कवि हरदयाल जी के दोहे । सभाजीत प्रकाश सारुक्तावली कवित
कवि हरदयाल जी के दोहे
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श्री श्री सारुक्तावली सुभाषित ग्रन्थ प्रारम्भ
मित्रों यह सारुक्तावली अर्थात सभाजीत ग्रंथ के बहुत ही मार्मिक गूढ़ रहस्य से भरपूर दोहे छंद सवैया कवित आदि आदि की रचना से भरपूर नीति प्रद रचनाओं से भरपूर मेरे जीवन के बहुत ही सुंदर संग्रह में से एक कवि हरदयाल जी के यह जो दोहे है यह मुझे अति प्रिय है और मैं आज आपके समकक्ष रखता हूं और मित्रों एक बार आपने यह दोहे पूरी तरह से पढ़ लिए तो मैं आप को शत प्रतिशत गारंटी देता हूं कि आप व्यहवहारिक क्षेत्र में कहीं पर भी नही अटकेंगे यह मेरा दावा है। कवि हरदयाल जी के दोहे
दोहा
श्रीपति प्रथम नमामि मम, योगी हृदय निवास ।
भोगी हृदय उदास जो, वे मम सुमति प्रकाश ।। १।।
दुवैया छन्द
गणपति नृपवत् भक्त प्रजा के, नमो कणं कर अंगीकार ।
कामचोर विघ्न बुधि शशि के, प्रतिदिन करहै तासु प्रहार ।
हृदय निकेत समाधि विभूतिं, करुणाकर करि हैं विस्तार ।
ताते मैं तिहि करुणा कर को, करों अनेक प्रकार जुहार ।।२।।
भुजंगप्रयात छन्द
नमो शारदामात विद्या प्रदेनी, करो मेध्य मेधा यथा कं त्रिवेणी ।
करो नष्ट मोहादि शांत्यादि दीजै, हरो आप कारी हृदय धाम कीजै ।।३।।
दोहा छन्द
अथ श्री सारूक्तावली, भाषा कृत हरदयाल ।
वर्ण अर्थ के दोष को, बुधजन पढ़ो सम्भाल ।। ४।।
नवघट द्वेशत मूलवृत, पंद्रह तिहिं अध्याय ।
कंठ धरै जड़ता हरै, मंगल अंग लगाय ।।५।।
भाषा सारूक्तावली, सूक्तावली सू मूल ।
केंचित् भार्षे सभाजित, तृतीय नाम अनुकूल ।।६।।
छप्पय छन्द
धर्म सर्व सुख खान, जान सब को हितकारी।
धर्म धरै बुधिमान, निरन्तर चित्त मँझारी।।
धर्म शान्ति सुख हेतु, निखिल किल कलिमल खोवत।
तीनदेव के देश, धर्म करि प्रापत होवत।।
दश अष्ट नरक कुण्डनि विषे, धर्म विमुख नर नीत गम।
है धर्म सार संसार में, ताते धर्म नमामि मम ।।७।।
चौपाई छन्द
आन सुहृद नहिं धर्म बिना जन, संत जनों का सही धर्म धन।
धर्म धरों मैं नित चित अंतर, मुझे पाल है धर्म निरन्तर ।।८।।
अथ पहला अध्याय
दोहा छन्द
अथ प्रथम दश छन्द करि, वणों धर्म मनाक।
धर्म स्वरूप निमित्त वृधि, स्थिति नष्ट विपाक ।। १।।
क्षमा अहिंसा दया मृदु, सत्य वचन तप दान।
शील शौच तृष्णा बिना, धर्मलिंग दशजान ।।२।।
चौपाई छन्द
उपजे धर्म वाक्य सतकरि अति, दया दान करि धर्म बढे निति।
स्थिति धर्म क्षमा के संगा, धर्म क्रोध करि होत विभंगा ।।३।।
दोहा छन्द
शुभ कुल जन्म सुरूप तनु, भूप भोग संपत्ति।
पण्डित देह आरोग्य पुनि, धर्म जान फल सत्त ।।४।।
चौपाई छन्द
धर्म प्रीति नित वेद विचारे, उत्तमदान स्वभाव जु धारै।
इन्द्रिय अर्थविरागहि मन जिहिं, जिहिं इह प्रापति सफल जन्म तिहिं ।।५।।
दोहा छन्द
इन्दु बिना ज्यों मंद निशि, मंद कंजबिन ताल।
जीव मंद त्यों धर्म बिन, ताते धर्म न टाल ।।६।।
सम संतोष न और सुख, तप न क्षमा सम जान।
ब्रह्म ज्ञान सम दान नहिं, धर्म न दया समान ।।७।।
चारों फल में एक भी, उपजै हृदय न जासु।
अजा गले के कुचनि ज्यों, जन्म व्यर्थ है तासु ।।८।।
धर्म परम पारस अहै, जो दायक फल चार।
ताते ज्यों त्यों धर्म को, धरै जु बुद्धि उदार ।।६।।
कवित छन्द
नाग शोभे मदकर, नीर शोभे इंदीवर, रैन शोभे हिमकर, नारी शील रतिते।
शोभत तुरंग जव धाम शोभे उत्सव, शोभे वैयाकर्ण र व, नदी हंभगति ते।
समा शोभे विद्वावान कुल, शोभे सुसंतान,पानी शोभे करै दान, क्षिति क्षितिपतिते।
मूढ़ शोभे करै मौन, शिखी शोभे परै हौन,शोभे अतिशय त्रिभौन धर्मी सुमतितै।।१०।।
दोहा छन्द
सुखी दुःखी नर जगत में, धर्म करे सब कोई।
सुखी करे तब सुख बढ़े, दुखी करे दुःख खोई ।। ११।।
साप्त दोहे दो चौपाई, उत्तम एक कवित्त।
दशो छन्द आनन्दमय, बसैं जिसे नित चित्त ।।१२।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु प्रथम अध्याय।
धर्म निरूप्यो ताहि में, जन हरदयाल सुभाय।।१३।।
अथ दूसरा अध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
गुरु की कीरति दूसरे, सात श्लोक उचार।
जाके सुने अध्ययन ते, होहि त्रिताप प्रहार ।।१।।
द्रव्य खरच सत्पात्र में, जन्म जाय गुरुसेव।
हरि सुमिरण महँ चित्त जिहिं, वह पण्डित श्रुतिभेव ।।२।।
चौपाई छन्द
पूछे गुरु ते शुभ शिष्य तद्यपि, ज्ञानवंत होवै निज यद्यपि।
गुरु निश्चय युत बचन धरै जब, देहि शिष्य को परम शांति तब ।।३।।
त्रोटक छन्द
गुरु कीरति को अपरोक्ष करै, यश बांधव मीत परोक्ष रै।
भृत दास जसे करमात गहै, अबला सुत ओप कभी न कहै ।।४।।
दोहा
तजि गुरुमंत्र दरिद्र व्है, गुरै अवज्ञा घात।
त्यागि देत गुरु मंत्र जो, सिद्ध भी नरक हि जात ।।५।।
त्रोटक छन्द
गुरु के धन को जन जे हर हैं, हत तेज विभूति दुःखी मर हैं।
धर्मादि टरै नरके सु परें, उपजें पुनि ते श्वपचादि धरै।।६।।
दोहा
मुग्ध नपुंसक विकल मन, बिन विवेक दुर्भाग।
नीच कर्म नीचहि करे, गुरु निन्दा में राग ।।७।।
चौपाई छन्द
ज्ञान शलाका दे बुधि लोचन, कर है तम अज्ञान विमोचन।
