महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
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प्रताप सिंह का बाल्यकाल
राणा उदयसिंह की 20 पत्नियों में जैलोर के राजवंश की जैवंताबाई ही उनकी पटरानी थीं। इसी जैवंताबाई से उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रताप सिंह का जन्म 9 मई, 1549 को हुआ । अन्य रानियों से उदयसिंह की संतानों को लेकर उनके 17 पुत्र बताए जाते हैं । इनमें से प्रताप सिंह सबसे बड़े तो थे ही, उनकी माता जैवंताबाई पटरानी होने के अतिरिक्त सबसे कुलीन परिवार से भी थीं। इसका कारण यह था कि उदयसिंह विवाह के लिए स्त्री का रूप और यौवन देखते थे, कुल-शील या अन्य गुण नहीं। इस बारे में एक घटना उल्लेखनीय है । अलवर के शासक हाजी खाँ की एक रखैल थी- रंगराय पातर, जिसकी खूबसूरती के चर्चे दूर-दूर तक मशहूर थे। उदयसिंह को यह पता चला तो पातर को पाने के लिए बेचैन हो गए। उन्होंने कभी हाजी खाँ की मारवाड़ के राजा मालदेव के विरुद्ध सहायता की थी। इस उपकार के बदले उन्होंने हाजी खाँ से कहा कि रंगराय पातर उन्हें सौंप दे । हाजी खाँ ने बहाना बनाया कि पातर उसकी बेगम है, इसलिए यह संभव नहीं। उदयसिंह ने क्रोध में आकर अपने सामंतों की राय के विरुद्ध अलवर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
हाजी खाँ जानता था कि मालदेव और उदयसिंह में 36 का आँकड़ा है। इस बार उसने सहायता के लिए मालदेव से गुहार लगाई। मालदेव ने उसकी मदद के लिए एक सेना भेज दी। इसकी सूचना मिलने पर भी उदयसिंह ने आक्रमण करने का अपना इरादा नहीं बदला। फलस्वरूप उनकी सेना को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। ऐसा परिणाम स्वाभाविक ही था । एक तो उदयसिंह की सेना की संख्या हाजी खाँ और मालदेव की सम्मिलित सेना से बहुत कम थी । दूसरा कारण जो कदाचित् उदयसिंह ने समझने की कोशिश नहीं की – वह था सैनिकों का मनोबल । अपने देश की रक्षा के लिए लड़ते हुए सिपाही युद्ध में अपनी सारी शक्ति लगा देता है, लेकिन किसी भी स्त्री को (प्रेमिका ही सही) अपने राजा के लिए छीनने के लिए लड़ने और अपने प्राण गँवाने का जोखिम वह किस हौसले से उठाएगा? बहरहाल इतना बड़ा रनिवास होते हुए भी राणा उदयसिंह सुंदरियों की तलाश में रहते थे और राग-रंग में डूबे रहते थे। ऐसे विलासी उदयसिंह के यहाँ 9 मई, 1549 को पराक्रमी प्रताप सिंह का जन्म हुआ। वे उदयसिंह के सबसे बड़े पुत्र थे । राणा उदयसिंह की पटरानी जैवंताबाई उनकी माता थीं।महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
उदयसिंह का राज्यकाल उथल-पुथल से भरा था। उन्हें अपना सारा ध्यान राज्य को सुरक्षित करने, अपने शत्रुओं पर नियंत्रण रखने और सेना को सुदृढ़ करने में लगाना पड़ता था। इसी क्रम में उन्होंने पहाड़ियों से घिरे गिर्वा प्रदेश में, जो काफी सुरक्षित था, उदयपुर का निर्माण भी आरंभ किया था। उनका शेष समय विलासिता में बीतता, लेकिन वे परिवार की तरफ बिलकुल लापरवाह न थे। उन्होंने सभी राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा व शस्त्र प्रशिक्षण का उचित प्रबंध किया था, पर उनमें से कोई भी प्रताप जैसा योग्य सिद्ध न हुआ। इसका मुख्य कारण प्रताप की माता जैवंताबाई का अपने पुत्र के प्रति असीम प्रेम था। उन्होंने उसके लालन-पोषण पर अपना सारा ध्यान केंद्रित किया। क्षत्रियों के वीरोचित गुण प्रताप को मानो घुट्टी में ही मिले थे। महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
