कवि गंग की देवस्तुति
(कबित्त)
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गाढ़े गहो गहिर गुहारियौ चिहारि कियो,
ए हो दीनबंधु अब दीन कहूँ दलि गो।
परत भनक उठि धायो कमला को कंत,
अस्त्र वस्त्र छाड़ि प्रभु बाहन बिचलि गो ।
भने कबि गंग ताके पाछे पच्छिराज धायो,
अतल बितल तलातलहू बितलि गो ।
जौ लौं चक्रधारी चक्र चाहत चलाइबे कों,
तो लौं ग्राह-ग्रीवा पै अगारू चक्र चलि गो ॥
पढ़यो गुन्यो कीर न कुलीन हुतो हंस-कुल,
छुयो गीध छुतिहा न छाती छाप किये तो ।
तारयो अजामिलहू सो परम मलीन पापी,
सदा को सुरापी चरनोदक न पिये तो ।
गंग कहै तारिछ के त्रास तें मुक्त कियो,
कालीनाग कहाँ ते तिलक मुद्रा दिये तो।
दौरे हरिलोक तें हँकार एक पाइक ज्यों,
हाथी कहां हाथ तुरसी की माला लिये तो ॥2॥
गर्भ में कबूल्यो भक्ति, बाहर सो भूलि गयो,
कीन्हो न भजन छन एक हरिनाम के ।
महल, अटारी, सुत, सहोदर, बित, नारी,
निसिद्यौस करत गुलामी बिना दाम के।
बिन हरि भजे चतुराई धूग जीव नर
संग नहिं जात तेरे कौड़ीहू छदाम के।।
कहै कबि गंग नर देखि लै बिचार करि,
मूँदि देहु आख तब लाख कौन काम के ॥3॥
बारन की जटा बाँधे, बाघंबर डारे काँधे,
दै अदेस देस देस बंम बंम बोलिहौ ।
कंथाधारी, बिषधारी, आधारी, त्रिसूलधारी,
लोचन समाधिहू सों नेकहू न खोलिहौ ।
कहै कवि गंग कहूँ गंग के निकट जाइ,
न्हाइ कै कहा ये नेकु नखहू जो छोलिहौ ।
नाग लपटाए, नगनंदनी लगाए तन,
भसम चढ़ाए, नाह नाँगे नाँगे डोलिहौ ॥ 4 ॥
कई बार इहि छिति छोटनि में छोट भयो,
कई बार छिति में छतीसा पायो नाउँ मैं ।
कई बार देवलोक देवन में देव भयो,
देखि देखि देह दुख-दुंदनि डराउँ मैं।
कहै कबि गंग काहू और के सरन गए,
सस्यो न कछू तौ तुअ सरन समाउँ मैं ।
नाथ की सपथ तोहि त्रिपथगामिनी गंगा,
सुपथ लगाउ जैसें कुपथ न जाउँ मैं 15 ।।
(छप्पय )
गगन गुंजरत गंग सु होत दसौ दिसि पूरन ।
हलत धरनि कलमलत सेस संकर बिष चूरन ।
असुर संग सकपकत धीर धकपकत धमक सुनि ।
भजत भीर भहरात खंभ खहरात फटत पुनि ।
अति बिकट दंत कटकट करत, चटचटात नखनिकर तपु।
लफलफत जीह दुर्जन-दलन, जय जय जय नरसिंह-बपु ॥ 6 ॥
(सवैया)
जब एक समै प्रभु भावन बावन, संत-उपावन देह धरी ।
बलि कों छलि कै प्रभु राज लियो, तिहुँ लोक की तीनहि पैंड करी ।
तिनके कर दंड हुतो सो बढ्यो, भुवदान दियो लियो माँगि हरी ।
कबि गंग कहै यो अचंभो लखौ, बिन पल्लव पेड़ बढ़ी लकरी ॥7॥
(कबित्त)
रहैगी न राज-रजधानी, न पवन पानी,
कहे बाक-बानी जिमी आसमान जाइगो ।
संपति पताल सातौ दीप की मसाल भई,
दुनिया को ख्याल चाँद सूर लौं बिलाइगो ।
जो कछू लिखी है सृष्टि करता ने आप ताऊ,
सृष्टि-करताऊ साँझ करता समाइगो ।
सदा सुख राम-जस जानि कबि गंग कहै,
रहिबे के नाते राम नाम ठहराइगो ॥8॥
मेरे चेरो, मेरो घोरो, मेरो घूरो, मेरो घरु,
मेरो मेरो कहत न रसना अघाति है।
कहि कबि गंग और औरऊ जु आक-बाक,
