Bhakt Suvrat Ki Katha || Bhakmal Ki Kathae Dvara
Bhakt Suvrat Ki Katha
भक्त सुव्रत की कथा
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सोमशर्मा नामक एक सुशील ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम सुमना था। सुव्रत उन्हीं के सुपुत्र थे। भगवान की कृपा से ही ब्राह्मण दंपति को ऐसा भागवत पुत्र प्राप्त हुआ था। पुत्र के साथ ही ब्राह्मण का घर ऐश्वर्य से पूर्ण हो गया था। सुब्रत पूर्व जन्म में धर्मांगद नामक भक्त राजकुमार थे। पिता के सुख के लिए उन्होंने अपना मस्तक दे दिया था। और पूर्वजन्म के अभ्यास वश लड़कपन में ही वे भगवान् का चिंतन और ध्यान करने लगे थे। वे जब बालकों के साथ खेलते तब अपने साथी बालकों को भगवान के ही हरि, गोविंद, मुकुंद, माधव, आदि नामों से पुकारते। उन्होंने अपने सभी मित्रों के नाम भगवान के नाम अनुसार ही रख लिए थे। वे– कहते भैया केशव, माधव, चक्रधर! आओ। पुरुषोत्तम! आओ। हमलोग खेले। मधुसुदन! मेरे साथ चलो। खेलते-खाते पढ़ते-लिखते हंसते-बोलते सोते-जागते खाते-पीते देखते-सुनते सभी समय वे भगवान को ही अपने सामने देखते। घर-बाहर, सवारीपर, ध्यान में, ज्ञान में–सभी कर्मों में,सभी जगह उन्हें भगवान के दर्शन होते और वे उन्हीं को पुकारा करते।तृण, काठ ,पत्थर तथा सूखे- गीले सभी पदार्थों में वे पद्म पलाश -लोचन गोविंद की झांकी करते। जल थल, आकाश -पृथ्वी ,पहाड़ -वन, जड़- चेतन जीव मात्र में वे भगवान के सुंदर मुखारविंनद की छवि देख -देखकर निहाल होते। लड़कपन में ही वे गाना सीख गये थे और प्रतिदिन ताललयके साथ मधुर स्वर से भगवान के गुण गा- गा कर भगवान श्री कृष्ण में प्रेम बढ़ाते। वे गाते bhakt suvrat ki katha
‘वेदके जानने वाले लोग निरन्तर जिनका ध्यान करते है,जिनके एक-एक अङ्ग में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड स्थित है,जो सारे पापों का नाश करने वाले है,मै उन योगेश्वरेश्वर मधुशूदन भगवान के शरण हूँ । जो सब लोकोके स्वामी हैं, जिनमें सब लोक निवास करते हैं, मै उन सर्वदोष रहित परमेश्वर के चरण-कमलो में निरन्तर नमस्कार करता हूँ।जो समस्त दिव्य गुणों के भंडार हैं, अनन्त-शक्ति है,इस अगाध अनन्त सागर से तैरने के लिए मैं उन श्री नारायण देवकी शरण ग्रहण करता हूँ।जो योगीराजो के मानस-सरोवर के राजहंस हैं, जिनका प्रभाव और माहात्म्य सदा और सर्वत्र विस्तृत है, उन असुरो के नाश करने वाले भगवान के विशुद्ध ,विशाल चरण-कमल मुझ दिनकी रक्षा करें।जो दु:ख के अंधेरे का नाश करने के लिए चन्द्रमा है,जिन्होंने लोक-कल्याण को अपना धर्म बना रखा है,जो समस्त ब्रह्माण्डो के आधीश्वर है, उस सत्यस्वरूप सुरेश्वर जगद्गुरू भगवान का में ध्यान करता हूँ ।जिनका स्मरण ज्ञानकमल के विकास के लिए सूर्य के समान है, जो समस्त भुवनो के एकमात्र आराध्यदेव है ,मै उन महान महिमान्वित आनन्दकन्द भगवान के दिव्य गुणांको तालस्वर के साथ गान करता हूँ। मैं उन पूर्णमृत स्वरूप सकलकलानिधि भगवान का अनन्य प्रेम के साथ गान करता हूँ।पापी जीव जिनका दर्शन नहीं कर सकते, मैं सदा-सर्वदा उन भगवान केशव की ही शरण में पड़ा हूँ।’ इस प्रकार गान करते हुए सुव्रत हाथों से ताली बजा-बजाकर नाचते और बच्चों के साथ आनंद लूटते ।उनका नित्य का यही खेल था। वे इस तरह भगवान के ध्यान में मस्त हुए बच्चों के साथ खेलते रहते।खाने-पीने की कुछ भी सुधि नहीं रहती।तब माता सुमना पुकारकर कहती–‘बेटा !तुम्हें भूख लगी होगी ।देखो, भूख के मारे तुम्हारा मुख कुम्हला रहा है आओ, जल्दी कुछ खा जाओ।’ मता की बात सुनकर सुव्रत कहते– ‘मां !श्री हरि के ध्यान में जो अमृत-रस ज्ञरता है, मैं उसी को पी-पीकर तृप्त हो रहा हूँ।’ जब मा बुला लाती और वे खाने को बैठते,तब मधुर अत्र को देख कर कहते- ‘ यह अत्र भगवान ही है आत्मा अत्र के आश्रित हैं ।आत्मा भी तो भगवान ही है। इस अत्ररूपी भगवान से आत्मा रूप भगवान तृप्त हो। जो सदा क्षीरसागर में निवास करते है, वे भगवान इस भगवत्स्वरूप जल से तृप्त हो। ताम्बूल, चंदन और इन मनोहर सुगंध युक्त पुष्पों से सर्वात्मा भगवान तृप्त हो ।’