निरावर्ण दृग करै जु श्रीगुर, नमो नमो तिहिं चरण धरि उरू।।८।।
दोहा
त्रय दोहा त्रोटक उभय, दो चौपाई निहार।
मुनि श्लोक मन शोक को, काटे करे न बार।।६।।
इतिश्री सारूक्तावली, भाषा द्वितीयोऽध्याय।
गुरु उपमा तामें कही, हरिदयाल हित लाय ।।१०।।
अथ तीसरा अध्याय विद्या वर्णो तीसरे, छन्द अट्ठाई मान।
विद्या पात्र अपात्र पुनि, वृद्धाऽवृद्धि निदान।।१।।
सवैया छन्द
यह वेद को ज्ञान सुजाननि के, अभिमान मदादि विकार विनासे।
पुनि केंचित नीचन को वह बोध, ममे अभिमान बिकार निवासे।
अच अमृत जासु हलाहल है, नहिं औषध वैद नहीं कछु तासे।
जन पात्र अपात्र को शोध के बोध, करै बुधिवान जु बुद्धि प्रकाशे।।२।।
सोरठा छन्द
मैथुन शयन अहार, पाठ समय तीनों तजे।
पाठ सहित पुनि चार, तजे सांझ में धीर जन ।।३।।
दोहा
सुखी वियाधी आलसी, कुमति रसिक बहु सोय।
तिहिं अधिकार न शास्त्र को, षट्दोषी जन जोय ।।४।।
शंकर छन्द ।।
कछु घृत स्नेह न लवण, तंदुल तक्र दाम न धाम ।
या संचरी जिहिं चित्त चिंता, दामकी दुःख धाम ।।
भई नाश प्राग अगाम की, बुधि मूढ मोह्यो वाम ।
तिहिं अधिकार न शास्त्र को, सो भजै नित श्रीराम ।।५।।
सोरठा छन्द
जिहिं निज मति कछु नाहिं, शास्त्र जुताको क्या करै ।
लोचन बिन जो आहि, प्रतिबिम्बी क्या करे तिहिं ।।६।।
दोहा छन्द
बीच अष्टमी मीच गुरु, अष्ट षष्ठ भी शिष ।
पंचदशी गुरु शिष मरै, एकम पाठ आशिष ।।७।।
गुरु पुस्तक भूमि सुभग, प्रीतम अवर सहाय ।
करहिं वृद्धि विद्या पठी, बहिर पांच गुण गाय ।।८।।
शास्त्र नीति शुध बुधि भगति, उद्यम रोग न देह ।
करहिं वृद्धि विद्या पठी, पांचांतर गुण एह ।।६।।
गुरु सेवा वा द्रव्य करि, विद्या-विद्या होय ।
तृतीय वृद्धि विद्या करहि, चौथे हेतु न कोय ।। १०।।
दोहा छन्द
विद्या उद्यम शिल्पता, पंडित संग्रह मीत ।
अक्षय न भय तस्कर इनै, पांच निधि सुख नीत ।।११।।
गुप्त प्रछन्न अतुल धन, विद्या नरवपु जान ।
विद्या सब सुख भोग दे, विद्या गुरु-गुरु मान ।।१२।।
विद्या बंधु प्रदेश में, विद्या देव विशेख ।
पूज्य नृपों करि अघ हती, विद्या बिन पशु देख ।।१३।।
निद्रा भोजन भोग भय, ए पशु पुरुष समान ।
नर न ज्ञान निज अधिकता, ज्ञान बिना पशु जान ।।१४।।
धर्म शील गुण दान तप विद्या बिन जे जंत ।
मृत्यु लोक क्षिति भार ते, नर वपु मृग विचरंत ।।१५।।
स्वर शिर त्वक मुनि पलद जन, शृंग योगी दृग नार ।
पँच गुण मृग-षट् दोष नर, नरते हरिण उदार ।।१६।।
पुरुष अशास्त्री क्या लखे, गुण दूषण की संध ।
रूप भेद अधिकार को, क्या प्रापत है अंध ।।१७।।
मुग्ध पूज्य निज धाम में, प्रभु पूजित निज नग्र ।
भूपति पूज्य स्वदेश में, पूजित गुणी समग्र ।।१८।।
एकाऽक्षर दाता जु गुरु, जो सेवत नहिं तास ।
पाय जन्म शत श्वान को, बहुरि श्वपच घर बास ।।१६।।
रूप द्रव्य यौवन सहित, सफल जन्म बहु बंध ।
विद्या बिन शोभत नहीं, ज्यों टेसू बिन गंध ।।२०।।
अलंकार पट भेष बिन, यद्यपि होय कुरूप ।
शोभत संतन सभा स्थित, जन विद्वान अनूप ।।२१।।
सोरठा छन्द
शब्द शास्त्र को त्याग, चहै अध्ययन पर निगम ।
सो पग गिनत हि नाग, निशि तम जल मो चिर रम्यो ।।२२।।
विष विद्या अभ्यास बिन, भोजन गरल अघाय ।
शुभ को संग दरिद्री विष, वृद्ध नारि विष गाय ।।२३।।
मातावत रक्षा करै, पिता जिवें हितकार ।
करे नारि ज्यों प्रेम बहु, शोक टार सुखकार ।।२४।।
विद्या बांधव. ज्यों सकल, कारज देत संवार ।
दायक कीरति द्रव्य की, ताते पढ़ें उदार ।।२५।। ,
सहस गुणा विद्या बढ़े, पुनः पुनः अभ्यास ।
रसनाग्रे निशि दिन बसै, ज्यों जल नी चे वास ।।२६।।
शास्त्र कर मद हत सुजन, खल को मद उपजंत ।
ज्यों दृग भानु प्रकाश है, उल्लू अंध करंत ।।२७।।
सवैया छन्द
मुकुटांगद कुण्डल कंकण हैं, कर चन्द्रप्रभा गर मोतिन हारा ।
मुख चन्द्र प्रभा दृग कंज प्रभा, तनु कंज प्रभा रतिसी घर दारा ।
असनान विलेपन चंदन कुंकुम, गंध धनी कर गुंथत वारा ।
नर को यह सुंदर साज करै, पर अंत अनंत कलेश भंडारा ।।२८।।
सब भूषण में शुभ भूषण है, इह वेदमयी इक वाणी उदारा ।
नर को वहि सुन्दर वेग करै, वपु सार जिसे फल देवहि सारा ।
चतुरानन चौदह भौन रचे, पर नाहिं विद्या सम ताहि मंझारा ।
नर ताते सदा सु पढे विदिया, हरदयाल चहे जु पदारथ चारा ।।२६।।
बाईस दो हे सोरठे, दोय सवैये तीन ।
इक शंकर अठबीस वृत, चितवृति करहि महीन ।।३०।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु तृतीय अध्याय ।
कीरति विद्या की कही, जन हरदयाल सुभाय ।।३१।।
अथ चौथा अध्याय कहे चतुर्थे ज्ञान हित, उत्तम आठ श्लोक।
शोक सुकहि इस लोक के, अन्तहु मुक्ति सलोक ।।१।।
सवैया छन्द
जन उत्तम हेर धरा पर उत्तम, पांव धरै नहिं जंतु मरे ।
अतिवाक्य पवित्र यथारथ सुन्दर, सोध हृदय सबही को ररे ।
शुचि पुण्य के चीर सुनीर भले, जन धीर निरतंर पान करे ।
मति सों लखि के सत वस्तु धरै, पुरुषोत्तम लक्षण ए उचरे ।।२।।
दोहा छन्द
तनु पट जल करि शुद्ध है, बुद्धि वेदांत विचार ।
जीव अहिंसा, गो भगति, मन निर्वेद हि धार ।।३।।
जल करि कर्दम ऊपजे, जल करि पंक विनाश ।
