मीराबाई का भजन । मीराबाई का जीवन परिचय सम्पूर्ण
मीराबाई का भजन । मीराबाई का जीवन परिचय सम्पूर्ण
मीराबाई की कथा मीराबाई का भजन
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भारत की नारी-जातियों धन्य करने वाली भक्ति परायणा मीराबाई का जन्म मारवाड़ के कुंडकी नामक ग्राम में संवत् १५५८-५९ के लगभग हुआ था । इनके पिता का नाम राठौर श्री रतन सिंह जी था । यह मेड़ता के राव दूदा जी के चतुर्थ पुत्र थे । मीरा अपने पिता-माता की इकलौती लड़की थी बड़े लाड-चाव से पाली गई थी, मीरा के चित की वर्तियां बचपन से ही भगवान की और झुकी हुई थी । एक दिन उनके घर में एक साधु आये, के साधु के पास भगवान की एक सुंदर मूर्ति थी । मीरा ने साधु से कहकर वह मूर्ति ले ली । साधु ने मूर्ति देकर मीरा से कहा कि ‘ये भगवान है,इनका नाम श्री गिरिधर लाल जी हैं, तू प्रतिदिन प्रेम के साथ इनकी पूजा किया कर ।’ सरलह्दय बालिका मीरा सच्चे मन से भगवान की सेवा करने लगी । मीरा इस समय दस वर्ष की थी, परंतु दिन भर उसी मूर्ति को नहलाने, चंदन-पुष्प चढ़ाने, भोग लगाने और आरती उतारने आदि के काम में लगी रहती ।
इसी बीच मीरा स्वयं भी पद-रचना करने लगी; जब वह स्वरचित सुंदर पदों को भगवान के सामने मधुर स्वरों में गाति तो प्रेम का प्रवाह-सा बह जाता । सुनने वाले नर-नारियों के ह्दय में प्रेम उमड़ने लगता । इस प्रकार भाव-तरंगों में पांच साल बीत गए । संवत्
१५७३ में मीरा का विवाह चित्तौड़ के सिसोदिया-वंश में महाराणा सांगा जी के ज्येष्ठ कुमार भोजराज के साथ संपन्न हुआ । विवाह के समय एक अद्भुत घटना हुई । श्री कृष्णा प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा ने अपने श्याम गिरधरलाल जी को पहले से ही मंडप में विराजित कर दिया और कुमार भोजराज के साथ फेरा लेते समय श्री गिरधर गोपाल जी के साथ भी फेरे ले लिये । मीरा ने समझा कि आज भगवान के साथ मेरा विवाह भी हो गया । मीरा की माता को इस घटना का पता था, उसने मीरा से कहा कि ‘पुत्री! तैंने यह क्या खेल किया?’ मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा–
मीराबाई का भजन
माई म्हाँने सुपने बरी गोपाल । राती पीती चुनडी ओढ़ी मेहंदी हाथ रसाल।।
काँई औरको बरु भाँवरी, म्हाँके जग जंजाल । मीराके प्रभु गिरिधरनागर करौ सगाई हाल ।।
मीरा के भगवत्प्रेम के इस अनोखे भाव को देखकर माता बड़ी प्रसन्न हुई । जब सखियों को इस बात का पता लगा, तब उन्होंने दिल्लगी करते हुए मीरा से गिरधरलाल जी के साथ फेरे लेने का कारण पूछा । मीरा ने कहा–
ऐसे बर को के बरूं,जनमै और मर जाय । बर बरिये यह गोपाल जी,म्हारे चुडलो अमर हो जाय ।।
प्राणो की पुतली मीरा को माता-पिता ने दहेज में बहुत-सा धन दिया,परंतु मीरा का मन उदास ही देखा तो माता ने पूछा की ‘बेटी ! तू क्या चाहती है ? तुझे जो चाहिए, सो ले ले ।’ मीरा ने माता से कहा–
मीराबाई का भजन
दे री माई अब म्हाको गीत गिरधरलाल। प्यारे चरण की आन करति हौ, और न दे मणि लाल ।।
नातो सागो परिवारो सारो, मुने लगे मानो काल। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, छबि लखि भई निहाल ।।
भक्तों को अपने भगवान के अतिरिक्त और क्या चाहिए । माता ने बड़े प्रेम से गिरधरलाल जी का सिंहासन मीरा की पालकी में रखवा दिया । कुमार भोजराज नव वधु को लेकर राजधानी में आये । घर-घर मंगल-बधाइयां बंटने लगी । रुप-गुणवति बहू को देखकर सास प्रसन्न हो गई । और कुलाचार के अनुसार देव पूजा की तैयारी हुई, परंतु मीरा ने कहा कि ‘मैं तो एक गिरधरलाल जी के सिवा और किसी को नहीं पूजुंगी ।’ सास बड़ी नाराज हुई,मीरा को दो-चार कड़ी-मीठी भी सुनाई; परंतु मीरा अपने प्रण पर अटल रही!
