गुरुभक्त उत्तंक की कथा
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गुरुभक्त उत्तंक की कथा
गुरु भक्त उपमन्यु
महर्षि आयोदधौम्यके दूसरे शिष्यका नाम उपमन्यु था। गुरुने उसे गौएँ चरानेका कार्य दे रखा था । वह दिनभर जंगलोंमें गौएँ चराता, रात्रिमें गुरुगृहको लौट आता। एक दिन गुरुने उसे खूब हृष्ट-पुष्ट देखकर पूछा- ‘बेटा उपमन्यु ! हम तुझे खानेको तो देते नहीं, तू इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है?”
उपमन्युने कहा – ‘भगवन्! मैं भिक्षा माँगकर अपने शरीरका निर्वाह करता हूँ।’
गुरुने कहा – ‘बेटा! बिना गुरुके अर्पण किये भिक्षाको पा लेना पाप है; अतः जो भी भिक्षा मिले, उसे पहले मुझे अर्पण किया करो। मैं दूँ, तब तुझे खाना चाहिये ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर शिष्यने गुरुकी आज्ञा मान ली और वह प्रतिदिन भिक्षा लाकर गुरुके अर्पण करने लगा । गुरु तो उसकी परीक्षा ले रहे थे, उसे कसौटीपर कस रहे थे, अग्निमें तपाकर कुन्दन बना रहे थे । उपमन्यु जो भिक्षा लाता, वे उसे पूरी की पूरी रख लेते, उसको खानेके लिये कुछ भी न देते । गुरुभक्त उत्तंक की कथा
कुछ दिनों बाद गुरुने देखा उपमन्यु तो पहलेकी ही भाँति हृष्ट-पुष्ट है, तब उन्होंने कहा- ‘बेटा उपमन्यु ! तुम आजकल क्या खाते हो?’
उपमन्युने कहा – ‘भगवन् ! पहली भिक्षा माँगकर मैं आपके अर्पण कर देता हूँ। फिर दुबारा जाकर भिक्षा माँग लाता हूँ, उसीपर अपना निर्वाह करता हूँ।
गुरुने कहा- ‘यह भिक्षा-धर्मके विरुद्ध है, इससे गृहस्थोंपर भी बोझा पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगनेवालोंको भी संकोच होगा। अतः आजसे दुबारा भिक्षा मत माँगना ।’ शिष्यने गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की और दूसरी बार भिक्षा माँगना छोड़ दिया । गुरुभक्त उत्तंक की कथा
कुछ दिनों बाद गुरुने फिर उपमन्युको ज्यों-का-त्यों देखकर पूछा – ‘उपमन्यु ! अब तुम क्या खाते हो?’
उपमन्युने कहा – ‘मैंने दुबारा भिक्षा लाना छोड़ दिया है, मैं अब केवल गौओंका दूध पीकर रहता हूँ । ‘
गुरुने कहा – ‘यह तुम बड़ा अनर्थ कर रहे हो, मेरे बिना पूछे गौओंका दूध कभी नहीं पीना चाहिये। आजसे गौओंका दूध मत पीना ।’
शिष्यने गुरुकी यह बात मान ली और उसने गौओंका दूध भी छोड़ दिया। थोड़े दिनों बाद गुरुने फिर उपमन्युको हृष्ट-पुष्ट देखा और पूछा- ‘बेटा ! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते, गौओंका दूध भी नहीं पीते, फिर भी तुम्हारा शरीर ज्यों-का-त्यों बना है ! तुम क्या खाते हो?’ गुरुभक्त उत्तंक की कथा
