Hindu

कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ मुगलों का अधिकार

कुंभलगढ़ पर मुगलों का अधिकार  “कुम्भलगढ़ का युद्ध” 15 अक्टूबर, 1577 ई.

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

शाहबाज खाँ बिना किसी रोक-टोक के कैलवाड़ा तक आ गया और वहाँ पड़ाव डालकर आगे की योजना बनाने लगा। उस समय महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ में थे। महाराणा कुंभा ने यह दुर्ग अत्यंत दुर्गम पर्वतीय प्रदेश में बनवाया था, अत: यह बहुत सुरक्षित था। पर यह कैलवाड़ा से जहाँ शाहबाज खाँ इतनी बड़ी सेना के साथ पड़ाव डाले पड़ा था, उससे केवल तीन मील की दूरी पर ही था । कुंभलगढ़ तक जानेवाला रास्ता इतना सँकरा, पेचदार और कठिन था कि थोड़े सैनिकों के साथ भी एक बड़ी सेना का वहाँ डटकर मुकाबला किया जा सकता था, पर राणा प्रताप ने सीधे मुकाबले की रणनीति छोड़ दी थी । अतः उन्होंने अपना खजाना वहाँ से हटाकर अंदर के पहाड़ी प्रदेश की एक गुफा में पहुँचा दिया जिस पर कुँवर अमरसिंह के कुछ विश्वस्त युवक और तीर-कमान से लैस भील रात-दिन पहरा देते थे। एक अन्य विवरण के अनुसार सारा खजाना भामाशाह के सुपुर्द था, जिसे लेकर वे किसी निरापद स्थान पर चले गए। राणा ने दुर्ग खाली करवा दिया और स्वयं भी पर्वतों में चले गए। किसी संभावित आक्रमण से दुर्ग की रक्षा करने के लिए उन्होंने वहाँ एक छोटी सेना तैनात कर दी थी । कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

शाहबाज खाँ ने भी राणा प्रताप का पता लगाने के लिए अपनी सैनिक टुकड़ियाँ इधर-उधर भेर्जी, पर कुछ भी हाथ नहीं लगा। प्रताप का पता लगाने के लिए वह सैन्य बल की ही नहीं, हर तरकीब का इस्तेमाल कर रहा था। उसके छोड़े हुए जासूस चारों तरफ घूम रहे थे। आखिर उसे खबर मिल ही गई कि राणा प्रताप कुंभलगढ़ में हैं। यह भी पता चल गया कि दुर्ग कैलवाड़ा गाँव से ज्यादा दूरी पर नहीं है। उसने तुरंत कुंभलगढ़ पर चढ़ाई करने की योजना बनाई, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इस वन प्रदेश में कुंभलगढ़ है कहाँ, यही पता नहीं चल रहा था। कुई टुकड़ियों को इधर-उधर भेजा गया, पर वे वन प्रदेश में भटककर लौट आईं। कहा जाता है कि शायद इसी कारण यह दुर्ग अजेय था ।

इतनी बात तो शाहबाज खाँ समझ ही सकता था कि स्थानीय लोगों को अवश्य इस निकटवर्ती दुर्ग के बारे में और उस तक जानेवाले मार्ग के बारे में जानकारी होगी। उसने हुक्म जारी कर दिया कि बड़े-से-बड़े इनाम का लालच देकर भी दुर्ग के रास्ते का जल्दी पता लगाओ। उसे डर था कि देर होने पर राणा प्रताप कहीं निकल न जाए। आसपास के सभी ज्ञात रास्तों की नाकेबंदी मुगल सेनापति ने करवा दी । कहा जाता है कि एक मालिन इनाम के लालच में आकर अपने महाराणा से द्रोह करने को राजी हो गई। उसने कहा कि कुंभलगढ़ तक जानेवाले सारे रास्ते पर वह फूल बिखेर देगी। इसके सहारे मुगल सेना दुर्ग तक जा सकती है। उसने अपना काम शुरू किया, लेकिन आधे रास्ते तक ही फूल बिखेर पाई, तब तक अपने दुर्ग पर निरंतर दृष्टि रखनेवाले भीलों में से एक की नजर उस पर पड़ी । पलक झपकते ही वह समझ गया कि यह स्त्री क्या कर रही है। उसके धनुष से एक बाण छूटा और सीधे मालिन की छाती को बेध गया। कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

