पांडवों का इतिहास
पांडवों का इतिहास
धर्मो विवर्धति युधिष्ठिरकीर्तनेन पापं प्रणश्यति वृकोदरकीर्तनेन ।
शत्रुर्विनश्यति धनञ्जयकीर्तनेन माद्रीसुतौ कथयतां न भवन्ति रोगाः ॥ पांडवों का इतिहास
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जैसे शरीरमें पाँच प्राण होते हैं, वैसे ही महाराज पाण्डुके पाँच पुत्र हुए- कुन्तीदेवीके द्वारा धर्म, वायु तथा इन्द्रके अंशसे युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन और माद्रीके गर्भसे अश्विनीकुमारोंके अंशसे नकुल और सहदेव । महाराज पाण्डुका इनके बचपनमें ही परलोकवास हो गया। माद्री अपने पतिके साथ सती हो गयीं । पाँचों पुत्रोंका लालन-पालन कुन्तीदेवीने किया ये पाँचों भाई जन्मसे ही धार्मिक, सत्यवादी, न्यायी थे। ये क्षमावान्, सरल, दयालु तथा भगवान्के परम भक्त थे। पांडवों का इतिहास
महाराज पाण्डुके न रहनेपर उनके पुत्रोंको राज्य मिलना चाहिये था; किंतु इनके बालक होनेसे अन्धे राजा धृतराष्ट्र सिंहासनपर बैठे। उनके पुत्र स्वभावसे क्रूर और स्वार्थी थे। उनका ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन अकारण ही पाण्डवोंसे द्वेष करता था। भीमसेनसे तो उसकी पूरी शत्रुता थी। उसने भीमसेनको विष देकर गङ्गाजीमें मूर्च्छित दशामें फेंक दिया; परंतु भीम बहते हुए नागलोक पहुँच गये। वहाँ उन्हें सर्पोंने काटा, जिससे खाये विषका प्रभाव दूर हो गया। नागलोकसे वे लौट आये। दुर्योधनने पाण्डवोंको लाक्षागृह बनवाकर उसमें रखा और रात्रिको उसमें अग्नि लगा दी। परंतु विदुरजीने पहले ही इन लोगोंको सचेत कर दिया था। ये अग्निसे बचकर चुपचाप वनमें निकल गये और गुप्तरूपमें यात्रा करने लगे । पांडवों का इतिहास
भीमसेन शरीरसे बहुत विशाल थे। बलमें उनकी जोड़का मिलना कठिन था । वे बड़े-बड़े हाथियोंको उठाकर सहज ही फेंक देते थे । वनमें माता कुन्ती और सभी भाइयोंको वे कन्धोंपर बैठाकर मजेसे यात्रा करते थे। अनेक राक्षसोंको उन्होंने वनमें मारा । धनुर्विद्यामें अर्जुन अद्वितीय थे। इसी वनवासमें पाण्डव द्रुपदके यहाँ गये और स्वयंवरसभामें अर्जुन मत्स्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया। माता कुन्तीके सत्यकी रक्षाके लिये द्रौपदी पाँचों भाइयोंकी रानी बनीं। धृतराष्ट्रने समाचार पाकर पाण्डवोंको हस्तिनापुर बुलवा लिया और आधा राज्य दे दिया। पांडवों का इतिहास
युधिष्ठिरके धर्मशासन, अर्जुन तथा भीमके प्रभाव एवं भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे पाण्डवोंका ऐश्वर्य विपुल हो गया। युधिष्ठिरने दिग्विजय करके राजसूय यज्ञ किया और वे राजराजेश्वर हो गये; परंतु दुर्योधनसे पाण्डवोंका यह वैभव सहा न गया। धर्मराजको महाराज धृतराष्ट्रकी आज्ञासे जुआ खेलना स्वीकार करना पड़ा। जुएमें सब कुछ हारकर पाण्डव बारह वर्षके लिये वनमें चले गये। एक वर्ष उन्होंने अज्ञातवास किया। यह अवधि समाप्त हो जानेपर भी जब दुर्योधन उनका राज्य लौटानेको राजी नहीं हुए, तब महाभारत हुआ। उस युद्धमें कौरव मारे गये | युधिष्ठिर सम्राट् हुए। छत्तीस वर्ष उन्होंने राज्य किया। इसके बाद जब पता लगा कि भगवान् श्रीकृष्ण परम धाम पधार गये, तब पाण्डव भी अर्जुनके पौत्र परीक्षित्को राज्य देकर सब कुछ छोड़कर हिमालयकी ओर चल दिये। वे भगवान्में मन लगाकर महाप्रस्थान कर गये । पांडवों का इतिहास
