दिवेर का युद्ध कब हुआ
दिवेर का युद्ध कब हुआ
देवीर पर महाराणा का अधिकार
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मेवाड़ को यथाशक्ति उजाड़कर और राणा प्रताप को पकड़ने के व्यर्थ प्रयत्नों से थककर शाहबाज खाँ अकबर के पास सीकरी लौट गया था। पाँच महीनों तक इतनी बड़ी सेना के साथ मेवाड़ के वन-पर्वतों की खाक छानकर भी उसके हाथ कुछ न लगा था, सिवा अंजर – बंजर सी धरती और जले हुए या टूटे-फूटे खँडहर के। जो बचीखुची नागरिकों या ग्रामीणों की बस्तियाँ थीं, उन्हें शाहबाज खाँ के सैनिकों ने उसके आदेश पर लूट-खसोट, आगजनी और नरसंहार से उजाड़ डाला था ।
ये सारे समाचार निरंतर राणा प्रताप तक पहुँच रहे थे। अपनी मातृभूमि और प्रिय प्रजा की दुर्दशा पर उनका मन बहुत व्यथित था, पर शत्रु की अपरिमित सेना से सीधा टकराना संभव नहीं था। उनकी सैनिक टुकड़ियाँ मुगलों को दंडित करने के लिए जहाँ-तहाँ उन पर आक्रमण करतीं, उनकी रसद और अन्य सामग्री लूट लेतीं, लेकिन इससे अधिक की सामर्थ्य उनमें न थी । इसके लिए एक बड़ी और शक्तिशाली सेना की आवश्यकता थी । प्रताप के पास साधन जरूर थे, पर सीमित थे । राज्य की आमदनी इतनी न थी कि किसी बड़ी सेना का गठन किया जाता, उसे हथियारों से लैस किया जाता और लंबे समय तक बनाए रखा जाता। संघर्ष कितना लंबा चलेगा, इसका भी कुछ अनुमान न था। आवश्यकता पड़ने पर समय-समय पर मेवाड़ के संचित राजकोष से धन निकाला जाता था, पर उसकी अपनी सीमाएँ थीं, तो फिर बड़ी सेना के गठन के लिए धन कहाँ से आए? महाराणा इसी सोच में डूबे रहते । दिवेर का युद्ध कब हुआ
मेवाड़ का खजाना भामाशाह की देख-रेख में था । वह हमेशा अपनी बहियों में आय-व्यय का हिसाब रखते थे । अतः उन्हें वस्तुस्थिति की पूरी जानकारी थी। वे भी जानते थे कि किसी बड़ी धनराशि के बल पर वेतनभोगी सेना एकत्र किए बिना मेवाड़ का उद्धार कराना संभव न होगा। भामाशाह कोषाध्यक्ष ही नहीं, वीर सेनानी भी थे। अपने भाई ताराचंद को साथ लेकर भामाशाह ने मालवा के पास के मुगल अधिकृत क्षेत्र को जमकर लूटा और एक बड़ी धनराशि एकत्र की । चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में इन स्वर्ण मुद्राओं, रजत – मुद्राओं आदि को भरकर और घोड़ों पर लादकर वे मेवाड़ की तरफ रवाना हो गए।
राणा प्रताप उस समय चुलिया गाँव में थे। भामाशाह उनकी सेवा में उपस्थित हुए और उनके सामने लूटकर एकत्र की गई 20,000 स्वर्ण मुद्राओं, 2,500,000 रुपए तथा हीरे-मोतियों की ढेरी लगा दी, फिर हाथ जोड़कर विनती की कि अन्नदाता, इस धन से सेना एकत्र करके आप मेवाड़ को मुगलों के अत्याचारों से मुक्त कराएँ । प्रताप उनकी देशभक्ति और त्याग से बहुत प्रभावित हुए, किंतु संकोचवश बोले कि यह तो आपकी कमाई है, इस पर मेरा अधिकार नहीं। भामाशाह ने उत्तर दिया कि आपने सारा राजकीय सुख-वैभव त्यागकर अपना जीवन मेवाड़ को स्वाधीन रखने के संघर्ष में लगा दिया है। यह धन मैं उसी मेवाड़ की स्वाधीनता के लिए अर्पित कर रहा हूँ, फिर इसे लेने में आप संकोच क्यों कर रहे हैं? उनके तर्क से निरुत्तर राणा ने अपनी स्वीकृति दे दी। सेना की भरती और अस्त्र-शस्त्रों की खरीद अविलंब आरंभ कर दी गई । रसद का भी भरपूर प्रबंध किया गया । दिवेर का युद्ध कब हुआ
