कागभुशुंडि की कथा । सम्पूर्ण जीवन चरित्र कागभुशुंडि जी का
कागभुशुंडि की कथा
कागभुसण्ड नामक एक भक्त हुऐ हैं। उनका मुख तो कौवे (ब्तवू) जैसा चौंच वाला है और शेष शरीर देवताओं वाला अर्थात् मनुष्य सदृश है। एक दिन गरूड़ जी (श्री विष्णु जी का वाहन) तथा कागभुसण्ड एक स्थान पर इकट्ठे हुए। दोनों महान आत्माओं में आपसी परिचय हुआ। तब गरूड़ जी ने पूछा हे कागभुसण्ड जी! आपके पास बैठने से मुझे अनोखी शान्ति मिलती है आपकी भक्ति की महिमा सब देवता बताते हैं, आपसे मिलने का सौभाग्य आज प्राप्त हुआ है। आपका सान्निध्य पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया है, आपके शरीर की कांन्ति देखकर मालूम होता है जैसे कोई भिन्न चन्द्रमा उदय हो गया हो। आपकी शीतलता का वर्णन नहीं किया जा सकता। कागभुशुंडि की कथा
हे कागभुसण्ड जी आपको यह भक्ति तथा गति कैसे प्राप्त हुई? मेरी जिज्ञासा की प्यास को कृप्या शान्त करें। कागभुसण्ड जी ने बताया कि हे खगेश! एक समय मुझे मानव शरीर प्राप्त था, उससे पहले के असँख्य मानव जीवन, भक्ति के बिना व्यर्थ कर दिए थे। हमारा माता-पिता, दो भाई तथा दो बहनों का परिवार था। एक बार दुर्भिक्ष (अकाल) गिरा, त्राहि-त्राहि मच गई। भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खाने लगा। उसी दुर्भिक्ष के कारण मेरे माता-पिता तथा सब भाई-बहन भूख के कारण मर गए। मैं युवा था, इसलिए कई दिन तक भूख सहन कर गया। मैं उस नगरी को त्यागकर मालुदेश की अवन्तिका नगरी में चला गया। वहाँ पर दुर्भिक्ष नहीं था। भरपेट भोजन किया, परन्तु परिवार नाश का दर्द हृदय में शूल की तरह चुभता था, रो-रोकर आँसुओं से रहित हो चुका था। वह परिवार स्वपन था या वास्तविक था, यह विश्वास नहीं हो रहा था। उसी समय एक शिवालय में परमात्मा की कथा की वाणी कानों में पड़ी, कोई रूचि नहीं बनी, मैंने सोचा कोई परमात्मा वगैरह नहीं है, सब गलत बात है, मैं उठकर चल पड़ा। जब उस मन्दिर के सामने से गुजरने लगा तो वहाँ भोजन-भण्डारा अर्थात् लंगर का खाना तैयार हो रहा था, मुझे भोजन खाना था। इसलिए भोजन तैयार हो, तब तक समय बिताने के लिए श्रोताओं में बैठ गया। पण्डित जी भगवान शिव की कथा सुना रहे थे। मेरे मन में आया कि चल उठ, यहाँ तो सिर दर्द हो गया। लेकिन मुझे रात्रि व्यतीत करनी थी, इसलिए नहीं उठा, बाद में सब श्रोता चले गए। पण्डित जी बहुत नेक तथा दयालु थे। उन्होंने मेरे से पूछा कि बेटा! आप नहीं गए, क्या आप बाहर के रहने वाले हैं? मैंने कहा जी, मेरा इस संसार में न कोई गाँव और न घर है, न परिवार है। मैंने अपनी दुःख भरी कथा सुना दी। पण्डित जी की आँखें भर आई और सीने से लगाकर बोला बेटा जिसका कोई नहीं होता, उनका भगवान होता है। आप यहाँ मन्दिर में रहो, सेवा करो और सत्संग सुनो। फिर दीक्षा लेकर अपना मानव जीवन सफल करो। एक दिन सब संसार छोड़कर जाएंगे, यहाँ न कोई रहा है, न कोई रहेगा, चिन्ता त्यागकर मनुष्य जीवन का मूल कार्य सम्भाल बेटा! कागभुशुंडि की कथा