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र तो धर्म और भक्तिके साथ हैं। जहाँ धर्म है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है। पाण्डवोंमें धर्मराज युधिष्ठिर साक्षात् धर्मराज थे और भगवान्के अनन्य भक्त थे और अर्जुन तो श्रीकृष्णके प्राणप्रिय सखा ही थे। उन महाराज युधिष्ठिर तथा महावीर धनञ्जयके चरित पृथक् दिये गये हैं। भीमसेन श्यामसुन्दरको बहुत मानते थे । भगवान् भी उनसे बहुत हास-परिहास कर लेते थे; किंतु कभी भी भीमसेनने श्रीकृष्णके आदेशपर आपत्ति नहीं की। कोई युधिष्ठिर या श्रीकृष्णका अपमान करे, यह उन्हें तनिक भी सहन नहीं होता था। जब राजसूय यज्ञमें शिशुपाल श्यामसुन्दरको अपशब्द कहने लगा, तब भीम क्रोधसे गदा लेकर उसे मारनेको उद्यत हो गये । । पांडवों का इतिहास
पाण्डवोंकी भक्तिकी कोई क्या प्रशंसा करेगा। जिनके प्रेमके वश होकर स्वयं त्रिभुवननाथ द्वारकेश
उनके दूत बने, सारथि बने और सब प्रकारसे उनकी रक्षा करते रहे, उनके सौभाग्यकी क्या सीमा है। ऐसे ही पाण्डवोंका भ्रातृप्रेम भी अद्वितीय है। धर्मराज युधिष्ठिर अपने चारों भाइयोंको प्राणके समान मानते थे और चारों भाई अपने बड़े भाईकी ऐसी भक्ति करते थे, जैसे वे उनके खरीदे हुए सेवक हों। युधिष्ठिरने जुआ खेला, उनके दोषसे चारों भाइयोंको वनवास हुआ और अनेक प्रकारके कष्ट झेलने पड़े; पर बड़े भाईके प्रति पूज्यभाव उनके मनमें ज्यों-का-त्यों बना रहा । क्षोभवश भीम या अर्जुन आदिने यदि कभी कोई कड़ी बात कह भी दी तो तत्काल उन्हें अपनी बातका इतना दुःख हुआ कि वे प्राणतक देनेको उद्यत हो गये । पांडवों का इतिहास
पाण्डवोंके चरित्रमें ध्यान देने योग्य बात है कि उनमें भीमसेन जैसे बली थे, अर्जुन-जैसे अस्त्रविद्यामें अद्वितीय कुशल शूरवीर थे, नकुल सहदेव-जैसे नीतिनिपुण एवं व्यवहारकी कलाओंमें चतुर थे; किंतु ये सब लोग धर्मराज युधिष्ठिरके ही वशमें रहकर, उन्हींके अनुकूल चलते थे। बल, विद्या, शस्त्रज्ञान, कला-कौशल आदि सबकी सफलता धर्मकी अधीनता स्वीकार करनेमें ही है। धर्मराज भी श्रीकृष्णचन्द्रको ही अपना सर्वस्व मानते थे। वे श्रीकृष्णकी इच्छाके अनुसार ही चलते थे। भगवान्में भक्ति होना, भगवान्के प्रति सम्पूर्ण रूपसे आत्मसमर्पण कर देना ही धर्मका लक्ष्य है। यही बात, यही आत्मनिवेदन पाण्डवोंमें था और इसीसे श्यामसुन्दर उन्हींके पक्षमें थे। पाण्डवोंकी विजय इसी धर्म तथा भक्तिसे हुई। पांडवों का इतिहास
ओर पड़ने के लिया निसे नजर दे
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र्मठी बाई की कथा 12 भक्तमति करमेति बाई की कथा
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