तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
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तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
भजन-सुधा
गोसाईं श्री तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
गणपति वंदना
( १ ) राग बिलावल
गाइये गनपति जगबन्दन ।
संकर सुवन भवानी-नन्दन ॥
सिद्धि – सदन, गजबदन, बिनायक ।
कृपा सिंधु सुन्दर सब लायक ॥
मोदक – प्रिय, मुद – मंगल – दाता ।
बिद्या- बारिधि बुद्धि – बिधाता ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे ।
बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥
विनय ( २ ) राग धनाश्री
यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस बिस्वास भरोसो, हरौ जीव-जड़ताई ॥
चहौं न सुगति, सुमति-संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग रामपद, बढ़ अनुदिन अधिकाई ।।
कुटिल करम लै जाइ मोहि, जहँ-जहँ अपनी बरियाई ।
तहँ-तहँ जनि छिन छोह छाँड़िये, कमठ-अण्डकी नाई ॥
यहि जगमें, जहँ लगि या तनुकी, प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिटि इक ठाई ।।
( ३ ) श्रीगोविन्ददेवजीसे प्रार्थना
राम-कृष्ण उठि कहिये भोर ॥ टेर ॥
यह अवधेश वह ब्रज जीवन, यह धनुधर वह माखन चोर ॥
इनके चमर छत्र सिर सोहे, उनके लकुट मुकुट कर जोर ॥
इन सँग भरत शत्रुहन लक्ष्मन, बलदाऊ सँग नंदकिशोर ॥
इन सँग जनक लली अति सोहे, उत राधा सँग करत किलोल ॥
इन सागरमें शिला तिराई, उन गोवर्धन नख की कोर ॥
इन मार्यो लंकापति रावन, उन मार्यो कंसा वर जोर ॥ तुलसिदास के ये दोउ जीवन, दशरथ सुत अरु नंदकिशोर ॥
( ४ ) राग गौरी
मंगल मूरति मारुत- नंदन । सकल – अमंगल- मूल- निकंदन ॥
पवनतनय संतन-हितकारी । हृदय बिराजत अवध – बिहारी ॥
मातु-पिता, गुरु, गनपति, सारद । सिवा- समेत संभु, सुक, नारद ॥
चरन बंदि बिनवौं सब काहू | देहु रामपद – नेह-निबाहू ॥
बंदौं राम-लखन – बैदेही । जे तुलसीके परम सनेही ||
( ५ ) राग धनाश्री
ऐसी मूढ़ता या मनकी ।
परिहरि राम – भगति सुरसरिता आस करत ओस-कनकी ॥
धूम समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि पुनि, हानि होत लोचनकी ॥
ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी ।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि जानत हौ गति जनकी ।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख करहु लाज निज पनकी ॥
तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
(६)
काहे न रसना, रामहि गावहि ?
निसिदिन पर – अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥
काम-कथा कलि-कैरव – चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।
तिनहिं हटकि कहि हरि-कल – कीरति, करन कलंक नसावहि ॥
जातरूप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।
सरन – सुखद रबिकुल- सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ।।
बाद – बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि ।
तुलिसदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥
(७) राग सोरठ
ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं ॥
जो गति जोग बिराग जतन करि, नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ, प्रभु न बहुत जिय जानी ॥
जो संपति दस सीस अरपि करि, रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच – सहित हरि दीन्हीं ॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करहिं कृपानिधि तेरो ॥
तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
( ८ ) राग गौरी
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन, हरण-भव- भय दारुणं ।
नवकञ्ज – लोचन, कञ्जमुख, कर- कञ्ज, पद-कञ्जारुणं ॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरद सुन्दरं ।
पट-पीत मानहुँ तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक- सुता-वरं ॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव – दैत्य- वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनँद – कंद कोसल चंद दशरथ-नन्दनं ॥
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु, उदार – अंग विभूषणं ।
आजानु – भुज शर-चाप – धर संग्राम- जित खरदूषणं ॥