मन करि उपजत पाप किल, मन कर ही अघ नाश ।। ४।।
जल व्रत मन्त्र स्नान त्रय, जपी तपी व्रत मन्त्र ।।
जल स्नान ग्रसतीन को, पूजै उभय निरन्त्र ।।५।।
जल न्हाये न्हाये नहीं, अंतःकरण मलीन ।
सुरापात्र को बार सौ, धोए शुद्धि कभीन ।।६।।
मात पिता गुरु की टहल, सत तप गुण निग्रह । कृपा सर्व पर सप्त है, अंतर तीरथ एह ।।७।।
कवित छन्द
शीतल सुगंध मन्द, भूषण प्रभंजन को, धरम स्वयश दोऊ, मोनके विचारी है। क्षमा तपधारी विद्या, विप्र को उचारी निज, पतिव्रत नारी धन, दान पात्र भारी है। उपशम ज्ञानी पुनि, पंडित अमानी शूर, संयमसो बानी नर पति नीति प्यारी है। देह को प्रधान दृग, मृदुता महान जग, भगवान पाद भृगु, वंदना हमारी है।।८। सवैया छन्द
धनवान क्षमा धृति जवान तपी, मृदु मौनि कुवाक निजै यशते ।
परकाम मरै सुधरै धरमा, करहै करुणा वृधते पशुते ।
परखेद सहै न सहै परखेद, यथा सुख मोद अधे त्रसते ।
कबहूं करते नसते दशते, हँसते हँसते स्वरगे बसते ।।६।।
दोहा छन्द
दोय सवैये दोहरे, पांच कवित्त सु एक ।
अष्ट छन्द चित कष्ट को, करें नष्ट क्षण एक ।।१०।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु चतुर्थोऽध्याय ।
ज्ञान निरूप्यो ताहि में, कवि हरदयाल सुभाय ।।११।।
अथ पंचमोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
अथ पंचम अध्याय में, वर्णन करों विचार ।
षष्ठ छन्द चित चंद जन, श्रुति धरि सुनो उदार ।। १।।
चौपाई छन्द
गौरव प्राप्ति दान करै धन, धन संग्रह करि गौरव नहिं जन ।
सबते ऊरध वारिद जैसे, वारिद अधो भये पुनि तैसे ।।२।।
सोरठा छन्द
ज्यों इक बापी तोय, ईष संग मिलि मधुर अति ।
कटुता नीम समोय, भोजन पात्र अपात्र त्यों ।।३।।
भुजंग प्रयात छन्द
फलीभूत दानं शुभं पात्र देयो, यथा बीज बोये सुक्षेत्रे अखेयो ।
कुपात्रे मँझारी दयो दान ऐसे, कुक्षेत्रे मँझारी बुयो बीज जैसे ।।४।।
छप्पय छन्द
शेष मुनि भुक्ति, शेष वर ये द्वय भोजन ।
पाप त्यागे जवन, वही है बुद्धिमान जन ।।
उपमा करै अदृष्ट, श्रेष्ठ सो मित्र महावर ।
बिना जो धर्म, धर्म वह कहै मुनीश्वर ।।
हरि भक्त जगत में जानि निज, इष्ट बिना दृष्टे न अन ।
साधु वही जग जानिये, जाके नहीं उपाधि मन ।।५।।
सवैया छन्द
जब धार त्रिदण्ड फिरे नगना, मुख ऊपर शीश जटानि धरे ।
अथवा गिरि-कंदर बीच बसै, शिलपै थिति है थिति वृक्ष तरे ।
तत वेद पुराण सिद्धान्त पढ़े, उपवास धरे तिरथ विचरे ।
मन में जब भोगनि की रति है, तब ए सब किंचित नाहिं करे।।६।।
त्रोटक छन्द
निज मात जिवें पर नारी भजे, पर को धन लोष्ठ समान तजे ।
सब जीव स्वयं सम देखत जो, वहि वैष्णव है इमि पेखत जो ।।७।।
दोहा छन्द
इक चौपाई इक सोरठा, एक भुजंग प्रयात ।
एक छपा त्रोटक इको, एक सवैया जात ।।८।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु पंचमोऽध्याय।
तामहिं कह्यो विचार शुभ, कवि हर दयाल सुभाय ।।९।। न
अथ षष्ठमोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
चतुरागति गति नरन की, कहों षष्ठम अध्याय ।
सवैया ताहि में, चतुरनि चित विकसाय ।।१।।
सवैया छन्द
कविताध्यक्षणा अतिशय जिनकी, पुनि जासु कलेवर रोग बिलायो ।
अबला अनुराग करे जिनसों, पुनि हाटक लाभ जिसे अधिकायो ।
मँझार सुचेत रहै पुनि, सो जग में अतिशय यश छायो ।
जिसमें सत लक्षण ए लखिये, वह मानुष नाक गिरे क्षिति आयो ।।२।।
दान प्रसंग सदैव करै, परमातम देव भजै चित लाई।
जासु गिरा मधुरी अतिशय, नित सेवत जो धर्मी नरु ताई ।
जा जन के मन में नित ही, गुण चार विराजत ए सुखदाई ।
ते नर भूमि विराजत ही, स्वर्गे बसि है संशय नहीं राई ।।३।।
लोभ को अंश नहीं जिसको, नित दान दया मधि प्रीति लगावे।
आनन जासु प्रसन्न सदा, पुनि कोमल जासु स्वभाव लखावे।
संत गुरु जननी सब ता पग, शीश निरन्तर जोउ नवावे।
जाहि में ए गुण पांच बसै, नर का तनु त्यागि नरौ तनु पावे ।।४।
चाह घनी जिसके मन में पुनि, जो नर नीति संतोष ते भागत।
जो स्वप्ने महं मूढ रहे गुरु, मात पिता निज मित्र निठागत।
जो नर आलस वंत रहै नित जासु सदा क्षुधियाधिक लागत।
ए षट लक्षण जासु विषै वह टेढीन योनिन ते नर आगत।।५।।
बांधव माहिं विरोध सदा, अतिशय करि देह सरोग रहे ।
मूरख जंतुन का संग रहे, अति क्रोधी स्वभाव सदैव अहे ।
जासु सदैव गिरा कटुकी, इह पांच कुलक्षण जोइ गहे ।
ते नर त्याग अए नर का नर, देह लही हरदयाल कहे ।।६।।
दोहा छन्द
इति श्री सारूक्तावली, तासु षष्ठमो ऽध्याय ।
चतुरागति लक्षण कह्यो, कवि हरदयाल बनाय ।।७।।
अथ सप्तमोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
वाक्य निरूपणं अब करै, सप्तम अध्याय मँझार ।
छन्द रुद्र मति क्षुद्र को, करत समुद्र प्रकार ।।१।।
मंत्र मित्र तप दान जप, बांधवादि जे आहिं ।
जे नर पीड़ित काल करि, को रक्षक नहिं ताहि ।।२।।
बंधत कर्म में, तिहिं दुस्तर फल होय ।
हसती धारे गर्भ को, तजत. रूदन्ती सोय ।।३।।
जीव कर्म आपै करें, आपै तिहिं फल भुक्त ।
आप रमत संसार में, आपै तिहिं ते मुक्त ।।४।।
दुःख मय मिथ्या भावना, सुखद भावना सत्त ।
ज्ञान भावना कर्म करि, निश्चय सकल नसत्त ।।५।।
