गिरधर कविराय की कुंडलिया || अर्थ सहित काव्य रचनाएँ
गिरधर कविराय की कुंडलियां
दौलत पाय न कीजिए, सपनेहु अभिमान
दौलत पाय न कीजिए, सपनेहु अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाउं न रहत निदान।।
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ठाउं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह ‘गिरिधर कविराय अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सबही के दौलत।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें यह अनुभव बताना चाहते हैं कि व्यक्ति को धन पाकर सपने में भी अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि यह माया आनी जानी है और बड़ी ही चंचल है एक जगह ज्यादा देर तक स्थिर नहीं रहती यह धन दौलत उस घड़े के पानी के समान है जो प्याऊ पर रखा है इसलिए अगर आपके पास धन दौलत है तो उससे जस लीजिए इसका यही सही उपयोग है सब से विनम्र भाव रखिए मीठा बोलिए कवि गिरिधर कविराय कह रहे हैं कि यह दौलत में सबको ऊपर नीचे कर रखा है सबको तौल रखा है यह माया उस अतिथि मेहमान की तरह है जो चार दिन तक रहता है पर आखिर अपने घर जाता है इसी प्रकार की यह माया सबके लिए 4 दिन की मेहमान है तो अभीमान किस बात का। गिरधर कविराय की कुंडलिया
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबे सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अपावन।।
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुनके।।
भावार्थ:-
इस संसार में आपके पास कोई गुण है तो ग्राहक तो हजारों मिल जाएंगे पर आपमें कुछ हटके गुण होना चाहिए बिना गुण के कहीं मान नहीं मिलता जिस प्रकार एक कोयल और कौवा दोनों एक ही रंग के होते हैं लेकिन पहचान दोनों की अलग-अलग होती अगर कोयल बोलती है तो सबको अच्छी लगती है वहीं अगर कौवा बोलता है तो सब अट्टहास करते हैं मतलब साफ है कि ग्राहक तो है पर आप की गुणवता कैसी है कवी गिरधर हमें समझाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे भीतर अच्छे सद्गुण है तो सब तुम्हारे हैं बिना गुण के कहीं पर भी ग्राहक नहीं मिलते।
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय गिरधर कविराय
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय।।
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै।।
कह ‘गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे।।
भावार्थ:-
इस कुंडली में हम एक छोटे से पर बहुत ही उपयोगी ज्ञानवर्धक चुटकुले के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझेंगे कि एक बार किसी के घर एक नेवले को पाल रखा था उस घर में वह औरत उसका नवजात शिशु और वह नेवला रहते थे पति काम से बाहर गया हुआ था और वह पानी का घड़ा लाने बार पनघट पर गई हुई थी इधर घर में वह नेवला और बच्चा दोनों खेल रहे थे इतने में एक साथ बच्चे की तरफ बढ़ रहा था जब नेवले ने देखा तो नेवला उस बच्चे को सांप से बचाने के लिए सांप पर झपटा और काफी देर की कशमकश के बाद अंततोगत्वा उस नेवले ने सांप को मार दिया और उस बच्चे की जान बचा ही ली नेवला बाहर ड्योडी पर बैठा अपने मुंह को साफ कर रहा था इतने में वह औरत पानी का घड़ा लेकर आई और ड्योडी पर बैठे नेवले को खून से लथपथ देखा तो सोचा कि इसने मेरे बच्चे को मार दिया होगा तभी खून में लथपथ हुआ है उसने आव देखा न ताव भरा घड़ा उस पर पटक दिया और नेवला वही मर गया दौड़ी-दौड़ी अंदर गई और देखा तो बच्चा खेल रहा था और उसके पास एक तरफ सांप मरा पड़ा था जब यह नजारा देखती है तो अपने आप को कोसती है कि यह मैंने क्या कर दिया पर जब बात बीत गई तो अब