मालिन को तो अपने किए की सजा मिल गई, लेकिन मुगल सेना के लिए आधे रास्ते का पता चल जाना भी पर्याप्त था। बाकी का रास्ता उसकी अग्रिम टुकड़ियों ने खुद खोज लिया और शाहबाज खाँ ने दुर्ग को चारों तरह से घेर लिया। महाराणा कुंभा ने कुंभलगढ़ ऐसा बनवाया था कि उस दुर्गम दुर्ग पर बड़ी से बड़ी सेना के लिए अधिकार करना कठिन था। इधर राणा प्रताप इस रणनीति पर विचार कर रहे थे कि दुर्ग को घेरने वाली शत्रु सेना को किस तरह परेशान किया जा सकता है। दुर्ग के अंदर के रक्षक दल ने बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया और दुर्ग जीतने के उसके सारे प्रयास विफल कर दिए।

पर होनी को कुछ और ही मंजूर था । दुर्भाग्य से दुर्ग की एक तोप में विस्फोट हो गया और उससे भड़की आग में बहुत सी युद्ध सामग्री स्वाहा हो गई। बाहर से सहायता मिलने की तो कोई गुंजाइश थी ही नहीं। दुर्गरक्षक वीर कुँवर माण ने अपने साथी राजपूतों के साथ परामर्श के बाद दुर्ग के दरवाजे खोल लिए और सहसा शत्रु की विशाल सेना पर टूट पड़े। जब एक-एक राजपूत लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ तभी मुगल सेना दुर्ग में प्रवेश कर सकी । इस तरह 13 अप्रैल, 1578 को कुंभलगढ़ पर शाहबाज खाँ का अधिकार हो गया, लेकिन जिस तरह महाराणा उदयसिंह के राज्यकाल में चित्तौड़गढ़ में प्रवेश करने पर अकबर को निराशा हुई थी, वही हाल शाहबाज खाँ का हुआ। उसके हाथ एक निर्जन दुर्ग लगा था। वहाँ न राणा प्रताप थे और न उनका खजाना, जिसकी खबर उसे लगी थी। अकबर भयंकर मारकाट के बाद चित्तौड़गढ़ में आया था तो उसे वहाँ न उदयसिंह मिले थे और न उनका खजाना । अकबर ने तब दुर्ग में शरण लिए 30 हजार निरीह नागरिकों की सामूहिक हत्या कर अप खीज मिटाई थी। इस बार वहाँ कोई चिड़िया भी न थी। जिसका शाहबाज खाँ कत्ल करता। उसने दुर्ग में स्थापित देव प्रतिमाओं और चंदन के सुंदर नक्काशीदार किवाड़ों को तोड़-फोड़कर अपनी खीज मिटाई ।

जब शाहबाज खाँ को खबर मिली कि महाराणा गोगूंदा गए हैं। कुंभलगढ़ एक किलेदार के हवाले करके और वहाँ रक्षक दल बैठाकर शाहबाज खाँ सेना लेकर गोगूंदा की तरफ झपटा। गौगूंदा पर अधिकार करने पर भी राणा प्रताप नहीं मिले तो शाहबाज खाँ रातोरात उदयपुर की तरफ दौड़ा । उदयपुर पर भी उसने सरलता से अधिकार कर लिया, लेकिन उसका असली मकसद यहाँ भी पूरा नहीं हुआ यानी राणा प्रताप वहाँ भी नहीं थे। इन कथित विजयों के बावजूद वह खाली हाथ था। कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

कुछ इतिहासकारों ने शाहबाज खाँ की इन सैनिक काररवाइयों की बड़ी प्रशंसा की है और इतने कम समय में गोगूंदा और उदयपुर जीत लेने पर उसकी तुलना नेपोलियन से की है। वे शायद यह भूल गए कि नेपोलियन ने बिजली की तेजी से झपटकर युद्ध जीते थे। शाहबाज खाँ ने कोई युद्ध नहीं जीता, सिर्फ घोड़े दौड़ाकर वह दूरी पार की थी । अकबर की तरह उसे भी कहीं किसी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा था, सिवाय कुंभलगढ़ के |