राजपूतानेमै प्रतिवर्ष गौरी पूजन हुआ करता है । छोटी-छोटी लड़कियां और सुहागिन स्त्रियां सुंदर रूप-गुण-संपत्र वर और अचल सुहाग के लिए बड़े चाव से ‘गौर’- पूजा करती हैं मीरा को भी गौर पूजा करने को कहा गया,मीरा ने साफ जवाब दे दिया । सारा रनिवास मीरा से नाराज हो गया । सास और ननद ऊदाबाई ने मीरा को बहुत समझाया, परंतु वह नहीं मानी । उसने कहा–
ना म्हे पूजाँ गौरज्याजी ना पूजाँ अन देव। म्हे पूजाँ रणछोड़ जी सासु थे काँई जाणों भेव।।
सास बड़ी नाराज हुई । समवयस्क सहेलियों ने मीरा से कहा कि ‘बहिन! यह तो सुहाग की पूजा है, सभी को करनी चाहिए । मीरा ने उत्तर दिया कि ‘बहीनो! मेरा सुहाग तो सदा ही आंचल हैं; जिसको अपने सहाग में सन्देह, वह गिरधर लाल जी को छोड़कर दूसरे को पुजे। मीरा के इस शब्दों का मर्म जिसने समझा, वह तो धन्य हो गई ; परंतु अधिकांश स्त्रियां को यह बात बहुत बुरी लगी ।
मीरा की भक्ति भावनाओं को देखकर कुमार भोजराज पहले तो कुछ नाराज हुए, परंतु अंत में मीरा के सरल ह्दय की शुद्ध भक्ति से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने मीरा के लिए अलग श्री रणछोड़ जी का मंदिर बनवा दिया । कुमार भोजराज एक साहसी वीर और साहित्य प्रेमी युवक थे । मीरा की पदरचना से उन्हें बढ़ा हर्ष होता और इसमें वे अपने गौरव मानते । मीरा का प्रेम-पुलकित मुख चंद्र वे जब देखते तभी उनका मन मीरा की और खींच जाता । जब मीरा नए-नए पद बनाकर पति को गाकर सुनाती तब कुमार का ह्दय आनंद से भर जाता ।
यद्यपि मीरा अपना सच्चा पति केवल गिरधरलालजी को ही मानती थी और प्राय: अपना सारा समय उन्हीं की सेवा में लगाती, फिर भी उसने अपने लौकिक पति कुमार भोजराज को कभी नाराज नहीं होने दिया । अपने सुंदर और सरल स्वभाव से तथा नि:स्वार्थ सेवा भाव से उसे सदा प्रसन्न रखा। कहते हैं कुछ समय बाद मीरा की अनुमति लेकर कुमार ने दूसरा विवाह कर लिया था । मीरा को इस विवाह से बड़ी प्रसन्नता हुई । उसे इस बात का सदा सं संकोच रहता था कि मैं स्वामी की मन:कामना पूरी नहीं कर सकती।अब दूसरी रानी से पति को परितृप्त देखकर और पति के भी परम पति परमात्मा की सेवा में अपना पूरा समय लेने की संभावना समझकर मीरा को बडा आहाद हुआ ।
