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राजा दिलीप की कथा

राजा दिलीप की कथा

राजा दिलीप की कथा
राजा दिलीप की कथा

गयो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः
गायोमेसन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ 

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इक्ष्वाकुवंशमें महाराज दिलीप बड़े ही प्रसिद्ध राजर्षि हो गये हैं। वे बड़े भक्त, धर्मात्मा और प्रजापालक राजा थे। चारों वर्ण उनके शासनसे सन्तुष्ट थे महाराजको सभी प्रकारके सुख थे, किन्तु उनके कोई सन्तान नहीं थी। एक बार ये इसके लिये अपने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठजीके आश्रमपर गये और अपने आनेका कारण बताकर उनसे उपाय पूछा। राजा दिलीप की कथा

महर्षि वसिष्ठने दिव्यदृष्टिसे सब बातें समझकर कहा- ‘राजन्! आप एक बार देवासुर संग्राममें गये थे। वहाँसे लौटकर जब आप आ रहे थे, तब रास्तेमें आपको सुरनन्दिनी कामधेनु मिली। आपके सामने होनेपर भी आपकी दृष्टि उनपर नहीं पड़ी, इसलिये आपने उन्हें प्रणाम नहीं किया। कामधेनुने इसे अविनय समझकर आपको सन्तानहीनताका शाप दे दिया। उस समय आकाशगङ्गा बड़े जोरोंसे शब्द कर रही थी, इससे आपने उस शापको सुना नहीं। अब इसका एक ही उपाय है कि किसी भी प्रकार उस गौको आप प्रसन्न कीजिये। वह गौ तो अब यहाँ है नहीं। उसकी बछिया मेरे पास है, आप उसकी सेवा करें। भगवान्ने चाहा तो आपका मनोरथ शीघ्र ही पूरा होगा।’ राजा दिलीप की कथा

गुरुकी आज्ञा शिरोधार्यकर महाराज अपनी महारानीके सहित गौकी सेवामें लग गये। वे प्रातः बड़े ही सबेरे उठते, उठकर गौकी बछियाको दूध पिलाते, ऋषिके हवनके लिये दूध दुहते और फिर गौको लेकर जंगलमें चले जाते। गौ जिधर भी जाती, उसके पीछे-पीछे चलते। वह बैठ जाती तो स्वयं भी बैठकर उसके शरीरको सहलाते। हरी-हरी दूब उखाड़कर उसे खिलाते। जिधरसे भी वह चलती, उधर ही चलते। सारांश कि महाराज छायाकी तरह गौके साथ-साथ रहते। इस प्रकार महाराजको इक्कीस दिन हो गये। राजा दिलीप की कथा

एक दिन वे गौके पीछे-पीछे जंगलमें जा रहे थे। गौ एक बहुत बड़े गहन वनमें घुस गयी। महाराज भी पीछे-पीछे धनुषसे लताओंको हटाते हुए चले। एक वृक्षके नीचे जाकर उन्होंने क्या देखा कि गौ नीचे है, उसके ऊपर एक सिंह चढ़ बैठा है और गौका वध करना चाहता है। महाराजने भाथेसे बाण निकालकर उस आप सिंहको मारना चाहा, किन्तु उनका हाथ जहाँ-का-तहाँ जडवत् रह गया। अब वे क्या करते। उन्होंने अत्यन्त दीनतासे कहा-‘आप कोई सामान्य सिंह नहीं हैं, देवता हैं। इस गौको छोड़ दीजिये; इसके बदले में आप मुझे जो भी आज्ञा दें, मैं करनेको तैयार हूँ।’ सिंहने कहा- ‘यह वृक्ष भगवती पार्वतीको अत्यन्त प्रिय है, मुझे शिवजीने स्वयं अपनी इच्छासे उत्पन्न करके इसकी रक्षामें नियुक्त किया है। यहाँ जो भी आता है, वही मेरा आहार है। यह गौ यहाँ आयी है, इसे ही खाकर मैं पेट भरूँगा। इस विषयमें आप कुछ भी नहीं कर सकते।’ महाराजने कहा – ‘सिंहराज! यह गौ मेरे गुरुदेवकी है, मै इसके बदले आपको सब कुछ देनेको तैयार हूँ; राजा दिलीप की कथा

आप मुझे खा लें और इसे छोड़ दें ।’ सिंहने बहुत समझाया कि ‘आप महाराज हैं, प्रजाके प्राण हैं, गुरुको ऐसी लाखों गौएँ देकर सन्तुष्ट कर सकते हैं।’ किन्तु महाराजने एक न मानी । अन्तमें सिंह तैयार हो गया, महाराज जमीनपर पड़ गये। थोड़ी देरमें उन्होंने तो न वहाँ सिंह था, न वृक्ष; केवल कामधेनु वहाँ खड़ी थी। उसने कहा – ‘राजन्! मैं आपपर बहुत प्रसन्न हूँ, यह सब मेरी माया थी; आप मेरा दूध अभी दुहकर पी लें, आपके पुत्र होगा।’ महाराजने कहा- ‘देवि! आपका आशीर्वाद शिरोधार्य है; किन्तु जबतक आपका बछड़ा न पी लेगा, गुरुके यज्ञके लिये दूध न दुह लिया जायगा और गुरुजीकी आज्ञा न होगी, तबतक मैं दूध नहीं पीऊँगा।’ राजा दिलीप की कथा

इसपर गौ बहुत सन्तुष्ट हुई। गौ सन्ध्याको महाराज के आगे-आगे भगवान् वसिष्ठके आश्रमपर पहुँचीं। सर्वज्ञ ऋषि तो पहले ही सब जान गये थे। महाराजने जाकर जब यह सब वृत्तान्त कहा, तब वे प्रसन्न होकर बोले –’राजन्! आपका मनोरथ पूरा हुआ। गौकी कृपासे आपके बड़ा पराक्रमी पुत्र होगा। आपका वंश उसके नामसे चलेगा।’ राजा दिलीप की कथा

नियत समयपर ऋषिने नन्दिनीका दूध राजा और रानीको दिया। महाराज अपनी राजधानीमें आये और रानी गर्भवती हुई। यथासमय उनके पुत्र उत्पन्न हुआ। यही बालक रघुकुलका प्रतिष्ठाता रघु नामसे विख्यात हुआ। महाराज दिलीप भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वृद्धप्रपितामह हैं। राजा दिलीप की कथा

राजा दिलीप की कथा
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ओर पड़ने के लिया निसे नजर दे 

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र्मठी बाई की कथा 12 भक्तमति करमेति बाई की कथा

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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