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कागभुसण्ड जी ने कहा, हे गरूड़ देव! मैंने छः महीनों तक लगातार पण्डित जी के सत्संग सुने। परंतु ऐसे लगता था जैसे मलेरिया के रोगी को भोजन (कड़वा) लगता है। पण्डित जी प्रतिदिन कहते बेटा! दीक्षा ले, तब तेरा जीवन सफल होगा। मैं कहता रहता कि अवश्य दीक्षा लूंगा गुरू जी, परन्तु अभी नहीं। हे गरूड़ देव! मेरे पूर्व जन्म के पापों का इतना दुष्प्रभाव था कि छः महीनों तक हरि चर्चा सुनने के पश्चात् एक दिन न चाहते हुए दीक्षा ले ली। जो कथाऐं गुरू जी सुनाया करते थे, वो मुझे भी याद हो गई, गुरू जी गृहस्थी थे। वे रात्रि में घर चले जाते थे। सुबह पूजा करने देवालय में आते थे, कुछ देर कथा करते थे। गुरू जी की अनुपस्थिति में मैं कथा किया करता था। मैं युवा था, मेरी आवाज भी सुरीली थी। श्रोतागण मेरी प्रशंसा किया करते थे, कहते थे कि आप तो गुरू जी जैसी ही कथा करते हो, अधिकतर यही कहते थे कि चेला गुरूजी से बढ़ गया, पण्डित जी से भी अच्छे तरीके से कथा करता है। श्रोताओं के मुख से अपनी प्रसंशा सुनकर मैं अहंकारी हो गया। मुझे अभिमान हो गया, जो मेरे नाश का कारण बना। एक दिन मैं गुरू जी के आने से पहले मन्दिर के आँगन में बैठा कथा कर रहा था। श्रोता मुग्ध होकर सुन रहे थे। पण्डित जी मन्दिर में प्रविष्ट हुए। कागभुशुंडि की कथा
पहले जब भी गुरू जी मन्दिर में आते थे तो मैं खड़ा होकर सत्कार करता था। उस दिन श्रोता खड़े हो गए परन्तु मैं बैठा रहा, बैठे-बैठे प्रणाम कर दिया। गुरूजी महान थे। उन्होंने मेरी इस कृतघ्नता की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया, सीधे भगवान शिव की मूर्ति के सामने जाकर आरती करने की तैयारी करने लगे। आरती प्रारम्भ की ही थी, उसी समय भगवान शिव ने आकाशवाणी की। उनकी आवाज बहुत भयानक थी, कहा हे धूर्त! तूने मेरे परम भक्त, तेरे गुरूदेव का अनादर किया है, खड़ा होकर सत्कार नहीं किया। जब तू अपने गुरू जी का अनादर कर सकता है तो तू मेरा क्या सत्कार करेगा। मुझे तेरे जैसे भस्मासुरों की आवश्यकता नहीं है। गुरू को ईष्टदेव का स्वरूप मानकर भक्ति करनी चाहिए। इष्ट देव यह अनुमान लगाता है कि जो भक्त जैसा मेरे प्रतिनिधि सन्त (गुरू) से बर्ताव करता है, वैसा ही मेरे साथ करेगा। अब तू एक लाख वर्ष तक नरक में रहेगा। कागभुसण्ड ने बताया कि हे खगेश! यह आकाशवाणी मेरे गुरू जी ने सुनी तो मुझे बुलाया और कहा कि बेटा! क्या गलती कर दी। जिस कारण भगवान कुपित हुए, क्षमा याचना कर भगवान के आगे। गुरू जी ने मेरे लिए भगवान शिव जी से क्षमा माँगी, कहा, हे प्रभु! आपका बच्चा है, इसको क्षमा करो दाता! बहुत देर तक विनय करने के पश्चात् भगवान शिव की आकाशवाणी हुई कि इस पापी प्राणी के लिए क्षमा का स्थान नहीं है, लाख वर्ष नरक में रहना पड़ेगा। गुरू जी ने पुनः स्तुति की। तब भगवान शिव ने कहा कि तेरे गुरूदेव जी की अर्ज से मैं प्रसन्न हूँ, लेकिन जो वचन मैंने बोल दिया वह वापिस नहीं हो सकता। तेरे गुरू जी के कारण इतनी राहत तुझे देता हूँ कि नरक में तुझे यम के दूत तंग नहीं करेंगे परन्तु रहना पड़ेगा नरक में ही।
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