विश्वामित्र जी की कथा । vishvamitra ji ki katha
विश्वामित्र जी की कथा
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ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र जी की कथा
संक्षिप्त परिचय विश्वामित्र जी की कथा
ब्रह्मर्षि तपोमूर्ति विश्वामित्र जी कुशिक वंशमें महाराज गाधी के पुत्र हुए। वंश के नाम पर इन्हें कौशिक कहा जाता है। इन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था।
महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम पर कामधेनु
महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पर एक बार यह सेना सहित पहुंचे। अपनी कामधेनु की शक्ति से महर्षि ने इनका यथोचित सत्कार किया। उस गौका प्रभाव देखकर राजा विश्वामित्र जी ने उसे लेना चाहा। जब मैं महर्षि ने स्वेच्छा से देना अस्वीकार कर दिया तब वे बलात उसे ले जाने लगे; किंतु वशिष्ठ जी की अनुमति से कामधेनु ने अपने शरीर से लाखों सैनिक प्रकट करके इनकी सेना को पराजित कर दिया। अब यह तप करके वशिष्ठ को पराजित करने में लगे। जब तपस्या करके शंकर जी द्वारा प्राप्त दिव्यास्त्र भी ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ के ब्रह्मदंड में लीन हो गये, तब विश्वामित्र जी ने स्वयं ब्राह्मणत्व प्राप्त करने का निश्चय किया।
भक्तिमार्ग में यह विष के समान है
तपस्या में साधन में भगवान के भजन में जीव के कल्याण के जितने मार्ग हैं, उन सब में काम क्रोध और लोभ ही सबसे बड़े बाधक है। यह तीनों नरक के द्वार है। कोई कितना विद्वान बुद्धिमान तपस्वी क्यों न हो यदि काम क्रोध लोभ में से एक के भी बश हो जाता है तो उसकी विद्या बुद्धि तप का कोई अर्थ नहीं। ये तीनों विकार बुद्धि को मोह में डाल देते हैं और बुद्धि भ्रम से जीव का सर्वनाश हो जाता है। विश्वामित्र जी जैसा महान तप कदाचित ही किसी ने किया हो; किंतु अनेक बार काम क्रोध या लोभने उनके बड़े कष्ट से उपार्जित तप का नाश कर दिया। इंद्र की भेजी मेनका अप्सरा ने एक बार उन्हें प्रलुब्ध कर लिया।
धरती और आकाश के बिच त्रिशंकु नगरी
दूसरी बार राजा त्रिशंकु वशिष्ठ जी का शाप होने पर भी इनके पास सह शरीर स्वर्ग जाने के लिए आया। विश्वामित्र जी ने उसे यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया। उस यज्ञ में दूसरे सब ऋषि आए किंतु वशिष्ठ के सौ पुत्रों में से कोई न आया। रोष में आकर विश्वामित्र ने वशिष्ठ के सभी पुत्रों को मार डाला अपने तपोबल से त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेज दिया और जब देवताओं ने उसे नीचे ढकेल दिया तब मध्य में ही वह रुका रहे यह व्यवस्था विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से कर दी। इस प्रकार बार-बार तबके नाश से भी वे महाभाग निराश नहीं हुए। तपस्या के प्रभाव से वे इतने समर्थ हो गए की दूसरी सृष्टि करने लगे। अनेकों नवीन प्राणी शरीर जो ब्राह्मी सृष्टि में नहीं थे उन्होंने बनाये। भगवान ब्रह्मा ने उनको इस सृष्टि कार्य से रोका और ब्राह्मणत्व प्रदान किया। वशिष्ठ जी ने उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार किया।
काम क्रोध लोभ मोह पर विजय प्राप्त करना
काम क्रोध और लोभ के कारण अनेक बार विघ्न पड़ने से विश्वामित्र जी ने इन तीनों विकारों की नाशक शक्ति को पहचान लिया था। उन्होंने भगवान का आश्रय लेकर इन तीनों को सर्वथा छोड़ दिया। उनके आश्रम में प्रत्येक पर्व के समय रावण के अनुचर मारीच और सुबाहु राक्षसी सेना लेकर चढ़ आते और हड्डी रक्त मांस मल मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं की वर्षा करके यज्ञ को दूषित कर देते। महर्षि विश्वामित्र इन राक्षसों के उपद्रव से यज्ञ कर नहीं पाते थे। इतने पर भी शाप देकर राक्षसों को भस्म करने का संकल्प तक उनके मन में नहीं उठा। समर्थ होने पर भी क्रोध को उन्होंने वश में रखा। लोभ को तो फिर आने ही नहीं दिया। जब इन्हें पता लगा कि भगवान ने पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अयोध्या में अवतार ले लिया है तब यह अयोध्या गए और वहां से श्री राम लक्ष्मण को ले आये। जब श्रीराम ने एक ही बाण से ताड़का को मार दिया तब इनको श्री राम के परात्पर स्वरूप का पूरा निश्चय हो गया। अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र तथा विद्या उन्होंने दोनों भाइयों को प्रदान की।
महर्षि विश्वामित्र जी ने ही श्री राम लक्ष्मण को जनकपुर पहुंचाया। इन्हीं की प्रेरणा से धनुष टूटा और श्री जनक राज कुमारी का श्री रामभद्र ने पाणीग्रहण किया। महाराज दशरथ जब जनकपुर से बारात विदा कराकर लौटे तब विश्वामित्र जी भी उनके साथ अयोध्या आये। वहां पर्याप्त समय तक महाराज से सत्कृत पूजित होकर रहे और तब अपने आश्रम पर गये। चित्रकूट में जब महाराज जनक श्री राम से मिलने गए तब विश्वामित्र जी भी उनके साथ वहां पधारे। जनक जी के साथ ही महर्षि लौटे भी। महर्षि विश्वामित्र जी का पूरा जीवन ही तप एवं परोपकार में व्यतीत हुआ। वे वेद माता गायत्री के दृष्टा है। उनके अनेक धर्म ग्रंथ है। साक्षात भगवान श्री राघवेंद्र जी ने महर्षि वशिष्ठ के समान ही अपना गुरुदेव मानते थे और अपने कमल कौमल करो से जिनके चरण दबाते थे उनके सौभाग्य तथा उनकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है?
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