राजा जनक की कथा
राजा जनक की कथा
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्यम्भूतगुणो हरिः ॥
( श्रीमद्भा० १ । ७ । १०) ‘
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जिनकी माया-ग्रन्थियाँ टूट गयी हैं, ऐसे आत्माराम, आसकाम, जीवन्मुक्त मुनिगण भी भगवान् श्रीहरिकी अहैतुकी भक्ति करते हैं; क्योंकि श्रीहरिमें ऐसे ही गुण हैं।’ राजा जनक की कथा
महाराज निमिका शरीर मन्थन करके ऋषियोंने जिस कुमारको प्रकट किया, वह ‘जनक’ कहा गया। माताके देहसे न उत्पन्न होनेके कारण ‘विदेह’ और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण ‘मैथिल’ भी उनकी उपाधि हुई। इस वंशमें आगे चलकर जो नरेश हुए, वे सभी जनक और विदेह कहलाये। महर्षि याज्ञवल्क्यकी कृपासे वे सभी योगी और आत्मज्ञानी हुए। इसी वंशमें उत्पन्न सीताजीके पिता महाराज ‘सीरध्वज’ जनकको कौन नहीं जानता। आप सर्वगुणसम्पन्न और सर्वसद्भावाधार, परम तत्त्वज्ञ, कर्मज्ञ, असाधारण ज्ञानी, धर्म-धुरन्धर और नीति-निपुण महान् पण्डित थे। आपकी विमल कीर्ति विविध भाँतिसे गायी गयी है, परंतु आपके यथार्थ महत्त्वका पता बहुत थोड़े लोगोंको लग सका है। श्रीगुसाईंजी महाराज आपको प्रणाम करते हुए कहते हैं1 राजा जनक की कथा
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ।।
जोग भोग महँ राखेठ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
पूर्णब्रह्म सच्चिदानन्दघन महाराज श्रीराघवेन्द्र के साथ श्रीजनकजीका जो अत्यन्त ‘गूढ़ सनेह और नित्य ‘योग’ (प्रेमका अभेद सम्बन्ध) है, वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। कहना तो दूर रहा, कोई उसे सम्यक् प्रकारसे समझ भी नहीं सकता। उस प्रेमतत्त्वको तो बस आप ही दोनों जानते हैं। आपने उस अकथनीय अनुपम दिव्य प्रेमधनको पूरे लोभीकी भाँति इन्द्रिय-व्यवसायरूप प्रपञ्चोंमें छिपा रखा है और एक धन-प्राण विषयी मनुष्यके सदृश उसी परम धनके चिन्तनमें निरन्तर निमग्न रहते हैं। लोग आपको एक महान् ऐश्वर्यसम्पन्न राजा, नीतिकुशल प्रजारञ्जक नरपति समझते हैं, कुछ लोग ज्ञानियोंका आचार्य भी मानते हैं; परंतु आपके अन्तस्तलके ‘निगूढ़ प्रेम का परिचय बहुत कम लोगोंको है। प्यारी-दुलारी श्रीसीताजीके स्वयंवरकी तैयारी हुई है, देश-विदेशके राजा-महाराजाओंको निमन्त्रण दिया गया है। पराक्रमकी परीक्षा देकर सीताको प्राप्त करनेकी लालसासे बड़े-बड़े रूप-गुण और बल-वीर्यसे सम्पन्न राजा-महाराजा मिथिलामें पधार रहे हैं। राजा जनक की कथा
इसी अवसरपर गाधि-तनय मुनि विश्वामित्रजी अपने तथा अन्यान्य ऋषियोंके यज्ञोंकी रक्षाके लिये अवधराज महाराज दशरथजीसे उनके प्राणाधिक प्रिय पुत्रद्वय श्रीरामलक्ष्मणको माँगकर आश्रममें लाये थे। यह कथा प्रसिद्ध है। श्रीविश्वामित्र मुनि भी महाराज जनकका निमन्त्रण पाते हैं और दोनों राजकुमारोंको साथ लेकर मिथिलाकी और प्रस्थान करते हैं। रास्तेमें शापग्रस्ता मुनि-पत्नी अहल्याका उद्धार करते हुए परम कृपालु श्रीकोशलकिशोरजी कनिष्ठ भ्रातासहित गङ्गा-स्नान करके वनोपवनके प्राकृतिक सौन्दर्यको देखते हुए जनकपुरीमें पहुँचते हैं और मुनिसहित नगरसे बाहर मनोरम आम्रवाटिकामें ठहरते हैं। राजा जनक की कथा