सेना के पुनर्गठन के बाद छोटे-मोटे थानों पर राजपूतों ने आसानी से अधिकार कर लिया। वहाँ के मुगल रक्षक या तो मारे गए या उन्होंने इधर-उधर भागकर पास के मुगल थानों में शरण ली । त्रस्त जनता ने राहत की साँस ली।
राणा सोच रहे थे कि किसी ऐसे प्रमुख थाने को चुना जाए, जो सामरिक महत्त्व का भी हो और जहाँ मुगलों की पराजय से उनकी प्रतिष्ठा को गहरा आघात भी लगे । इसके लिए देवीर गाँव के थाने को चुना गया। वहाँ काफी मुगल सेना थी । शाहबाज खाँ ने मेवाड़ से लौटते समय रिश्ते में शहंशाह अकबर के चाचा सुलतान खाँ को देवीर का थानेदार नियुक्त किया था। सुलतान खाँ बहादुर सिपहसालार था और उस थाने की रक्षक सेना में भी शाहबाज खाँ ने चुने हुए सैनिक रखे थे। यह महत्त्वपूर्ण थाना देवगढ़ और गोयती के चौरस्ते पर था, जहाँ से होकर मेवाड़ जाने का रास्ता था । अतः इसकी सुरक्षा मुगलों के लिए विशेष महत्त्व रखती थी । दिवेर का युद्ध कब हुआ
सुलतान खाँ अपनी ताकत के घमंड में चैन की बंसी बजा रहा था । उसने देवीर गाँव में छोटे-मोटे दरबार का माहौल बना रखा था, जहाँ महफिलें चलती थीं और दिन आमोद-प्रमोद में व्यतीत हो रहे थे । एक दिन ऐसी ही एक महफिल जमी थी कि सुलतान खाँ को भेदिए ने आकर खबर दी कि राजपूतों की एक फौज देवीर पर हमला करने के लिए आ रही है। उसने फौरन नगाड़े बजवाकर सारी सेना को इकट्ठा किया। वह एक योग्य सेनापति था । बिना कोई समय गँवाए उसने पूरी मोरचाबंदी कर दी और हमले का इंतजार करने लगा, पर कोई हमला नहीं हुआ। रतजगे से उसके सिपाही खीज गए थे। उन्हें लगा कि शायद खबर गलत थी या राजपूतों को हमला करने का हौसला नहीं हुआ, लेकिन अनुभवी सुलतान खाँ ने जरा भी गफलत नहीं की। उसने सबको सावधान करने का सख्त हुक्म दिया ।
सुलतान खाँ ने सब तरफ हरकारों और भेदियों को तैनात कर रखा था । सुबह पौ फटने से कुछ पहले ही एक और भेदिए ने आकर खबर दी कि राणा प्रताप खुद एक बड़ी सेना लेकर देवीर की तरफ बढ़ रहे हैं, तब तक राजपूत सामने आ गए। रणभेरी बज उठी । नगाड़े बजे | सुलतान खाँ खुद हाथी पर बैठकर सेना का नेतृत्व कर रहा था। उसका हरावल दस्ता आगे बढ़ा तो राजपूत थोड़ा पीछे हट गए। सुलतान खाँ ने अपनी सेना को आगे बढ़कर उन्हें खदेड़ने का हुक्म दिया। जब उसके सैनिक जोश में अपने जमे हुए मोरचों से आगे आए तो राजपूतों ने पूरी शक्ति से उन पर प्रहार किया। यह हल्दीघाटी का जवाब था, जहाँ मानसिंह ने प्रताप की सेना को उकसाकर अपने सुरक्षित मोरचों से बाहर निकाला था । दिवेर का युद्ध कब हुआ