कहत कहत क्योंहूँ क्योंहूँ न रसाति है।
चारयो बेद चाबति, पढ़ति छओ दरसन,
नव रस निरूपति, षट रस खाति है ।
देखौ देखौ पूरबिले पाप को प्रताप यह,
राम नाम लेत जीभ ऐंड़ी-बेंड़ी जाति है ॥9॥
अनजाने ठौर जात जाति जाति पै घिघात,
प्रातरात फिरत फिरत होइ हीनता ।
काहू न लगायो मुख, देखे सबै एक रुख,
सुनिये बखान-दुख दीनबंधु दीनता ।
हों तौ हौं न माँगत, मँगावै मोहिं औरनि सों,
गंग कबि कहै यहै कौन परबीनता ।
पूजै सब साधौ, छिमा करौ अपराधौ अब,
काटौ किन माधौ मेरे मन की मलीनता ॥10॥
राधिका- रमैया, रंगभूमि को नचैया, भारी
भय को भजैया, कबि गंग उर लाइयै ।
कंस को मरैया, बलबंस को धरैया, काली-
नाग को नथैया, नाथ निसिदिन गाइयै ।
अघ को हरैया, सुखबृंद को करैया, तिहुँ
लोक को तरैया, तिन बिन तन ताइयै ।
बलि को छलैया, बलभद्रजू को भैया, ऐसो
देवकी को छैया, छाड़ि और कौन ध्याइयै ॥11॥
केसीरिपु के सौराय कौन की सरन ताकौं,
पाप लागे लाग्यों त्रयताप तें तवन जू ।
कहि कबि गंग नंद-घोष के निवासी नाथ,
दोष के दलनहार मोख के भवन जू ।
जानकी के जानि, जांबुवंत के जमैया, रानी
रमा के रमैया, रुकमनी के रवन जू ।
बालीबैरी, बनमाली, माली के मुकतिदाता,
ग्वाली के रसिक कान्ह, काली के दवन जू ।।12।।
कामिनी कमलनैनी करै न रहसि-के लि,
कमला बिसासिनी बिसेष बामैं दयो है।
घर के रहत कोऊ घर के न पूछें बात,
मानहु किंकिंधा बिंधि सिंधु छोर छयो है।
कहि कबि गंग तुम करुनानिधान कान्ह,
कोटि जौ है ऐबदार और द्वार भयो है ।
तुमहि किये की लाज करेही बनैगी राज,
गाहक तें गयो सो गुसाई हूँ तें गयो है ||13|
मंद मंद गावै, पारब्रह्म नहिं पावै, जाहि
जसुधा खिलावै, मेरो महा बलदाई है।
बारेही तें बंका, कंस की न मानै संका, गढ़
वार पार लंका, बलभद्रजी को भाई है ।
कहै कबि गंग बृज बूड़त बचाइ लीन्हो,
इंद्र की घटाई जो मैं फेरि आस द्याई है ।
बच्छन के पाछे पर बाँधे मोरपच्छन के
जमुना के कच्छन में नाचत कन्हाई है ॥14॥
दीनबंधु दीनानाथ द्रौपदी पुकारि कहै,
बेदन बिदित कैधौं बिरद भुलानो है ।
दुखित प्रल्हाद जानि संकट सहाय भए,
भक्त के प्रताप कों न गिनौ रंक रानो है ।
छाड़ि खगराज गजराज-लाज-काज धाए,
कहै कबि गंग कैधौं पौरुष पुरानो है।
देह भयो दूबरो कि नेह तज्यो दीनन सों,
चक्र भयो भोथरो कि बाहन खुटानो है॥15॥
- इसी भाव से मिलता-जुलता नंदलाल कबि का एक छंद इस प्रकार है*
ज्वाल मैं जरत ग्वालबाल तिहि काल राखे,
औरनिहू राखत यों भाषत पुरानो है।
प्राननि को ग्राहक हो, ग्राह उदग्राहक हो,
करी के कहत खन हियो पलुरानो है।
कहै नंदलाल दल सहित अहित सब,
हित अनहित हेत चित अतुरानो है।
बूढ़ो भयो देह किधौं नेह तज्यो दीनन सों;
चक्र भयो भौथरो कि गरुर खुरानो है।
द्रौपदी की लाज-काज द्वारका तें दौरि आए,
छूम छल छाइ रह्यो अचंभो अघाइयै ।
पेटहु में पेट मिलै राख्यो राजा परीछत,
हेरि हेरि हेरि ही बिरद सरनाइयै ।
