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महाराज सुरथ की कथा

महाराज सुरथ की कथा

महाराज सुरथ की कथा
महाराज सुरथ की कथा

सब साधन कर फल यह भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई ॥

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कुण्डलपुरके राजा सुरथ परम धार्मिक एवं भगवद्भक्त थे। जब उनके पास कोई मनुष्य किसी कामसे जाता, तब वे उससे पूछते – ‘भाई! तुम्हें अपने वर्णाश्रमधर्मका ज्ञान तो है? तुम एकपत्नीव्रतका पालन तो करते हो? दूसरेके धनको लेने और दूसरेकी निन्दा करनेमें तो तुम्हारा मन नहीं जाता? वेदके विरुद्ध तो तुम कोई आचरण नहीं करते? भगवान् श्रीरामका तुम सदा स्मरण तो करते हो? जो धर्म विरुद्ध चलनेवाले पापी हैं, वे तो मेरे राज्यमें थोड़ी देर भी नहीं रह सकते। ‘उनके राज्यमें कोई मनसे भी पाप करनेवाला नहीं था। पर धन तथा पर-स्त्रीकी ओर किसीका चित्त भूलकर भी नहीं जाता था। सब निष्पाप थे। सब भगवान् श्रीरामके नाम और गुणोंकी चर्चा छोड़कर उससे विपरीत बातें या कठोर शब्द बोलना नहीं जानते थे। फलतः उस राज्यमें यमदूतोंका प्रवेश ही नहीं था। सब जीवन्मुक्त थे वहाँ। महाराज सुरथ की कथा

एक समय स्वयं यम जटाधारी मुनिका वेष बनाकर राजाकी भक्तिको परखने वहाँ आये। उन्होंने देखा कि वहाँकी राजसभा साक्षात् सत्सङ्ग-मन्दिर है। सबके मस्तकोंपर तुलसीदल रखा है। बात-बातमें सब भगवान्का नाम लेते हैं। भगवान्‌की चर्चा छोड़कर दूसरी बात ही वहाँ नहीं तपस्वीको देखा तो आदरपूर्वक उठ खड़े हुए। ऊँचे आसनपर बैठाकर उनका पूजन किया और कहने लगे- ‘आज मेरा जीवन धन्य हो गया । आप-जैसे सत्पुरुषोंका दर्शन बड़ा ही दुर्लभ है। अब मुझपर कृपा करके भुवनपावनी हरि कथा सुनाइये।’महाराज सुरथ की कथा

राजाकी बात सुनकर बड़े जोरसे हँसते हुए मुनि बोले—’कौन हरि? किसकी कथा? यह तुम क्या मूर्खोजैसी बात करते हो? संसारमें कर्म ही प्रधान है। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है। तुम भी सत्कर्म किया करो। व्यर्थ हरि-हरि क्यों करते हो ?’ महाराज सुरथ की कथा

भगवद्भक्त राजाको मुनिकी बातसे बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने नम्रतासे कहा – ‘आप भगवान्‌की निन्दा क्यों करते हैं? आपको स्मरण रखना चाहिये कि कर्मोंका सर्वोत्तम फल भोगनेवाले देवराज इन्द्र तथा ब्रह्माजीको भी भोग समाप्त होनेपर गिरना पड़ता है, किंतु श्रीरामके सेवकोंका पतन नहीं होता । ध्रुव, प्रह्लाद आदिका चरित आप जानते ही हैं। भगवान्‌की निन्दा करनेवालोंको यमराजके दूत घोर नरकोंमें पटक देते हैं। आप तो ब्राह्मण हैं; फिर आप भगवान्‌की निन्दा करें, यह तो उचित नहीं है।’ महाराज सुरथ की कथा

राजाकी भक्तिसे प्रसन्न होकर यमराज अपने रूपमें प्रकट हो गये और उन्होंने राजासे वरदान माँगनेको कहा। राजा सुरथ उन भागवताचार्यके चरणोंमें गिर पड़े।

उन्होंने वरदान माँगा- ‘जबतक भगवान् श्रीरामावतार लेकर यहाँ न पधारें, तबतक मेरी मृत्यु न हो ।’ यमराज ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये। महाराज सुरथ की कथा

राजा सुरथ बड़ी उत्कण्ठासे अपने आराध्यके पधारनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें भगवान्के अयोध्यामें अवतारग्रहणका समाचार मिला, मिथिलामें श्रीरामके द्वारा धनुष तोड़नेका समाचार मिला, वनवासका समाचार मिला और रावणवध आदिका समाचार भी मिला। उनकी उत्कण्ठा बढ़ती ही जाती थी । भगवान् श्रीराम जब अश्वमेध यज्ञ करने लगे, तब राजाने अपने दूत राज्यके चारों ओर सावधानीसे नियुक्त कर दिये। एक दिन कुछ दूतोंने आकर समाचार दिया ‘अयोध्याधिपति महाराज श्रीरामके अश्वमेधका अश्व राज्यसीमाके पाससे जा रहा है। उसके भालपर विजयपट्ट लगा हुआ है।’ महाराज सुरथ की कथा