आमने-सामने की लड़ाई में मुगल सेना ने बड़ी बहादुरी से हमले का मुकाबला किया । सुलतान खाँ खुद आगे आकर बड़ी वीरता से लड़ रहा था, तभी उसकी बदकिस्मती से उसका हाथी घायल हो गया और चिंघाड़कर भागा । सुलतान खाँ फिर भी विचलित नहीं हुआ । वह शीघ्र ही घोड़े पर सवार होकर आगे आया । राजपूतों को हल्दीघाटी के बाद पहली बार एक बड़ी मुगल सेना से आमने-सामने लड़ने का अवसर मिला था। उनका जोश और आक्रोश अपने चरम पर था । मुगलों के पैर उखड़ने लगे। बाकी की कसर पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे अमरसिंह के भाले के एक तीखे प्रहार ने पूरी कर दी । कहते हैं कि अमरसिंह ने इतने जोर से वार किया था कि उसका भाला सुलतान खाँ के कवच को भेदता हुआ उसके शरीर के पार निकलकर घोड़े के शरीर में जा धँसा । घोड़ा और सवार दोनों धड़धड़ाकर जमीन पर जा गिरे । दिवेर का युद्ध कब हुआ
अपने सेनापति को मरते देख मुगलों के हौसले पस्त हो गए। सिपाहियों को जिधर रास्ता मिला, वे भाग खड़े हुए। देवीर थाने पर राणा का कब्जा हो गया । इस बारे में एक कथा यह भी प्रचलित है कि युद्ध समाप्त होने पर अमरसिंह ने दम तोड़ते शत्रु सेनापति सुलतान खाँ के शरीर से अपना भाला निकाला और अपने हाथ से उसे पानी पिलाया। सुलतान खाँ ने अपने प्राण लेनेवाले युवक की तरफ देखा। उसकी आँखों में अपने शत्रु के लिए घृणा नहीं, प्रशंसा झलक रही थी, फिर उसने सदा के लिए आँखें मूंद लीं।
देवीर की विजय राणा की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विजय थी । उनका अगला लक्ष्य कुंभलगढ़ को शत्रु के अधिकार से मुक्त कराना था। रास्ते में उन्होंने पहले हमीरसरा पर अधिकार किया और थोड़ा विश्राम करने के बाद कुंभलगढ़ की ओर सावधानी से बढ़े। उन्हें याद था कि किस तरह स्वयं उनकी एक छोटी सी रक्षक सेना ने शाहबाज खाँ के इतने बड़े आक्रमण का प्रतिरोध किया था। अपना काफी नुकसान करने के बाद ही शाहबाज खाँ कुंभलगढ़ जीत सका था । वह भी तोप में विस्फोट हो जाने की दुर्घटना के कारण, लेकिन कुंभलगढ़ की मुगल सेना ने अधिक प्रतिरोध नहीं किया और गढ़ आसानी से राजपूतों के हाथ आ गया । देवीर में मुगल सेना की पराजय और सुलतान खाँ जैसे सिपहसालार के मारे जाने की खबर कुंभलगढ़ पहुँच चुकी थी, जिसने वहाँ की मुगल सेना के हौसले पस्त कर दिए थे। दिवेर का युद्ध कब हुआ
राणा का विजय अभियान जारी रहा। रास्ते के मुगल अधिकृत क्षेत्र को सरलता से जीतते हुए वे चावंड पहुँचे । चामुंडा देवी का यहाँ एक अत्यंत प्राचीन मंदिर होने के कारण इस स्थान का नाम चावंड पड़ा है। मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था जिसे महाराणा ने फिर से बनवाया कुछ समय तक उन्होंने वहीं ठहरकर आगे की योजना बनाई।
शाहबाज खाँ ने जाते समय मेवाड़ के जीते हुए इलाके की सुरक्षा के लिए 25 थाने बनाए थे और वहाँ पर्याप्त सेना रखी थी। इन थानों को आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करने के निर्देश भी उसने राजकुँवर अमरसिंह छापामार युद्ध की आँच में तपकर बड़ा हुआ था । पिता के साथ वह हर युद्ध में मौजूद रहा था । राणा प्रताप का पुत्र उनके ही समान वीर और रणकुशल था। उसके साथ युवा राजपूतों की सेना थी, जो अपने सेनापति का हर इशारा समझती थी । खानखाना ने शेरपुरा में पड़ाव डाला तो राणा प्रताप समझ गए कि उसका लक्ष्य गोगूंदा है। महाराणा उन दिनों वहीं थे । खानखाना का सामना करने की अपनी रणनीति बनाने के बाद उन्होंने अमरसिंह को