क्या होना था सिवाय पश्चाताप के अब कुछ भी शेष नहीं था इसलिए कभी हमें इस छंद के माध्यम से समझाना चाहते हैं कि संसार में कोई भी काम करने से पहले उस पर एक बार मंथन जरूर करें नहीं तो काम तो खराब होता ही है साथ ही में दुनिया में हंसी भी होती है और मन में अपने आप पर ग्लानि महसूस होती है और इस संसार में कुछ भी अच्छा नहीं लगता खाना-पीना मान सम्मान राग रंग कुछ भी उसे अच्छा नहीं लगता जीते जी मरण लगता है कवि गिरधर कहते हैं कि ऐसे दुख की कोई औषधि भी नहीं होती और रात दिन खटकता रहता है जो बिना विचारे किया हुआ काम इसलिए हमें भी बिना विवेक विचार किए कोई भी काम भगवत भजन को छोड़कर नहीं करना चाहिए। गिरधर कविराय की कुंडलिया
चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय
चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय।
प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय।।
उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी।
रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी।।
कह ‘गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता।
ते नर कैसे जियै, जाहि व्यापी है चिंता।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि चिंता का वर्णन कर रहे हैं जब कोई व्यक्ति को किसी भी प्रकार की कोई चिंता घेर लेती है तो उस व्यक्ति को बिना धुंआ वाली आग के सामान अंदर ही अंदर जलने के समान प्रतीत होता है लेकिन उसके भीतर इतना अंधेरा छा जाता है कि उसका शरीर दिन प्रतिदिन सूखने लगता है शरीर से मांस रक्त उड़ जाता है और हड्डियां हड्डियां दिखती है शरीर ऐसे जलता है जैसे कि मानो कांच की अंगीठी जल रही हो गिरधर कविराय कह रहे हैं की सुनो मेरे मित्र वे लोग कैसे जिए जिनको चिंता डाकनी ने घेर रखा है। गिरधर कविराय की कुंडलिया
चिंता बड़ी डाकिनी मांस बटुके खाए।
रती रती संसरे तौलो तौलो जाए।।
गिरधर कविराय आगे की कुंडली में कवि चिंता का समाधान बताते है:-
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ।।
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै।।
कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि यह कहना चाहते हैं कि अगर कोई बात बिगड़ गई है तो उसका चिंतन छोड़ कर आगे की सोचनी चाहिए अब तो जो बीत रही है वर्तमान में उसको धैर्य के साथ सहन करो जो तेरे साथ बन रही है उसपर ध्यान दें भला बुरा सबका सुन लीजिए क्योंकि दुर्जन लोग ऐसा करने पर आप पर हसेंगे नहीं और चित् में कोई प्रकार की ग्लानी भी ना रहेगी गिरधर कविराय कह रहे हैं कि ऐसे समय में मन को समझा कर आगे का सुख देख कर ही चलना चाहीए। गिरधर कविराय की कुंडलिया
जो बीत गई सो बीत गई तकदीर का शिकवा कौन करें।
जो तीर कमान से निकल गई अब उसका पीछा कौन करें।।
जो जल बाढै नाव में, घर में बाढै दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।।
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
परमारथ के काज, सीस आगै धरि दीजै।।
कह ‘गिरिधर कविराय, बडन की याही बानी।
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें धन का संग्रह कैसे और कितना करें यह समझाते हुए कह रहे हैं कि आपकी नाव पानी में चल रही है और नाव में पानी बढ़ जाए तो उस समय व्यक्ति को चाहिए कि अपनी जान बचाने के लिए नाव से पानी को बाहर उलिचिये नही तो नाव में जल की मात्रा अधिक हो जाने के कारण ना पानी में डूब जाएगी नाव डूब गई तो कोई हर्ज नहीं लेकिन साथ में हमें भी डुबो देगी इसलिए समझदारी इसी में है कि पानी को बाहर उलीचिए कवि ने जल की उपमा धन से की है व्यक्ति को चाहिए कि जब आपके पास धन बढ़ने लगे तो उसे परमार्थ के निमित्त लगाइए और परमार्थ का और परमात्मा का धन्यवाद कीजिए अपना तन मन धन परमार्थ के काज आगे कर दीजिए क्योंकि बड़े लोगों ने यही कहा है कि चलिए उस मार्ग पर जो सही हो और अपने लिए इतना संग्रह कीजिए जितना पीने के लिए घड़े में पानी।
