दादूजी महाराज के दोहे
दादूजी महाराज के दोहे साखीयां
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दादू साहिब जी महाराज ने बड़े ही गूढ़ रहस्यों को अपने दोहे की रचनाओं के गूढ़ रहस्यों को गागर में सागर के समान बहुत ही सुंदर व्याख्या कर रखी है इस भाग में इन्होंने गुरु महिमा का अंग एवं सुमिरन का अंग पर जो दोहे की रचना की है वह आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूं कृपया ध्यान लगाकर पढ़ें। दादूजी महाराज के दोहे
गुरदेव कौ अंग
दादू गैब मांहि गुरदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तकि मेरे कर धरया, देख्या अगम अगाध।।१।।
दादू सतगुर सूं सहजैं मिल्या, लीया कंठि लगाइ।
दया भई दयाल की, तब दीपक दिया जगाइ॥२॥
सबद दूध घृत रांमरस, कोई साध बिलोवणहार।
दादू अमृत काढिले, गुरमुखि गहै बिचार॥३॥
घीव दूध मैं रमि रया, ब्यापक सबही ठौर।
दादू बकता बहुत हैं, मथि काढ़ें ते और॥४॥
दीवै दीवा कीजिये, गुरमुख मारगि जाई।
दादू अपणे पीव का, दरसन देखै आई।।५।।
मानसरोवर माहिं जल, प्यासा पीवै आइ।
दादू दोष न दीजिये, घर घर कहण न जाई।।६।।
देवै किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।
दादू सांधै सुरति कूं, सो गुर पीर हमार॥७॥
इक लख चन्दा आणि धरि, सूरज कोटि मिलाय।
दादू गुर गोबिंद बिन, तौभी तिमिर न जाय॥८॥
दादू मन फकीर ऐसैं भया, सतगुर के परसाद।
जहाँ कथा लागा तहाँ, छूटे बाद-बिबाद॥६॥
ना घरि रह्या न बनि गया, ना कुछ किया कलेस।
दादू मन हीं मन मिल्या, सतगुर के उपदेस॥१०॥
दादू पड़दा भरम का, रह्या सकल घटि छाइ।गुर गोब्यंद कृपा करै, तो सहजें ही मिटि जाइ॥११॥
दादू यहु मसीति यहु देहुरा, सतगुर दिया दिखाइ।
भीतरि सेवा बंदिगी, बाहरि काहे जाइ॥१२॥
दादू सोई मारग मनि गया, जेहिं मारग मिलिये जाइ।
बेद कुरानूं नां कया, सो गुर दिया दिखाइ॥१३॥
दादू मनहीं सूं मल ऊपजै, मनहीं सूं मल धोइ।
सीख चली गुर साध की, तो तूं नृमल होई॥१४॥
मन कै मतै सब कोइ खेलै, गुरमुख विरला कोइ।
दादू मन की माने नहीं, सतगुर का सिख सोइ॥१५॥
घरि घरि घट कोल्हू चलै, अमी महारस जाइ।
दादू गुर के ग्यान बिन, विखै हलाहल खाइ॥१६॥
सतगुर सबद उलंधिकरि, जिनि कोई सिख जाइ।
दादू पग-पग काल है, जहाँ जाइ तहँ खाइ॥१७॥
सोने सेती बैर क्या, मारै घण के घाइ।
दादू काढ़ि कलंक सब, राखै कंठि लगाइ॥१८॥
गुर पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैंन।
दादू सिख समझे नहीं, कहि समझावै बैन॥१६॥
कहें लखै सो मानवी, सैंन लखै सो साध।
मन की लखै सु देवता, दादू अगम अगाध॥२०॥
सिख गोरू गुर ग्वाल है, रख्या करि करि लेइ।
दादू राखै जतन करि, आणि धणी कौं देइ॥२१॥
झूठे अन्धे गुर घणे, भरम दिढ़ावैं आई।
दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म है जाइ॥२२॥
झूठे अन्धे गुर घणै, बन्धे विखै बिकार।
दादू साचा गुर मिलै, सनमुख सिरजनहार ॥२३॥
झूठे अन्धे गुर घणे, भरम दिढ़ावैं कांम।
बन्धे माया मोह सौं, दादू मुखसौं रांम॥२४॥
दादू आपा उरझें उरझिया, दीसै सब संसार।
आपा सुरझें सुरझिया, यहु गुर ग्यान बिचार॥२५॥
दादू बिन पाइन का पंथ है, क्यौं करि पहुँचे प्रांगण।