समझाया, “अमर, मुगल सेना के आगे बढ़ने पर तुम अपने दल के साथ धीरे-धीरे पीछे हटना शुरू कर देना । इसके समाचार मिलने पर खानखाना समझेगा कि तुम लोग हमेशा की तरह पहाड़ों की शरण में जा रहे हो, फिर वहाँ के सँकरे जंगली रास्तों से होते हुए अवसर देखकर शेरपुरा पर धावा करना । इधर खानखाना के आने पर मैं उसे छापामार युद्ध में उलझाए रखूँगा । मेरी सेना जैसे-जैसे पीछे हटेगी, वह आगे बढ़ेगा, तब थोड़ी सी रक्षक सेनावाले शेरपुरा को जीतना तुम्हारे लिए आसान हो जाएगा। वहाँ तुम्हें काफी रसद और हथियारों का भंडार मिलेगा। साथ ही मुगल सेना को शेरपुरा से मिलनेवाली आपूर्ति भी बंद हो जाएगी।” दिवेर का युद्ध कब हुआ
महाराणा की रणनीति सफल रही । खानखाना ने पुराने अनुभवों के आधार पर समझा कि राणा प्रताप हमेशा की रह जंगलों में भाग रहे हैं । उसने उनका पीछा करने का अभियान तेज कर दिया । महाराणा उसे छकाते हुए ढोलान की तरफ निकल गए। इधर अमरसिंह ने शेरपुरा पर अचानक धावा बोलकर वहाँ की सारी रसद, शस्त्रागार आदि लूट लिए । इसके साथ ही खानखाना के परिवार की बेगमों को भी गिरफ्तार कर लिया। राजपूत मुगलों की तरह न थे कि महिलाओं पर अत्याचार करते । उनके साथ तनिक भी दुर्व्यवहार न हुआ। बंदी अवश्य बनाया गया, पर उन्हें पूरे सम्मान के साथ रखा गया। अमरसिंह की मंशा तो केवल मुगल सेनापति पर दबाव डालने की थी, न कि उसकी बेगमों का अपमान करने की । शेरपुरा अभियान की सफलता और खानखाना के हरम को बंदी बनाने का समाचार कुँवर अमरसिंह ने तुरंत हरकारे दौड़ाकर महाराणा को भेजा। दिवेर का युद्ध कब हुआ
राणा प्रताप अपने पुत्र की सफलता पर प्रसन्न हुए, पर खानखाना की बेगमों को बंदी बनाने की बात उन्हें जरा भी पसंद नहीं आई। उन्होंने तुरंत संदेश भेजा कि खानखाना की स्त्रियों को पूरे सम्मान के साथ उन्हें लौटा दिया जाए। इधर खानखाना सकते में आ गया था। उसने कल्पना भी न की थी कि राजपूत शेरपुरा पर आक्रमण भी कर सकते हैं। न ही किसी को उनके इस तरफ बढ़ने की भनक तक मिली थी । अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर खानखाना का चिंतित होना स्वाभाविक ही था, तभी उसे खबर मिली कि एक दूत उसके हरम की सभी बेगमों को लेकर आया है और उसके सामने उपस्थित होना चाहता है। उस युवक ने खानखाना से क्षमा माँगी और वादा किया कि भविष्य में कभी भी ऐसी भूल नहीं होगी । खानखाना की बेगमों ने जब राजपूत युवकों के उनके प्रति आदरमान दिखाने की प्रशंसा की तो खानखाना का कवि हृदय भावविभोर हो गया ।
कहते हैं खानखाना ने उस युवक को इनाम देना चाहा, लेकिन उसके विनम्रतापूर्वक इनकार करने पर उसे शक हो गया ।
“तुम अमरसिंह हो ?” अचानक खानखाना के मुँह से निकला | “जी, ” अमरसिंह आँखें नीची करके इतना ही बोला ।
उसे अपनी भूल पर पश्चात्ताप हो रहा था।
इधर खानखाना गद्गद थे । जैसा पिता वैसा पुत्र । आखिर मैं शत्रु ही हूँ। फिर भी किसी दूत को भेजने के बजाय खतरे की परवाह न करके खुद आया । खानखाना ने उसका उचित सत्कार करके भेजा। कहते हैं कि उसकी बड़ी बेगम ने खास तौर से राजपूत बेटे को आशीर्वाद और ढेर सारी दुआएँ देकर विदा किया ।
