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वाल्मीकि ऋषि की कथा । valmiki rishi ki katha

वाल्मीकि ऋषि की कथा

वाल्मीकि ऋषि की कथा
वाल्मीकि ऋषि की कथा

आदि कवि वाल्मीकि ऋषि की कथा

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संक्षिप्त परिचय वाल्मीकि ऋषि की कथा

आदि कवि वाल्मीकि अंगिया गोत्र में उत्पन्न एक ब्राह्मण था रत्नाकर लुटेरे डाकुओं के संग से वह भी क्रूर हृदय डाकू हो गया था धर्म-कर्म तो कभी किया ही नहीं था बचपन से ही कुछ संघ में पढ़ने से विद्या भी नहीं प्राप्त की वन में छिपा रहता और उधर से निकलने वाले यात्रियों को लूट मार कर जो कुछ मिलता उससे अपने परिवार का भरण पोषण करता संयोगवश एक दिन उधर से नारद जी निकले रत्नाकर ने उसे भी ललकारा देव ऋषि नारद ने निर्भय होकर बड़े स्नेह से कहा भैया मेरे पास धरा ही क्या है परंतु तुम प्राणियों को क्यों व्यर्थ मारते हो जीवो को पीड़ा देने और मारने से बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है इस पाप से परलोक में प्राणी को भयंकर नर्क में पड़ना पड़ता है। वाल्मीकि ऋषि की कथा

सौभाग्य से होते संत के दर्शन

जब अकारण कृपालु श्री हरि दया करते हैं जब अनेक जन्मों के पुण्य का उदय होता है जब जीव के कल्याण का समय आ पहुंचता है तभी उसे सच्चे साधु के दर्शन होते हैं। रत्नाकर जिसे लूटता वह रोता गिड़गिड़ाता वह भयभीत होता। आज उसने एक अद्भुत तेजस्वी साधु देखा था जो तनिक भी उस से डरा नहीं जिसने अपनी प्राण रक्षा के लिए एक शब्द नहीं कहा जो उल्टा उसे उपदेश दे रहा था। क्रूर डाकू पर प्रभाव पड़ा। उसके निष्ठुर हृदय में रोने कलपने वालों का गिड़गिड़ाना दया नहीं उत्पन्न करता था किंतु इस साधु की निर्भयता और स्नेह पूर्ण वाणी ने उसे प्रभावित कर दिया। वह बोला मेरा परिवार बड़ा है उन सब का पालन पोषण अकेले मुझे करना पड़ता है। मैं यदि लूटकर धन न ले जाऊं तो वह भूखों मर जायें। वाल्मीकि ऋषि की कथा

तुम्हारे पाप में कौन कौन भागीदार है ?

देवर्षि ने कहा भाई तुम जिनका भरण पोषण करने के लिए इतने पाप करते हो वे तुम्हारे इस पाप में भाग लेंगे या नहीं यह उनसे पूछ आओ। डरो मत मैं भागकर कहीं नहीं जाऊंगा विश्वास न हो तो मुझे एक वृक्ष से बांध दो। नारद जी को बांधकर रत्नाकर घर आया। उसने घर के सभी लोगों से पूछा। सबने उसे एक ही उत्तर दिया हमारा पालन-पोषण करना तुमारा कर्तव्य है। हमें इस से कोई मतलब नहीं कि तुम किस प्रकार धन ले आते हो। हाय! हाय! जिनके लिए खून पसीना एक करके घोर वन में भूखे प्यासे दिन-रात वह छिपा रहता है वर्षा सर्दी गर्मी तथा दूसरे किसी कष्ट कि जिनके लिए चिंता नहीं करता जिनके लिए इतने प्राणियों को उसने मारा इतना पाप किया उन्हें उसके पाप पुण्य से कुछ मतलब नहीं? मारे शौक के रत्नाकर पागल सा हो गया। एक क्षण में उसके मोह का सारा बंधन टूट गया। रोता हुआ वह वन में गया और ऋषि के बंधन काटकर उनके चरणोंपर गिर पड़ा। वह छटपटाता हुआ क्रंदन करने लगा मेरे जैसे अधम का कैसे उद्धार होगा? देवर्षि भी सोच विचार में पड़ गये। वाल्मीकि ऋषि की कथा

