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गोपीचंद की कथा । जबतक रहेगी धरतरी तबतक गोपीचंद भरथरी

गोपीचंद की कथा

जननी जने तो भक्त जन के दाता के सूर।

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नई तो रहेजे बाँझनी मत गंवाजै नूर। गोपीचंद की कथा

गोपीचंद को माता का उपदेश

गोपीचंद इकलौते पुत्र थे पिता का देहांत हो चुका था। कई कन्याएं (पुत्रीया) थी, माता जी ने एक दिन अपने पुत्र को स्नान करते देखा मां ऊपर की मंजिल पर थी, नीचे गोपीचंद की रानियां स्नान की तैयारी कर रही थी, माता ने अपने पुत्र को देखा तथा अपने पति की याद आई इसी आयु में इसके पिता की मृत्यु हो गई थी। वे इतने ही सुंदर वह युवा थे। उनको काल खा गया। मेरे बेटे को भी कॉल खाएगा। क्यों ना इसको भगवान की भक्ति पर लगा दूं ताकि मेरा लाल अमर रहे। आखों से आंसू निकले और गोपीचंद के शरीर पर गिर गए गोपीचंद ने देखा कि मां रो रही है। उसी समय वस्त्र पहनकर मां के पास गया रोने का कारण पूछा। कारण बताया तथा स्वयं गोरखनाथ जी के पास लेकर गई और दीक्षा दिला दी। सन्यास दिला दिया। गोपीचंद की कथा

गोपीचंद जी की परीक्षा

गोपीचंद डेरे(गुरु आश्रम) में रहने लगा। श्री गोरखनाथ जी ने परीक्षार्थ गोपीचंद जी को उसी के घर भिक्षा लेने भेजा तथा कहा कि अपनी पत्नी पाटन देवी से माता कहकर भिक्षा मांगकर ला। गोपीचंद जी महल के द्वार पर गए। माई भिक्षा देना आवाज लगाई। रानी तथा कन्याऐं आवाज पहचान कर दौड़ी दौड़ी आई। सब रोने लगी। कहा कि आप यहीं रह जाए। मत जाओ डेरे में हमारा क्या होगा? उसी समय वापस डेरे में आ गया तथा गुरुजी से सब वृतांत बताया। फिर गोपीचंद की माता श्री गोरखनाथ जी के पास जाकर गोपीचंद को वापस मांगने गई। परंतु गोपीचंद जी ने कहा कि माता जी अब मैं गुरु जी का बेटा हूं। आपका अधिकार समाप्त हो गया है। अब मैं किसी भी कीमत पर घर नहीं जाऊंगा। गोपीचंद की कथा

जबतक यह धरती रहेगी तब तक ही गोपीचंद अमर रहेंगे

जो गुरु जी ने साधना बताई थी, वह भक्ति कि यहां प्रश्न यह है कि भले ही वह भक्ति मोक्ष दायक नहीं थी, परंतु परमात्मा प्राप्ति के लिए गुरु जी ने जो भी साधना तथा मर्यादा बताई सिर धड़ की बाजी लगाकर निभाई। वह भिन्न बात है कि मुक्त नहीं हुए परंतु जिस स्तर की साधना की उस में प्रथम रहकर उभरे। संसार में नाम हुआ। किसी न किसी जन्म में कबीर परमेश्वर जी ऐसी दृढ़ आत्माओं को अवश्य शरण में लेते हैं। यदि भक्ति की शुरुआत ही नहीं करते तो नर्क में जाना था। राज्य तो रहना ही नहीं था। गोपीचंद की कथा