मीरा अपना सारा समय भजन-कीर्तन और साधु-सगंतियों में लगाने लगी । वह कभी विरह से व्याकुल होकर रोने लगती,कभी ध्यान में साक्षात्कार कर हँसती कभी प्रेम से नाचती,भूख-प्यास का कोई पता नहीं ! लगातार कई दिनों तक बिना खाए-पिये प्रेम-समाधि में पड़ी रहती । कोई समझाने आता तो उससे भी केवल श्री कृष्णा प्रेम की ही बातें करती । दूसरी बात उसे सुहाती नहीं । शरीर दुर्बल हो गया; घर वालों ने समझा बीमार हैं, वेद बुलाए गए, मारवाड़ से पिता भी वेद लेकर आए मीरा ने कहा–
मीराबाई का भजन
है री मैं तो राम दीवानी, मेरो दरद न जाणे कोय । सूल्ली ऊपर सेज हमारी, किस बिध सोणा होय ।। गगनमंडल पै सेज पिया की,किस बिध मिलणा होय ।घायल की गति घायल जाणै, की जिण लाई होय ।। जौहर की गति जौहरी जाणै, की जिण जौहर होय । दरद की मारी बन बन डोलू, बैद मिल्या नहिं कोय ।। मीरा की प्रभु पीर मिटै जब, बैद सावल्लिया होय। वेद देख गए । परंतु इन अलौकिक प्रेम के दीवानों की दवा बेचारे इन वेदों के पास कहां से आयी । विरहकातरा मीरा ने श्याम वियोग में यह पद गाया–
मीराबाई का भजन
नातो नॉव को जि म्हाँसू तनक न तोड़यो जाय ।। टेक ।।
पाना ज्यूँ पील्ली पड़ी रे, लोग कहै पिंडरोग । छाने लाँघण म्है किया रे, राम मिलण के जोग ।।
बाबल बैद बुलाया रे , पकड़ दिखाई ,म्हारी बॉह । मूरख बैद मरम नहि जाणै , कसक कल्लेजे मांह ।। जाओ बैद घर आपणे रे,म्हारो नॉव न लेय । मै तो दाज्ञी बिरह की ये , काहे कूँ औषद देय ।। माँस गल्ल गल्ल छीजिया ये , कर्क रहा गल्ल आय । आँगल्लिया की मूँदडी म्हारे आवण लागी बॉह ।। रह रह पापी पपिहड़ा रे , पिय को नॉव न लेय । जे कोई बिरहण साम्हल्ले ये , पिव कारण जिव देय।। छिण मंदिर छिण ऑगणे रे , छिण छिण ठाढी होय । घायल ज्यूँ घूमूं खड़ी , म्हारी बिथा न बुझे कोय।। काढ कलेजो मैं धरूं रे , कागा तू ले जाय । जीण देसॉ म्हारो पिव बसेरे , उण देखत तूं खाय ।। म्हारे नातो नाम को रे , और न नातो कोय । मीरा व्याकुल बिरहणी , हरि दरसण दीज्यो मोय ।।
कैसी उत्कण्ठा है ! कैसा उन्माद हैं !! कितनी मनोहर लालसा हैं !!!