उल्टा नाम जपा जग जाना वाल्मीक भये ब्रह्म समाना

भगवन्नाम भगवान का साक्षात स्वरूप है। वह दया करके ही सौभाग्यशाली जीवो के मुख पर स्वयं आता है। पापी रत्नाकर राम यह सीधा सरल नाम भी नहीं ले पाता था। सोचकर नारद जी ने उसे मरा यह उल्टा नाम जपने का आदेश दिया और चले गये। रत्नाकर वहीं बैठकर जपने लगा मास बीते ऋतुएं बीती वर्ष बीता और युग बीत गया किंतु रत्नाकर उठा नहीं। उसने नेत्र नहीं खोलें। उसका जप अखंड चलता रहा। उसके शरीर पर दीमको ने घर बना लिया। वह उनकी बॉबी वल्मिकके से ढक गया। अंत में ब्रह्माजी इस तपस्वी के पास आये। उन्होंने अपने कमंडलु का अमृत जल छिड़ककर उसके दीमकों द्वारा खाए हुए अंगों को सुंदर पुस्ट बना दिया। उन सृष्टिकर्ता ने ही उसे ऋषि वाल्मीकि कहकर पुकारा। वल्मिक से निकलने के कारण उस दिन से वह वाल्मिक हो गया। जो कभी क्रूर दस्यु था प्राणियों को मारना ही जिसका कर्म था भगवनाम जप के प्रभाव से वह परम दयालु ऋषि हो गया। जब उसके सामने एक दिन एक व्याध क्रोंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार दिया तब दया के कारण व्याध को शाप देते समय उसके मुख से श्लोक निकला। वैदिक छंद तो अनादि है किंतु लौकिक छंदो का वह प्रथम छंद था। उसी के छंद से वाल्मीकिजी आदिकवि हुए। वाल्मीकि ऋषि की कथा

राम को चौदह स्थान पर रहने की आज्ञा

वनवास के समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भाई लक्ष्मण एवं जानकी जी के साथ वाल्मीकि जी के आश्रम में पधारे। वहां श्रीराम के पूछने पर जो चौदह स्थान ऋषि ने उनके रहने योग्य बताये उनमें भक्ति के सभी साधन आ जाते हैं। इन चौदह स्थानों का सुंदर वर्णन गोसाई जी की भाषा में ही देखिये। जिनके श्रवण आप की कथा सुनते हुए नहीं थकते। जिनकी आंखें सदा हरी दर्शन की प्यासी। जिव्या से आपके गुण गाते हुए नहीं थकते। प्रभु के चरित्र सुनकर जिनकी बुद्धि का विवेक जागृत हो चुका है। भगवान जिस प्रकार रखें उसी में रहना संतोष से महलों में रखें चाए झोपड़ी में संतोष में रहना। भोजन करते समय प्रभु को भोग लगाकर ही खाते हों। जिनका सिर सदा सुरगुरु ब्राह्मण भक्त को प्रीति सहित जिनके आगे झुकता हो। और हाथ हमेशा प्रभु के चरण कमलों के पूजन में व्यस्त रहते हो। हृदय में अपने प्रभु का ध्यान और दूसरे में विश्वास नहीं लगाते हो। जिनके चरण प्रभु के तीरथ करने के लिए जाते हो। जो निरंतर गुरू के दिए मंत्रों का जप करते हैं। परिवार सहित, आप सदा उनके हृदय में बसीये। हे प्रभु आप को प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार के यत्न करते हैं ऐसे महापुरुषों के हृदय में आप बसिये। और हे प्रभु आप से भी अधिक अपने गुरु को भगवान करवाने ऐसे महापुरुष के हृदय में आप बासिये।जिनके हृदय में छल कपट और राग द्वेष काम क्रोध लोभ मोह नहीं है ऐसे भगत के हृदय में आप बसिए। जो हमेशा आपकी अविचल भक्ति की याचना करते हैं उनके हृदय में आप बसीये। सबके प्रिय और सबके हितकारी दुख सुख में निंदा स्तुति मे सम रहे हमेशा सत्य वाणी बोले जागते या सोवत आपका सिमरन करें। आपको छोड़कर जिनको और कुछ सूझता नहीं पराई स्त्री को माता के समान जानते हो पराए धन को विश से भी भयंकर दुखदाई जानते हो।दूसरों की संपत्ति को देख कर मन में हर्षित रहने वाले और दूसरों के विपत्ति को देखकर उनके साथ दुखी होने वाले ऐसे परम दयालु भक्त के हृदय में भगवान आप का वास हो। हे प्रभु जो आप में स्वामी सखा पितु माता गुरु का भाव रखने वाले भक्तों के हृदय में आप बासिए। अपने अवगुणों का त्याग कर के गुणों का ग्रहण करने वाले विप्र गाय भगत का संकट को हरने वाले न्याय प्रिय हो जिनको ऐसी जगह आप सदा निवास करें। वाल्मीकि ऋषि की कथा

सीता का वाल्मीकि आश्रम में रहना

अंतिम समय में जब मर्यादा पुरुषोत्तम ने लोकापवाद के कारण श्री विदेहनंदिनी का त्याग कर दिया तब वे वाल्मीकिजी के ही आश्रम में रही। वहीं लव-कुश की उत्पत्ति हुई। महर्षि ने रामायण गान की शिक्षा लव कुश को ही पहले दी। महर्षि वाल्मीकि का रामायण पंचम वेद के समान परम सम्माननीय तथा भवसागर से पार करने वाला है। महर्षि ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रभाव से रामायण की रचना रामावतार से पहले ही कर दी थी। वाल्मीकि ऋषि की कथा

मुझे उम्मीद है दोस्तों वाल्मीकि ऋषि की कथा आपको पसंद आई होगी अगर ऐसी ही रोचक ज्ञानवर्धक पौराणिक कथाएं पढ़ने के लिए आप हमारी वेबसाइट को विजिट कर सकते हैं अथवा नीचे दी हुई समरी पर क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं। धन्यवाद !

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