकी बलि गइया ।।
(५१ ) राग रामकली
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी ?
किती बार मोहि दूध पिवत भई यह अजहूँ है छोटी ।।
तू जो कहति बलकी बेनी ज्यों हैहै लाँबी मोटी ।
काढ़त गुहत न्हवावत ओंछति नागिन – सी भुइँ लोटी ॥
काचो दूध पिवावत पचि पचि देत न माखन रोटी ।
सूर स्याम चिरजिव दोउ भैया हरि हलधरकी जोटी ॥
(५२)
गोपाल मेरो माँगत माखन रोटी ॥ टेर ॥
अपने लाल हित रोटी बनाऊँ इक छोटी इक मोटी ॥
अपने लाल की झँगुली सिवाऊँ, हीरा लाल जरि टोपी ॥
अपने लाल को ब्याह रचाऊँ, बड़े भूप की बेटी ॥
‘सूरदास’ प्रभु जसुमति आगे, रहे धरनि पर लोटी ।।
( ५३ ) राग तिलक
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो ।
भोर भयो गैयनके पाछे, मधुबन मोहि पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ।
मैं बालक बहिंयनको छोटो, छींको किहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं बरबस मुख लपटायो ॥
तू जननी मनकी अति भोरी, इनके कहे पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजिहैं जानि परायो जायो ।
यह लै अपनी लकुट कमरिया बहुतहि नाच नचायो ।
सूरदास तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो ॥
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( ५४ ) राग गौरी
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो ।
मोसो कहत मोलको लीनो तोहि जसुमति कब जायो ।।
कहा कहौं एहि रिसके मारे खेलन हौं नहिं जातु ।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तुम्हरो तातु ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी तुम कत स्याम सरीर ।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल सब सिखै देत बलबीर ॥
तू मोहीको मारन सीखी दाउहि कबहु न खीझै ।
मोहनको मुख रिस समेत लखि जसुमति सुनि सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधनकी सौं हौं माता तू पूत ॥
(५५) राग धनाश्री
ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं ।
हंससुताकी सुंदर कलरव अरु तरुवनकी छाहीं ॥
वे सुरभी वे बच्छ दोहनी खिरक दुहावन जाहीं ।
ग्वालबाल सब करत कुलाहल नाचत गह-गह बाहीं ॥
यह मथुरा कंचनकी नगरी मनि-मुक्ता जिहि माहीं ।
जबहिं सुरत आवत वा सुखकी जिया उमगत सुध नाहीं ॥
अनगिन भाँति करी बहु लीला जसुदा – नंद निबाहीं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन मह यह कह कह पछिताहीं ॥
(५६) राग रामकली
सँदेसो देवकी सों कहियो ।
हौं तो धाइ तुम्हारे सुतकी मया करत नित रहियो ।
जदपि टेव तुम जानत उनकी तऊ मोहि कहि आवै ।
प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हको माखन रोटी भावै ॥
तेल उबटनो अरु तातो जल ताहि देखि भगि जावै ।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती क्रम क्रम करि करि न्हावै ॥
सूर पथिक सुनि मोहिं रैन दिन बढ्यो रहत उर सोच ।
मेरो अलक लडैतो मोहन हैहै करत सकोच ॥
(५७)
इहिं उर माखन चोर गड़े ।
अब कैसें निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे है जु अड़े ॥
जदपि अहीर जसोदा नंदन, कैसै जात छँड़े।
हाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥
को बसुदेव देवकीनंदन, को जानै कौ बूझे ।
सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥
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(५८) राग बिहाग
मधुकर स्याम हमारे चोर ।
मन हर लियो माधुरी मूरत निरख नयनकी कोर ॥
पकरे ह्ते आन उर अंतर प्रेम प्रीतिके जोर ।
गये छुड़ाय तोरि सब बंधन दै गये हँसन अकोर ॥
उचक परों जागत निसि बीते तारे गिनत भई भोर ।
सूरदास प्रभु हत मन मेरो सरबस लै गयो नंदकिसोर ॥
(५९) राग सोरठ
हम न भईं बृंदाबन रेनु ।
जिन चरनन डोलत नँदनंदन नित प्रति चारत धेनु ॥
हमतें धन्य परम ये द्रुम बन बाल बच्छ अरु धेनु ।
सूर सकल खेलत हँसि बोलत ग्वालन सँग मथि पीवत धेनु ॥
( ६० ) राग सारंग
ऊधो मन न भये दस बीस ।
एक हुतो सो गयो स्याम सँग को अवराधै ईस ॥
इंद्री सिथिल भई केसो बिन ज्यों देही बिन सीस ।
आसा लगी रहत तनु स्वासा जीजो कोटि बरीस ॥
तुम तो सखा स्यामसुंदरके सकल जोगके ईस ।
सूरदास वा रसकी महिमा जो पूँछें जगदीस ॥
( ६१ ) राग सारंग
निर्गुन कौन देसको बासी ?
मधुकर ! हँसि-समुझाय सौंह दे, बूझति साँच न हाँसी ।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी ।।
कैसो बरन, भेस है कैसो, केहि रसमें अभिलासी ।।
पावैगो पुनि कियो आपनो, जो रे ! कहैगो गाँसी ।।
सुनत मौन है रह्यो ठग्यो सो, सूर सबै मति नासी ।।
( ६२ ) राग सारंग
बिनु गुपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई बिषम ज्वालकी पुंजैं ॥
बृथा बहत जमुना खग बोलत, बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन, पानि, घनसार, सजीवनि, दधि- सुत- किरन भानु भइँ भुंजैं ॥
ये ऊधो कहियो माधवसों, बिरह करत कर मारत लुंजैं ।
सूरदास प्रभुको मग जोवत, अँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं ॥
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( ६३ ) राग सारंग
निसिदिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहत पावस ऋतु हमपर जबतें स्याम सिधारे ॥
अंजन थिर न रहत अँखियनमें कर कपोल भये कारे ।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहै जात सित तारे ।
सूरदास अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे ॥
प्रेम
(६४) राग भीमपलासी
सबसों ऊँची प्रेम सगाई ।
दुरजोधनके मेवा त्यागे, साग बिदुर घर खाई ।।
जूठे फल सबरीके खाये, बहु बिधि स्वाद बताई ।
प्रेमके बस नृप सेवा कीन्हीं आप बने हरि नाई ॥
राजसु जग्य जुधिष्ठिर कीन्हों तामें जूँठ उठाई।
प्रेमके बस पारथ रथ हाँक्यो, भूलि गये ठकुराई ॥
ऐसी प्रीति बढ़ी बृंदाबन, गोपिन नाच नचाई ।
सूर कूर इहि लायक नाहीं, कहँ लगि करौं बड़ाई |
(६५)
अँखियाँ हरि दरसनकी प्यासी ।
देख्यौ चाहत कमलनैनको, निसिदिन रहत उदासी ॥
केसर तिलक मोतिनकी माला, बृंदाबनके बासी ।
नेह लगाय त्यागि गये तृन सम, डारि गये गल-फाँसी ॥
काहूके मनकी को जानत, लोगनके मन हाँसी ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिन, लैहों करवट कासी ॥
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