भगवान इसी से वश होते हैं, इसी से वे बिक जाते हैं । मीरा ने इसी मूल्य पर उनको खरीदा था ।
विवाह के बाद इस प्रकार भक्ति के प्रवाह में दस साल बीत गए । सवंत् १५८० के आसपास कुमार भोजराज का देहांत हो गया । महाराणा सांगा जी भी परलोक वासी हो गये । राजगद्दी पर मीरा के दूसरे देवर विक्रमाजीत आसीन हुए । मीरा भगवत्प्रेम के कारण वैधव्य के दु:ख से दु:खित नहीं हुई । साधु-महात्माओं का संग बढ़ता गया , मीरा की भक्ति का प्रवाह उत्तरोत्तर जोर से बहने लगा । राणा विक्रमाजीत को मीरा का रहन-सहन बिना किसी रूकावट के साधु-वैष्णवो का महलों में आना-जाना और चौबीस घंटे कीर्तन होना बहुत अखरने लगा । उन्होंने मीरा को समझाने की बड़ी चेष्टा की । चंपा और चमेली नाम की दो दसियाँ इसी हेतु से मीरा के पास रखी गई , राणा की बहन ऊदाबाई भी मीरा को समझाती रही; परंतु मीरा अपने मार्ग से जरा भी नहीं डिगी । मीरा जीने समझाने वाली झांकियों से पहले तो नम्रता पूर्वक अपना संकल्प सुनाया , अंत में स्पष्ट कह दिया–
बरजी मैं काहू की न रहूं ।
सुणो री सखी ! तुम चेतन होके , मन रही बात कहूं।।
साधु संगत कर हरि सुख लेऊँ, जग सूं मैं दूर रहूं । तन धन मेंरो सब ही जाओ , भल मेरो सीस लहूँ।।
मन मेरो लाग्यो सुमरण सेती , सबका मैं बोल सहूं । मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सतगुरु सरण गहूँ।।
सखियो ने कहा– ‘मीरा जी ! आप भगवान से प्रेम करती हैं तो करें , इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं ; परंतु कुल की लाज छोड़कर दिन-रात साधुओं की मंडली में रहना और नाचना-गाना उचित नहीं । इससे महाराणा बहुत नाराज हैं ।’ मीरा ने कहा–
मीराबाई का भजन
सीसोद्यो रूठयो तो म्हारो कांई कर लेसी । म्हे तो गुण गोविंद रा गास्यां हो माय।।
राणा जी रुठयो तो वॉरो देस रखासी ।हरिजी जी रुठया किठे जास्याँ हो माय ।।
लोक लाज की काण न मानाँ। निरभै निशाण घुरास्या हो माय।।
राम नाम की झयाझ चलास्याँ। भवसागर तिर जास्याँ हो माय ।।
मीरा सरण साँवल गिरधर की ।
चरण कमल लिपटास्याँ हो माय।।
केसा अटल निश्चय है । कितना अच्छा विश्वास है ! कितनी निर्भयता है । कैसा अद्भुत त्याग हैं ! ऊदा और दासियाँ आयी थी समझाने को, परंतु मीरा की शुद्ध प्रेमाभक्ति को देखकर उनका चित्त भी उसी और लग गया । वे भी मीरा के इस गहरे प्रेम रंग में रंग गई । अंत में राणा ने चरणामृत के नाम से मीरा के पास विष का प्याला भेजा । चरणामृत का नाम सुनते ही मीरा बड़े प्रेम से उसे पी गई । भगवान ने अपना विरद संम्हाला, विष अमृत हो गया, मीरा का बाल भी बांका नहीं हुआ । बलिहारि है ! भगवत्कृपा से क्या नहीं होता ।
मीरा ने प्रेम में मग्र होकर गया–
मीराबाई का भजन
राणा जी जहर दियो मैं जाणी।
जिण हरि मेरो नाम निवेरयो , छरयो दूध अरू पाणी ।।
जबलग कंचन कसियत नाहीं , होत न बाहर बानी ।
अपने कुल्ल को परदो करियो, मैं अबला बिरानी।।
स्वपच भक्त वारो तन मन ते, हौं हरि हाथ बिकानी।
मीरा प्रभु गिरधर भजीबे को, संत चरन लिपटानी।।
दासियों ने जाकर यह समाचार राणा जी को सुनाया, वे तो दंग रह गये। कलयुग मैं यह दूसरा प्रहाद कहां से आ गया ?
मीरा के आयो पहर भजन-कीर्तन बीतने लगे । नींद-भूख का कोई पता नहीं , शरीर की सुधि नहीं, वह दिन भर रोती और गाया करती ! वह रात को मंदिर के पट बंद करके भगवान के आगे उनमत होकर नाचती । मानो भगवान प्रत्यक्ष प्रकट होकर मीरा के साथ बातचीत करते । महलों में तरह-तरह की चर्चा होने लगी ।
सखियों ने कहा– मीरा! तुम युवती स्त्री हो, दिन भर किसकी बाट देखती हो, किसके लिए यो क्षण-क्षण में सिसक-सिसककर
रोया करती हो ? मीरा भवोंमत होकर गाने लगी–
मीराबाई का भजन
दरस बिन दूखण लागे नैन।
जब से तुम बिछुरे मेरे प्रभु जी,कबहूँ न पायो चैन ।।
सब्द सुनत मेरी छतियाँ कंपै मीठे लागे बैंण।
एक टकटकी पन्थ निहारूँ, भई छमासी रैण ।।
बिरह बिथा काँसू कहूँ सजनी, बह गई कर्वत नैण ।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैण।।
दासियो ने समझाया कि’ बाईजी !