इति वदति तुलसीदास, शंकर- शेष-मुनि-मन-रञ्जनं ।
मम हृदय-कंज निवास कुरु, कामादि- खल-दल गञ्जनं ॥
(९)
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ।
श्रीरघुनाथ – कृपालु – कृपातें संत स्वभाव गहौंगो ॥
जथा लाभ संतोष सदा, काहूसों कछु न चहौंगो ।
परहित-निरत निरंतर मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ।।
परुष बचन अति दुसह स्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो ।
बिगत – मान सम सीतल मन पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो ॥
परिहरि देह जनित चिन्ता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो ।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि, अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥
( १० ) राग खमाच- तीनताल
माधव! मोह-पास क्यों छूटै ।
बाहर कोटि उपाय करिय अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥
घृतपूरन कराह अंतरगत ससि – प्रतिबिंब दिखावै ।
ईंधन अनल लगाय कल्पसत औंटत नास न पावै ॥
तरु- कोटर मँह बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।
साधन करिय बिचार – हीन मन, सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥
अंतर मलिन, बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे ।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥
तुलसिदास हरि गुरु करुना बिनु बिमल बिबेक न होई ।
बिनु बिबेक संसार – घोरनिधि पार न पावै कोई ॥
दैन्य
( ११ ) राग टोडी
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुंजहारी ॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, नहिं, आरतिहर तोसो ॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो ।तात, मात, गुरु, सखा तू सब बिधि हितु मेरो ॥
तोहि मोहि नाते अनेक, मानिये जो भावै ।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु, चरन- सरन पावै ॥
नाम
(१२) राग कल्याण
भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपतरु, कलिकल्यान फरो ॥
करम उपासन ग्यान बेदमत सो सब भाँति खरो ।
मोहिं तो सावनके अंधहि ज्यों सूझत हरो-हरो ॥
चाटत रहेउँ स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस, पेखत परुसि धरो ॥
स्वारथ औ परमारथहूको, नहि कुंजरो नरो ।
सुनियत सेतु पयोधि पषानन्हि, करि कपि कटक तरो ॥
प्रीति -प्रतीति जहाँ जाकी तहँ, ताको काज सरो ।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु – अरनि अरो ॥
संकर साखि जो राखि कहउँ कछु, तौ जरि जीह गरो ।
अपनो भलो रामनामहिं ते, तुलसिहि समुझि परो ।।
(१३) भगवान्का स्वरूप तथा लीला
दूलह राम, सीय दुलही री !
घन – दामिनि बर बरन, हरन – मन, सुंदरता नखसिख निबही, री ॥
ब्याह – बिभूषन – बसन- बिभूषित, सखि अवली लखि ठगि सी रही, री ।
जीवन-जनम – लाहु, लोचन – फल है इतनोइ, लह्यो आजु सही, री ॥
सुखमा सुरभि सिंगार – छीर दुहि मयन अमियमय कियो है दही, री ।
मथि माखन सिय-राम सँवारे, सकल भुवन छबि मनहुँ मही, री ।।
तुलसिदास जोरी देखत सुख सोभा अतुल, न जाति कही, री।
रूप – रासि बिरची बिरंचि मनो, सिला लवनि रति-काम लही, री ॥
रूप
(१४) राग केदारा
सखि ! रघुनाथ – रूप निहारु ।
सरद – बिधु रबि – सुवन मनसिज-मान भंजनिहारु ॥
स्याम सुभग सरीर जन-मन-काम- पूरनिहारु ।
चारु चंदन मनहु मरकत-सिखर लसत निहारु ॥
रुचिर उर उपबीत राजत, पदिक गजमनि-हारु ।
मनहु सुरधनु नखतगन बिच तिमिर- भंजनिहारु ॥
बिमल पीत दुकूल दामिनि – दुति, बिनिंदनिहारु ।
बदन सुखमा सदन सोभित मदन मोहनिहारु ॥
सकल अंग अनूप नहिं कोउ सुकबि बरननिहारु ।
दासतुलसी निरखतहि सुख लहत निरखनिहारु ॥
चेतावनी
( १५ ) राग सोरठ
जाके प्रिय न राम बैदेही ।
सो छाँड़िये कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितनि भये मुद-मंगलकारी ॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौँ ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै बहुतक कहाँ कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भाँति परमहित पूज्य प्रानते प्यारो ।
जासों होय सनेह रामपद एतो मतो हमारो ॥
(१६)
सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो ।