महाराणा प्रताप खानखाना महाराणा के उसके परिवार के प्रति आदर-मान से कृतज्ञ तो हुआ, लेकिन उसे बादशाह के प्रति अपने कर्तव्य का भान भी था । वह एक योग्य और बहादुर सेनापति था । उसने फिर से उन सब क्षेत्रों पर अधिकार करना आरंभ किया, जो राजपूतों ने जीत लिए थे। इधर अकबर को शेरपुरा लौटाए जाने की सारी घटना का समाचार मिला। बैरम खाँ के बहादुर बेटे के लिए बादशाह के मन में सम्मान की भावना थी । उसने मन-ही-मन खानखाना के कर्तव्य पालन की सराहना की, लेकिन महाराणा के प्रति कृतज्ञ खानखाना को उन्हीं के विरुद्ध लड़ने के धर्मसंकट से बचाने का निर्णय लिया। खानखाना को अजमेर की सूबेदारी से तो नहीं हटाया गया, पर उन्हें मेवाड़ के विरुद्ध सैनिक काररवाई करने से मुक्त कर दिया गया | शहंशाह अकबर ने इस बार राजा भगवानदास के भाई जगन्नाथ कछवाहा को राणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध के लिए भेजने का फैसला किया। जगन्नाथ कछवाहा बादशाह का हुक्म बजाने के लिए एक बड़ी सेना लेकर दिसंबर 1584 में चल पड़ा। वह वीर योद्धा था, लेकिन राजपूतोंवाले और कोई गुण उसमें न था । निरीह नागरिकों की हत्या करना, औरतों एवं बच्चों पर अत्याचार करना, बस्तियाँ उजाड़ना जैसी वहशियाना हरकतें करके वह आनंदित होनेवाला नर-पिशाच था । अपने से पहले के सभी मुगल सेनानियों (मानवतावादी कवि खानखाना को छोड़कर) की तरह वह भी यही समझता था कि अमानुषिक अत्याचारों और लूट-खसोट मचाकर मेवाड़ की प्रजा को अधीन किया जा सकता है। जितना अधिक ये सेनापति दमन करते थे, उतनी ही साधारण मेवाड़वासियों के मन में इनके प्रति घृणा बढ़ती थी और साथ ही अपने उद्धारकर्ता और इनके साथ संघर्ष करनेवाले राणा प्रताप के लिए इनके मन में श्रद्धा-भक्ति और गाढ़ी हो जाती थी । इसीलिए मेवाड़ का बच्चाबच्चा अपने महाराणा का अंधभक्त था, जो उनके लिए हँसते-हँसते प्राण न्योछावर कर सकता था । जगन्नाथ कछवाहा सहित सभी मुगल सेनापतियों ने इन्हीं लोगों को धन का लोभ देकर या फिर डरा-धमकाकर राणा प्रताप का पता मालूम करने की मूर्खता की थी । महाराणा पश्चिम में होते तो वे बताते थे कि अभी-अभी पूर्व में देखे गए हैं। उत्तर दिशा में कहीं होते तो तो दक्षिण में देखे बताए जाते थे । दिवेर का युद्ध कब हुआ
जगन्नाथ कछवाहा ने भी राजपूतों का कम प्रतिरोध होने और अपनी विशाल सेना के बल पर एक-एक करके राणा प्रताप द्वारा जीते गए सभी मुगल थानों पर फिर से अधिकार जमाया। मोही, मांडलगढ़, मदारियामो आदि पर अधिकार जमाने के बाद उसने वहाँ की सुरक्षाव्यवस्था कायम की। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मांडलगढ़ था । जगन्नाथ कछवाहा ने एक योग्य और अनुभवी सिपहसालार सैयद राजू को उसकी सुरक्षा का भार सौंपा और एक सुरक्षा – सेना उसके मातहत कर दी । इसके बाद वह राणा प्रताप का पता लगाने के लिए जंगलोंपहाड़ों की खाक छानने लगा। जिधर भी कोई सुराग लगता, वह सेना लेकर उस इलाके को घेर लेता और उसका चप्पा-चप्पा छान मारता, पर परिणाम वही निकला जो अब तक निकलता आया था । महाराणा का कहीं भी कुछ पता न चल सका । दिवेर का युद्ध कब हुआ