यह सारी बात तो ठीक है, परंतु इस तरह करने से आपका कुल लज्जित होता है ।’ मीरा ने कहा–‘क्या करूं, मेरे वश की बात नहीं।’
मनुष्य प्राय: अपने ही मन के पाप का दूसरे पर आरोप किया करता है । किसीने जाकर राणा जी के कान भर दिए, उन्हे समझा दिया कि’ मीरा का तो चरित्र भ्रष्ट हो गया है । दिन भर तो वह विरहिणी की तरह रोया करती हैं और रात को आधी रात के समय उसके महल में किसी दूसरे पुरुष की आवाज सुनाई देती है । हो-न-हो कुछ-न-कुछ दाल में काला अवश्य ही हैं।’
राणा को यह बात सुनकर बड़ा क्रोध हुआ, उसी दिन रात को वे आधी रात के समय नंगी तलवार हाथ में लेकर मीरा के महल में गए । किवाड बंद थे, राणा को भी अंदर से किसी पुरुष की आवाज सुन पढ़ी; नहीं कह सकते कि यह राणा के दृढ़ संकल्प का फल था या भगवान की लीला थी । खैर,राणा ने अकस्मात कीवाड खुलवाए। देखते हैं तो मीरा प्रेम समाधि में बैठी हैं । दूसरा कोई नहीं है । राणा ने मीरा को चेत करा कर पूजा की ‘बताओ, तुम्हारे पास दूसरा कौन था ?’ मीरा ने झटसे जवाब दिया–‘मेरे छैल छबीली जी गिरधरलाल जी के सिवा और कौन होता । जगत् में दूसरा कोई हो तो आये।’ राणा इन वचनों का मर्म क्यों समझने लगे?
उन्होंने बड़ी सावधानी से सारे मेहल में खोज की; परंतु कहीं कोई नहीं दीख पड़ा, तब लज्जित होकर लौट गये।
कहते हैं कि मीरा के पदों की प्रशंसा सुनकर एक बार तानसेन को साथ लेकर बादशाह अकबर वैष्णव के वेष में मीरा के पास आये थे और मीरा की भक्ति का अद्भुत प्रभाव देखकर रणछोड़ जी के लिए एक अमूल्य हार देकर लौट गये थे। इससे भी लोगों में बड़ी चर्चा फैली । राणा ने क्रोधित होकर मीरा के नाश के लिए एक पिटारी में काली नागिन को बंद करके शालग्रामजी की मूर्ति के नाम से उसके पास भेजी। शालग्राम का नाम सुनते ही मीरा के नेत्र डबाडबा आये। उसने बड़े उत्साह से पिटारी खोली; देखती हैं तो छम सचमुच उसमें एक श्री शालग्राम जी की सुंदर मूर्ति और एक मनोहर पुष्पों की माला हैं ।
मीरा प्रभु के दर्शन करके नाचने लगी ।
मीराबाई का भजन
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।।
साँप पिटारा राणा भेज्या, मीरा हाथ दिया जाय ।
न्हाय धोय जब देखण लागी, साल्लगराम गइ पाय।।
मीरा के प्रभु सदा सहाई, राखे बिग्र हटाय ।
भजन भाव में मस्त डोलती, गिरधर पै बलि जाय ।।
राणा जी ने और भी अनेक उपायों से उसे डिगाना चाहा, परंतु मीरा किसी तरह भी नहीं डिगी । जब राणा बहुत सताने लगे, तब मीरा ने गोसाई तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा–
स्वास्तिश्री तुलसी गुण भूषण दूषण हरण गुसाँई ।
बारहि बार प्रणाम करहूँ, अब हरहू सौक समुदई।।
घर के स्वजन हमारे जेते , सबन उपाधि बढ़ाई । साधु संग अरू भजन करत मोहि देत कलेस महाई।।
सो तो अब छुटत नहिं क्योंहू, लगी लगन बरियाई ।
बालपणे में मीरा किन्ही गिरधरलाल मिताई ।।
मेरे मात तात सम तुम हो, हरि भक्तन सुखदाई ।
मोको कहां उचित करिबो, अब सो लिखिए समुझाई ।।
गोसाई जी महाराज ने उत्तर में यह प्रसिद्ध पद लिख भेजा–