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं अतिथि न भूखा जाए।।
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कह गिरधर कविराय छांह मोटे की गहिये
रहिये लटपट काटि दिन, बरु घामें मां सोय।
छांह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय।।
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहै।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहै।।
कह ‘गिरिधर कविराय छांह मोटे की गहिये।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये।।
भावार्थ:-
इस कुंडली के माध्यम से कवि हमें मजबूत वृक्ष की छाया में बैठने को कह रहे हैं कमजोर वृक्ष तो हल्की सी हवा के चलने पर स्वयं को भी नहीं बचा पाते तो दूसरों को क्या सहारा देंगे अर्थात निर्बल व्यक्ति की सहायता नहीं लेनी चाहिए।।
समर्थ का शरणा गहो रंग होरी हो।
कदे ना होय अकाज राम रंग होरी हो।।
लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग गिरधर कविराय
लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग।।
गहरि नदी, नाली जहाँ, तहाँ बचावै अंग।।
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारे।
दुश्मन दावागीर होय, तिनहूँ को झारै।।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी।
सब हथियार छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि लाठी के गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि लाठी बहुत ही गुणकारी है बड़ी उपयोगी है हमेशा लाठी अपने साथ रखना चाहिए आप अगर कहीं बाहर जा रहे हो बीच मार्ग में कहीं पानी का नाला या नदी बह रही है तो आप अपनी लाठी के मदद से उसे पार कर सकते हैं कि कितना गहरा है फिर आप अपनी सामर्थ्य अनुसार उसमें से पार हो सकते हैं या नहीं इसका अनुमान भी लगा सकते हो और भी कहीं कुत्तों ने हमला कर दिया तो लाठी आपकी रक्षा करेगी कई दुश्मन ने हमला कर दिया तो उससे भी आप की लाठी रक्षा करेगी गिरधर कविराय कहते हैं अपने पाठी से (हमसे) कि सब हत्यारों को छोड़कर हाथ में लाठी रखिए इसके लिए आपको सरकार से प्रमाण पत्र भी नहीं लेना पड़ता प्रमाण पत्र की भी आवश्यकता नहीं है खैर यह पैदल जमाने की बात है पर सुनने में अच्छी लगती है! गिरधर कविराय की कुंडलिया
जानो नहीं जिस गाँव में, काहे बूझनो नाम गिरधर कविराय
जानो नहीं जिस गाँव में, काहे बूझनो नाम।।
तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम।।
जिनसो नहिं कुछ काम, करे जो उनकी चरचा।
राग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा।।
कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो।
ताकी पूछो जात बरन कुल क्या है जानो।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें यह बता रहे हैं कि हमें जिस गांव जाना नहीं है उसका मार्ग नहीं पूछना चाहिए कहने का तात्पर्य है कि हमें ऐसी चर्चा नहीं करनी चाहिए जिसका कोई उद्देश्य ना हो क्योंकि बिना मतलब किसी से चर्चा करना राग द्वेष का कारण बनती है गिरधर कविराय कहते हैं कि जिनके संग आपको रिश्ता करना है उनको पूछो कि तुम्हारी जात क्या है कुल या वर्ण क्या है व्यर्थ की चर्चा का क्या औचित्य। गिरधर कविराय की कुंडलिया
झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय गिरधर कविराय
झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय।
लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय।।
लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै।
ॠण उधार की रीति, मांगते मारन धावै।।
कह गिरिधर कविराय, जानी रह मन में रूठा।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें सावधान रहने के लिए कह रहे हैं कि जो व्यक्ति झूठा होता है वह हमेशा मीठे वचन बोलता है आपसे झूठ बोलकर उधार ले जाता है उसे लेने पर अत्यंत खुशी महसूस करता है लेकिन वापस देने की वह बात तक नहीं करता हमेशा अच्छे व्यक्ति को बूरा कहता है उधार को लेकर जीवन जीना ही उसकी नीति होती है जो मरते दम तक वह निभाता है बहुत दिनों बाद जब तुम अपना उधार मांगने जाओगे तो तुम्हारा मुंह नोच लेंगे तुम्हें झुठा बताएंगे तुम्हें खूब खरी-खोटी सुनाएंगे। गिरधर कविराय की कुंडलिया
साईं अवसर के परे, को न सहै दु:ख द्वंद
साईं अवसर के परे, को न सहै दु:ख द्वंद।
जाय बिकाने डोम घर, वै राजा हरिचंद।।
वै राजा हरिचंद, करैं मरघट रखवारी।
धरे तपस्वी वेष, फिरै अर्जुन बलधारी।।
कह ‘गिरिधर कविराय, तपै वह भीम रसोई।
को न करै घटि काम, परे अवसर के साई।।
भावार्थ:-
इस कुंडली के माध्यम से कवि हमें स्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और हमें बताना चाहते हैं कि अवसर सबका आता है समय के साथ सब के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं सबको दुख और द्वंद के इस प्रपंच से गुजरना पड़ता है हम तो है ही क्या राजा हरिश्चंद्र जैसे को हरीजन ने खरीद लिया उनको बिकना पड़ा और श्मशान में चौकीदार बनके रहना पड़ा अर्जुन जैसे महान योद्धा को तपस्वी का भेष बनाकर बन में छुपकर रहना पड़ा और भीम जैसे योद्धा को रसोईया बनना पड़ा अवसर के आने पर किस ने हार नहीं मानी और विपरीत स्थिर का काम नहीं किया समय बड़ा होता है अच्छे अच्छों को नाच नचा देता है इस कालचक्र से तो भगवान ही बचा सकते हैं। गिरधर कविराय की कुंडलिया
साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार
साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार।
बेटा, बनिता, पँवरिया, यज्ञ–करावन हार।।
यज्ञ–करावनहार, राजमंत्री जो होई।
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई।।
कह गिरिधर कविराय, जुगन ते यह चलि आई।
इअन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं।।
भावार्थ:-
इस कुंडली के माध्यम से कवि हमें सचेत कर रहे हैं कि इन 13 प्रकार के लोगों के साथ मेलजोल बना कर चलना चाहिए इनसे कभी भी द्वेष भावना ना रखें गुरु, पंडित, कवि, यार (प्रेमी), बेटा बनिता (औरत), पौरिया (द्वारपाल), यज्ञ करने वाला, राजा का मंत्री, ब्राह्मण, पड़ोसी, वैध (चिकित्सक), और आपका रसोईया, इन 13 लोगों से द्वेषभाव नहीं रखना चाहिए यह विधान सदियों से चला आ रहा है इनसे निभा कर ही चलना चाहिए जहां तक हो सके।
साईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार
साईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार।।
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं।।
कह ‘गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई साईं।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि वर्तमान में इस संसार की वास्तविक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि वर्तमान में स्वार्थ की भावना चरम सीमा पर पहुंच गई है आजकल के लोग बिना इतना मतलबी हो चुके हैं कि जब तक आपके पास पैसा पद प्रलोभन है तब तक ही आपके सब मित्र है और आपके साथ ही रहेंगे लेकिन जब आपके पास पैसा पद प्रलोभन में से कुछ भी नहीं रहा आपको कोई पूछेगा तक नहीं यहां तक कि जो रात दिन आपके गुणगान करने वाले आपके साथ रात दिन उठने बैठने वाले भी प्रेम से बात तक नहीं करेंगे आपको वह लोग अपने लिए एक मुसीबत समझेंगे गिरधर कविराय कहते हैं कि इस संसार का यही लेखा-जोखा है स्वार्थ से सब प्रीति रखते हैं कोई विरले ही मिलते हैं जो बिना मतलब के भी प्रीति रखते हैं। गिरधर कविराय की कुंडलिया