उसने कहा – ‘भगवन् ! मैं बछड़ोंके मुखमेंसे गिरनेवाले फेनको पीकर अपनी वृत्ति चलाता हूँ।’ गुरुने कहा – ‘देखो, यह तुम ठीक नहीं करते । बछड़े दयावश तुम्हारे लिये अधिक फेन गिरा देते होंगे । इससे वे भूखे रह जाते होंगे। तुम बछड़ोंका फेन भी मत पिया करो ।’ उपमन्युने इसे भी स्वीकार कर लिया और उस दिनसे फेन पीना भी छोड़ दिया । वह उपवास करने लगा। प्रतिदिन उपवासकरता और दिनभर गौओंके पीछे घूमता।
भूखे रहते-रहते उसकी सब इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गयीं । भूखके वेगमें वह बहुत से आकके पत्तोंको खा गया। उन कड़वे, विषैले पत्तोंको खानेसे उसकी आँखें फूट गयीं। फिर भी उसे गौओंके पीछे तो जाना ही था, वह धीरे-धीरे आवाजके सहारे गौओंके पीछे चलने लगा। आगे एक कुआँ था, वह उसीमें गिर पड़ा।
गुरु उसके साथ निर्दयताके कारण ऐसा बर्ताव नहीं करते थे, वे तो उसे पक्का बनाना चाहते थे। कछुआ रहता तो जलमें है, किंतु अपने अण्डोंको सेता रहता है । इसीसे अण्डे वृद्धिको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार ऊपरसे तो गुरुजी ऐसा बर्ताव करते थे, भीतरसे सदा उन्हें उपमन्युकी चिन्ता लगी रहती थी । रात्रिमें जब उपमन्यु नहीं आया, तब उन्होंने अपने दूसरे शिष्यसे पूछा- ‘उपमन्यु अभी लौटकर नहीं आया? गौएँ तो लौटकर आ गयीं। मालूम होता है, बहुत कष्ट सहते सहते वह दुःखी होकर भूखके कारण कहीं भाग गया। चलो, उसे जंगल में चलकर ढूँढ़ें।’ यह कहकर गुरु जंगलमें उपमन्युको खोजने लगे। सर्वत्र वे जोरसे आवाज देते- ‘बेटा उपमन्यु ! तुम कहाँ हो ? जल्दी आओ ।’ गुरुभक्त उत्तंक की कथा
कुएँमें पड़े हुए उपमन्युने गुरुकी आवाज सुन ली । उसने वहींसे जोरसे कहा – ‘गुरुजी ! मैं यहाँ कुएँमें पड़ा हूँ।’
गुरुजी वहाँ पहुँचे, सब हाल सुनकर वे हृदयसे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा – ‘बेटा! ऋग्वेदकी ऋचाओंसे तुम देवताओंके वैद्य अश्विनीकुमारकी स्तुति करो, वे तुम्हें आँखें दे देंगे।’
उसने वैसा ही किया । स्वरके साथ वैदिक ऋचाओंसे उसने अश्विनीकुमारोंकी प्रार्थना की। उससे प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारोंने उसकी आँखें अच्छी कर दीं और उसे एक पूआ देकर कहा कि इसे तुम खा लो ।’
उसने कहा – ‘देवताओ! मैं अपने गुरुको बिना अर्पण किये इस पूआको कभी नहीं खा सकता।’ अश्विनीकुमारोंने कहा – ‘पहले तुम्हारे गुरुने जब हमारी स्तुति की थी, तब हमने उन्हें भी पूआ दिया था और उन्होंने बिना गुरुके अर्पण किये ही उसे खा लिया था । ‘ गुरुभक्त उत्तंक की कथा
उपमन्युने कहा – ‘चाहे जो हो, वे मेरे गुरु हैं; मैं ऐसा नहीं कर सकता ।’ तब अश्विनीकुमारोंने उसे सब विद्याओंके स्फुरित होनेका आशीर्वाद दिया। बाहर आनेपर गुरुने भी उन्हें छातीसे लगाया और देवताओंके आशीर्वादका अनुमोदन किया।
कालान्तरमें उपमन्यु भी आचार्य हुए। वे गुरुकुलके कष्टको जानते थे, अतः अपने किसी शिष्यसे कोई काम नहीं लेते थे, सबको प्रेमपूर्वक पढ़ाते थे । गुरुभक्त उत्तंक की कथा