वज्रनाभ की कथा
वज्रनाभ की कथा
को नाम तृप्येद्रसवित्कथायां महत्तमैकान्तपरायणस्य
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नान्तं गुणानामगुणस्य जग्मु- योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः ॥
( श्रीमद्भा० १ । १८ । १४)
श्रीअनिरुद्धजीके पुत्र वज्रनाभ ही यदुकुलके महासंहारमेंसे बचे थे। स्त्रियों, सेवकों आदिके साथ अर्जुन उन्हें हस्तिनापुर ले आये। वहीं युधिष्ठिरजीने मथुरामण्डलका उनको राजा बना दिया। उस समय वज्रनाभकी अवस्था छोटी ही थी। पाण्डवोंके महाप्रस्थानके पश्चात् परीक्षित्जी स्वयं वज्रनाभको मथुराका राज्य सौंपने आये। उस समय पूरा व्रजमण्डल उजाड़ पड़ा था। वहाँ कोई पशु-पक्षी भी नहीं रहा था। मथुरामें केवल सूने भवन थे साधारण
पत्थरोंके। परीक्षित्ने वज्रनाभसे कहा- ‘तुम राज्य, कोष, सेना आदिके लिये चिन्ता मत करना। यह सब मैं तुम्हें बहुत अधिक दूँगा। कोई शत्रु मेरे जीते-जी तुम्हारी ओर देखतक नहीं सकता। तुम तो केवल माताओंकी सेवा करो। इनको जैसे प्रसन्नता हो, वही तुम्हें करना चाहिये ।’ वज्रनाभने कहा- ‘चाचाजी ! यद्यपि मैं अभी बालक हूँ, फिर भी मुझे सभी अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान है । राज्य, धन या शत्रुकी मुझे कोई चिन्ता नहीं; किन्तु मैं यहाँ राज्य किसपर करूँ ? यहाँ तो प्रजा ही नहीं है। आप इसकी कोई व्यवस्था करें।’
परीक्षित्जीने पता लगाया तो यमुना किनारे महर्षि शाण्डिल्यजीका आश्रम मिल गया। राजाके बुलानेपर वे व्रजराज श्रीनन्दरायके पुरोहित आये। उन ऋषिश्रेष्ठने
बताया- ‘राजन् ! व्रजभूमि तो दिव्यभूमि है। साधारण नेत्रोंसे तो उसके तभीतक दर्शन होते हैं, जबतक श्रीकृष्णचन्द्र इस लोकमें अपनी लीला प्रकटरूपसे करते हैं। श्रीकृष्णके अपने धाम पधारनेपर व्रज भी अदृश्य हो गया। अब तो उसका दर्शन अधिकारी पुरुष ही कर पाते हैं। तुम मथुराके मणिमय भवनोंको तो इन पत्थरोंके रूपमें बदला देखते भी हो; पर व्रजमें तो कूप, सरोवर आदितक नहीं दीखेंगे। वहाँ तो अब केवल कँटीली लताएँ, सूखे वृक्ष, रेतीली भूमि वियोगकी सूचनारूपमें रह गयी है; परंतु तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें श्रीकृष्णकी सभी लीलास्थलियाँ बताऊँगा । तुम वहाँ लीलाके अनुरूप सरोवर, कुण्ड, कूप बनवाओ तथा भगवान्के श्रीविग्रहकी स्थापना करो। बाहरसे कपि, मयूर, गौ आदि वे पशु-पक्षी यहाँ लाकर बसाओ, जो श्यामसुन्दरको प्यारे थे और व्रजके लोगोंके जो सम्बन्धी अन्यत्र मिलें, उनको भी यहाँ ले आकर धन-धान्यसे सन्तुष्ट करके बसाओ।’ महर्षिकी आज्ञासे परीक्षित् तथा
वज्रनाभ व्रजमें सरोवर, मन्दिर आदि बनाने तथा लोगोंको बाहरसे लाकर वहाँ बसानेमें लग गये।
एक दिन श्रीकृष्णचन्द्रकी पत्नियोंने श्रीयमुनाजीके साक्षात् दर्शन किये। यमुनाजीको सौभाग्यवतीके वेशमें
आश्चर्य से उन्होंने कारण पूछा। दयावश भगवती कालिन्दीने बताया- ‘ श्रीकृष्णचन्द्रसे तो हम सबका कभी वियोग होता ही नहीं । वे व्रजराजकुमार व्रजेश्वरी श्रीराधिकाजीके साथ ही नित्य रहते हैं । जिन्हें श्रीराधाका दास्य प्राप्त है, नन्दनन्दनका नित्य सामीप्य उन्हें प्राप्त रहता है । तुमलोग उद्धवजीके दर्शन करो। गोवर्धनके समीप उद्धवजी लता-कुञ्जोंमें एक होकर रहते हैं। श्यामसुन्दरके लीला-गुण-नाम-कीर्तनसे वे प्रत्यक्ष हो जायँगे। उनके दर्शनसे तुम्हें श्रीनन्दनन्दनकी प्राप्ति होगी । ‘
श्रीकृष्णचन्द्रकी पत्नियोंने वज्रनाभसे यह बात कही। वज्रनाभने गिरिराज गोवर्धनके समीप सङ्कीर्तन – महोत्सव प्रारम्भ किया । उद्धवजी लता – गुल्मोंसे प्रकट होकर उस महोत्सवमें आ गये। सबने उद्धवजीकी पूजा की। परीक्षित्को उद्धवजीने कलियुगका निरोध करनेके लिये आग्रहपूर्वक भेज दिया। शेष सबको उन्होंने एक महीने में वैष्णवी रीतिसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी । कथाकी पूर्णाहुतिपर नन्दनन्दन श्यामसुन्दर व्रजमण्डलके साथ व्यक्त हो गये । वज्रनाभ तथा रानियोंने उस नित्य धाममें अपना स्थान देख लिया । जगत् के नेत्रोंके लिये जैसे वह चिन्मयधाम अलक्षित हुआ, वैसे ही उस धाममें पहुँचकर
वज्रनाभ तथा रानियाँ भी अदृश्य हो गयीं ।