शुभ गुण अवसर के पढ़े, शोभावन्त मनाक ।
गमन काल वामांग ज्यों, मंगल गर्दभ वाक ।।६।।
सवैया छन्द
जब भानु उदय दिग पश्चिम है, गिरि मेरु चलै अतिशय जब हीं।
गिरि शृंग शिला जब द्वै पदमा, अति शीतल अग्नि हुँ झै कब हीं ।
है सबके अति साजन संत जना, वह झूठ गिरा न कहें कब हीं ।
तजि श्रांति हृदय धरि संत गिरा, सुसमा अबहीं अबहीं अबहीं ।।७।।
त्रोटक छन्द
बुधि को फ लसार. विचार रहै, तनु को फल सार व्रतादि कहै ।
धन को फल सार सुपात्र दिजै, फल सार गिरा सब प्रीत किजै ।।८।।
दोहा छन्द
जो आनन है शास्त्र बिन, बिन तांबूल जु आस ।
शुभ बानी बिन बदन हो, मुख निरंध्र लखि तास ।।६।।
सवैया छन्द
जो नर है समरथ तिसे, प्रति काम नहीं कोउ या जग माहीं ।
मानुष उद्यमवंत जु है, तिन को कछु दूर अहै जग नाहीं ।
जो गुणवान पुमान अहै, परदेश तिसे कछु ना दर्शाहीं ।
जो मधुरो सुधि वाक्य भनै, सब साथ तिने जन कोन दुःखाहीं ।।१०।।
दोहा छन्द
प्रिय बचनो के दानते, होत प्रमोद त्रिभौन ।
ताते प्रिय वाणी भनै, यामें क्रपणता कौन ।।११।।
चौपाई छन्द
सत्य वचन अरु प्यारो जोई, बुद्धि मान जन भाखे सोई।
प्रिय न होय पुनि वाक्य सत्त है, कहै नहीं यह शब्द मत्त है ।।१२।।
लागै मधुर झूठ है वाको, नहिं काहू प्रति भाखे ताको ।
धर्म सनातन यह संतन को, यह अनुगामी योग जनन ।।१३।।
दोहा छन्द
दो सत चौ इक त्रोटक, उभय सवैये जान ।
वृत एकादश वृत्ति की, मैल निवृत्ति निदान ।।१४।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु सप्तमोऽध्याय ।
तामें वाक्य निरूपियो, कवि हरदयाल सुभाय ।।१५।।
अथ अष्ठमोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
उद्यम वर्णे अष्ठमें, द्वादश छन्द सरोज ।
जाको मन अलि लेत रस, ताके सिद्धि मनोज ।। १।।
उद्यम करिके श्री मिले, कीरति त्यागे होत ।
बुद्धि कर्म अनुसार है, विद्याभ्यास उद्योत ।।२।।
उद्यम कंडू कलह मधु, जुवा प्रीति आहार ।
भोग नींद नव सेवते, वधै प्रलय ज्यों वार ।।३।।
उद्यम उत्तम मित्रवत, भयो सु शत्रु समान ।
आलस शत्रु-मित्र ज्यों, उभय विपर्यय ज्ञान ।।४।।
विद्या सेव व्यापार कृषि, इन करि जिंहि वृति होय ।
कृष्ण सर्प के डंक ज्यों, करण योग दृढ़ सोय ।।५।।
सोरठा छन्द
अभ्यागत खीरादि, खेती करि दारिद्र को ।
अबला को द्रव्यादि, तथा शास्त्र करि सभाजित ।।६।।
जाग्रत हत है त्रास, दुर्भिष नाशै शशी करि ।
कलह मौन करि नास, तथा जाप करि पाप हत ।।७।।
दोहा छन्द
देव चितवनी धारि करि, उद्यम त्यागे नाहिं ।
बिन उद्यम कहु कौन को, मिले तेल तिल मांहि ।।८।।
प्रथमे कर्म विपाक को, सुमरे होत प्रमोद ।
जरत धाम के शांति हित, आदि कूप शुभ खोद ।।९।।
सवैया छन्द
सब ही करमा आरंभ विषे, बुद्धिमान सदा फल को सुमरे ।
अति प्रारबधांत करै गमना, जिनको फल कै सुख दूर हरे ।
कै जिन कारज को फल चारु लगै, बहु धारि हृदय तिन मों विचरे ।
सब कारज आदि विचारि भलो, पुरुषोत्तम लक्षण ए उचरे ।।१०।।
धन आप एकत्र करे जत जे, निज वृत्ति निमित्त हिं उत्तम तेई ।
सविता वित सों जु करे वृति आपन, मध्यम मानुष या जग सेई ।
पुनि आपनि जीविका जो करहै, जननी धन के अधमो लख बेई ।
भवमें अधमाऽधम ते नर हैं, धन योषित सों तनु पोषत जेई ।।११।।
नाराच छन्द
त्रिकाल द्रव्य दुःख में, उपाय रक्ष अंत में ।
निदान है विरोध को, सु मात तात जंत में ।
कृतांत धाम काम को, अलंकृत समष्ट है ।
शुभाऽशुभ निकेतभी, तथापि त्याग श्रेष्ठ है ।।१२।।
सोरठा छन्द
यौवन धन अविवेक, प्रभुता चारों परम रिपु ।
देत अनर्थ इकेक, जिहिं चारों तिहिं क्या कथा ।।१३।।
दोहा छन्द षट दोहे त्रय सोरठे, उभय सवैये जान ।
इक नराच द्वादश सबै, छंदानन्द. निदान ।।१४।।
इति श्री सारूक्तावली, तिहिं अष्टम अध्याय ।
तामे उद्यम वरणियों, कवि हरदयाल बनाय ।।१५।।
अथ नवमो अध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
नवमें कहेउ उदारता, जाते हृदय उदार ।
धन निदै बिन दान जो, सात श्लोक उचार ।। १।।
त्रोटक छन्द
सरिता न अँचे अपने जल को, न कदापि भषै तरु स्वा फल को ।
शशी को नहीं अभ्र कभी भष है, धन त्यों परहेत बडे रष है ।।२।।
दोहा छन्द
धन के भागी चार हैं, धर्म चोर नृप आग ।
कोपै तापै भ्रात त्रय, करै जु ज्येष्ठा हिं त्यागा ।।३।।
दुवैया छन्द
सब जन करत पदारथ संग्रह, पुनि तिहिं रक्षा करत उपाय ।
उत्तम रक्षा त्याग पदारथ, अब इन पर दृष्टांत बताय ।
ज्यों जल सर को सूखे सर में, वा क्रम होके स्वाद बिलाय ।
ना क्रम सूखे न जल प्रवाहिक, सुभग स्वाद त्यों अर्थ सुझाय ।।४।।
दोहा छन्द
धन संग्रहते दान धन, सौ गुण अधिक पिछान ।
बिना दान जो द्रव्य है, सो वन सुमन समान ।।५।।
जवान जितेन्द्रिय जपी तपि, मृदु विद्वान उदार ।
दीन मान नहिं नव गुणी, हरि वपु तासु जुहार ।।६।।
सवैया छन्द
सिंधु अगाध अहै लवणोदक, तद्यपि क्या कहूँ प्यास न टारे ।
जानु प्रणाम जु वारि सुचारू, तुषा नर नारी मृगादिकी हारे ।
नेक धनाढ्य तथापि बडो, अर्थी व्यर्थे जिहिं जात न द्वारे ।
जा धन रास निरासक भिक्षुक, मो धन क्या चुवती क्षिति धारे ।।७।।