राणा प्रताप को पकड़ने में असफल और जगह-जगह उसके थानों व छोटी सैनिक टुकड़ियों पर होनेवाले राजपूतों के छापामार हमलों से खीजे हुए शाहबाज खाँ ने अपने अधिकार में आए मेवाड़ के सारे क्षेत्र में लूट-खसोट मचाने और उसे उजाड़ने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। उसने सोचा कि इससे आतंकित होकर स्थानीय लोग राणा का साथ छोड़ देंगे और वह तथा उनके मुट्ठी भर राजपूत अलग-थलग हो जाएँगे। शाहबाज खाँ को इतनी समझ नहीं थी कि ऐसी हरकतों के विपरीत नतीजे निकलते हैं। मेवाड़ की प्रजा को, जो पहले से ही अपने महाराणा के प्रति बहुत श्रद्धा रखती थी, अब मुगलों के अत्याचारों से उन्हें मुक्ति दिलानेवाला राणा प्रताप ही तो नजर आ रहा था । महाराणा के प्रति उनकी निष्ठा और भी गहरी हो गई। कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

शाहबाज खाँ ने राणा प्रताप का पता लगाने के लिए जमीन-आसमान एक कर रखा था । जहाँ भी महाराणा के छिपे होने की खबर मिलती, वह आँधी-तूफान की तरह दौड़कर वहाँ पहुँच जाता, लेकिन तब तक महाराणा वहाँ से निकल चुके होते। दरअसल इनमें से अधिकांश खबरें गलत होती थीं, जो शाहबाज खाँ और उसके सैनिकों को दौड़ाने-छकाने के लिए उस तक पहुँचाई जाती थीं । अगर कभी-कभार कोई लालच में आकर सच्ची खबर भी देता था, जो मुगल सेना के उधर आने की सूचना राणा को तुरंत मिल जाती और वह अपना स्थान बदल लेते थे । कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

ऐसी ही एक सही सूचना किसी भेदिए ने इनाम के लालच में आकर शाहबाज खाँ को दे दी कि राणाजी कमलमीर के किले में हैं । शाहबाज खाँ के पास आसपास के इलाके में पर्याप्त सेना थी । उसने तुरंत कमलमीर दुर्ग को घेरने और वहाँ से निकल भागने के सभी रास्तों की नाकेबंदी के आदेश दे दिए । छोटी सी दुर्गरक्षक सेना इतनी बड़ी आक्रामक सेना का बड़ी बहादुरी से सामना कर रही थी। उसने किले को जीतने के शत्रु के सभी प्रयास विफल कर दिए । किले के अंदर पानी के सभी स्रोत सूख गए थे, लेकिन एक विशाल कुंड में पर्याप्त जल था। शाहबाज खाँ ने इसका भी पता लगा लिया । इतना ही नहीं, उसने भारी लालच देकर किसी भेदिए की मदद से कुंड में जहर डलवा दिया | दुर्ग में रहनेवाली रक्षक सेना अब पानी के अभाव में परेशान हो गई। रक्षक सेना के वीरों ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए और मुट्ठी भर राजपूत विशाल मुगल सेना पर टूट पड़े । शाका की अपनी पुरानी परंपरा को निभाते हुए एक-एक योद्धा कई शत्रुओं को मारकर वीरगति को प्राप्त हुआ। कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

दुर्ग में प्रवेश करने के बाद शाहबाज खाँ ने उसका चप्पा-चप्पा छान मारा। लेकिन किला तो एक वीरान खंडहर जैसा था । राणा प्रताप तो न जाने कब दुर्ग को छोड़कर किसी सुरक्षित स्थान पर चले गए थे । यह शाहबाज खाँ की निराशा की पराकाष्ठा थी। उसने जगह-जगह थाने स्थापित करके मेवाड़ के जीते हुए प्रदेश की सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए और स्वयं सम्राट् अकबर के दरबार में हाजिरी देकर सारा समाचार सुनाने के लिए रवाना हो गया । 17 जून, 1578 को शाहबाज खाँ बादशाह के सामने पेश हुआ और लगभग तीन महीने में अपने सैनिक अभियान की सफलता – विफलता की कथा सुनाई। सम्राट् अकबर ने बड़े धैर्य से उसकी बात सुनी । अपने व्यक्तिगत अनुभव के कारण अकबर अब शाहबाज खाँ की कठिनाइयों को समझता था । खीजने या दंड देने के बजाय उसने उसके प्रयासों की प्रशंसा की। कुंभलगढ़ का युद्ध कब हुआ

bhaktigyans

My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page