दरअसल जगन्नाथ कछवाहा किस तरफ आ रहा है, इसकी खबर महाराणा को बराबर मिलती रहती थी । वह चित्तौड़ के पर्वतीय क्षेत्र में चले गए थे, लेकिन इस बार हमेशा की तरह किसी सुरक्षित स्थान में छिपे रहकर शत्रु सेनापति के लौटने के इंतजार में नहीं थे। स्थिति बदल चुकी थी। इन वर्षों में जहाँ मुगलों का अनुमान था कि राणा प्रताप की शक्ति क्षीण हुई है और दबाव पड़ने पर उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ेगा, वहाँ उनकी शक्ति बढ़ी थी । कुछ संसाधन तो उनके छापामार दस्तों ने मुगलों के ठिकानों पर आक्रमण करके लूटे हुए शस्त्रों, रसद वगैरह से इकट्ठे किए थे, लेकिन इस बार भी संसाधन जुटाने में भामाशाह का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा । राणा प्रताप के इस देशभक्त मंत्री ने गुजरात के कुछ बड़े धनिकों से अच्छे संबंध बना लिए थे। अपने जहाजों पर विदेशों से माल मँगाकर बेचनेवाले ये व्यापारी बहुत धनवान थे और राणा प्रताप के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी । इन्होंने मेवाड़ के मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने के लिए भामाशाह को प्रचुर धन दिया, लेकिन साथ ही ताकीद की कि इस बात को नितांत गुप्त रखा जाए। उन्हें डर था कि अगर अकबर को जरा सी भी भनक लग गई तो उनकी खैर नहीं । दिवेर का युद्ध कब हुआ
भामाशाह जब भी गुजरात से कोई बड़ी धनराशि लाता, कभी उसे महाराणा के संचित खजाने से निकाली बताता (खजाने का प्रमुख वही था), कभी अपनी जोड़ी हुई पूँजी बताता तो कभी मालवा की लूट का धन बताता।
एक तो इन संसाधनों के कारण महाराणा की शक्ति बढ़ी थी, दूसरा मुख्य कारण उनकी रणनीति थी । इन वर्षों में उन्होंने सदा प्रयास किया कि उनकी सेना को कम-से-कम नुकसान पहुँचे, शत्रु को ज्यादा-सेज्यादा। अत: राणा प्रताप ने जगन्नाथ कछवाहा के दूर निकल जाने पर उसके जीते हुए मुगल थानों पर आक्रमण करके उन्हें फिर से अपने अधीन करना आरंभ कर दिया। यह अप्रत्याशित था और अभूतपूर्व भी।
राजपूतों का यह दुस्साहस देखकर सैयद राजू बहुत बौखलाया और एक बड़ी सेना लेकर उधर झपटा, पर राणा प्रताप तो अपने दलबल के साथ कहीं अदृश्य हो गए थे। राणा की खोज में भटकते हुए जगन्नाथ कछवाहा को खबर मिली कि वे कुंभलगढ़ में हैं । वह तुरंत कुंभलगढ़ की तरफ बढ़ा । इधर सैयद राजू को भी यही समाचार मिला। वह भी प्रताप को गिरफ्तार करने के लिए कुंभलगढ़ की तरफ बढ़ा । इन दोनों को राणा प्रताप तो नहीं मिले, पर इनका एक-दूसरे से कुंभलगढ़ में जरूर मिलाप हो गया ।
एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद जगन्नाथ कछवाहा को भी कुछ हासिल नहीं हुआ। दूसरों की तरह उसने भी अपनी खीज जीते हुए क्षेत्र को उजाड़ने में निकाली। इस मामले में वह पहले के मुसलिम सिपहसालारों से भी दो कदम आगे था। अकबर ने समझ लिया कि मेवाड़ को झुकाने के सभी प्रयास व्यर्थ ही जाएँगे। उसने जगन्नाथ कछवाहा को लौट आने का हुक्म दिया। दिवेर का युद्ध कब हुआ