हरि पद बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ यह समुझ सबेरो ॥
बिछुरे ससि रबि मन नैननितें पावत दुख बहुतेरो ।
भ्रमत स्रमित निसि दिवस गगनमँह तहँ रिपु राहु बड़ेरो ॥
जद्यपि अति पुनीत सुर सरिता तिहुँ पुर सुजस घनेरो ।
तजे चरन अजहूँ न मिटत, नित बहिबो ताहू केरो ॥
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, स्रुति – संदेह निबेरो ।
तुलसिदास सब आस छाँड़ि करि, होहु राम कर चेरो ॥
तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
(१७)
कबहूँ मन बिस्राम न मान्यो ।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ-तहँ इंद्रिन तान्यो ।।
जदपि बिषय सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम – जाल अरुझान्यो ।
तदपि न तजत मूढ़, ममता बस, जानतहूँ नहिं जान्यो ।।
जन्म अनेक किये नाना बिधि कर्म कीच चित सान्यो ।
होइ न बिमल बिबेक नीर बिनु बेद पुरान बखान्यो ॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरि सों हरषि हृदय नहिं आन्यो ।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहिं जनम सिरान्यो ॥
( १८ ) राग भैरवी – तीन ताल
भज मन रामचरन सुखदाई ॥ ध्रु० ॥
जिहि चरननसे निकसी सुरसरि संकर जटा समाई ।
जटासंकरी नाम पर्यो है, त्रिभुवन तारन आई ।।
जिन चरननकी चरनपादुका भरत रह्यो लव लाई ।
सोइ चरन केवट धोइ लीने तब हरि नाव चलाई ॥
सोइ चरन संतन जन सेवत सदा रहत सुखदाई ।
सोइ चरन गौतमऋषि – नारी परसि परमपद पाई ॥
दंडकबन प्रभु पावन कीन्हो ऋषियन त्रास मिटाई ।
सोई प्रभु त्रिलोकके स्वामी कनक मृगा सँग धाई ॥
कपि सुग्रीव बंधु भय-ब्याकुल तिन जय छत्र फिराई ।
रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर परसत लंका पाई ॥
सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई ।
तुलसिदास मारुत-सुतकी प्रभु निज मुख करत बड़ाई ॥
( १९ ) राग गौड सारंग – तीन ताल
अब लौं नसानी, अब न नसैहौं ।
रामकृपा भव निसा सिरानी, जागे फिर न डसैहौं ।।
पायो नाम चारु चिंतामनि, उर करतें न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचिरुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैह ॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस है न हँसैहौँ ।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ।
( २० ) राग पूर्वी – तीन ताल
मन पछितैहै अवसर बीते ।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु होते ।।
सहसबाहु, दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते ।
हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥
सुत – बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते ।
अंतहु तोहिं तजेंगे पामर ! तू न तजै अबहीते ॥
अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
बुझे न काम- अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते ॥
( २१ ) उद्बोधन
जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचिअ जानकीजानहि रे ।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे ॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिएँ हनुमानहि रे ।
तुलसी ! भजु दारिद- दोष-दवानल, संकट-कोटि-कृपानहि रे॥
(२२)
तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै ।
‘तुलसी’ जेहि रामसों नेहु नहीं, सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै ॥
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै ।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकिनाथ ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु है ।।
(२३)
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद – अंबु चुचाते ।
तीखे तुरंग मनोगति – चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते ॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति,
बाहर भूप खरे न समाते ।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी,
जो पै जानकिनाथके रंग न राते ॥
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(२४)
लाभ कहा मानुष-तनु पाये ।
काय-बचन-मन सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये ॥