राजा इस संवादसे बड़े ही प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि ‘अब मुझे अवश्य अपने आराध्यके दर्शन होंगे।’ सेवकोंको उन्होंने यज्ञिय अश्व पकड़ लेनेकी आज्ञा दी। राजाज्ञासे घोड़ा पकड़ लिया गया । युद्धकी तैयारी होने लगी। राजा सुरथ अपने दस पुत्रोंके साथ युद्ध-क्षेत्रमें आ डटे। शत्रुघ्नजी अश्वकी रक्षा सेनाके साथ कर रहे थे। उनको घोड़ेके पीछे-पीछे चलना था। घोड़ा पकड़ा गया, यह समाचार पाकर उन्होंने अङ्गदको दूत बनाकर सुरथके पास भेजा। अङ्गदजीने बल-प्रतापका वर्णन करके घोड़ा छोड़ देनेके लिये राजासे कहा। राजाने कहा- आप जो भी कह रहे हैं, सब सत्य है। अयोध्याके प्रतापको मैं जानता हूँ। अपने आराध्यके छोटे भाई शत्रुघ्नजीकी शूरताका मुझे ज्ञान है। मेरा राज्य छोटा है, मेरी शक्ति अल्प है-यह भी मैं जानता हूँ; महाराज सुरथ की कथा

किंतु शत्रुघ्घ्रजीके भयसे मैं अश्व नहीं छोड़ेंगा। मैं उन दयामय श्रीरामके भरोसे ही धर्मयुद्ध करनेको तैयार हुआ हूँ। श्रीरामके तेज-बल-प्रतापसे मैं शत्रुघ्घ्रजीसहित सबको जीतकर बंदी कर लूँगा, यह मुझे पूरा विश्वास है। मैं तो श्रीरामका दास हूँ। उनके चरणोंमें मुझे पुत्रोंसहित पूरा राज्य, सब कोष, परिवारादि, समस्त सेना और अपनेको भी चढ़ा देना है; किंतु जबतक मेरे प्रभु स्वयं यहाँ न पधारें, मैं युद्धसे पीछे नहीं हटूंगा।’ महाराज सुरथ की कथा

अङ्गद लौट गये । युद्ध प्रारम्भ हो गया। भयङ्कर संग्राम हुआ। राजा सुरथने रामास्त्रका प्रयोग करके शत्रुघ्नजीके साथ पुष्कल, अङ्गद, हनुमान् आदि सबको बाँध लिया। बंदी हुए हनुमान्जीने राजाके कहनेपर श्रीरामका स्मरण किया। हनुमान्जीके स्मरण करते ही पुष्पकपर बैठकर भरत तथा लक्ष्मणसे सेवित भगवान् श्रीरघुनाथजी ऋषि-मुनियोंके साथ वहाँ आ पहुँचे। भगवान्‌को पधारे देख राजा सुरथ प्रेमसे उन्मत्त हो गये। वे बार-बार भगवान्के चरणोंमें नमस्कार करने लगे। उनका यह अनवरत प्रणिपात रुकता ही नहीं था । श्रीरामने उनका प्रेम देखकर चतुर्भुज रूपसे उन्हें दर्शन दिया और हृदयसे लगा लिया । महाराज सुरथ की कथा

राजा सुरथ भगवान्‌के चरणोंमें गिरकर अपने अपराधकी क्षमा माँगने लगे। श्रीराघवेन्द्रकी कृपा-दृष्टि पड़ते ही सबके बन्धन छूट गये और सब घाव भर गये । मर्यादापुरुषोत्तमने राजाके शौर्यकी प्रशंसा की। उन्हें आश्वासन दिया—‘राजन् ! क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा है कि कर्तव्यवश स्वामीसे भी युद्ध करना पड़ता है। इसमें कोई दोष नहीं है। तुमने तो मेरे लिये, मेरी प्रीतिके लिये, मुझे पानेके लिये ही युद्ध किया । तुम्हारी इस ‘समरपूजा’ से मैं बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ।’ महाराज सुरथ की कथा

भगवान् चार दिन वहाँ राजाके आग्रहसे रहे। पुत्रोंसहित राजाने भगवान् तथा उनके पूरे परिकरकी बड़ी ही भक्तिसे सेवा की। चौथे दिन मुनिमण्डलीके साथ श्रीराघवेन्द्र अयोध्या पधारे। राजा सुरथने अपने पुत्र चम्पकको राज सौंप दिया और वे स्वयं सेना लेकर शत्रुघ्नजीके साथ घोड़ेके पीछे भगवान्‌की सेवाके निमित्त चल दिये। पूरा जीवन उन्होंने श्रीराम-सेवामें ही बिताया और अन्तमें दिव्य साकेत धामको पधारे। महाराज सुरथ की कथा

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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