है रस सो सिंधु ते सर सो, रतनोदक खान न भी सब भावे ।
प्यास श्रमी प्रथकी जन के, श्रम नासन मों समरथ दरसावे ।
सो सर ज्यों धन नेक धनी, जिहिं द्वार हि ते सब को बरसावे ।
सिंधु धनी कहुँ दे न कनी, किधों पाक वृणी पर पीस के लावै ।।८।।
दोहा छन्द
इक त्रोटक त्रय दोहरे, एक दुवैया छन्द ।
उभय सवैये धीर जन, सात श्लोक चित चन्द ।।६।।
इति श्री सारूक्तवाली, तिहिं नवमो अध्याय ।
उत्तम कही उदारता, कवि हरदयाल सुभाय ।।१०।।
अथ दशमो अध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
दशमें द्वादश छन्द करि, क्रोधादिक व्याख्यान ।
हानि करे अरि जानि के, मान करे दुःख खान ।।१।।
मधुमार छन्द
पहरै कुचैल, धृत दंत मैल, तप ताव प्रीत, मधुरो न गीत ।
रवि अन्त भोर, जिहिं नींद घोर, जब लक्ष कंत, तिहिं श्री तजंत ।।२।।
तिलका छन्द
पर अन्न हरे, पर धनहिं चुरे परसेज रमे, गुरु नारि गमे ।
परधाम बसे, पुनि दान नसै यदि इन्द्र अहे तिहिं श्री न रहे ।।३।।
त्रोटक छन्द
क्षुधिया सम ना तनु खेद अहै नहिं चिंत समा तनु शोक कहै ।
जन भूषण ना विद्या के समा, नहिं रक्षक काय समान क्षमा ।।४।।
क्षुधिया करि आतुरि जो नर है, बुद्धि क्रान्ति उभय तिन की न रहैं ।
अति आतुर चिन्त हु ते जु नरा, सुख नींद उभय तिन को न जरा ।।५।।
मनुजातुर जे जन आहिं सही । तिनको नहिं त्रास न लाज कहीं ।
द्रव्यातुर जे जन आहिँ घना तिनको गुरु नाहि न बंधु जना ।।६।।
सोरठा छन्द
क्रोध अर्थ निर्मूल, क्रोध जन्म अरु मरण दे ।
क्रोध धर्म निर्मूल, ताते क्रोध हि त्याग शुभ ।।७।।
दोहा छन्द
काल कूट अरु क्रोध में, बड़ो अंतरो आहि ।
क्रोध स्व आश्रय को दहत, विष नहिं स्वाश्रय दाहि ।।८।।
मान नम्रता प्रीति त्रय, शीघ्र क्रोध ते नाश ।
है प्रतीति हत कपट करि, शुभ गुण लोभ प्रणाश ।।९।।
करै बखीली बली सों, पाप कर्म में प्यार ।
त्रिय प्रतीति साजन कलह, मृत्यु द्वार यह चार ।।१०।।
कोइक मित्र न कहूं को, कोइक रिपु कहुँ नाहिं ।
जीवन के गुण दोष जे, शत्रु-मित्र ते आहिं ।।११।।
दो तिलके मधुभार दो, त्रय त्रोटक पहिचान ।
इक सोरठ दोहे चतुर, द्वादश छन्द बखान ।।१४।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु दशम अध्याय ।
क्रोधादिक तामें कहे, मोक्ष निमित्त विहाय ।।१५।।
अथ एकादशोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
एकादश अध्याय में, संतन की परशंस ।
दुर्जन की निंदा करै, कहैं श्लोक षड्विंश ।।१।।
सवैया छन्द
पर काव्य सदोष अदोष भणे, कंटु वाक्य कहै न परंतु सहै ।
अपने गुण औगुण त्यों पर के, चहुं में द्वि कहै दु कभी न कहै ।
चित को चित चेतत चिंत भयो, विषयों से परंतु डरत रहै ।
श्रवणादि जने सब बंध हने, सम धाम बनै पर काति चहै ।।२।।
दोहा छन्द
वर्तमान भावी विपति, संत सेवते नाश ।
ज्यों गंगोदक अचन ते, दुर्गति पाप विनाश ।।३।।
सवैया छन्द
संत करे नहिं वैर कहूं, सबके हित में वरते अति ही ।
ता तनु को जब दाहत को वह, तद्यपि देत सुखामृत ही ।।
जैसे कुठार कटै तरु चंदन, गंध तिसे मुख देवत ही ।
हेतु यही सरवातम है, रत तां पद कंज मोहि नित ही ।।४।।
दोहा छन्द
नर आभरण सुरूप तनु, रूपाऽभरण गुणाहि ।
गुण को भूषण ज्ञान निज, ज्ञानाऽभरण क्षमा हि ।।५।।
दर्पण मार्जन मान ज्यों, निर्मल होवत सोइ ।
तथा ज्ञान अभ्यास करि, विमल मनीषा होइ ।।६।।
ज्यों जल भीतर पद्म थित, जल स्पर्श नहिं ताहि ।
ज्ञानी शब्दादिक विषय, भोगत पर न लिपाहि ।।७।।
घर्षण छेदन दहन में, कंचन दुःखै न ऐस ।
गुंजन सह तोलन हुते, हाटक दुःखै न जैस ।।८।।
तनु दाहन छेदन विपति, नहिं अस दूःखें संत ।
विषय संग ते ज्यों दुःखे, विषय असंत करंत ।।६।।
भ्रमर केतकी फूल पर, खंडमान भी शोभ ।
त्यों गुण करि जिहिं चित ढप्यो, तिहिं न दोष करि क्षोभ ।।१०।।
दुष्ट क्रिया दृष्टै नहीं, जैसे जल में रेख ।
संत क्रिया अति अल्प भी, शिला रेख ज्यों देख ।।११।।
चंदन शीतल लोक में, चंदन ते शशि शीत ।
चंदन चंद्र हि युगल ते, शीतल सत्संग नीत ।।१२।।
एक पुत्र गुणवान शुभ, सौ सुत अगुण अकाम ।
एकहि शशि तम को हरे, तारे कोटि किहिं काम ।।१३।।
अमृत रस विद्वान को, जानत इक विद्वान ।
रंभा भोगन जु सुख, जानै शक्र न आन ।।१४।।
सब शास्त्रनि में चतुर भी, चतुर्वेद थित वाक ।
आत्मज्ञान न जानियो, ज्यों दर्वी रस पाक ।।१५।।
गिरि गिरि में माणिक नहीं, मोती गज गज नाहिं ।
चंदन तरु बन बन नहीं, संत न पुर पुर मांहिं ।।१६।।
निर्मल मति मानी पुरुष, द्वे फल इच्छा धार ।
सर्व संग निर्वृत्तता, वा विभूति विस्तार ।।१७।।
उपकारी प्यारी गिरा, करे अकृत्रिम प्रीत ।
संतन यही स्वभाव है, शशि शीतल किन कीत ।।१८।।
सो तरु कोइक कहूँ है, जिहि करींद्र आश्रिक्ष ।
बन बन में बन चरन के, वास योग्य बहु वृक्ष ।।१९।।
जो जन के बंधन हरे, सो साधु कहुँ एक ।
कर्म क्रिया जोड़न विषे, जन समरत्थ अनेक ।।२०।।
द्विज प्रसन्न क्षीरादि करि, मोर मोद भन बैन ।
संत खुशी परहित विषे, शठ पर विपता चैन ।।२१।।
अर्थी प्रश्नी जगत में, सुलभ अभार अगार ।
दाता उत्तरवंत द्वै, दुर्लभ नर संसार ।।२२।।