जो सुख सुरपुर नरक गेह बन आवत बिनहि बुलाये ।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन समुझत नहिं समुझाये ॥
पर-दारा परद्रोह, मोह- बस किये मूढ़ मन भाये ।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥
भय, निद्रा, मैथुन, अहार सबके समान जग जाये।
सुर दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गँवाये ॥
गई न निज- पर बुद्धि सुद्ध ह्वै रहे न राम-लय लाये ।
तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनिके पछिताये ॥
भक्ति-प्रेम
(२५)
जानकी- जीवनकी बलि जैहों ।
चित कहै, राम सीय पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहों ॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद- बिमुख न पैहों ।
मन समेत या तनुके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहों ॥
स्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहों ।
रोकिहौं नैन बिलोकत औरहिं सीस ईसही नैहों ॥
नातो नेह नाथसों करि सब नातो नेह बहैहों ।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहों ॥
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लीला
(२६)
जागिये रघुनाथ कुँवर पंछी बन बोले ॥
कंद किरन सीतल भई चकई पिय मिलन गई ।
त्रिबिध मंद चलत पवन पल्लव द्रुम डोले ॥
प्रात भानु प्रगट भयो रजनीको तिमिर गयो ।
भृंग करत गुंजगान कमलन दल खोले ॥
ब्रह्मादिक धरत ध्यान सुर-नर- मुनि करत गान ।
जागनकी बेर भई भई नयन पलक खोले ॥
तुलसिदास अति अनंद निरखिके मुखारबिंद ।
देत दान भूषन बहु दीननको बहु मोले ॥
(२७) राग बिलावल
झूलत राम पालने सोहैं ।
भूरि-भाग जननी जन जोहैं ॥
तन मृदु मंजुल मेचकताई ।
झलकति बाल बिभूषन – झाँई ॥
अधर पानि पद लोहित लौने ।
सर- सिंगार भव- सारस सोने ॥
किलकत निरखि बिलोल खेलौना ।
मनहु बिनोद लरत छबि छौना ॥
रंजित अंजन कंज बिलोचन ।
भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥
लस मसिबिंदु बदन बिधु नीको ।
चितवत चिंतचकोर तुलसीको ॥
(२८) राग केदारा
बिनती भरत करत कर जोरे ।
दीनबन्धु दीनता दीनकी कबहुँ परै जनि भोरे ॥
तुम्हसे तुम्हहिं नाथ मोको, मोसे, जन तुम्हहि बहुतेरे ।
इहै जानि पहिचानि प्रीति छमिये अघ औगुन मेरे ॥
यों कहि सीय-राम-पाँयन परि लखन लाइ उर लीन्हें ।
पुलक सरीर नीर भरि लोचन कहत प्रेम पन कीन्हें ॥
तुलसी बीते अवधि प्रथम दिन जो रघुबीर न ऐहौ ।
तो प्रभु-चरन-सरोज-सपथ जीवत परिजनहि न पैहौ ॥
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( २९ ) राग सोरठ
बैठी सगुन मनावति माता ।
कब ऐहैं मेरे बाल कुसल घर, कहहु, काग फुरि बाता ।।
दूध-भातकी दोनी दैहौं, सोने चोंच मढैहौँ ।
जब सिय-सहित बिलोकि नयन भरि राम-लखन उर लैहौं ।।
अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी ।
गनक बोलाइ पायँ परि पूछति प्रेम मगन मृदु बानी ॥
तेहि अवसर कोउ भरत निकट तें समाचार लै आयो ।
प्रभु आगमन सुनत तुलसी मनों मीन मरत जल पायो ॥
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(30)
जानत प्रीति – रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई ॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई ।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥
तिय – बिरही- सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।
रन पर्यो बन्धु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥
घर, गुरुगृह, प्रिय-सदन सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई ।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुच सिर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥
प्रेम कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई ।
‘तेरो रिनी’ कह्यौ हौं कपि सों ऐसी मानहि को सेवकाई ॥
तुलसी राम – सनेह – सील लखि, जो न भगति उर आई ।
तौ तोहिं जनति जाय जननी जड़ तनु- तरुनता गवाँई ॥
मुझे उम्मीद है प्रिये मित्रों यह तुलसीदास जी महाराज के भजन पद संग्रह कि यह कुछ रचनाएं आपको पसंद आई होगी ऐसी ही और भी पद रचनाएं भजन लिरिक्स वगैरा पढ़ने के लिए कृपया आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं ।धन्यवाद! तुलसीदासजी की पद रचनाएं lyrics
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