जाके प्रिय न राम बैदेही । सो छोड़िए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।
नाते नेह राम के मनियत सुहद सुसेव्य जहां लौं। अंजन कहां आंखि जेहि फूटे , बहुतक कहौ कहां लौं।।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य ज्ञान ते प्यारो। जासों होय सनेही राम पद एतो मतो हमारो।।
इस पत्र को पाकर मीरा ने घर छोड़ कर वृंदावन जाने का निश्चय कर लिया । राणा जी को तो इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई, परंतु ऊदाजी और मीरा की अन्यान्य प्रेमिका सखियों को बड़ा दु:ख हुआ । उन्होंने मीरा को रोकना चाहा, परंतु मीरा ने किसी की कुछ नहीं सुनी, वह झटपट महल से निकलकर वृंदावन की ओर चल पड़ी ।प्रीतमकी खोज में जाने वाले कभी पीछे को नहीं देखा करते, मीरा भी आज उस परम प्यारे श्याम सुंदर की खोज में उन्मादनी होकर दौड़ रही हैं । धन्य है! मीरा वृंदावन पहुंची और वहां श्याम सुंदर के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए विरह के गीत गाती कुञ्च-कुञ्च भटकने लगी । जो उसे देखता , वही भक्ति-रस से भीग जाता था ।
प्रेम रस में छकी हुई मीरा विरह के गीत गाती फिरती । जब भक्त भगवान के लिए व्याकुल होते हैं, तब भगवान भी उनसे मिलने के लिए वैसे ही व्याकुल हो उठते हैं एक दिन मीरा गा रही थी–
मीराबाई का भजन
बंसीवाला ऑज्यो म्हारे देश ।
थॉरी साँवरी सूरत बल्लो भेस।।
आऊं आऊं कह गया जी, कर गया कौल अनेक ।
गिणताँ गिणताँ घिस गई जी, म्हारी आँगल्लियाँ री रेख।।
मैं बैरागण आदि की जी, थॉरे म्हारे कदको सनेद।
बिन पाणी बिन साव जी, होय गई धोय सफेद ।।
जोगण होकर जंगल्ल हेरूं, थारो नाम न पायो भेस।
थारी सूरत के कारणे मैं तो धारया छे भगवाँ भेस ।।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै, घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मिल्याँ
कलेस ।।
भक्त भगवान को बाध्य कर लेते हैं । मीरा के निकट बाध्य होकर भगवान को आना पड़ा । उस मनोहर छबि को निरख मीरा मोहित हो गई । नाच-नाच कर गाने लगी–
मीराबाई का भजन
आज मैं देख्यो गिरधारी ।
सुंदर बहन मदन की सोभा चितवन अनियारी।।
बजावत बंसी कुंजन में ।
गावत ताल तंरग रंग धूनी नचत ग्वालगन में।।
माधुरी मूरति वह प्यारी ।
बसी रहै निसदिन हिरदै बिच टरै
नई टारी।।
वाहि पर तन मन है वारी ।
वह मूरति मोहिनी निहारत लोक लाज डारी ।।
तुलसी बन कुंजन संचारी ।
गिरधरलाल नवल नटनागर मीरा बलिहारी ।।
उस रूपराशि को देखकर
किसका चित उन्मत नहीं हो जाता ! जो उसे देख पाया, वही पागल हो गया । मीरा पागल की तरह चारों और उसकी मधुर छवि का दर्शन करती हुई गाती फिरती है–
मीराबाई का भजन
मेरे तो गिरधर गुपाल, दूसरो न कोई ।।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई ।
तात मात भ्रात बंधु, आपनों न कोई ।।
छोड़ दई कुल की कान , का करिहै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि, लोक राज खोई ।।
चुनरी के किए टूक, ओढ़ लीन्हि लोई।
मोती मूँगे उतार, बनमाला पोई।।
असुवन जल सींचसींच, प्रेमबेलि बोई।
अब तो बेलि फैल गई, होनी हो सो होई ।।