मिथिलेश महाराज इस शुभ संवादको पाकर श्रेष्ठ समाजसहित विश्वामित्रजीके दर्शन और स्वागतार्थ आते हैं और मुनिको साष्टाङ्ग प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ जाते हैं। इतनेमें ही फुलवारी देखकर स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥ -श्याम-गौर-शरीर, किशोर वयवाली, नेत्रोंको परम सुख देनेवाली, अखिल विश्वके चित्तको चुरानेवाली ‘जुगल जोड़ी’ वहाँ आ पहुँची। ये थे तो बालक; परंतु इनके आते ही लोगोंपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सब लोग उठ खड़े हुए- ‘उठे सकल जब रघुपति आए।’ विश्वामित्र सबको बैठाते हैं। दोनों प्रभु शील-संकोचके साथ गुरुके चरणोंमें बैठ जाते हैं। यहाँ जनकरायजीकी बड़ी ही विचित्र दशा होती है। उनकी प्रेमरूपी सूर्यकान्तमणि श्रीरामरूपी प्रत्यक्ष प्रचण्ड सूर्यकी रश्मियोंको प्राप्तकर द्रवित होकर बह चलती है। गुप्त प्रेम-धन श्रीरामकी मधुर छबि देखते ही सहसा प्रकट हो गया। युगोंके सञ्चित धनका खजाना अकस्मात् खुल पड़ा। राजा जनक की कथा
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज बिरागरूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ राजा जनक की कथा
जनकजी कहते हैं—’मुनिनाथ ! छिपाइये नहीं, सच बतलाइये – ये दोनों कौन हैं? मैं जिस ब्रह्ममें लीन रहता हूँ, क्या वह वेदवन्दित ब्रह्म ही इन दो रूपोंमें प्रकट हो रहा है? मेरा स्वाभाविक ही वैरागी मन आज चन्द्रमाको देखकर चकोरकी भाँति थका जाता है।’ जनकजीकी इस दशापर विचार कीजिये। जनकका मन आत्यन्तिक प्रेमके कारण बलात् ब्रह्मसुखको छोड़कर रामरूपके गम्भीर मधुर सुधासमुद्रमें निमग्न हो गया। राजा जनक की कथा
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
जो मन-बुद्धि अपनेसे अगोचर ब्रह्मके निरतिशय सुखकी अनुभूतिमें लगे थे, उन्होंने आज उस अगोचरको प्रत्यक्ष नयनगोचर देखकर उस अगोचरके सुखको तुरंत त्याग दिया। गोदका छोड़कर पेटवालेकी आशा कौन करे। ऐसा कौन समझदार होगा, जो ‘नयनगोचर’ के मिल जानेपर ‘अगोचर’ के पीछे लगा रहे। धीरबुद्धि महाराज जनकके लिये यही उचित था। अभेद भक्तिनिष्ठ विदेहराजकी पराभक्ति संशयरहित है। समय जब अपने इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा इसी प्रकार वे बारातकी बिदाईके जामातासे मिलते हैं तब भी उनका प्रेमसागर मर्यादा तोड़ बैठता है। उस समयके उनके वचनोंमें असीम प्रेमकी मनोहर छटा है-जरा, उस समयकी झाँकी भी देखिये। बारात बिदा हो गयी। जनकजी पहुँचाने के लिये साथ-साथ जा रहे हैं। दशरथजी लौटाना चाहते हैं, परन्तु प्रेमवश राजा लौटते नहीं। दशरथजीने फिर आग्रह किया तो आप रथसे उतर पड़े और नेत्रोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा बहाते हुए उनसे विनय करने लगे। इसके बाद मुनियोंसे स्तुति-प्रार्थनाएँ कीं। तदनन्तर श्रीरामके-अपने प्यारे जामाता रामके- समीप आये और
राम करौं केहि भाँति प्रसंसा । मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥
ब्यापकु ब्रह्म अलखु अबिनासी। चिदानन्दु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥
नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल ।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल ॥ सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥
होहिं सहस दस सारद सेषा । करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥
मोर भाग्य राउर गुन गाथा । कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥
मैं कछु कहउँ एक बल मोरें । तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ॥
