मुद्गल ऋषि की कथा
मुद्गल ऋषि की कथा
दक्षिण महासागरके तटपर परम पवित्र देवीपुरके समीप फुल्लग्रामके नामसे एक तीर्थस्थान है। वहींसे प्रारम्भ करके भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने महासागरमें सेतु बाँधा था। पूर्वकालमें वहाँ वेदोक्त मार्गपर चलनेवाले एक मुनि रहते थे, जिनका नाम मुगल था। उन्होंने भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेके लिये एक उत्तम यज्ञका अनुष्ठान किया। उनके यज्ञ तथा भक्तिभावसे सन्तुष्ट होकर गरुड़की पीठपर बैठे हुए भगवान् विष्णुने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । भगवान्की कान्ति मेघके समान श्याम थी। उनके श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि अपना प्रकाश बिखेर रही थी। चारों हाथ क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित थे। भगवान्का दर्शन पाकर महर्षि मुद्गल प्रेमनिमग्न हो गये। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया । उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ मधुर शब्दोंमें भगवान्का इस प्रकार स्तवन किया – ‘ भगवन् ! आप ही ब्रह्मा होकर संसारकी सृष्टि करते हैं, आप ही विष्णुरूपसे सम्पूर्ण जगत्का पालन और रुद्ररूपसे इसका संहार करते हैं । नारायण ! आपको नमस्कार है। मच्छ, कच्छ आदि अवतार धारण करनेवाले सच्चिदानन्दमय प्रभु ! आपको प्रणाम है। करुणासिन्धो ! जगदीश्वर ! आप मेरी रक्षा कीजिये। मैं निर्लज्ज, कृपण, क्रूर, दम्भी, दुर्बल, लोभी, विषयलोलुप तथा दूसरोंके दोष देखनेवाला हूँ। आप मेरे इन दोषोंको दूर कीजिये । मुझमें ऐसी शक्ति और साहस दीजिये, जिससे मैं आपके अनन्य भक्तोंके पावन पथपर चल सकूँ और निरन्तर आपके ही चिन्तनमें संलग्न रहूँ ।’ मुद्गल ऋषि की कथा
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भगवान्ने कहा – मुद्गल ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और इस यज्ञमें तुम्हारे हविष्यको प्रत्यक्षरूपसे भोग लगानेके लिये आया हूँ।
मुद्गलने कहा – हृषीकेश ! मैं कृतार्थ हो गया । मेरी धर्मपत्नी भी धन्य धन्य हो गयी । मेरा जन्म, मेरा जीवन सफल हो गया। मेरी तपस्याका फल मिल गया। आज मेरा कुल, मेरा पुत्र, मेरा घर और मेरी ममताका आश्रयभूत सब कुछ आपके श्रीचरणोंमें समर्पित होकर धन्य धन्य हो गया । योगीजन अपने हृदयमें सदैव जिनकी खोज करते हैं, वे ही साक्षात् भगवान् मेरी यज्ञशालामें हविष्य ग्रहण करनेके लिये पधारे हैं – यह मेरा कितना बड़ा सौभाग्य है ! मुद्गल ऋषि की कथा
यों कहकर मुद्गलने सुन्दर आसनपर भगवान्को विराजमान किया और चन्दन एवं पुष्प आदि उपचारोंसे भगवान्को अर्घ्य देकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया। फिर बड़े प्रेमसे पुरोडाश अर्पण किया। भक्तवत्सल प्रभुने अपने प्रेमी भक्तके दिये हुए हविष्यको स्वयं अपने हाथमें लेकर भोजन किया । भगवान्के भोजन कर लेनेपर अग्निसहित सम्पूर्ण देवता तृप्त हो गये । सम्पूर्ण चराचर प्राणी सन्तुष्ट हो गये । तदनन्तर भगवान्ने मुद्गल मुनिसे कहा – ‘सुव्रत ! मैं प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो ।’ मुद्गल ऋषि की कथा
मुद्गलने कहा – ‘प्रभो! आपने प्रत्यक्षरूपसे दर्शन देकर मेरी सेवा स्वीकार की है, इतनेसे ही मैं कृतार्थ हो गया। इससे अधिक और क्या वरणीय हो सकता है । तथापि आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये मैं दो वर माँगता हूँ। आपमें मेरी निश्चल एवं निश्छल भक्ति बनी रहे – यह मेरा पहला वर है। इसके सिवा मैं प्रतिदिन सायंकाल और प्रातः काल आपके स्वरूपभूत अग्निकी तृप्ति एवं आपकी प्रीतिके लिये गायके दूधसे हवन करना चाहता हूँ। मेरी यह इच्छा पूर्ण हो– यही मेरे लिये द्वितीय वर होगा । मुद्गल ऋषि की कथा
भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान्ने अपने प्रेमी भक्त मुद्गलकी ये दोनों ही इच्छाएँ पूर्ण कीं। उन्होंने विश्वकर्माके द्वारा एक सरोवरका निर्माण कराया और सुरभिको आज्ञा दी कि तुम प्रतिदिन सबेरे और शामको यहाँ आकर इस सरोवरको अपने दूधसे भर दिया करो । सुरभिने ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान्की आज्ञा स्वीकार की । भगवान्ने मुद्गलसे यह भी कहा – ‘महर्षे! तुम देहावसान होनेके पश्चात् सब बन्धनोंसे मुक्त हो मेरे परम धाममें आ जाओगे।’ यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। महर्षिने आजीवन यज्ञ – होमके द्वारा भगवान्की आराधना की और अन्तमें उन्हींका सायुज्य प्राप्त किया। उनके जीवनकालतक सुरभि प्रतिदिन वहाँ दूध देती रही । आज भी वह सरोवर क्षीरसागरके नामसे विख्यात परम तीर्थ बनकर महर्षि मुगलके मूर्तिमान् सुयशकी भाँति शोभा पा रहा है। मुद्गल ऋषि की कथा