स्वार्थ के सब ही सगे बिना स्वार्थ कौऊ नाही।
सेवे पक्षी सरस तरु नीरस भया उड़ जाही।।
सुर नर मुनि सब की यही रीति। स्वार्थ लाग्या करें सब प्रीति।।
साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजै त्रास
साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजै त्रास।
पलक दूर नहिं कीजिये, सदा राखिये पास।।
सदा राखिये पास, त्रास कबहूं नहिं दीजै।
त्रास दियो लंकेश, ताहि की गति सुन लीजै।।
कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलियो जाई।
पाय विभीशण राज, लंकपति बाजयो साईं।।
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें अपने बंधु से कभी भी वैरभाव नहीं रखना चाहिए हमेशा जितना हो सके प्रेम से रहना चाहिए मेरा भाई मुझसे एक पल भी दूर ना हो ऐसा भाई के प्रति सद्भाव रखना चाहिए भाई एक प्रकार की भूजा के समान होता है उसे किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं देनी चाहिए लंकापति रावण ने अपने भाई की विभीषण को खूब तकलीफें दी जिसके फलस्वरूप विभीषण रामचंद्र जी से जाकर मिल गया और त्रिलोक विजय रावण की मृत्यु का राज रामचंद्र जी को बता दिया और रावण को मरना पड़ा अंत में विभीषण को लंका का राजा बना दिया रामचंद्र जी। गिरधर कविराय की कुंडलिया
कमरी थोड़े दाम की, बहुतै आवै काम
कमरी थोड़े दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
भावार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि कंबल की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यह कंबल कम दाम की है पर बड़े ही काम है यह कंबल अपना मान बढ़ाती है कई बीच मार्ग में कुछ सामान बांधना है तो कंबल की गठरी बंद लेते हैं कई पर सोना है तो बिछाकर सो लेते हैं ठंड लग रही है तो ओढ़ कर सो जाते हैं गिरधर कविराय कहते हैं कि यह कम पैसों में मिल जाती है इसको हमेशा अपने साथ रखना चाहिए और इसकी मर्यादा रखनी चाहिए।
शब्दार्थ:- (कमरी=कमली,छोटा कंबल, कमर या बीचवाले भाग में बाँधी जानेवाली रस्सी या और कोई चीज, छोटी कुरती, दाम=मूल्य, खासा=पतला सूती कपड़ा, मलमल= एक प्रकार का पतला कपड़ा जो बहुत बारीक सूत से बुना जाता है, वाफ्ता=बहुत सुन्दर रंगीन सूती कपड़ा, बकुचा= छोटी गठरी, मोट=गठरी, दमरी=दाम,मूल्य।
आशा करता हूं दोस्तों यह गिरिधर कविराय जी की कुंडलियां आपको पसंद आई होगी इसमें गिरिधर कविराय जी ने अपने कुंडलियों में लाठी और कंबल के प्रति आदर भाव मौका परस्ती सबल का सहारा समय के अनुसार कार्य का महत्व कवि कहते हैं हमें अपने जीवन में परोपकार को महत्व देना चाहिए तथा बिना बुलाए ऐसी जगह नहीं जाना चाहिए जहां हमारा अपमान हो आदि बातों को लेकर बड़ी ही तार्किक ढंग से मार्मिक बातें कही हैं उनकी काव्य रचनाएँ आज भी लोकप्रिय है इसी प्रकार कवि अपनी बात को पाठकों तक पहुंचाने में सफल रहे हैं
कवि गंग के दोहे सुंदर दास जी के सवैये मंगलगिरीजी की कुंडलियाँ विक्रम बैताल के छंद सगरामदास जी की कुंडलियाँ रसखान के सवैये कबीर साहेब जी के दोहे धर्म का अंग दोहे गुरू महिमा के दोहे विद्याध्ययन कैसे करें दोहे कबीर दास जी के दोहे to be
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