बार बार मागउँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ॥ राजा जनक की कथा
प्रेमाभक्ति धन्य जनकजी ! धन्य आपकी गुप्त ! जब मिथिला यह समाचार पहुँचा कि महाराज दशरथने श्रीरामको वनवास दे दिया, तब जनकजीने कुशल राजनीतिज्ञकी भाँति अयोध्याका समाचार – भरतकी गतिविधि जाननेके लिये गुप्तचर भेजे । भरतलालके अनुरागका परिचय पाकर वे चित्रकूट अपने समाजके साथ पहुँचे। चित्रकूटमें महाराजकी गम्भीरता जैसे मूर्तिमान् हो जाती है। वे न तो कुछ भरतजीसे कह पाते हैं और न कुछ श्रीरामसे ही कहते हैं। उन्हें भरतकी अपार भक्ति तथा श्रीरामके परात्पर स्वरूपपर अटूट विश्वास है। महारानी कौसल्यातक उनके पास सुनयनाजीद्वारा सन्देश भिजवाती हैं; किन्तु वे कहते हैं कि भरत और श्रीरामका जो परस्पर अनुराग है, उसे समझा ही नहीं जा सकता, वह अतर्क्य है। देबि परंतु भरत रघुबर की । प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥ राजा जनक की कथा
स्वयं महाराजके बोधरूप चित्तमें कितना निगूढ़ प्रेम है, इसका कोई भी अनुमान नहीं कर सकता। जनक कर्मयोगके सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हैं और बारह प्रधान भागवताचार्यों में हैं।
जनकजी परम ज्ञानी थे; परंतु परम ज्ञानकी अवधि तो यही है कि ज्ञानमें स्थित रहते हुए ही परम ज्ञानस्वरूप भगवान्की मूर्तिमान् माधुरीको देखकर उसपर रीझ जाय । ज्ञानका प्रेमके पवित्र द्रवरूपमें परिणत होकर अपनी अजस्त्र सुधाधारासे जगत्को प्लावित कर देना ही उसकी महानता है! जनकजीने यही प्रत्यक्ष दिखला दिया ! राजा जनक की कथा
ओर पड़ने के लिया निसे नजर दे
1 भक्त सुव्रत की कथा 2 भक्त कागभुशुण्डजी की कथा 3 शांडिल्य ऋषि की कथा 4 भारद्वाज ऋषि की कथा 5 वाल्मीक ऋषि की कथा 6 विस्वामित्र ऋषि की कथा 7 शुक्राचार्य जी की कथा 8 कपिल मुनि की कथा 9 कश्यप ऋषि की कथा 10 महर्षि ऋभु की कथा 11 भृगु ऋषि की कथा 12 वशिष्ठ मुनि की कथा 13 नारद मुनि की कथा 14 सनकादिक ऋषियों की कथा 15 यमराज जी की कथा 16 भक्त प्रह्लाद जी की कथा 17 अत्रि ऋषि की कथा 18 सती अनसूया की कथा
1 गणेश जी की कथा 2 राजा निरमोही की कथा 3 गज और ग्राह की कथा 4 राजा गोपीचन्द की कथा 5 राजा भरथरी की कथा 6 शेख फरीद की कथा 7 तैमूरलंग बादशाह की कथा 8 भक्त हरलाल जाट की कथा 9 भक्तमति फूलोबाई की नसीहत 10 भक्तमति मीरा बाई की कथा 11 भक्तमति क
र्मठी बाई की कथा 12 भक्तमति करमेति बाई की कथा
1 कवि गंग के दोहे 2 कवि वृन्द के दोहे 3 रहीम के दोहे 4 राजिया के सौरठे 5 सतसंग महिमा के दोहे 6 कबीर दास जी की दोहे 7 कबीर साहेब के दोहे 8 विक्रम बैताल के दोहे 9 विद्याध्यायन के दोह 10 सगरामदास जी कि कुंडलियां 11 गुर, महिमा के दोहे 12 मंगलगिरी जी की कुंडलियाँ 13 धर्म क्या है ? दोहे 14 उलट बोध के दोहे 15 काफिर बोध के दोहे 16 रसखान के दोहे 17 गोकुल गाँव को पेंडोही न्यारौ 18 गिरधर कविराय की कुंडलियाँ 19 चौबीस सिद्धियां के दोहे 20 तुलसीदास जी के दोहे 21 अगस्त्य ऋषि कौन थे उनका परिचय 22 राजा अम्बरीष की कथा 23 खट्वाङ्ग ऋषि की कथा || raja khatwang ki katha 24 हनुमान जी की कथा 25 जैन धर्म का इतिहास 26 राजा चित्रकेतु की कथा 27 राजा रुक्माङ्गद की कथा 28 राजा हरिश्चंद्र की कथा || राजा हरिश्चंद्र की कहानी 29 राजा दिलीप की कथा 30 राजा रघु की कथा
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