धर्मात्मा सुव्रत जब सोते ,तब श्री कृष्ण का चिंतन करते हुए कहते– मैं योगनिद्रासम्पत्र श्री कृष्ण के शरण हूँ। इस प्रकार खाने-पहनने ,सोने-बैठने आदि सभी कार्यों में वे श्री भगवान का स्मरण करते और उन्हीं को सब कुछ निवेदन करते। यह तो उनके लड़कपन हाल है। वे जब जवान हुए ,तब सारे विषयभोगो का त्याग करके नर्मदा जी के दक्षिण तट पर वैदुर्य पर्वत पर चले गए और वहां भगवान के ध्यान में लग गए ।यो तपस्या करते जब सौ वर्ष बीत गए ,तब लक्ष्मी जी लक्ष्मी जी सहित श्री भगवान प्रकट हुए ।बड़ी सुंदर झांकी थी । सुंदर नील-श्याम शरीर पर दिव्य पितांबर और आभूषण शोभा पा रहे थे। तीन हाथों में शख्ड, चक्र और गदा सुशोभित थे ।चौथे करकमल से भगवान अभय मुद्रा के द्वारा भक्त सुव्रत को निर्भय कर रहे थे। उन्होंने कहा-‘ बेटा सुव्रत उठो,उठो, तुम्हारा कल्याण हो। देखो मैं स्वयं श्रीकृष्ण तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। उठो, वर ग्रहण करो।’ श्री भगवान की दिव्य वाणी सुनकर सुव्रत ने आंखें खोली और अपने सामने दिव्य मूर्ति श्री भगवान को देखकर वे देखते ही रह गये। आनंद के आवेश से सारा शरीर पुलकित हो गया । नेत्रों से आनन्दश्रुओ की झडी लग गयी । फिर वे हाथ जोड़कर बड़ी ही दीनता के साथ बोले– ‘जनार्दन ! यह संसार सागर बड़ा ही भयानक है। इसमें बड़े-बड़े दुखों की भीषण लहरें उठ रही हैं,विविध मोह की तरग्डों से यह उछल रहा है। भगवान ! मैं अपने दोष से इस सागर में पड़ा हूँ। मैं बहुत ही दिन हूँ। इस महासागर से मुझको उबारिए ।कर्मो के काले-काले बादल गरज रहे है ओर दुखों की मूसलधार वृष्टि कर रहे है। पापों के सण्च्यकी भयानक बिजली चमक रही है ।मधुसूदन! मोह के अंधेरे मैं अंधा हो गया हूँ। मुझको कुछ भी नहीं सुझता, मैं बड़ा ही दिन हूँ। आप अपने कर कमल का सहारा देकर मुझे बचाईए। यह संसार बहुत बड़ा भयावना जंगल है। bhakt suvrat ki katha
यह भाँती-भाँती के असंख्य दुख-वक्षो से भरा है, मोहमय सिंह-बाघो से परिपूर्ण है ।दावानल धधक रहा है । मेरा चित्त,हे श्री कृष्णा ! इसमें बहुत ही बुरी तरह जल रहा है , आप मेरी रक्षा कीजिए । यह बहुत पुराना संसार-वृक्ष करुणा और असंख्य दुख-शाखाओं से गिरा हुआ है ।माया ही इसकी जड़ है । स्त्री-पुत्रादि में आसक्ति ही इसके पत्ते हैं । हे मुरारे! में इस वृक्ष पर चढ़कर गिर पड़ा हूँ, मुझे बताइये । भाँती-भाँती के मोहमय दुखों की भयानक आग से में जला जा रहा हूँ, दिन-रात शोक में डूबा रहता हूँ। मुझे इससे छुडाइए । अपने अनुग्रह रूप ज्ञान की जल धारा से मुझे शांति प्रदान कीजिए । मेरे स्वामी ! यह संसार रूपी गहरी खाई बड़े भारी अंधेरे से छायी है । मैं इसमे पड़कर बहुत डर रहा हूं।इस दीन पर आप कृपा कीजिए । मैं इस संसार से विरक्त होकर आपकी शरण में आया हूँ । जो लोग अपने मन को निरंतर बड़े प्रेम से आपमें लगाए रखते हैं ,जो आपका ध्यान करते हैं, वे आपको प्राप्त करते हैं, देवता और कीत्ररगण आपके परम पवित्र श्री चरणों में सिर झुकाकर सदा उनका चिंतन करते हैं। प्रभो! मै भी न तो दूसरे की चर्चा करता हूं, न तो सेवन करता हूं। और न तो चिंतन ही करता हूँ ।सदा आपके ही नाम-गुण-कीर्तन ,भजन और स्मरण में लगा रहता हूँ । मैं आपके श्री चरणों में निरंतर नमस्कार करता हूँ । श्री कृष्ण ! मेरी मनोकामना पूरी कीजिए । मेरी समस्त मेरे समस्त युवा पाप राशि नष्ट हो जाय । मैं आपका दास हूँ , किक्डर हूँ । ऐसी कृपा कीजिए जिससे मैं जब जहां भी जन्म लूं, सदा-सर्वदा आपके चरण कमलों का ही चिंतन करता रहूं । श्री कृष्णा ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे उत्तम वरदान दीजिए । हे देवाधिदेव ! मेरे माता और पिता के सहित मुझको अपने परम धाम में ले चलिए ।’ इस प्रकार स्तुति करके सुव्रत चुप हो गये । तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा–‘ ऐसा ही होगा । तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा ।’ इतना कहकर भगवान अंतर्धान हो गए और सुव्रत ने अपने पिता सोम शर्मा और माता सुमना के साथ सशरीर भगवान के नित्यधाम की शुभ यात्रा की ।
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