प्रताप अभी किशोर ही थे कि उन्होंने बड़े उत्साह के साथ मेवाड़ के सैनिक अभियानों में भाग लेना आरंभ कर दिया। अब डूंगरपुर और बाँसवाड़ा जैसी छोटी रियासतों के मालिक, जो सदा मेवाड़ के अधीन रहे, स्वयं को स्वतंत्र समझने लगे, और सलूंबर, सराड़ा और चावँड जैसे परगनों ने भी कर देना बंद कर दिया तो राणा उदयसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रताप को उनका दमन करने के लिए भेजा। मेवाड़ की शक्ति से परिचित होने पर भी डूंगरपुर का शासक आसकरण अपनी गढ़ी में बैठा चैन की बंसी बजा रहा था । कारण यह था कि उसके आसपास के पर्वतीय क्षेत्र में राठौरों ने छोटी-छोटी छप्पन जागीरें बना रखी थीं, जिनसे उसकी अच्छी साँठगाँठ थी। ये चौहान छप्पन जागीरों के कारण छप्पनिए कहलाते थे। इनमें घिरा डूंगरपुर खुद को सुरक्षित महसूस करता था ।
प्रताप जो अभी युद्ध की दृष्टि से कम उम्र के ही थे, पिता का आदेश पाकर 2000 घुड़सवारों के साथ सैनिक अभियान पर बड़े उत्साह से निकल पड़े। उन्होंने छप्पनियों से उलझने के बजाय उनकी घेराबंदी का आदेश दिया और आगे बढ़ गए। चौहानों में से किसी ने चूँ-चपड़ भी न की । यह देखकर आसकरण के छक्के छूट गए । विजयी प्रताप जब लौटे तो स्वयं महाराणा ने उनका भव्य स्वागत किया । जैसा कि स्वाभाविक ही था, माता जैवंताबाई पुत्र की पहली सफलता पर फूली न समाईं। कहते हैं कि उन्होंने आत्मविभोर होकर पुत्र को गले से लगा लिया और अपने शरीर के सारे आभूषण उनके सिर से वार कर तत्काल दासियों में बाँट दिए। उनके बेटे प्रताप का यह उत्कर्ष देखकर सौतनों की छाती पर साँप लोट गया । महाराणा प्रताप का बाल्यकाल
यह तो शुरुआत थी । इसके बाद तो प्रताप नियमित रूप से पिता के सैनिक अभियानों का नेतृत्व करते रहे, क्योंकि उदयसिंह स्वयं तो युद्ध क्षेत्र में कम ही जाते थे, पर इनमें से अधिकांश छोटी लड़ाइयाँ ही थीं। किसी बड़े युद्ध की योजना और रणनीति का व्यावहारिक अनुभव उन्हें नहीं हुआ। प्रताप को किशोरावस्था से ही शिकार खेलने का बहुत शौक था। वे बंधु – बाँधवों के साथ वन प्रदेश में आखेट के लिए जाते तो कई-कई दिन वहाँ व्यतीत कर देते। इस कारण उनका वनवासी भीलों के साथ बहुत अच्छा संपर्क हो गया। मेवाड़ के राजकुमार की विनम्रता और अपनेपन से वे बहुत प्रभावित थे, जो आगे चलकर प्रताप के प्रति उनकी अनन्य स्वामिभक्ति का कारण बना।
प्रताप की व्यक्तिगत वीरता के कारण वे मेवाड़ के सामंतों में ही नहीं, सैनिकों में भी बहुत लोकप्रिय हो गए। जो वीर सामंत उदयसिंह की कायरता और विलासिता से मन-ही-मन खिन्न थे, उनमें मेवाड़ के भावी महाराणा के गुणों को देख आशा का संचार होने लगा। वीर योद्धा होने के साथ-साथ प्रताप अत्यंत विनम्र और संवेदनशील भी थे। बड़े तो क्या अदना-से-अदना व्यक्ति से भी वे विनम्रता का व्यवहार करते थे। कहा जाता है कि जब अकबर ने चित्तौड़ विजय के बाद 30 असहाय नागरिकों का कत्लेआम किया तो प्रताप इस समाचार से अत्यंत शोकमग्न हो गए थे। उन्होंने चित्तौड़ में प्राण गँवानेवाले सभी सेनानियों व नागरिकों की आत्मा की शांति के लिए विशेष प्रार्थना और पूजा-अर्चना का आयोजन करवाया। अकबर के प्रति प्रताप के मन में कटुता का बीज कदाचित् इसी दिन से पड़ गया था । Maharana Pratap Ka Balyakal
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