शांडिल्य ऋषि की कथा । shandilya rishi ki katha
शांडिल्य ऋषि की कथा
संक्षिप्त परिचय
कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान रित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है। शांडिल्य ऋषि की कथा
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शांडिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी। फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होताके रूप में वहां विद्यमान थे। भीष्म की सरसैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे। जैसी भगवान वेदव्यास ने समस्त श्रुतियों का समन्वय करने के लिये ज्ञानपरक ब्रह्मसूत्रों का प्रणयन किया है। वैसे ही श्रुतियों और गीता का भक्तिपरक तात्पर्य निर्णय करने के लिये इन्होंने शांडिल्य ऋषि की कथा
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है। उसमें कुल तीन अध्याय है और एक एक अध्याय में दो-दो आह्निक है, इससे सूचित होता है कि इन्होंने इस ग्रंथ का निर्माण छः दिन में किया होगा। इनके मत में जीवो का ब्रह्मभावपन्न होना ही मुक्ति है। जीव ब्रह्म से अत्यंत अभिन्न है। उनका आवागमन स्वाभाविक नहीं है; किंतु जपाकुसुम के सानिध्य से स्फटिकमणि की लालीमा के समान अंतः करण की उपाधि से ही होता है। किंतु केवल औपाधिक होने के कारण ही वह ज्ञान से नहीं मिटाया जा सकता, उसकी निवृत्ति तो उपाधि और उपाधेय इन दोनों में से किसी एक की निवृत्ति से या संबंध टूट जाने से ही हो सकती है। शांडिल्य ऋषि की कथा
आत्मज्ञान हो जाने से मुक्ति नहीं
गुण स्फटिक को जो अहै वही दोष को हेत।
तैसे स्वाश्रय आत्मा निर्मल भी मल लेत।।
चाहे जितना ऊँचा ज्ञान हो किंतु जैसे स्फटिकमणि और जपाकुसुम का सानिध्य रहते लालीमा की निवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जब तक अंतःकरण है, तब तक न तो उपाधि और उपाधेय का संबंध छुड़ाया जा सकता है। और न आवागमन से ही जीव को बचाया जा सकता है। अतः उपाधि के नाश से ही भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, आत्मज्ञान से नहीं। उपाधि नाश के लिए भगवत भक्ति से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। ब्रह्मभावोपलब्धि के लिए यही उपाय भगवान श्री कृष्ण ने कहा है। इस भक्ति से त्रिगुणात्मक अंतः करण का लय होकर ब्रह्मानंद का प्रकाश हो जाता है। इससे आत्मज्ञान की व्यर्थता भी नहीं होती; क्योंकि अश्रद्धा रूपी मल को दूर करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। गीता में स्थान स्थान पर भक्ति के साधन के रूप में ज्ञान की चर्चा आयी है। भक्ति का लक्षण है, भगवान में परम अनुराग। शांडिल्य सूत्र) इस अनुराग से ही जीव भगवन्मय हो जाता है। उसका अन्तः करण अंतः करण के रूप में पृथक न रहकर भगवान में समा जाता है। यही मुक्ति है। इस प्रकार महर्षि शांडिल्य ने भगवत भक्ति की उपयोगिता और ज्ञान की अपेक्षा भी उसकी श्रेष्ठता सिद्ध की है। भक्ति के प्रकार उसके साधन और उसके विघ्नों की निवृत्ति आदि का बड़ा सुस्पष्ट दार्शनिक विवेचन किया है। भक्ति प्रेमियों को उसका अध्ययन करना चाहिए। शांडिल्य ऋषि की कथा
उपसंहार
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