स्वगुण दोषपर याचना, अर्थी व्यर्थ भिजंत ।
इन चारों के कहन में, संतन जीभ लजंत ।।२३।।
सवैया छन्द
करके परहार भए जिव कंदुक, भूमि गिरे पुनि ऊरध होई ।
वृत आवृत उत्तम संतन की, पर होवहि नाश जबै वह दोई।
आपदा अति आपति होई जबै, नहिं तद्यपि व्याकुल होवत सोई ।
सम मेरु रहै क्षिति संत सदा, विपदा सब गेंद समान सु जोई ।।२४।।
दोहा छन्द
अधम जु चाहे द्रव्य को, मध्यम धन अरु मान ।
उत्तम चाहै मान को, ताहि न धन सन्मान ।।२५।।
हैं गुण अवगुण सब विषै, इन बिन जंतु न कोय ।
मृदु सुगंध सुन्दर कमल, पर कंटक भी होय ।।२६।।
सोरठा छन्द
भू मण्डल शृंगार, संत मराल निवास जहँ ।
हानि तिनौ पुर तार, साधु हंस वियोग जहँ ।।२७।।
दोहा छन्द
बाइस दोहे सोरठिक, तीन सवैये चीन ।
सभी छंद षट्बीस हैं, हिरदै दीन अधीन ।।२८।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु ग्यारमोऽध्याय ।
दुर्जन सज्जन युगल को, वर्णन कियो सुभाय ।।२६।।
अथ द्वादशोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
दोहा छन्द
अब द्वादश अध्याय में, सप्त व्यसन विस्तार ।
क्रम क्रम करि तिहिं निंद्य है, पन्द्रह छन्द उचार ।।१।।
जूप मांस बेस्या मधु, हिंसा चोरी परनार ।
सप्तम लोक में सप्त हैं, सप्त न छुहै उदार ।।२।।
लक्ष्मी तहां रहै नहीं, जहां जूप को बास ।
पादप तहां न ऊपजै, जहां अग्नि परकास ।।३।।
पाप वृद्धि ते वृद्धि धन, धन वृधि ते वृधि पाप ।
नसै जूप में धर्म बिन, उभय लोक संताप ।।४।।
दोहा छन्द
सुरा पान तें हानि मति, करि है काम बेहोस ।
नारी महता री उभय, भोगे गिनै न दोष ।।५।।
त्रोटक छन्द
मधु पान समान न पाप परे, नहिं भूत भविष्यत में उचरे ।
मधु त्याग समान न पुण्य कहूं, नहिं भूत विषे न भविष्यत हूं ।।६।।
।। इति मद्यम् ।।
सत् करता, उपदेष्टा, उपकारी, अनुमंत ।
घातक, स्वादिक षष्ठ ऐ, अघ समभागी जंत ।।७।।
रक्त बिंदु कर संभवै, जे नर भुंजत मांस ।
नरक पड़े निकसे नहीं, यावत इंदु बिभास ।।८।।
सर्व शुक्र ब्रह्मा अहै, विष्णु भिसत परकास ।
ईश्वरास्थि संघात है, ताते मत भख मांस ।।६।।
।। इति मांसम् ।।
जप तप व्रत वित अवधि यश, विद्या सुकुल उदार ।
कटै गणिका सकल, जैसे लता कुठार ।।१०।।
सुरा मांस गणिका तृतीय, मनका मन का जास ।
तिन संगै दुःख होत है, तिन संगै सुख नास ।।११।।
दोहा छन्द
कुल को क्षय औ कलह उर, धन हत धर्म प्रहार ।
इत उत अपयश लभत सत, जे भोगत परनार ।।१२।।
निज युवती के होत ही, शठ लपटे पर नारि ।
भरे ताल सब ठौर पर, काग अँचै घट वारि ।।१३।।
।। इति पर स्त्री ।।
दोहा छन्द
‘मृग झष संतन विहत वृत, ‘तृण संवर संतोष ।
‘लुब्धक धीबर दुष्टजन, करहिं अकारण दोष ।।१४।।
छप्पय छन्द
जूप संग ते धर्म, तात अति विपति सही बनि ।
मांस संग इक भूप भयो, बक दियो श्राप मुनि ।
यादव नन्दन नाश भये, मधु पान कस्यो जब ।
कीचक थे शत भ्रातत, काम करि नाश भये सब ।
नृप मृगया करि परीक्षित हत्यो, चोरी करि शिव भूप हत ।
पुनि परनारी की प्रीति करि, शीस दिये दश लंकपति ।।१५॥
दोहा छन्द
इक इक की संगति किये, भए नरोत्तम नाश ।
जामें सातों व्यसन हैं, कथा कहै को तास ।।१६।।
त्रयोदश दोहे इक छपा, त्रोटक एक बताय ।
पन्द्रह कहे श्लोक सब, लोक परलोक सहाय ।।१७।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु द्वादशोऽध्याय ।
सप्त व्यसन वर्णन करयो, कवि हरदयाल सुभाय ।।१८।।
अथ त्रयोशाध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
दोहा छन्द
अब त्रयोदश अध्याय में, इन्द्रिय विषयनि निंद ।
दुर्जन की निन्दा करे, कहिके तेईस छन्द ।।१।।
काम बराबर व्याधि नहिं, शत्रु न मोह समान ।
आन अगिन नहिं क्रोध सम, सुख न समान सुज्ञान ।।२।।
करी काम, आमिष मतल, मृग स्वर, रूप पतंग ।
अलि सुगंधि इत्यादि हत, इक इक इंदिय संग ।।३।।
शब्द स्पर्श रूप रस गंध, पांचों कारण नास ।
जे जन पाँचों वश भों कथा कहै को तास ।।४।।
दुर्जन संग न कीजिये, वचन न ताहि बखान ।
कर कलाल के दुग्ध भी, पर तिहिं सब मधु जान ।।५।।
सोरठा छन्द
तुल्य दुष्ट मर्दग, पिण्ड तुण्ड में जब पड़े ।
तब लग बोलत चंग, नातर निन्द कुरस करै ।।६।।
दोहा छन्द
यद्यपि वक्ता सर्वचित, अरु श्रोता खल होय ।
वचन फलै नहिं तासु सम, जो अनेक युग खोय ।।७।।
जैसे सुन्दर सुन्दरी, षोड्श करै शृंगार ।
तद्यपि निष्फल सर्व सहि, जो दृग बिन भरतार ।।८।।
दादुर कर कुख भरण में, तत्पर नाग अनेक ।
समरथ धरणी धरन में, शेष नाग ही एक ।।९।।
उदर भरण तत्पर भए, भेषी संत अनंत ।
जशत जलधि के तरण में, विरला कोइक संत ।।१०।।
निंदक कृतघ्न पिशुन जन, पुनि जिहिं क्रोध विशाल ।
करमों के श्वपच, पंचम जाति चांडाल ।।११।।
सर्प क्रूर खल क्रूर है, सर्पन ते खल क्रूर ।
मंत्रौषधि करि सर्प वश, खल को मंत्र न मूर ।।१२।।
संग दोष करि संत जन, कभी न विक्रय धार ।
नागन करि ढप्यो, तद्यपि धरै न मार ।।१३।।
नीचन पर उपकार जो, कोप हेत नहिं सांति ।
सर्पन पय पान भी, केवल विष की धाति ।।१४।।
द्वै कर द्वै पग आहिं तब, दृश्यत पुरुष अकार ।
वात के गात हित, कियो न करो अगार ।।१५।।