दूधकी मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब कढि लियो, छाछ पिए कोई।।
आई मैं भगति काज, जगत देख मोही ।
दासि मीरा गिरधर प्रभु, तारों अब
मोही।।
एक बार मीरा जी वृंदावन में श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य परम भक्त जीव गोस्वामी जी का दर्शन करने के लिए गयी। गोसाई जी ने भीतर से कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते । मीरा ने इस पर उत्तर दिया कि ‘महाराज !आजतक वृंदावन में पुरूष एक श्री नंदनन्दन ही थे, और सभी स्त्रियों थी ; आज आप एक नए पुरूष प्रकट हुए हैं ! मीरा का रहस्यमय उत्तर सुनकर जीव जी महाराज नंगे पैरो बाहर आकर बड़े प्रेम से मीरा जी से मिले।
कुछ काल वृंदावन में निवास करके सं•१६००के आसपास मीरा द्वारकाजी चली आती और वहां श्रीरणछोड-भगवान के दर्शन और भजन में अपना समय बिताने लगी । कहते हैं एक बार चितौड़ से राणाजी उन्हे वापस लौटने के लिए द्वारकाजी गये थे । मीरा जी के चले जाने के बाद चितौड़ बड़े उपद्रव होने लगे थे । लोगों ने राणा को समझाया कि आपने मीरा-सरीखी भगवत-प्रेमिका का तिरस्कार किया है, उसी का यह फल है।
राणा इसीलिए मीरा से क्षमा-याचना करके उसे वापस लौटकर ले जाना चाहते थे । पंरतु मीरा ने जाना किसी तरह भी स्वीकार नहीं किया ।
मीरा ने कहा–
राणाजी म्हारी प्रीति पुरबली म्हे काँई करॉ ।।
राम नाम बिन नहीं आवडे, हिवड़ो
झोला खाय ।
भोजनिया नहिं भावै म्हाँने, नींदडली नहिं आय ।।
राठौडाँ की धीयडी जी , सिसोद्या के साथ ।
ले जाती बैंकुठको म्हारी नेक न मानी बात ।।
राणा जी को यों ही वापस लौटना पड़ा । मीरा प्रभु के सामने गाने लगी–
मीराबाई का भजन
रमैया मैं तो थारे रँग राती ।।
औरों के पिया परदेश बसंत है, लिख लिख भेजैं पाती ।
मेरा पिया मेरे हृदय बसत है, रोल्ल करु दिन राती ।।
चुवा चोला पहर सखी रौ, मैं झुरमट रमवा जाती ।
झुरमट में मोहिं मोहन मिलिया, घाल मिली गल्लबाटी ।।
और सखी मद पी पी माती मैं बिना पियाँ ही माती ।
प्रेम भठिको मै मद पीयो, छकी फिरूं दिन राती ।।
सूरत निरत को दिवलो जोयो, मनसा पूरण बाती ।
अगम घाणी को तेल सिंचायो, बाल्ल रही दिन राती ।।
जाऊं नी पीहरिये, जाऊं नी सासरिये, हरि सूं सेन लगाती ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चर्चा चित लाती ।।
मीरा जी श्री द्वारकाधीश के मंदिर में आकर प्रेम से उन्मत्त होकर जाने लगी–
सजन! सुध ज्यूँ जाणौं त्यूँ लीजै ।
तुम बिन मेरे और ना कोई, कृपा रावरी कीजौ ।।
दिन नहिं भूख, रैण निहिं निद्रा, यों
तन पल-पल छीजै ।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर मिलि बिछुरन नहिं दीजै ।।
दूसरा पद
अब तो निभायाँ सरेगी, बाँह गहे की लाज ।
समरथ सरण तुम्हारी सइयाँ, सरब सुधारण काज ।।
भवसागर संसार अपरबल्ल, जामे
तुम हो जहाज ।
निरधारॉ आधार जगत गुरु, तुम बिन होय अकाज ।।
जुग-जुग भीर हरी भक्तन की, दीनी मोच्छ समाज ।
मीरा सरण गही चरणन की, लाज रखौ महाराज ।।
–यों कह कर मीरा नाचने लगी और अंत में भगवान रणछोड़ जी की मूर्ति में समा गई !