कहि कबि गंग सबै संसार जँजीर-जेर,
जँजीरनि जरयो जन कैसें कै छिड़ाइयै ।
गिरि के धरनहार, गैबर के रच्छपार,
गरुर के असवार गरुरु न लाइयै ॥16॥
द्रौपदी की पीर पाएँ चीर है प्रगटे हरि,
नीरे गहि नीरधि के तीर जाइ छाए ते।
कहि कबि गंग खल खिन माहिं खाइ लीनो,
खाँभ ही में रामराइ कौने गढ़ि नाए ते ।
कमला को कोरो छाड़ि कमल तें कोंरे कोंरे,
पाइनि कमलनैन करी-काज धाए ते ।
तुम तौ अनाथ ही के हाथ हौ बिकाने नाथ,
राजरानी रोएँ राजा बंदि ते छिड़ाए ते ॥17॥
कंचन के धाम भए कंचन के धौरहर,
धुर सुरपुर लौं पगार घालि गसे हैं।
चपि चपि आगे ही तैं जटित मानिक नग,
परदा की भीतिन प्रबाल लाल लसे हैं।
कहि कबि गंग तीन लोक की तिहारी संपै,
इनके तौ तंदुलऊ तेऊ तीन पसे हैं।
हँसि हँसि कहति सुदामा जू की रामा एजू,
ऐसे आइ घर बसे जैसे घरबसे हैं ।।18।।
हाथी पै न हाथी माँगै घोरा पै न घोरा माँगै,
बे ही काज हथओड़ा होत नर नर को ।
पंछी पसु कीट जेते माँगै न परसपर,
याही हौं बिचारि छाड़ो जैबो दर दर को ।
कहै कबि गंग दीनानाथ बिन कौन मेटै,
सोई करतार दीबो, लीबो करतार को ।
एक बार होइगो दरिद्रराउराइ तौऊ,
करिहै सुदामाहाई भाई हलधर को ।।19।।
(सवैया)
जौ कहौ मोहन जू मथुरा में तौ मंदिर में मड़ई इक छाऊँ ।
जौ कहौ तौ तुलसी तन माल तमालन बीच नचौं अरु गाऊँ।
स्वाँग अनेक करौं कबि गंग जु कैसेहु कान्ह तिहारो कहाऊँ ।
काल गहें कर डोलत मोहिं कछू, इक बैरख सी कर पाऊँ ॥20॥
(कबित्त)
रोग न रहत नेकु जैसे आछी ओषध तें,
पाप न रहत जैसें हरि-गुन गाए तें ।
तम न रहत जैसें अरुन उदोत भएँ,
दारिद न रहै जैसें पारस के पाए तें ।
पितरऊ भ्रमि भ्रमि नरक न परैं जैसें,
गंग कबि कहत सपूत कुल जाए तें ।
याही तें कलिंदी सूरनंदिनी बंदत लोग,
देखिये न जमलोक जमुना के न्हाए तें ॥21॥
(सवैया)
इक बार के न्हात पुजापन सों लिये जात जहाँ मन की गम ना ।
सुनिकै दुखदंद मिटैं जिय के सनकादिक नारदहू सम ना ।
अब यातें यहै ब्रत धार बहै कबि गंग कहै सुनि रे म मना ।
जमनाजल नैन निहारत ही जम ना, जम ना, जम ना, जम ना ॥22॥
(कबित्त)
जाके परताप तें अनेक दोष छीन होत,
कहै कबि गंग तपतेज की झलक तें।
जाके ही असीसें सुख-संपदा अचल होइ,
निकसै बचन जैसें बिस्नु के हलक तें ।
- ‘हरि’ में इस कबित्त का पाठ इस भाँति है—
जैसे नीकी औषधि तें रोग न रहत तन,
दारिद रहत नाहिं पारस के पाए ते।
तम न रहत जैसे अरुन के उदै होत,
पाप न रहत जैसे हरिगुन गाए ते ।
पितृ मिलैं ब्रह्म में न कबहू नरक परेँ,
कहै कबि ‘गंग’ एक साधु पूत जाए ते।
नंद नंद दर्स होत, चित्त अति हर्ष होत,
देखिये न यमलोक यमुना के न्हाए ते ॥
तीन लोक जाहिं मानै ठाकुर ते बड़ो जानै,
गहि लिये पद मानो भृगु की ललक तें।
केते ब्रह्मदोषी ब्रह्मदोषी ही में छीन होत,
ब्राह्मन न मान्यो सु तौ जाइगो खलक तें।।23।।
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