शूची मुख व्यभिचारिणी, रंडे पण्डित रार ।
नहिं बल निज गृह रचन में, समरथ हत तव द्वार ।।१६।।
जैसे कैसे पुरुष को, दे उपदेश न संत ।
मूरख कपि बिन गृह करी, चटकाया गृहवंत ।।१७।।
ऊँचे थित ऊँचो नहीं, ऊँचो गुण करि होइ ।
काक अँटारी पर बसै, पर क्या खगपति सोइ ।।१।।
नीचन की संगति किये, नसत बेगि वैराग ।
पराधीन भी सुख नसै, अभ्र छाहि तृण आग ।।१६।।
कवित छन्द
कोउ इक विप्र आहि, शुभवन में बनाहि, ताम्र पात को दबाय, लिंग लिंग कियो है ।
तहां बहु जन आए, लिंग देखि लिंग करौ, लिंग अर्चन करि, जन यूथ गयो है ।
विप्रजन आयो देखि, लिंग विसमायो कहै, इक लिंग हूतें लिंग झुण्ड निरमायो है ।
पात्र नहिं पाए तब, विप्र यों अलाप तहँ, पात्र लिंग चिन्ह कीन्हो, मूढ़ों न लखायो है ।।२०।।
सोरठा छन्द
जग की भेड़ा चाल, चलते के पीछे चलै ।
परमारथ न संभाल, देखो जग की रीति यह ।।२१।।
दोहा छन्द
फल कर के तरु तरे है, नमत अहै श्रुतिवंत ।
मूक वृक्ष करि तुटत है, झुकत नहीं खल जंत ।।२२।।
कवित छन्द
नीर करि शिखी के, निवारण मो समरथ, छाया करि दिवाकर आतप निवारिये ।
सम दम तंग वश, होत तीखे कुंढे करि, धेनु भैंस रासभ को, दण्ड करि टारिये ।
भेषज संग्रह करि, व्याधि को प्रहार करै, मंत्रन के बलते, भुजंग मार मारिये ।
निगम करि यों रची भेषज सकल करि, नीचन की औषधि न कदापि उचारिये ।।२३।।
दोहा छन्द
मति प्रतीति खल की करो, सकल सुनो विद्वान ।
चंदन के घर्षण करे, दाहत प्रगट कृशान ।।२४।।
बीस दोहरे दो कवित, एक सोरठा जान ।
तीन बीस सब छन्द है, हृदय सरोरुह भान ।।२५।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु त्रयोदशोऽध्याय ।
निंद्यो खल इन्द्रिय विषय, मुक्त निमित्त विहाय ।।२६।।
अथ चर्तुदशोऽध्याय कवि हरदयाल जी के दोहे
शिक्षा वर्णो चौदशे, चौदश छन्द उचार ।
बेगि त्रिताप प्रहार है, ज्यों घन वारि बियार ।।१।।
नाराच छन्द
हितैषिणा जहां अहैं, तहां नहीं मनीषिणा ।
मनीषिणा जहां अहै, तहां नहीं हितैषिणा ।।२।।
समादि वेद वेदभी, सुदुर्लभं कुभै हैं ।
यथौषधी सवादवंत व्याधि मूल ते दहैं ।।३।।
छप्पय छन्द
वृक्ष हीन फल चीन, विहंगम वेगहि त्यागें ।
कानन दग्धो देखि, हरण आदिक सब भागें ।
फूल माल निर्गन्ध, गले ते त्यागें सब नर ।
सारस त्यागै बेग, नीर बिनु पेख सरोवर ।
पुनि गणिका तजै निर्धन नर भृष्ट नृपति भृत तजतही ।
जन सकल स्वारथ वश रमै को काहू प्यारो नही ।।४।।
दोहा छन्द
पशु धन अधन कनक अरध, अहै सर्व धन धान ।
मित्र शील विद्या तृतीय, अतिशय धन की खान ।।५।।
बिन अभ्यास विद्या नहीं, विद्या बिन धन नाहिं ।
बिन धन नाही मित्र कोउ, मित्र बिना बल काहिं ।।६।।
तब लग ही गुण गौरता, जब लग कहै न देह ।
देह कहे ते खेह सब, गुण गौरव पिठ देह ।।७।।
मंत्रौषधि सिधि अवधि धन, मैथुन दान कुसेव ।
दुर्भोजन इन अष्ट को, सुधी न प्रगट करेव ।।८।।
अर्थ नाश मन ताप है, दुश् चरित्र गृह माहि ।
मान भंग वंचत कहूं, धीर पंच कभहि नाहिं ।।९।।
कारदार मैथुन करज, गरभ चार जो एह ।
प्रथमै सुख प्राप्ति करें, पाछे बहु दुःख देह ।।९०।।
सूपकार कवि वैद नृप, शस्त्री मर्मी जान ।
स्वामी वन्दनी मुग्ध नव, मत कुपाइ मतिमान ।। ११।।
अर्थपती नृप अतितपी, विद्याधिक शठमाहिं ।
विदुष गुरु अरि अष्टको, धीर उतर दे नाहिं ।।१२।।
वर विचार विद्याहुते, बुधि बिन विद्या नाश ।
बिन विचार ज्यों कारके, केहरि कस्यो विनाश ।। १३।।
जिहिं विचार है बल तिसे, बिन विचार बल नाहिं । एक प्रमत नाहर बनें, शसा विनाश्यो ताहि ।।१३।।
दुवैया छन्द
ऋण रिपु अगनि त्रि नाश मँझारी, करै विलम्ब नहिं समा पिछन ।
कन्या दाने धर्मारम्भे, विद्या पढ़ने धन के ल्यान ।
अवसर देखि पदारथ चारों, करे शीघ्र जो सो बुधिवान ।
क्षण क्षण क्षीण काल तनु करहै, भलो काल फिरि मिलै न पान ।।१४।।
दोहा छन्द
नारी कलहिनी ग्राम घर, देहि दुःख नृप नीच ।
परवश पाँचो नरन को, जीवत ही है मीच ।।१५।।
इक नराच एकै छपा, एक दुवैया छन्द ।
शंकर दोहे शंकरी, चौदश छन्दानन्द ।।१६।।
इति श्री सारूक्तावली, तासु चौदशोऽध्याय ।
शिक्षा वर्णी तासु में, कवि हरदयाल सुभाय ।।१७।। कवि हरदयाल जी के दोहे
अथ पंचदशोऽध्याय
अब पन्द्रह अध्याय में, मिश्रित इकीशक छन्द ।
पट है सट घट में ठटे, इत उत में आनन्द ।।१।।
नाराच छन्द
पताल में प्रवेश इन्द्र-लोक, में प्रवेश है ।
गिरीन्द्र जो समेरूचारु, तासुमें निवेस है ।
जु मंत्र भेषजं करै, वियाधि हार कारणम् ।
जो होन है सु होइ अन्न, हेतु ना विचारणम ।।२।।
दोहा छन्द
मूरख का बल मौन है, तस्कर का बल झूठ ।
दुर्बल का बल भूप है, शिशु बल रोवन रूठ ।।३।।
प्रातः अन्न भोजन कस्यो, सांझ समय धुति नाश ।
तिहि रस करि उपजै जु तनु, कहा नित्यता तास ।।४।।
सोरठा छन्द
सब अनित्य है काय, सब विभूति क्षण भंगुरी ।
निकट काल नित आय, धर्म संग्रहै योग अब ।।५।।
सवैया छन्द
आधि बियाधि बिना तनु मानस, मानस जो अपनो जब हेरे ।
अन्न पटादि अनाथन के घर, द्वै कर जोर दए पुनि टेरे ।
खाइ हंढाइ धिआइ हरी, चिर जीव दुजी तुम बांधव मेरे ।