नृत्यत नूपुर बाँधि कै, गावत लै करतार ।
देखत ही हरि में मिली, तृन हम गनि संसार ।।
मीरा को निज लीन किय, नागर नंदकिशोर ।
जग प्रतीत हित-नाथ-मुख ,रहो चूनरी छोर ।।
कहा जाता है कि सवंत् १६३० के अनुमान मीरा जी का देह भगवान में मिला था । मीरा जी ने कई ग्रंथ रचे थे, जो इस समय नहीं मिलते। मीरा के भजन तो प्रसिद्ध हैं ; जो उन्हें गाता और सुनता है वही प्रेम में मत हो जाता है । मीरा ने प्रकट होकर भारतवर्ष, हिंदूजाति और नारी-कुल को पावन और धन्य कर दिया ।
मीरा-चरित्र मीराबाई का भजन
(रचयिता–पं० श्रीवासुदेवजी गोस्वामी)
घोर अन्धकार को प्रकाश पूर्ण ‘वासुदेव’, मोह-ममता के दूर करने को ज्ञान है ।
सतपथ से जो विचलना चाहते हों, उन्हें चीरने-विदारने तीर है, कमाना है ।।
पत्थर को पानी करना भी बतलाया गया, विषको भी अमृत बनाने का विधान है ।
कृष्णा पहिचानने की दृष्टी करने के लिये मीरा का चरित्र ही ममीराके समान है ।।
दमन का चक्र जिसपर चलता ही रहा, कम न हुई पै प्रीति-रीति जिसे ले चुकी ।
‘वासुदेव’ जिसको हिला न सका शासन भी अमर हो जिसके भरोसे विष जैन चुकी ।।
जिसके सहारे परिवार के पियोनिधि की सतरल तरगं बीच तरनीकों खे चुकी।
विश्व की अमूल्य निधि जिसमें विराजती थी, वह मन मीरा मनमोहन को दे चुकी ।।
विफल प्रयत्न समझाने के हुए थे सब, विषम विरोधियों के बीच विष बो गया ।
मीरा के सुप्राण हर लेने के विचार से ही कालकूटका भर के प्याला उनको गया ।।
वदन सुधा कर मे पहुंचकर तरल, सरल हो गरलता को खो गया ।
भक्ति की अमीरा मीरा अदर-सुधा को छूके वह विष-प्याला आला अमृत का हो गया ।।
वृंदावनवासी श्री गुपाल गिरधारी की तौ ललित लता सी, धेनु,
कंकर-सी हो गयी ।
भव्य भक्ति मार्ग के भूलेयन को ‘वासुदेव ‘सत्य, शुद्ध, सरल, भयंकर-सी हो गयी ।।
प्रभु-पद-विमुख पयोनिधि पठैयन को रूद्र-रूप पूर्ण प्रलयंकर-सी हो गयी ।
राना के पटाये विष-प्याले के पिवैयनको मीरा की मनोज्ञ मूर्ति शंकर-सी हो गयी ।।
राना का घराना, घबराना रहा रात-दिन मीरा को सभी को समझाने का विचार था ।
‘वासुदेव’ वहां निज प्रण-से हटी न जब, प्राण हर लेने के सिवा क्या उपचार था ।।
पूतना के दूध में जहर जिसने था पिया, विष-पान में मीरा को उसी का अधार था ।
राम में जो अमर रकार औ मकार वही मीरा में भी मंजुल मकार था, स्कार था ।।
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