भाई जो गुरु वचन पर डट गए कट गए फंद 84 के

“अलवर शहर के राजा के किले में पत्थर ढोने की नौकरी करना।।

एक समय श्री गोरखनाथ जी से गोपीचंद तथा भरतरी जी ने कहा कि गुरुदेव! हमारा मोक्ष इसी जन्म में हो ऐसी कृपा करें। आप जो भी साधना बताओगे हम करेंगे। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि राजस्थान प्रांत में एक अलवर शहर है। वहां का राजा अपने किले का निर्माण करवा रहा है। तुम दोनों उस राजा के किले का निर्माण पूरा होने तक उसमें पत्थर ढोने का निशुल्क कार्य करो। अपने खाने के लिए कोई अन्य मजदूरी सुबह शाम करो। उसी दिन दोनों भक्त आत्मा गुरु जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। उस किले का निर्माण 12 वर्ष तक चला। कोई मेहनताना का रुपया पैसा नहीं लिया अपने भोजन के लिए उसी नगरी के एक कुम्हार के पास उसकी मिट्टी खोदने तथा उसके मटके बनाने योग्य गारा तैयार करने लगे। उसके बदले में सुबह शाम केवल रोटी खाते थे। कुम्हार की धर्मपत्नी अच्छे संस्कारों की नहीं थी। कुम्हार ने कहा कि दो व्यक्ति बेघर घूम रहे थे। वे मेरे पास मिट्टी खोदने तथा गारा तैयार करते हैं। केवल रोटी रोटी की मजदूरी लेंगे। आज तीन व्यक्तियों का भोजन लेकर आना। मटके बनाने तथा पकाने वाला स्थान नगर से कुछ दूरी पर जंगल में था। कुम्हारी दो व्यक्तियों की रोटी लेकर गई और बोली कि इससे अधिक नहीं मिलेगी। भोजन रख कर घर लौट आई। कुम्हार ने कहा कि बेटा! इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा। तीनों ने बांट कर रोटी खाई। कई वर्ष ऐसा चला। अंत के वर्ष में तो केवल एक व्यक्ति का भोजन भेजने लगी। तीनों उसी में संतोष कर लेते थे। किले का कार्य 12 वर्ष चला। कुम्हार ने अपने घड़े पकाने के लिए आवे में रख दिए। अंत के वर्ष की बात है। गोपीचंद तथा भरतरी ने कुम्हार से आज्ञा ली कि पिताजी! हमारी साधना पूरी हुई। अब हम अपने गुरु श्री गोरखनाथ जी के पास वापस जा रहे हैं। मेरा नाम गोपीचंद है। इनका नाम भरथरी है। उस समय कुम्हार की पत्नी भी उपस्थित थी मटको की और एक हाथ से आशीर्वाद देते हुए दोनों ने एक साथ कहा गोपीचंद की कथा

पिता का हेत माता का कुहेत आधा कंचन आधा रेत।।

यह वचन बोलकर दोनों चले गए। जिस समय मटके निकालने लगे तो कुम्हार तथा कुम्हारी दोनों निकाल रहे थे। देखा तो प्रत्येक मटका आधा सोने (गोल्ड का) था, आधा कच्चा था। हाथ लगते ही रेत बनने लगा। कुम्हार ने कहा, भाग्यवान वे तो कोई देवता थे। तेरी त्रुटि के कारण आधा मटका रेत रह गया। मिट्टी की मिट्टी रह गई। आधा स्वर्ण का हो गया। कुम्हारी को अपनी कृतघ्नता का एहसास हुआ तथा रोने लगी। बोली कि मुझे पता होता तो उनकी बहुत सेवा करती। गोपीचंद की कथा

कबीर करता था तब क्यों किया अब करके क्यों पछताय।

बोवे पेड़ बबूल का आम कहां से होय।।

इस प्रकार गोपीचंद और भरतरी जी अपने गुरु जी के वचन का पालन करके सफल हुए। जो अमरत्व उस साधना से मिलना था, वह भी अटल विश्वास करके साधना करने से ही हुआ। यदि विवेक हीन तथा विश्वासहीन होते तो विचार करते कि यह कैसी भक्ति? यह कार्य तो सारा संसार कर रहा है। मोक्ष के लिए तो तपस्या करते हैं या अन्य कठिन व्रत करते हैं। परंतु उन्होंने गुरु जी को गुरु मानकर प्रत्येक साधना की। गुरुजी के कार्य या आदेश में दोष नहीं निकाला तो सफल हुए। गोरखनाथ जी ने उनको जो नाम जाप करने का मंत्र दे रखा था, उसका जाप वे दोनों पत्थर उठाकर निर्माण स्थान तक ले जाते तथा लौटकर पत्थरों को तरास (काट छांट कर के सीधा कर) रहे थे, वहां तक आते समय करते रहते थे। दोनों युवा थे। कार्य के परिश्रम तथा पूरा पेट न भरने के कारण मन में स्त्री के प्रति विकार नहीं आया और सफलता पाई। गुरु एक वैध (डॉक्टर) होता है। उसे पता होता है। कि किस रोग को क्या परहेज देना है? क्या खाने को बताना है? यानी पथ्य अपथ्य डॉक्टर ही जानता है। रोगी यदि उसका पालन करता है। तथा औषधि सेवन (भक्त नाम जाप) करता है तो स्वस्थ हो जाता है यानी मोक्ष प्राप्त करता है। इसी प्रकार गोपीचंद तथा भरतरी जी ने अपने गुरु जी के आदेश का पालन करके जीवन सफल किया। इसी प्रकार सत्य लोक प्राप्ति के लिए हमने भी अपनी साधना करनी है। गोपीचंद की कथा

उम्मीद करता हूं दोस्तों गोपीचंद की यह कथा आपको जरूर पसंद आई होगी ऐसी और भी बहुत सारी कथाएं पढ़ने के लिए आप नीचे दी हुई समरी पर क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं अगर कथा पसंद आई है तो लाइक कमेंट शेयर जरूर करें धन्यवाद

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