तासु असीस हुते जगदीश, करै मन शुद्ध सु सांझ सबेरे ।।६।।
दोहा छन्द
गुण स्फटिक को जो अहै, वही दोष को हेत ।
तैसे स्वाश्रय आतमा, निर्मल भी मल लेत ।।७।।
नाराच छन्द
जटानि गंग इंदु को, शिवारधंग धार हो ।
भुजंग भंग को अहार, हार मार मार हो ।
त्रिशूल डौंर धूर धार, रुंडमाल आवृतम् ।
इति विभूति वार हो, तथापि मैं शिवाकृतम् ।।८।।
सवैया छन्द
एक शरीर सम्बन्ध हुते, जन्मांतर की गणती कछु नाहीं ।
ता पर हो अनुराग करै, सुत मात पिता तरुणी धन माहीं ।
सार असार विचार तभी, तजि सार असार विषै लपटाहीं ।
फेर कहै हम जीवन मोक्ष सु, ए कलि काल के लक्षण आहीं ।।६।।
ग्रन्थ अपार विचार विचार, गँवार महामद के सुख झूला ।
पण्डित है विचरै भव में, निज प्रोजन डारि दियो अनुकूला ।
औरन को उपदेश बतावत, आप बँध्यो जैसे गंड को झूला ।
सुन्दर ऊपर ते बहु दीसत, भीतर यों जिंव किंसुख फूला ।।१०।।
देह शृंगार अहार रजोगुण, मूढ़न संग विचित्रत मन्दर ।
नारि निरूपण काव्य जु है पुनि, मैथुन आठ जु ग्रंथन अन्दर ।
कामन को फल देवन लेवन, कंद्रप क्रोध लोभादि कलंदर ।
जो बड़भाग विराग चहै, तव त्याग दए इति आदिक सुन्दर ।।११।।
काम कहै मम राखत जे, तिनकी रिषिया तिन देव करेंगे।
जे मम त्याग कुभूमि करै, तिन देव कुपै तिन सूख हरेंगे ।
ठौर नहीं तीन लोक विषे, तृणयों श्रम है श्रम पुंज धरेंगे ।
जारत है तित ताप तिन्है, मम धारत आरत सिंधु तरेंगे ।। १२।।
चंचल संगति ते चित चंचल, अंचल दाग लगै किल खासों ।
तासों कदाचित बांचत ना, अनथा नहिं बाचत कोटि कलासों ।
अमृत पान कलाल गृहे, पर शराब सभी अकलासों ।
नीच के संग ते मीच भली, परमारथ बीच विरोध न मासों ।।१३।।
ढिग छैलते मैल लगै दिलको, तिहिं गैल सुधी न कभी पर है ।
मधु पान समान फियान तिसे, हरदयाल कहै विष को सर है ।
जिहिं हेरनते हिरदा हित है, प्रश्नोत्तर ते उर को फर है ।
खलु चंचल संगति वांग हिमाचल, जो पर है गल है गल है ।।१४।।
है रघुवीर हृदे हम जानत भी, भवभोग सरोग बुरेते बुरे ।
पर पूरब पापन के बल ते, मन मोर पदारथ और दुरे ।
हम मो रत जो रत ना रूच मों, मुर है विषया मुँह फेर जुरे ।
बहुबार जुहार हरी वर दे, तब छोरि कहूं नहिं चित फुरे ।। १५।।
ललित छन्द
तनुरथ मनरथ वाही जानो, प्रबल दुष्ट इन्द्रिय है घोरे ।
मनरथ वाही इन्द्रिय अश्वनि, शुभ मारग में बल करि टोरे ।
शोभत देह सियंदन माहीं, जीवातम को परमातम जोरे ।
अच्युत पूरण काम स्वामी, भव विष्णु वही जो दुनिया छोरे ।।१६।।
कवित छन्द
पुण्यनि को आरी है कि पापनि की क्यारी है कि, कीरति कुहारी किधों, धन की कटारी है ।
शान्ति को बुहारी है कि, क्रान्ति को कुठारी वह, कृतांत दूती भारी है कि, कुल को अँगारी है ।
चिन्ता की मतारी है कि, छल में मदारी है कि, रोग की पिटारी है कि, कलह दुआरी है ।
गुण कूप घारी किधों, ज्ञान बटपारी ऐसी, नारी व्यभिचारी याते, राखै गिरधारी है ।।१६।।
कौतुक निमित्त कहूं, जन जिन मोल लीनो । गुणागुण चीनो खेद, मोद भयो जीनो है ।
कह्यो काम आंखो झट, करै हट देत पेखो । भयो धोखो भारी मन, सुता मंत्र लीनो है ।
अग्र गाडीदार गुरु, यापै रे चढोतर तूं कह्यो धनी मान्यो याते, भूतबल पीनो है ।
कै स्वरूप लावै के स्वरूप गीत गावै ऐसे संत जनो निज मन भूत बश कीनो है ।।१८।।
दोहा छन्द
रघुपति गणपति वाकपति, तिन प्रति नित प्रति बंद ।
जाहि कृपा प्रतिबंध गण, प्रतिहत भए कुबंध ।।१६।।
सभाजित्य प्रताप ते, सभाजित्य पर आप ।
सभाजित्य को ढाप है, सभाजित्य को जाप ।।२०।।
कवित छन्द
तनु को पवित्र करि, मन को पवित्र करै, तीर्थ असनान को, जहान यश जान है ।
मन को विशुद्ध करि, जीव को प्रबुद्ध करै, तीरथों के यश का भी, ग्रंथोद्वारा ज्ञान है ।
ताते सभाजित्य ग्रंथ, हरदयाल मोक्ष पंथ, भेदे चिद् जड़ ग्रंथि, महा बुद्धिवान ।
जैसे ऊँच नीच मीच, काशी बीच मोक्ष लहे, तीनो देव वर दीनो, सोला तीनो मान है ।।२१।।
शास्त्रीय प्रमाण की सत्याता दोहा छन्द
‘वेद शास्त्र युग *काल त्रय, “सुर नर वा द्वय लोक ।
है प्रमाण उन्नीस में, मुक्त द्वार शिव ओक ।।२२।।
रचना काल एवं कविजनों से सवैया छन्द
नहिं शुद्ध अशुद्ध को शुद्धि परी, मम बुद्धि अशुद्ध हुती अघधामा ।
हरदयाल विरुद्ध जु है वर्णारथ, शुद्ध करो तुम है कवि स्वामा ।
नभ नाग सिधी शसि संबत सावन, मंगल तिथि छठी पखशामा ।
चहुनी पुर माहिं आरंभ करयो इति, श्री लव धाम सभाजित नामा ।।२३।।
दोहा छन्द
नऊ सवैये सोरठिक, त्रि कवित ललित हु एक ।
दोहे पांच नराच द्वे, छन्द इकीश विवेक ।।२४।।
ग्रन्थ उदरभेदन
इति श्री सारूक्तावली, पंद्रस मिश्रित पाठ ।
सभाजित्य के छन्द सब, (२१३)दौसौ पांडव आठ ।।२५।।
।।इति श्री सारूक्तावली पंचदशोऽध्याय समाप्त ।। कवि हरदयाल जी के दोहे
सवैया छन्द
नहीं शुद्ध अशुद्ध की शुद्ध परी, मम बुद्धि अशुद्ध हुती अघ धामा ।
हरद्याल विरुद्ध जु है वर्णारथ, शुद्ध करो तुम है ! कवि स्वामा ।।
नभ० नागः सिद्धि८ शशि१ (१८६०) संवत्, सावन मंगल तिथि छड्डी पख श्यामा ।
चहुँनीपुर मांहि आरम्भ करियो, इति श्री लव धाम सभाजित नामा ।।२६।।