विकट घाट औघट खरे, मांहिं सिखर असमान॥२६॥
मन ताजी चेतन चढ़े, ल्यौ की करै लगांम।
सबद गुरू का ताजणा, कोइ पहुंचे साघ सुजांण॥२७॥
सुख का साथी जगत सब, दुख का नाहीं कोइ।
दुख का साथी सांइयां, दादू सतगुर होइ॥२८॥
सूरिज सनमुख आरसी, पावक किया प्रकास।
दादू सांईं साध बिचि, सहजैं निपजै दास॥२६॥
सुमिरण कौ अंग दादूजी महाराज के दोहे
दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि।
मूरति मन मांह्रै बसै, सासें सास संभरि॥१॥
सासैं सास संभालतां, इकदिन मिलिहै आइ।
सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुर दिया बताई॥२॥
रांम, तुम्हारे नांव बिन, जे मुख निकसै और।
तौ इस अपराधी जीव कौं, तीनि लोक कत ठौर॥३॥
सोई सांस सुजाण नर, सांई सेती लाइ।
करि साटा सिरजनहार सूं, मंहगे मोलि बिकाइ ॥४॥
दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सौं, भावै कंदलि जाइ।
भावै गिरि परबति रहूँ, भावै ग्रेह बसाइ ॥५॥
हरि भजि साफिल जीवना, परउपगार समाइ।
दादू मरणा तहँ भला, जहँ पसु – पंखी खाइ॥६॥
दादू सांई सेवैं सब भले, बुरा न कहिये कोइ।
सारौं माहै सो बुरा, जिस घटि नांव न होइ॥७॥
दादू का जाणों कब होइगा, हरिसुमिरण इकतार।
का जाणों कब छोड़िहै, यहु मन विखै विकार॥८॥
दादू रामनांम निज औषदी, काटै कोटि बिकार।
विषम ब्याधि थैं ऊबरै, काया कंचन सार॥६॥
मन पवना गहि सुरति सौं, दादू पावै स्वाद।
सुमिरण माहे सुख घणा, छाड़ि देहु बकवाद॥१०॥
ज्यूं जल पैसे दूध में, ज्यूं पाणी में लूण।
ऐसें आतमराम सौं, मन हठ साधै कूंण॥११॥
दादू सब सुख सरग पयाल के, तोलि तराजू बाहि।
हरि-सुख एकै पलक का, तासमि कह्या न जाइ॥१२॥
अपणी जाणें आप गति, और न जाणे कोइ।
सुमिर सुमिर रस पीजिये, दादू आनन्द होइ॥१३॥
दादू यहु तन पिंजरा, मांही मन सूबा ।
एकै नांव अलाह का, पढ़ि हाफिज हूवा॥१४॥
नांव लिया तब जाणिये, जे तन मन रहे समाइ।
आदि अंति मधि एकरस, कबहूँ भूलि न जाइ॥१५॥
दादू पीवै एकरस, बिसरि जाइ सब और ।
अबिगत यहु गति कीजिये, मन राखौ इहि ठौर॥१६॥
आतम चेतनि कीजिये, प्रेम रस पीवै।
दादू भूलै देह गुण, ऐसे जन जीवै॥१७॥
कहि कहि केते थाके दादू सुणि सुणि कहु क्या लेई ।
लूंण मिलै गलि पाणियां, तासमि चित यौं देई॥१८॥
मिलै तो सब सुख पाइये, बिछुरे बहु दुख होइ।
दादू सुख दुख राम का, दूजा नाहीं कोई ॥१६॥
दादू सब जग नीधना, धनवंता नहिं कोइ।
सो धनवंता जाणिये, जाकै रामपदारथ होइ॥२०॥
दादू आनन्द आत्मा, अविनासी के साथ।
प्राणनाथ हिरदै बसै, तो सकल पदारथ हाथ॥२१॥
अगम अगोचर राखिये, करि करि कोटि जतन।
दादू छाना क्यौं रहे, जिस घटि राम-रतन॥२२॥
सुमिरण का संसा रह्या, पछितावा मन मांहि।
दादू मीठा रामरस, सगला पीया नांहि॥२३॥
दादू सिरि करवत बहै, बिसरै आतम राम।
माहिं कलेजा कलेजा काटिये, जीव नहीं विश्राम॥२४॥ दादूजी महाराज के दोहे
मुझे उम्मीद है मित्रों यह दादूजी महाराज के दोहे आपको पसंद आए होंगे अगर यह दोहे आपको दादू पसंद आए हैं तो कृपया लाइक करें कमेंट करें एवं अपने प्रिय मित्रों में शेयर जरूर करें साथ ही साथ अन्य दोहे छंद सवैया आदि पढ़ने के लिए कृपया नीचे दी गई समरी पर क्लिक करें । धन्यवाद!